मिथुन लग्न का फलादेश
मिथुन लग्न वाले जातक बुद्धिमान, वाक्पटु और कलात्मक स्वभाव के होते हैं, जो बुध ग्रह के प्रभाव के कारण बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं। वे जिज्ञासु, उत्साही और सामाजिक होते हैं। संचार के क्षेत्र में सफल होने की संभावना होती है और वे दूसरों की भावनाओं को समझने में माहिर होते हैं।
सूर्य
1. सूर्य तृतीयेश है अतः अशुभ है ।
2. यदि सूर्य गुरु की दृष्टि द्वारा बलवान् हो तो इस व्यक्ति को छोटे भाई की प्राप्ति होती है। इसका छोटा भाई साहसी, वीर, राज्यमानी होता है ।
3. यदि सूर्य एकादश अथवा दशम स्थान में हो तो मनुष्य बड़ा महत्त्वाकांक्षी (Ambitious) होता है तथा राजपुरुषों से सम्पर्क वाला होता है।
मिथुन लग्न में सूर्य महादशा का फल
यदि सूर्य बलवान हो तो वह अपनी दशा अन्तर्दशा में मनुष्य को बहुत प्रभावशाली और सक्षम बना देगा। उसके छोटे भाई प्रायः ऊंचे स्तर को प्राप्त होंगे। उसके मित्र ऊंचे-ऊंचे राज्याधिकारी होंगे। उसके पास खूब बाहुबल होगा। उसकी आयु लम्बी होगी। उसके नीचे काम करने वाले भी ऊंचे-ऊंचे स्तर के मालिक होंगे। ऐसा व्यक्ति उस मनुष्य का जान-बूझकर विरोध करता है जिसके त्रिक भाव में सूर्य स्थित होता है। ऐसे व्यक्ति का ससुर प्रायः उच्च पदस्थ अथवा बहुत प्रभावशाली होता है। जातक स्वयं विजयशाली होता है ।
यद्रि सूर्य निर्बल हो तो व्यक्ति इसकी दशा अन्तर्दशा में कायरता का परिचय देता है। उसके छोटे भाइयों को कष्ट होता है। वह मित्रों से धोखा खाता है, वह निर्बल और दीन हो जाता है । उसको अचानक भयानक कष्ट होता है जो मृत्यु सम होता है। उसके नौकर आदि उससे प्रायः विरोध करते हैं। ऐसे व्यक्ति की सुसराल साधारण घराने की होती है ऐसा व्यक्ति प्रायः पराजय को प्राप्त होता है, परन्तु सूर्य की दशा में उसको धन की कमी नहीं होती ।
चन्द्र
1. चन्द्र द्वितीयेश है। इसका फल इसके बल पर तथा स्थिति पर है । यदि बली है तथा शुभ स्थान में है तो धन देगा।
2. यदि चन्द्र बलवान् हो तो उच्च पदवी की प्राप्ति तथा धन की प्राप्ति होती है। आंखें सुन्दर होती हैं। यदि चन्द्र निर्बल हो तो मनुष्य निर्धन तथा कुटुम्ब से वैर रखने वाला होता है।
3. द्वितीयेश चन्द्र मारक सिद्ध नहीं होता । यद्यपि आयु भाव तृतीय से द्वादश भाव का स्वामी होने से चन्द्रमा मारकेश कहा जा सकता है, तो भी वह मारक का कार्य नहीं करता । इसका कारण चन्द्र का लग्न रूप होना है, परन्तु ऐसा तभी होगा जब चन्द्रमा पक्ष बल में बलवान् हो ।
4. चन्द्रमा और मंगल यदि एकादश भाव में हों और शनि नवम भाव में (कुंभ राशि में), तो विशेष धन प्राप्ति का योग बनता है । क्योंकि चन्द्र और मंगल धनेश और लाभेश होने के कारण धन द्योतक ग्रह हैं, अतः उनकी धन द्योतक भाव (एकादश) में स्थिति भी धनदायक सिद्ध होगी ।
यहाँ शनि भी नवम का फल करने के कारण (शनि की मूल त्रिकोण राशि नवम मे होगी) धन द्योतक होगा, इसलिए इसकी चन्द्र मंगल पर दृष्टि भी धन में कमी न करेगी, जिसके फलस्वरूप विशेष धन की प्राप्ति होगी ।

मिथुन लग्न में चन्द्र महादशा का फल
यदि चन्द्रमा बलवान हो तो धन में विशेष वृद्धि अपनी दशा भुक्ति में देता है, कोष में वृद्धि करता है । कुटुम्बियों से सुख देता है। इस अवधि में विवाह की भी संभावना रहती है । विद्या में उन्नति होती है । भाषण शक्ति तेज होती है। आंखों की ज्योति स्वस्थ रहती है। पुत्र को सम्मान प्राप्त होता है, भाई के सुख में वृद्धि होती है। खाने-पीने की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में और अच्छी प्राप्त होती हैं ।
चन्द्रमा यदि क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो मनुष्य के धन का नाश उसकी दशा अन्तर्दशा में होता है, कुटुम्बियों से अनबन हो जाती है। आंख में कष्ट रहता है । विद्या में हानि हो जाती है, विशेषतया जब चन्द्रमा राहु तथा शनि से पीड़ित हो, ऐसा पीड़ित चन्द्रमा जिह्वा का कोई दोष ला खड़ा करता है । स्त्री को महान् कष्ट होता है, भाइयों का व्यय होता है। अप्रिय भोजन और कभी-कभी विष भक्षण तक की नौबत आ जाती है ।
मंगल
1. मंगल षष्ठाधिपति तथा एकादशाधिपति है। दोनों अनिष्ट स्थान हैं । अतः मंगल बहुत अनर्थकारी है । इसका निर्बल होना ही अच्छा है अन्यथा ऋण आदि देता है।
2. मंगल का लग्न में स्थित होना सिर में चोट लगने का योग है, विशेषतया तब जबकि बुध पर भी मंगल का प्रभाव हो ।
3. एक तो मंगल हिंसाप्रिय है, फिर हिंसा स्थान (छठे) का स्वामी है, पुनश्च एकादश स्थान भी छठे से छठा होने के कारण हिंसात्मक ही है; अतः मंगल में बहुत हिंसा का समावेश हो जाता है। यदि केतु भी षष्ठ अथवा एकादश स्थान में पड़ा हो तो मंगल उग्रतम रूप में हिंसात्मक बन जाता है।
स्पष्ट है कि जितना-जितना अधिक इस मंगल का प्रभाव लग्नादि पर पड़ेगा, मनुष्य उतना उतना अधिक हिंसाप्रिय होता चला जाएगा। यदि ऐसा मंगल लग्न में (मिथुन राशि में) हो और चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो मनुष्य घातक (Murderer), लुटेरा आदि होता है।
4. यदि मंगल (1) भाव, (2) भावेश तथा (3) भावकारक तीनों पर अपना प्रभाव डाल रहा हो तो वह भाव रोगयुक्त विशेषतः चोटयुक्त डाक्टर द्वारा आपरेशन किया हुआ और उस भाव के जीवन की हानि का भी भय होगा।
5. यदि बुध एकादश में मंगल अष्टम में (मकर में) हो तो जातक डाकू-लुटेरा होता है।
मिथुन लग्न में मंगल महादशा का फल
यदि मंगल बलवान है तो मंगल की दशा भुक्ति में उसका शरीर स्वस्थ रहता है लेकिन चोट आदि लग सकती है। लाभ फिर भी अच्छा रहेगा। इस अवधि में धन की वृद्धि होती है ।
ऐसा मंगल शत्रुओं के अभाव को दर्शाता है, मनुष्य अजात शत्रु होता है, बल्कि उसको इस अवधि में शत्रु, चोरों, ठगों आदि से भी कुछ प्राप्ति हो जाती है ।
इस समय व्यक्ति किसी मुश्किल कार्य को करता है और उसमें सफलता के कारण नाम पाता है ।
यदि मंगल निर्बल और पाप ग्रहों द्वारा पीड़ित है तो ऐसा व्यक्ति मंगल की दशा भुक्ति में आर्थिक हानि उठावेगा । यह स्थिति स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली है ।
बुध
1. बुध लग्नेश और चतुर्थेश है । बुध केन्द्राधिपति होने से शुभ नहीं रहता, परन्तु लग्नाधिपति होने से शुभ हो ही जाता है। थोड़ा भी बली बुध अच्छा धन देता है । इस लग्न वाले यदि बुध बहुत निर्बल न हो तो बुद्धि के तीव्र होते हैं।
2. बुध यदि बलवान हो तो व्यक्ति अतीव बुद्धिमान् धनी, विविध भाषायें जानने वाला, जनप्रिय, बहुत काल तक माता का सुख पाने वाला, वाहनादि से युक्त होता है। यदि बुध निर्बल हो तो दुखी, निर्धन, मूर्ख, अल्प विद्या वाला, जनता विरोधी होता है ।
3. यदि बुध, सूर्य, शनि तथा राहु आदि पृथकता जनक ग्रहों के प्रभाव में हों तो ऐसा मनुष्य अपनी जन्म भूमि तथा जन्म स्थान से दूर रहता है। यदि चन्द्र पर भी यह प्रभाव हो तो माता का सुख बहुत कम पाता है । राज कर्मचारी का इस प्रकार से प्रभावित बुध बहुत बार स्थान परिवर्तन (Transfers) कर देता है।
4. यदि बुध और चन्द्र का सम्बन्ध चतुर्थ भाव से हो तो ऐसा व्यक्ति राजकार्यों (Politics) में भाग लेने वाला होता है ।

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5. इस लग्न वालों का बुध और चन्द्र पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो और शुक्र भी ऐसा ही हो तो व्यक्ति के पागल हो जाने का डर रहता है, क्योंकि पागलपन में आने वाले सभी अंग लग्न, चतुर्थ भाव, पंचमेश, बुध तथा चन्द्र निर्बल हो जाते हैं ।
6. लग्नाधिपति बुध त्वचा का द्योतक होता है, यदि निर्बल अथवा पाप प्रभाव से पीड़ित हो तो त्वचा के रोग देता है ।
7. सूर्य और बुध तृतीय भाव में स्थित हों, तो बुध अपनी दशा भुक्ति में बहुत धनदायक आदि सिद्ध होता है। बुध के सम्बन्ध में मौलिक बात जो सदा ध्यान में रखने योग्य है, वह यह है कि बुध ने वैसा फल करना है जैसा कि उस ग्रह का है, जिसके साथ बुध बैठा है। सूर्य यहाँ नैसर्गिक पापी होकर निज राशि में तृतीय भाव में स्थित है । चन्द्र की भाँति सूर्य भी एक लग्न है । इसको भी तृतीयेश होने का दोष नहीं लगता, अतः लग्न रूप से सूर्य को बलवान् समझना चाहिए। ऐसे शुभ ग्रह के साथ बुध स्थित होकर शुभ फल ही को करेगा ।
8. यदि बुध एकादश भाव में (मेष में) हो, तो जातक का निश्चय ही अपने बड़े भाई से विरोध होगा । क्योंकि मंगल बुध को अपना शत्रु समझता है, इसलिए लग्नेश बुध जब जातक के निज (Self) का प्रतिनिधि होता हुआ मेष राशि में स्थित होगा, तो वह एकादश स्थान में पीड़ित होगा । एकादश स्थान चूंकि बड़े भाई का है, यह शत्रु स्थिति बड़े भाई से विरोध उत्पन्न करेगी।
स्मरण रहे कि यह विरोध बड़े भाई की ओर से होगा, क्योंकि बुध तो एकादश में जाकर एकादश (बड़े भाई) की सेवा में अथवा उसके अधीन है। पहल (Initiative) तो मंगल (एकादशेश) बड़े भाई की ही होगी ।
मिथुन लग्न में बुध महादशा का फल
यदि बुध बलवान हो, पर किसी ग्रह से प्रभावित न हो तो अपनी दशा भुक्ति में जातक को मान तथा धन देता है । वह इस अवधि में जातक को शास्त्रों का अध्ययन करवाता है और इसकी बुद्धि को तीव्र रखता है।
यदि बुध निर्बल और पाप दृष्ट हो तो बुद्धि की हानि करता और अपनी दशा भुक्ति में जातक को मस्तिष्क के रोगों जैसे (Meningitis) पागलपन इत्यादि में ग्रस्त किये रखता है। इस अवधि में जातक के मान को हानि होती है और उसके धन का नाश भी होता है। इस समय जातक को किसी चर्म रोग का शिकार भी होना पड़ता है । इस अवधि में उसके हाथों में अथवा सांस की नली में कष्ट रहता है ।
गुरु
1. गुरु सप्तम तथा दशम भावों का स्वामी है । इसको केन्द्राधिपत्य दोष प्राप्त होता है । गुरु शुभता खो बैठता है परन्तु यह दोष स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है। धन के लिये इतना नहीं ।
2. गुरु यदि षष्ठ, अष्टम द्वादश, द्वितीय आदि भावों में स्थित होकर निर्बल हो तो महान् रोग देता है।
3. गुरु यदि बलवान हो तो में महान् राज्य कृपा अथवा राज्य की प्राप्ति होती है, क्योंकि गुरु दशम तथा दशम से दशम (सप्तम भाव का स्वामी होने के अतिरिक्त राज्य-कृपाकारक भी है। बलवान गुरु यश, राज्य, धन, आयु, परोपकार आदि सद्गुण तथा वस्तुएं प्राप्त करवाता है।
4. स्त्री की कुण्डली में गुरु, जो पति कारक है, स्वयं पति भाव का स्वामी भी बन जाता है। स्पष्ट है कि गुरु पर पड़ा हुआ प्रभाव पति के लिए जितना इस लग्न में होगा उतना और कही न होगा।
गुरु यदि बलवान हो तो स्त्री को पति का बहुत अधिक सुख प्राप्त होता है और पुरुष की कुण्डली में स्त्री की आयु दीर्घ होती है।
मिथुन लग्न में गुरु महादशा का फल
यदि गुरु बलवान हो और कुण्डली स्त्री की हो तो इससे बढ़कर अच्छी स्थिति स्त्री के लिए नहीं हो सकती। उसको दीर्घजीवी, चरित्रवान्, धनी पति मिलता है । इस अवधि में पुरुष जातक को राज्य और व्यापार दोनों में लाभ रहता है ।
यदि गुरु निर्बल और पीड़ित हो तो राज्य की ओर से बहुत दुःख मिलता है। नौकरी तक छोड़नी पड़ जाती है । मान हानि और धन हानि इस अवधि में होती हैं । इस गुरु की दशा भुक्ति में शारीरिक कष्ट विशेष रहता है और उसके कार्यों में अधार्मिकता आ जाती है।
शुक्र
1. शुक्र पंचमेश तथा द्वादशेश बन जाता है। शुक्र द्वादशाधिपति होने से पंचम भाव जिसमें शुक्र की दूसरी राशि तुला बैठती है, का फल करेगा, अर्थात् अतीव शुभ धनदायक सिद्ध होगा। जितना बली होंगा उतना अधिक धन देगा।
2. यदि शुक्र सप्तम स्थान में हो तो मनुष्य अतिशय विषयी होता है, क्योंकि भोग स्थानों के स्वामी का योग, भोग स्थान से एक भोगी ग्रह द्वारा हो जाता है।
3. बलवान् शुक्र बहुत कन्या (सन्तान) देता है। शुक्र निर्बल हो तो पुत्र नाश होता है, पुत्र से हानि पाता है तथा अपने गलत निर्णयों से नुकसान उठाता है ।
4. यदि शुक्र, मंगल और चन्द्रमा द्वितीय भाव में कर्क राशि में स्थित हों, तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में अच्छे धन को प्राप्त करवाता है । क्योंकि मिथुन लग्न वालों के लिए मंगल की मूल त्रकोण राशि लाभ भाव में पड़ती है, इसलिए मंगल धनप्रद ग्रह है।
इसी प्रकार चन्द्रमा धनेश होने से धनप्रद है और शुक्र पंचमेश होने से । तीनों की धन भाव में स्थिति पुनः धनप्रद है । हाँ, इतना ध्यान रहे कि चन्द्रमा सूर्य के समीप होकर क्षीण नहीं होना चाहिए।
मिथुन लग्न में शुक्र महादशा का फल
यदि शुक्र वलवान हो और लग्न मिथुन हो तो शुक्र की दशा भुक्ति में खूब धन की प्राप्ति होती है । पुत्र की ओर से भी सहायता मिलती है । परन्तु कुछ व्यक्तियों की दूसरी स्त्रियों से प्रेमवार्ता इस अवधि में चलती है ।
यदि शुक्र निर्बल और पीड़ित हो तो इसकी दशा भुक्ति में धन का नाश होता है । बुद्धि प्रखर नहीं रहती । पुत्र से कष्ट मिलता है। सट्टे आदि व्यापार में घाटा रहता है।
शनि
1. शनि अष्टमेश तथा नवमेश होता है। अष्टमेश होने के कारण अपनी भुक्ति में शनि अति उत्तम फल नहीं देता, यद्यपि फल अच्छा ही होता है; क्योंकि अधिकतर फल नवम भाव का होता है जहां पर शनि की मूल त्रिकोण राशि पड़ती है।
2. यदि बलवान् हो तो शनि दीर्घ आयु तथा भाग्य वृद्धि देता है, विदेश से धन लाभ कराता है।
3. शनि यदि बलवान् हो तो दीर्घ आयु देता है; क्योंकि शनि का बलवान् होना जहां आयु स्थानाधिपति का बलवान् होना है वहां आयुष्य कारक का भी बलवान् होना है। यदि शनि निर्बल हो तो अचानक मृत्यु भय उपस्थित हो जाता है।
मिथुन लग्न में शनि महादशा का फल
यदि शनि बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन की साधारण वृद्धि करता है । पिता को इस अवधि में अच्छा लाभ रहता है। विदेश से भी धन की प्राप्ति होने की सम्भावना रहती है।
यदि शनि निर्बल तथा पीड़ित हो तो अपनी दशा भुक्ति में भाग्य की हानि करता है । इस अवधि में राज्य की ओर से परेशानी रहती है। पिता का व्यय अधिक रहता है ।
फलित रत्नाकर
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