कुंड्ली में रोग देखने के स्वर्णिम सूत्र

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में कैसा भी रोग जन्म ले रोग की प्रकृति चाही कैसी भी क्यों न हो, उसका सीधा संबन्ध हमारे पूर्व संचित कर्मों के साथ अवश्य रहता है।

इसलिए बहुत से लोग जीवन भर संयमी जीवनयापन करते रहने, आचार-विचार का पूरा पालन करते रहने, अशुद्ध आहार, गलत खानपान एंव मादक द्रव्यों से पूर्णतः परहेज रखने के बावजूद समय-बेसमय नाना प्रकार के रोगों के ग्रास बनते रहते हैं। इसी तरह कुछ लोग अपने पूर्व संचित कर्मों के अनुसार कई तरह के जटिल रोगों (Complicated Diseases) का शिकार बनकर दीर्घ अवधि तक उनकी यातनाएं झेलने पर मजबूर होते है।

इनके विपरीत बहुत से लोग ऐसे भी देखे जाते है जो जीवन भर ऊँट-पटांग खाते-पीते रहते है, अमर्यादिति जीवनयापन करते है, तंबाकू, बीडी, सिगरेट, मदिरा, पान आदि का सेवन करते रहने के बावजूद पूर्णतः स्वस्थ्य एंव निरोगी जीवन जी लेते है

दरअसल, ज्योतिष शास्त्र में अनेक रोगों का संबन्ध व्यक्ति के पूर्व जन्म के संचित कर्मों के साथ स्थापित किया गया है। अतः जीवन की अन्य घटनाओं की तरह ही व्यक्ति के शरीर में जन्म लेने वाले रोग, रोगों की गंभीरता या साध्यता-असाध्यता, रोग के ठीक होने या असाध्य गंभीर बनते जाने अथवा रोग के मृत्यु कारक सिद्ध होने का संबंध पूर्व जन्म के कर्मों के साथ स्थापित किया गया है।

इसी तरह व्यक्ति के जीवन का अन्त किसी दुर्घटना, युद्ध,  हत्या या पानी में डूबने से होगा या भूकंप आदि के दौरान उसे अकाल मृत्यु की प्राप्ति होगी, जैसी अनेक बातों का पता व्यक्ति की जन्म कालीन ग्रह स्थिति, ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा ग्रहों की गोचर स्थिति और प्रश्न कुंडली आदि के आधार पर सहजता से लगाया जा सकता है।

लग्न और लग्नेश

1. कुंडली में लग्नेश की स्थिति जितनी अच्छी होगी व्यक्ति का स्वास्थ्य उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि लग्न भाव ही स्वास्थ्य से संबंधित है और लग्नेश इसका स्वामी है। सूर्य इस भाव का कारक है। अतः लग्न, लग्नेश तथा सूर्य इन तीनों की स्थिति जितनी अच्छी होगी, जातक का स्वास्थ्य उतना ही अच्छा होगा – यह निश्चित है।

2. लग्न में जब षष्ठेश या अष्टमेश पड़ा हो, तो 18 वर्ष से पूर्व स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

3. लग्नेश का षष्ठ, अष्टम या कुछ हद तक द्वादश में होना, रोगकारक अन्य योगों में सहयोगी सिद्ध होता है। उपरोक्त भावगत निर्बलता के साथ कुछ दूसरी स्थितियां भी हैं, जो कि लग्न या किसी भी भावेश के दुर्बल होने का कारण हो सकती हैं। कुछ कारण निम्न हैं, जो लग्न की स्थिति को समझने में पाठकों के लिए सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।

3. लग्नेश का अस्त होना – जैसा कि पाठक पूर्व के लेखों में पढ़ चुके हैं, सूर्य से एक निश्चित दूरी तक निकट रहने पर ग्रह को अस्त माना जाता है। यह अंशात्मक अंतर भिन्न-भिन्न ग्रहों के लिए पृथक् है । यह प्राचीन मत है, लेकिन आधुनिक मत से जब कोई ग्रह सूर्य से 3 अंश या इससे न्यून अंशों पर हो, तो उसे अस्त मानना चाहिए। लग्नेश जब अस्त हो, तो रोगकारक ग्रहों का फल शीघ्रता से और अधिक मात्रा में मिलता है।

4. लग्न और लग्नेश पर पाप ग्रहों की दृष्टि – शनि, मंगल और राहु में से एक या अधिक ग्रह जब लग्न और लग्नेश पर संयुक्त दृष्टिपात करें, तो वे लग्न अर्थात् शरीर को क्षति पहुंचाते हैं । लग्न के अलावा भी जिस किसी भाव पर यह योग बने, तो उस भाव के शुभ फलों में बाधाओं का सामना करना होता है। शनि की संयुक्त दृष्टि को मैंने विशेष अनिष्टकारी पाया है।

5. अशुभ भावों से राशि परिवर्तन योग – जब दो ग्रह परस्पर एक दूसरे की राशि में संस्थित हों, तो इसे राशि परिवर्तन योग कहा जाता है। लग्नेश जब द्वितीयेश, षष्ठेश, सप्तमेश या अष्टमेश से राशि परिवर्तन करे, तो यह स्वास्थ्य के लिए सामान्य बुरी स्थिति है । उपरोक्त भावों के स्वामियों से राशि परिवर्तन योग का नकारात्मक फलों को देने का हेतु यह है कि रोगकारक भाव लग्न अर्थात् शरीर पर हावी हो जाते हैं।

लग्नेश का रोग (षष्ठ) में स्थित होना तो रोगकारक है ही, साथ ही रोग (षष्ठेश) का लग्न में होना, शरीर और रोग के बंधन को स्थायित्व देता है। यही सिद्धांत द्वितीय, सप्तम या अष्टम के संबंध में है।

रोग, ऋण और शत्रु का भाव है – षष्ठ भाव

षष्ठ भाव को रोग, ऋण और शत्रु का भाव कहा गया है। इसमें पाप ग्रह बली होते हैं। यदि षष्ठस्थ पाप ग्रह निर्बल हों, तो अपनी प्रकृति के अनुसार रोग का सृजन करते हैं। ग्रहों से संबंधित रोगों की सारणी से यह जाना जा सकता है कि कौन-सा ग्रह क्या रोग देगा ।

  • जब कोई ग्रह षष्ठ में शत्रु राशि में या नीचगत हो, तो उसे निर्बल मानना चाहिए।
  • स्वक्षेत्री, उच्चस्थ या मित्र की राशि में पाप ग्रह यदि षष्ठ में हो, तो बली होता है। ऐसा जातक स्वस्थ और शत्रुहंता होता है।

अर्थात् षष्ठगत पाप ग्रह शुभ फल देते हैं और सौम्य ग्रह रोगकारक होते हैं। यद्यपि षष्ठ में पाप ग्रह शुभ होते हैं, लेकिन इनको बली होना चाहिए। यदि षष्ठगत पाप या क्रूर ग्रह निर्बल हों, तो प्रायः शुभ नहीं होते ।

मान्यता है कि जब षष्ठेश लग्न में हो, तो जातक स्वस्थ रहता है, लेकिन प्रायः यह अनुभव में सिद्ध नहीं होता है। जिन लोगों के जन्मांग में षष्ठेश लग्नगत हो, वे प्रायः किसी-न-किसी रोग से ग्रस्त रहते हैं ।

रोग की गंभीरता का विचार लग्न की स्थिति से करना चाहिए। यदि लग्नेश निर्बल होने के साथ ही रोगकारक भावों और ग्रहों से युति करता है, तो शरीर में रोगों की मात्रा बढ़ी चढ़ी रहेगी। एक आयु खंड के बाद जातक शारीरिक व्याधियों के कारण आर्थिक और सामाजिक क्षतियां भी उठा सकता है। लग्न और षष्ठेश का राशि परिवर्तन योग भी दुर्बल शारीरिक स्थिति का प्रमाण है।

आचार्यों ने षष्ठ को रोग का भाव कहा है । अतः रोग के होने न होने में षष्ठ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अन्य सभी पक्षों का विचार कर चुकने के बाद षष्ठ पर विचार करने से निर्णय क्षमता में वृद्धि होती है ।

सारांश के तौर पर ग्रहण करना चाहिए कि षष्ठ और षष्ठेश का बली होना रोग, ऋण और शत्रु का नाश करता है । निर्बल होने पर स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है ।

चंद्रमा की स्थिति

स्वास्थ्य के संबंध में चंद्रमा की स्थिति दूसरे सभी ग्रह योगों की तुलना में महत्त्वपूर्ण है। चंद्रमा यदि पाप ग्रस्त हो, तो इसकी रोग निरोधक क्षमता का ह्रास होता है। पापी होने का दोष चंद्रमा को सर्वाधिक लगता है, फिर पापी ग्रह चाहे कारक ही क्यों न हो।

यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि चंद्रमा पर पाप प्रभाव को देखते हुए हमेशा नैसर्गिक पाप ग्रहों का विचार करना चाहिए; जैसे- सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु नैसर्गिक पाप ग्रह हैं। जन्मांग में शनि और मंगल यदि केंद्रों और त्रिकोणों के स्वामी होंगे, तो भी चंद्रमा के लिए पापी ही माने जाएंगे।

उपरोक्त के अलावा भी कुछ स्थितियां हैं, जो कि चंद्रमा को दोषयुक्त बनाती हैं। मैं यहां कुछ प्रधान ग्रह योगों का वर्णन कर रहा हूं, जो कि चंद्रमा को निर्बल बनाने में सहायक हैं ।

  • चंद्रमा जब चतुर्थ, अष्टम या द्वादश हो, तो निर्बल होता है।
  • चतुर्थ चंद्रमा माता के लिए और अष्टमस्थ चंद्रमा स्वयं के लिए अशुभ है।

चंद्रमा से पाप ग्रहों की युति का अर्थ एक ही राशि में चंद्रमा के साथ पाप ग्रहों का होना है, लेकिन चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश पाप ग्रह होना भी बालारिष्ठ करता है। यह स्थिति अर्थ के साथ स्वास्थ्य की भी हानि करती है ।

सूर्य और चंद्रमा को एक-एक राशि का स्वामी माना गया है। चंद्रमा कर्क राशि का प्रतिनिधित्व करता है। कर्क राशि में पाप ग्रह हो, तो चंद्रमा स्वयं पापी हो जाता है। खासकर राहु का कर्क में स्थित होना चंद्रमा के बल को नष्ट करता है। इस स्थिति में चंद्रमा जिस भाव में स्थित होगा, उसकी हानि करेगा ।

चंद्रमा की राशि कर्क और चंद्रमा पर जब एक से अधिक पाप ग्रहों की संयुक्त दृष्टि हो, तो चंद्रमा के बल का नाश होता है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा को दूसरे लग्न की संज्ञा दी गई है। यदि चंद्रमा निर्बल है, तो निश्चित रूप से शरीर को व्याधि देता है। कर्क पर जितना अधिक पाप प्रभाव होगा, उसी अनुपात में निर्बलता आएगी।

राशियों की दृष्टि से मंगल और शनि की राशियां चंद्रमा के लिए अशुभ हैं। पाप राशि और पाप भाव का प्रभाव संयुक्त होना चंद्रमा के लिए नकारात्मक स्थिति है। स्वच्छ और निर्मल चंद्रमा वही है, जो पाप ग्रहों से पूर्णतः मुक्त हो और सूर्य से न्यूनतम दो भाव पृथक् हो । ऐसा चंद्रमा दूसरे ग्रहों की स्थितियों से बनने वाले रोग कारक योगों को नष्ट करता है।

हालांकि स्पष्ट कर दिया गया है कि चंद्रमा को सूर्य से न्यूनतम 70 अंश दूर होना चाहिए। रोगों के संदर्भ में इस योग का बहुत महत्त्व है, इसलिए यहां दोहरा रहा हूं। चंद्रमा मन का कारक है। यदि मानसिक क्षमता अच्छी होगी, तो हम रोगों से संघर्ष कर पाने में सक्षम होंगे।

यह केवल किताबी तथ्य नहीं है। यदि आप उन जन्मांगों की एक सूची बना लें, जिनके कि चंद्रमा पक्षबली हो (सूर्य से पर्याप्त दूर हो), तो आप पाएंगे कि इन लोगों में अद्भुत जिजीविषा होती है। यदि दूसरे योगों के कारण ये रोगग्रस्त हों, तो भी इनकी जीवन शैली से आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। यह चमत्कार पक्षबली चंद्रमा का है ।

संक्षेप में यह स्मरण रखें कि सूर्य और चंद्रमा के मध्य जितनी अधिक दूरी होगी, उतनी ही शुभ होगी। खास बात यह है कि यह पृथकता स्वास्थ्य के साथ आर्थिक सबलता भी प्रदान करती है।

कुंड्ली में रोगी अंग ज्ञात करने का सूत्र #1

मेष आदि राशियाँ तथा लग्नादि भाव क्रमश सिर, मुख आदि हमारे शरीर के अगों की प्रतीक है। हमारे के शरीर के अंगो का प्रतिनिधित्व राशियाँ तथा भाव निम्न प्रकार करते हैं:-

राशि संख्यास्वामीभाव सख्यास्वामीअंग
1मंगल1राशि अनुसारसिर
2शुक्र2राशि अनुसारमुख  
3बुध3राशि अनुसारगला, बाजू
4चंद्र4राशि अनुसारछाती
5सूर्य5राशि अनुसारपेट
6बुध6राशि अनुसारअन्तड़ियाँ
7शुक्र7राशि अनुसारमूवेन्द्रिय
8मंगल8राशि अनुसारअण्डकोष
9गुरु9राशि अनुसारनितम्ब
10शनि10राशि अनुसारघुटने
11शनि11राशि अनुसारनिचली टाँग
12गुरु12राशि अनुसारपाँव

जब एक ही अंग को दर्शाने वाले भाव अथवा राशि तथा उनके स्वामियो पर पाप प्रभाव होता है तो पीडित अंग मे कष्ट होता है। जब चार के चार प्रतिनिधित्व करने वाले अंग पीडित हो तो कष्ट निश्चित हो जाता है। जैसे सख्या 6 की राशि कन्या, उसका स्वामी बुध, छठा घर तथा उसका स्वामी यह चारो पीडित हो तो अन्तड़ियो मे कष्ट कहना चाहिये।

उदाहरण – इस व्यक्ति को हरनिया (Hernia) का रोग है। हरनिया रोग में अन्तड़ियां अपना स्थान छोड़ देती है। दूसरे शब्दों में अन्तड़ियों पर पृथक्ताजनक पाप प्रभाव होना चाहिये। अब काल पुरुष में अन्तिड़ियों के चार प्रतिनिधि होंगे। (i) छठा स्थान, (ii) इसका स्वामी शुक्र, (iii) छठी राशि कन्या, (iv) छठी राशि का स्वामी बुध, इन चारो पर पृथक्ताजनक प्रभाव होना चाहिये।

उदाहरण – काल पुरुष के सातवे अग के पीडित होने का एक दुर्लभ उदाहरण नीचे दिया जा रहा है। इस व्यक्ति के वीर्य मे जीवित कीटाणुओ (Spermatazoon) का अभाव है। देखिये लग्न मेष होने के कारण शुक्र न केवल सप्तम राशि का स्वामी है बल्कि सप्तम भाव का भी। ऐसा शुक्र दो-दो ग्रहो के पापमध्यत्व अर्थात् शनि, सूर्य तथा मगल, राहु के बीच मे पड़ा है। अतः काल पुरुष के दो अंग पीडित हुए।

इसी प्रकार इन्ही चार पापी ग्रहो का प्रभाव सात सख्यक भाव तथा सात संख्यक राशि पर पड रहा है क्योकि दो पापी ग्रह शनि तथा सूर्य की दृष्टि अष्टम पर और दो पापी ग्रहो, मगल तथा राहु की दृष्टि षष्ठ स्थान पर पडने के कारण सप्तम भाव तथा सप्तम राशि पाप प्रभाव मे आ गये है। इस प्रकार काल पुरुष के चारो के चारो अंग, जो वीर्य को दर्शात है, पाप प्रभाव मे पड गये और उक्त रोग की उत्पत्ति के कारण बने।

कुंड्ली में रोगी अंग ज्ञात करने का सूत्र #2

जब कोई ग्रह अनिष्ट स्थान मे हो और उस पर किसी शुभ ग्रह का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव न हो तो वह ग्रह “ऐकान्तिक” अर्थात् अकेला कहलाता है और निज धातु सबन्धी रोग को देता है। जैसे:-

1.   सूर्य नीच राशि का होकर अष्टम भाव मे हो और शुभयुत, शुभदृष्ट न हो बल्कि पापयुत, पापदृष्ट हो तो हड्डी के गलने आदि का रोग होते हैं।

2.   यदि चन्द्र अष्टम अथवा छठे अथवा द्वादश भाव मे स्थित हो और पक्ष बल मे हीन हो अर्थात् सूर्य के समीप हो, पापयुत अथवा पापदृष्ट हो परन्तु शुभयुत अथवा शुभदृष्ट न हो तौ मनुष्य को रक्तचाप (Blood Pressure) आदि रक्त सबन्धी रोग होगे।

3.   इसी प्रकार मंगल यदि अष्टम आदि अनिष्ट भावो मे स्थित हो, पापयुत अथवा पापदृष्ट हो परन्तु शुभयुत अथवा दृष्ट न हो तो मनुष्य को पट्टो के रोगो जैसे सूखा (Atrophy of the muscles) आदि से पीडित होना पडेगा।

4.   इसी प्रकार यदि बुध अष्टमादि अनिष्ट स्थानों में पापयुत अथवा पापदृष्ट परन्तु शुभ ग्रह की युति अथवा दृष्टि से रहित हो तो मनुष्य को बुध सम्बन्धी सास की नाली के रोग जैसे – दमा (Asthma) आदि होगे।

5.   इसी प्रकार यदि गुरु की स्थिति हो तो मेदा तथा जिगर के रोगों मनुष्य पीडित होता है।

6.   शुक्र की उक्त स्थिति मनुष्य को वीर्यहीन बना देगी।

7.   शनि की यही स्थिति मनुष्य को सन्निपात (paralysis) आदि रोगो से पीडित करेगी।

कोई भी ग्रह जब अष्टम आदि अनिष्ट स्थान में स्थित हो और किसी भी ग्रह के प्रभाव मे न हो अथवा केवल पाप प्रभाव मे हो तो वह अपना रोग देगा।

उदाहरण – यह कुण्डली एक व्यक्ति की है जिसे सूखा (Atrophy of the muscles) का रोग हुआ, यह रोग पट्टों (Muscles) के कारक मंगल की अनिष्ट भाव अर्थात् आठवे भाव में नीच होकर स्थित होने तथा रोगदाता शुक्र की दृष्टि में होने और अन्य प्रभाव से रहित होने के कारण हुआ।

कुंड्ली में रोगी अंग ज्ञात करने का सूत्र #3

प्रत्येक राशि मनुष्य के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करती है। जैसे मेष सिर, वृषभ मुख, मिथुन गला, बाजू, कर्क छाती, सिंह पेट, कन्या, अन्तड़ियाँ, तुला लिंग स्थान, वृश्चिक अण्डकोष, धनु नितम्व, मकर घुटने, कुम्भ जंघा का निचला भाग, मीन पाँव।

मेष कही भी पीड़ित हो थोड़ी बहुत सिर को कष्ट पहुँचायेगी, वृषभ कही भी पीड़ित हो मुख में कष्ट देगी इत्यादि। परन्तु यदि मेष लग्न में स्थित हो तो मंगल सिर का विशेष प्रतिनिधित्व करेगा।

इसी प्रकार वृषभ यदि लग्न मे स्थित हो तो शुक्र मुख का विशेष प्रतिनिधित्व करेगा इत्यादि। अतः लग्नेश शुक्र पर यदि पाप प्रभाव हो तो मुख में रोग का होना निश्चित समझा जायेगा।

इसी प्रकार मिथुन लग्नेश जब पीड़ित निर्बल हो तो सांस की नाली मे, लग्नेश चन्द्र ऐसा हो तो छाती में, लग्नेश सूर्य ऐसा हो तो पेट मे, कन्या लग्नेश बुध ऐसा हो तो अन्तडियो मे, तुला लग्नेश शुक्र ऐसा हो तो मूतेन्द्रिय मे, वृश्चिक लग्नेश मंगल ऐसा हो तो अण्डकोषो मे, धनु लग्नेश ऐसा हो तो नितम्बो मे, मकर लग्नेश ऐसा हो तो जानु मे, कुम्भ लग्नेश यदि ऐसा हो तो टाँग के निचले भाग मे और यदि मीन लग्नेश गुरु इस प्रकार निर्बल, नीच हो तो पाँव मे कष्ट अथवा रोग होता है।

आयु का भाव है – अष्टम भाव

अष्टम भाव को मृत्यु या आयु का भाव कहा गया है। यह स्वास्थ्य का प्रत्यक्ष द्योतक नहीं है। आयु और स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक हैं, अतः अष्टम के ग्रह योगों से स्वास्थ्य के संदर्भ में कुछ संकेत प्राप्त हो सकते हैं। अष्टम मृत्यु का संकेत तो देता ही है, साथ ही मृत्यु के कारणों पर भी अष्टम का ही अधिकार है।

अष्टम भाव से स्वास्थ्य का सीधा संबंध नहीं है, लेकिन मृत्यु का सीधा संबंध है । मृत्यु के कारणों की दो श्रेणियां हैं – एक है स्वाभाविक मृत्यु और दूसरी है अस्वाभाविक । स्वाभाविक मृत्यु वह है, जो कि उन रोगों के कारण होती है, जो आमतौर पर होते हैं । स्वाभाविक मृत्यु की श्रेष्ठ परिणति है वृद्धावस्था के कारण मृत्यु का होना ।

अस्वाभाविक मृत्यु वह है, जो कि किसी दुर्घटना, हथियार के प्रहार से या किसी घृणित रोग से हो । जब अष्टम में पाप ग्रह हों, तो अस्वाभाविक मृत्यु होती है। इसी प्रकार सौम्य और शुभ ग्रहों के होने से स्वाभाविक मृत्यु होती है। इस प्रकार आप अष्टम पर विचार से रोग की मूल प्रकृति के संबंध में कुछ संकेत प्राप्त कर सकते हैं।

निष्कर्ष के लिए समग्र अध्ययन करें

जैसा कि फलित सूत्रों में लिखा जा चुका है कि जीवन के किसी भी पक्षका अवलोकन करने के लिए कुंडली का समग्र अध्ययन आवश्यक है। केवल एक योग के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं है। यही सिद्धांत स्वास्थ्य के संदर्भ में भी है।

लग्न, षष्ठ, चंद्रमा और अष्टम के साथ ही दूसरे योगों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। निष्कर्ष प्राप्त करने से पूर्व गोचर, विंशोत्तरी दशा का अवलोकन भी करना होगा। यह सब फलित पर आपके अधिकार को बढ़ाएगा और आपके आत्मविश्वास में वृद्धि होगी।


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