फलादेश के सामान्य नियम
ससार की कोई भी समस्या हो उस का फलादेश ज्योतिशास्त्र तीन बातो का विचार करके करता है :-
(1) उपयुक्त भाव के विवेचन से, (2) उसी भावाधिपति के विवेचन से, (3) उसी भाव के कारक के विवेचन से।
- यदि भाव, भावाधिपति तथा कारक तीनो के तीनों निर्बल, पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो भाव सम्बन्धी बातो का अभाव अथवा नाश कहना चाहिये।
- यदि तीनो निर्बल पाप दृष्ट अथवा पाप युक्त होते हुए भी साथ ही शुभ दृष्ट अथवा शुभयुक्त भी है तो बड़ी कठिनता से प्रदर्शित वस्तु की प्राप्ति कहनी चाहिये।
उपर्युक्त सन्दर्भ मे इतना ध्यान रखना चाहिये कि यदि किसी भाव का कारक कोई शुभ ग्रह भी हो परन्तु यदि वह उस भावाधिपति से अथवा भाव से एक ही सीध से अथवा एकल पड़ा है तो विचार करते समय शुभ कारक ग्रह तथा भाव अथवा भावेश का एक साथ विचार करना चहिये न कि पृथक् पृथक्। इस बात को निम्नलिखित कुण्डली से स्पष्ट करते है ।

यह एक लडकी की कुण्डली है जिस का विवाह नही हो सका यद्यपि वह कुलीन, सुशील, तथा सुन्दर है। यहाँ विचारणीय विषय तीन है सप्तम भाव, सप्तमेश तथा गुरु। ये तीनो स्त्रियो के लिये पति सूचक होते हैं ।
अब यदि आप केवल सप्तम, सप्तमेश मंगल पर पहले विचार करेग तो आप कह देगे कि एक प्रबल गुरु की जब सप्तम भाव तथा उसके स्वामी दोनो पर शुभ दृष्टि पड रही है तो कोई कारण नही कि लडकी अविवाहित रहे। परन्तु ऐसा विचार उपयुक्त न होगा।
क्योकि इस कुण्डली मे सप्तम, सप्तमेश तथा सप्तम भाव का कारक तीनो एक सीध मे (१८० डिग्री पर) अत: तीनो पर एक साथ विचार उचित रहेगा। जब हम तीनो अग अर्थात् सप्तम भाव, सप्तमेश तथा गुरु पर एक साथ विचार करते है तो देखते है कि तीनो पर सूर्य का “पृथक्ता जनक” तथा पापात्मक प्रभाव है और साथ ही तीनो के तीनो अगो (Factors ) पर शनि तथा केतु का या तो, पापमध्यत्व है या इनकी “पार्श्वगामिनी ” दृष्टि उक्त तीनो अंगो पर है।
यद्यपि शुक्र का प्रभाव भी उक्त तीनो अंगो पर है परन्तु नही, शुक्र को भी सप्तमेश ही समझना चाहिये क्योकि “भावात्” भावम् के सिद्धान्तानुसार सप्तम से सप्तम अर्थात् लग्न का स्वामी होने के कारण शुक्र पति अथवा विवाह का द्योतक माना जावेगा और उस पर भी सूर्य, शनि तथा केतु का पाप प्रभाव माना जायेगा* इस प्रकार पीडादायक और पीड़ित ग्रहो का क्षेत्र निश्चत करके फल कहने से सत्यता प्रकट होती है।
बहुधा प्रत्येक ग्रह पर कुछ न कुछ पाप प्रभाव पड जाता है। अत यह बात स्पष्ट ही है कि जब कोई ग्रह किसी ऐसे भाव मे स्थित होगा जिस का कि वह कारक है तो वह पाप प्रभाव न केवल विचारणीय भाव पर ही होगा बल्कि उस भाव के कारक पर भी होगा ऐसी स्थिति में उस भाव का पीडित होना और अनिष्ट फलदायक होना स्पष्ट ही है।
जैसे पचम भाव अर्थात् पुत्र भाव मे ” पुत्र कारक ” गुरु पडा हो तो थोडा सा भी पाप प्रभाव जब पंचम भाव पर पड़ेगा तो वह गुरु पर भी पड़ेगा। दूसरे शब्दो मे पुत्रभाव तथा पुत्र कारक दोनो पीडित हो जायेगे।
फल, पुत्रप्राप्ति में बाधा होगा यही कारण है कि ससार मे “कारको भावनाशाय ” की लोकोक्ति प्रचलित है। परन्तु यह लोकोक्ति केवल उसी दशा मे सत्य सिद्ध होगी जिस दशा मे कि भाव तथा कारक पर पाप प्रभाव विद्यमान हो।
इसके विपरीत जब भाव तथा कारक पर शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा प्रभाव होगा तो फल बहुत अच्छा निकलेगा, क्योकि भाव तथा कारक दोनो उस शुभष्ट से लाभान्वित होगे। इस लिये “कारको भावनाशाय ” की लोकोक्ति कोई पूर्ण सत्य नही है, इस बात का ध्यान रखना चाहिये ।
पृथक्ताजनक ग्रह
(1) सूर्य, शनि तथा राहु ये तीन ग्रह मुख्यरूप से “पृथक्ताजनक” ग्रह है अर्थात् इन ग्रहो मे से दो अथवा तीनों का जिस भाव आदि पर युति अथवा दृष्टि से प्रभाव पड़ेगा, मनुष्य को उस भाव आदि से संबद्ध बातों से पृथक् होना पड़ेगा। उदाहरणरूप से,
- यदि सूर्य, राहु अथवा सूर्य, शनि अथवा राहु, शनि, अथवा सूर्य, राहु, शनि का प्रभाव द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर पडे तो मनुष्य अपने कुटम्ब (परिवार) से पृथक् हो जाता है जैसे कि सन्यासी लोग हो जाते हैं।
- यदि इन पृथक्ताजनक ग्रहो का प्रभाव तृतीय भाव तथा उसके स्वामी पर हो तो मनुष्य अपने लघु भ्राता से अलग हो जायेगा।
- यदि यह प्रभाव चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी पर पड़े तो मनुष्य घर-बार भूमि-जायदाद से दूर चला जाता है।
- यदि यह प्रभाव पंचम भाव पर तथा उसके स्वामी पर हो तो मनुष्य अपने बच्चो से पृथक् हो जाता है, उसके गर्भ नष्ट हो जाते हैं।
- यदि यह प्रभाव सप्तम, सप्तमेश पर हो तो मनुष्य अपनी पत्नी अथवा पत्नी अपने पति से पृथक् हो जाती है – जैसा कि तलाक (Divorce) अथवा कानूनी पृथक्ता (Judicial separation) मे होता है।
- जब यह प्रभाव दशम भाव, दशमेश तथा सूर्य पर पडता है तो मनुष्य राज्यपाट को छोड देता है या वह उससे छिन जाता है; आदि।
राहु और केतु की दृष्टि तथा उसका महत्त्व
(1) राहु और केतु की भी दृष्टि होती है और इस दृष्टि का बहुत महत्व है। यदि इन छायाग्रहो की दृष्टि का ध्यान कुण्डली की परीक्षा के समय न रहे तो कई एक दशाओ मे फल वास्तविकता से कोसों दूर निकलता है। राहु और केतु जिस भाव में स्थित होते है उससे पचम तथा नवम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं अर्थात् वहा अपना असर या प्रभाव डालते हैं। राहु का प्रभाव शनि की भाँति पृथक्ता-जनक” “अन्धकारात्मक” “विषैला” “अभावात्मक” “विलम्बात्मक” आदि होता है और केतु का प्रभाव मगल की भाति “क्रूरतापूर्ण” ” मारणात्मक” आदि होता है।
(2) उपर्युक्त प्रभाव तब होता है जब राहु और केतु किसी ग्रह के प्रभाव मे नही होते परन्तु युति अथवा दृष्टि द्वारा इन छायात्मक ग्रहों पर जब कोई प्रभाव रहता है, विशेषतया अशुभ प्रभाव; तो ये ग्रह अपनी दृष्टि में उन ग्रहों का प्रभाव भी रखते हैं और जहाँ पर इनकी दृष्टि हो वहां उस प्रभाव को डालते है; जैसे, राहु तथा मंगल दशम भाव में स्थित हों तो उनकी पचम दृष्टि द्वितीय भाव पर पडेगी और नवम दृष्टि छठे पर। इसी प्रकार इसी स्थिति मे केतु तथा मगल का प्रभाव केतु से पचम तथा नवम अर्थात् अष्टम तथा द्वादश भावो पर पडेगा ।
(3) राहु तथा केतु से अधिष्ठित राशि के स्वामी का प्रभाव, युति अथवा दृष्टि द्वारा जहाँ भी पड रहा हो, उस प्रभाव में राहु अथवा केतु का क्रमश प्रभाव रहता है। अर्थात् राहु-अधिष्ठित राशि का स्वामी शनि की भाँति रोग, पृथक्ता, विलम्ब, अडचन, आदि उत्पन्न करेगा और केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी मंगल का प्रतिनिधित्व करता हुआ, अग्नि काण्ड, चोट, चोरी, मारण आदि घटनाओ को घटित करेगा, चाहे इन छायाग्रहो द्वारा अधिष्ठित राशियो के स्वामी नैसर्गिक शुभ ग्रह, गुरु आदि ही क्यो न हो।
अतः गुरु आदि शुभ ग्रहो की दृष्टि पर विचार करते समय इस बात पर भी विचार कर लेना चाहिये कि कही ये शुभ ग्रह राहु अथवा केतु से अधिष्ठित राशियो के स्वामी तो नही है।
“भावात् भावम्” का सिद्धान्त
जो संकेत (पुत्र, चिन्ता आदि) पंचम भाव देता है वही संकेत पंचम से पंचम भाव भी देता है। जो संकेत (भूमि आदि का विचार) चतुर्थ भाव देता है वही संकेत चतुर्थ से चतुर्थ अर्थात् सप्तम भाव भी देता है अर्थात् आप भूमि घर आदि का विचार सप्तम भाव से भी कर सकते है। जो विचार (रोग, रिपु का) आप षष्ठ भाव से करते हैं वही आप एकादश से, जो कि छठे से छठा है, भी कर सकते है अर्थात् ग्यारहवे भाव का स्वामी भी उसी प्रकार प्रहारात्मक आदि है, जिस प्रकार कि षष्ठेश। सप्तम भाव (स्त्री) का विचार आप सप्तम से सप्तम भाव के स्वामी अर्थात् लग्नेश द्वारा भी कर सकते हैं। आयु का विचार आप अष्टम भाव से करते है तो आयु का विचार आप तृतीय भाव से भी कर सकते हैं।
भाग्य अथवा पिता का विचार जहाँ आप नवम् स्थान से करते है वहाँ नवम से नवम अर्थात् पंचम भाव से भी कर सकते है। “राज्य” का विचार दशम भाव से होता है परन्तु दशम से दशम अर्थात् सप्तम से राज्य का विचार करना भी उपयुक्त ही है। एकादश भाव से आय (Income) देखी जाती है तो आय देखने के लिये आप एकादश से एकादश अर्थात् नवम भाव भी विचार में ले सकते है ।
यह है कि उपर्युक्त सिद्धान्त यह कहता है कि आप जिस संख्या के भाव पर विचार करे उससे उतनी ही संख्या आगे वाले भाव पर अथवा आरूढ भाव पर भी उसी सम्बन्ध मे विचार कर सकते है। उपर्युक्त सिद्धात को “भावात् भावम्” का सिद्धान्त कहते है।
कुछ अपवाद – यहाँ कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। जैसे द्वितीय भाव धन का है तो “भावात्भावम्” के सिद्धान्तानुसार यद्यपि द्वितय से द्वितीय अर्थात् तृतीय भाव धन का भाव किया जाना चाहिये परन्तु ऐसा नही करना चाहिये क्योकि द्वितीय तथा तृतीय मे अत्यन्त विरोध है।
इसी प्रकार तृतीय पर विचार करते समय हम तृतीय से तृतीय पर विचार नही करेंगे यदि उनके विचाराधीन गुणों मे विरोध हो। इसी प्रकार द्वादश स्थान का विचार भी एकादश स्थान (जो कि द्वादश से द्वादश है) से नही करना चाहिये। इन अपवादोको छोडकर अन्यत्र “भावात् भावम्” के सिद्धान्त का प्रयोग बहुत लाभप्रद रहता है ।
राशिस्थ ग्रह द्वारा राशीश के फल में परिवर्तन
ज्योतिष का साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस सिद्धात से परिचित है कि प्रत्येक राशि के स्वामी मे उसके अपने विशिष्ट गुण-दोष होते है। जैसे – धनु राशि का स्वामी सदा सर्वदा गुरु होता है और गुरु अपने विशिष्ट गुणो के अनुरूप ही कुण्डली मे फल देगा परन्तु हम यह कहना चाहते हैं कि जब किसी ग्रह की राशि किसी दूसरे ग्रह द्वारा अधिकृत होती है तो उस राशि का स्वामी अपना प्रभाव न दिखला कर उस ग्रह का प्रभाव डालेगा कि जो ग्रह उसकी राशि मे स्थित है। उदाहरणार्थ – मान लीजिये कि मगल, धनु राशि मे स्थित है, अब धनु राशि का स्वामी होने के नाते गुरु की दृष्टि मे शुभता होनी चाहिये थी परन्तु ऐसा नही है, गुरु इस दशा में मंगल के प्रभाव को लेकर फल देगा और जहा पर अपनी पचम, सप्तम अथवा नवम दृष्टि डालेगा वहां पर मंगल का प्रभाव पड़ रहा है, ऐसा समझा जावेगा ।
नीच राशि में नीच ग्रह का राशीश भी अधिक अनिष्ट सूचक
नीच ग्रह जिस राशि में नीच का होकर पड़ा है यदि उस राशि का स्वामी भी नीच राशि मे जा पड़े तो प्रथम नीच ग्रह जिस भाव स्थित हो उसको बहुत हानि पहुँचती है।
उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के लग्न मे सूर्य नीच का अर्थात् तुला राशि का होकर बैठा हो और नीच राशि तुला का स्वामी शुक्र पुनः द्वादश भाव में कन्या राशि मे नीच होकर स्थित हो तो प्रथम नीच ग्रह सूर्य जिस भाव मे स्थित है उसको अर्थात् लग्न को बहुत हानि पहुँचेगी, इस हानि का अर्थ व्यक्ति की अल्पायु इत्यादि लग्न सबन्धी बातों मे देखने को मिलेगा।
एक और उदाहरण लीजिये। मीन लग्न की कुण्डली में द्वितीय भाव मे मेष राशि में शनि नीच का होकर बैठा है और उस नीच राशि मेष का स्वामी मंगल पंचम भाव मे पुन नीच होकर स्थित है तो ऐसी स्थिति में द्वितीय स्थान की बातो को हानि पहुँचेगी और चूँकि द्वितीय और पचम मे ‘वाणी” एक साझी (Common) बात है, अत इस व्यक्ति की वाणी मे हकलाना, अस्पष्टता आदि कोई न कोई दोष अवश्य होगा।
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