तुला लग्न का फलादेश
यह बहुत अच्छी लग्न है क्योंकि शनि ग्रह जो निसर्गतः पापी है, इस लग्न वालों को अतीव शुभकर हो जाता है। जिस मनुष्य को दुष्ट लोग भी लाभ देना चाहें उसके धनी होने में क्या संदेह हो सकता है । अतः तुला लग्न बहुत अच्छा लग्न है । इस लग्न वाले व्यक्ति सुन्दर, विलासप्रिय, व्यसनप्रिय होते हैं।
सूर्य
1. सूर्य का लाभाधिपति होना जतलाता है कि यदि सूर्य बलवान् हो तो राज दरबार से विशेष धन की प्राप्ति होगी। बड़ा भाई उन्नत जीवन को पायेगा, माता दीर्घजीवी होगी ।
2. सूर्य यदि मंगलादि धनदायक ग्रहों के संपर्क में धन के सम्बन्ध में शुभ फल देता है ।
3. यदि सूर्य निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट और गुरु भी ऐसा ही हो तो बड़े भाइयों की संख्या बहुत कम होती है । पेट में रोग रहता है।
4. यदि सूर्य, शनि, बुध और मंगल एक दूसरे के साथ युति अथवा दृष्टि संबन्ध स्थापित करें, तो जातक बहुत भाग्यशाली होता है।
क्योंकि इस लग्न वालों का सूर्य लाभेश होने से, शनि राजयोग कारक होने से, बुध भाग्येश होने से और मंगल धनेश होने से सभी धन के प्रतिनिधि होते हैं, अतः उनका पारस्परिक संबन्ध धनप्रद रहता है।
5. यदि सूर्य, शनि और बुध का मंगल अथवा चन्द्र से संबन्ध हो, तो जातक को राजयोग का फल मिलता है ।
क्योंकि चन्द्र का केन्द्रेश होने के नाते कोणेश शनि से संबन्ध राजयोग कारक है और मंगल धनेश, बुध नवमेश होने से उस शुभ फल में वृद्धि करेंगे। इसी प्रकार मंगल की युति भी सभी धन और योगप्रद ग्रहों से होगी, जिसका उत्तम फल निकलेगा ।
कन्या लग्न में सूर्य महादशा का फल
यदि सूर्य बलवान हो तो बहुत अच्छा धन का लाभ इसकी दशा भुक्ति में होता है, बड़े भाई मान और धन प्राप्त करते हैं । जातक की सात्विक प्रवृत्तियां कार्यान्वित होती हैं। पुत्री के विवाह की संभावना रहती है और यदि वह विवाहित हो तो उसके पति के मान और धन में वृद्धि होती है। छोटे भाइयों का भाग्य चमकता है।
यदि सूर्य निर्बल और पाप प्रभाव में हो तो लाभ में कमी, बड़े भाई को कष्ट, पुत्री के पति को कष्ट, माता को कष्ट होता है।
यदि जातक कोई बहुत बड़ा राज्याधिकारी जैसे प्रधान मन्त्री अथवा सेना का अधिकारी हुआ तो इस अवधि में लड़ाई द्वारा जनता को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है। जातक की सात्त्विक प्रवृत्तियों में कमी आ जाती है । पुत्री के विवाह में अड़चनें उत्पन्न होती हैं और यदि वह विवाहित है तो उसके पति को कष्ट रहता है। जातक का अपने बड़े भाइयों से विरोध रहता है। माता को बहुत कष्ट पहुंचता है।
चन्द्र
चन्द्र दशमाधिपति बनता है। यदि चतुर्थ भाव में मकर राशि का हो तो मन के साथ दशम का विशेष सम्बन्ध उत्पन्न कर देता है तथा राज तथा राजनीति में अधिक रुचि रखने वाला सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने वाला मानी यशस्वी तथा राज सत्ता को प्राप्त करता है ।
कन्या लग्न में चन्द्र महादशा का फल
यदि चन्द्र बलवान हो तो राज्य सत्ता तथा अधिकार की प्राप्ति इसकी दशा भुक्ति में होती है । जातक को मान और यश मिलता है। उसके धन में भी वृद्धि होती है। इस अवधि में उसे सास से धन मिलने की सम्भावना रहती है। जातक का मन यज्ञीय और परोपकार की भावनाओं से भरपूर रहता है । उसके मन में महत्त्वाकांक्षा रहती है और उसको कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। यदि चन्द्र सप्तम में हो तो प्रायः प्रेम विवाह (Love Marriage) होती है ।
यदि चन्द्रमा क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो राज्य के अधिकारियों की ओर से परेशानी रहती है। मनुष्य को अधिकार से हाथ धोने पड़ते हैं विशेषतया जबकि दशम भाव और चन्द्र पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो। ऐसी स्थिति में उसे सर्वत्र विफल होना पड़ता है, उसके मान और यश में कमी आती है । जातक के धन में बहुत कमी आ जाती है। जातक धर्म कार्यों में प्रवृत नहीं होता ।
मंगल
1. यदि मंगल बलवान् हो तो मनुष्य धनी, दीर्घजीवी स्त्री वाला, प्रतापी वाणी वाला, स्त्री पक्ष से धन प्राप्त करने वाला, यौवन में सुखी होता है।
2. इसके विपरीत यदि मंगल निर्बल, पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो उसकी स्त्री तथा उसका व्यापार उसके धन के नाश के कारण बनते हैं। उसकी स्त्री अल्पजीवी होती है। ऐसा व्यक्ति यौवन में दुःख पाता है ।
3. तुला लग्न वालों के लिये मंगल द्वितीय और सप्तम दो मारक स्थानों का स्वामी होता हुआ भी मृत्यु कारक सिद्ध नहीं होता । क्योंकि तुला लग्न वालों की कुण्डली में मंगल की मूल त्रिकोण राशि सप्तम भाव में पड़ती है और अन्य राशि वृश्चिक द्वितीय भाव में, इसलिए मंगल मुख्यतया सप्तम भाव का फल करता है । एक नैसर्गिक पापी ग्रह के नाते मंगल सप्तम केन्द्र का स्वामी होता हुआ अपनी अशुभता को खो देता है और शुभ हो जाता है । इसी कारण से वह मारक नहीं रहता ।
कन्या लग्न में मंगल महादशा का फल
जब मंगल बलवान होता है तो अपनी दशा भुक्ति में धन दिलवाता है। तर्क शास्त्र में मनुष्य इस अवधि में प्रवीण होता है। वह सख्त परन्तु युक्तियुक्त वाणी का प्रयोग करता है। इस अवधि में उसका भाग्य बढ़ता है और रुपये, पैसे को वह धर्मानुकूल तरीकों से कमाता है । इस अवधि में यह व्यक्ति विद्या में उत्तीर्ण हो जाता है।
मनुष्य में पुरुषार्थ की क्रिया इस दशा भुक्ति में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है। उसे लाल वस्तुओं के व्यापार आदि से काफी धन की प्राप्ति होती है। धन कमाने में उसके भागीदार उसकी बहुत सहायता करते हैं। सुसराल से भी धन की प्राप्ति होती है।
यदि मंगल सप्तमेश होकर निर्बल और पाप ग्रहों द्वारा पीड़ित हो तो स्त्री की जान पर आ बनती है। स्त्री के कारण धन में काफी व्यय आदि होता है। व्यापार में धन आदि की हानि होती है। भागीदारों से मतभेद आदि के कारण धन का नाश होता है । जातक को इस दशा अथवा भुक्ति में स्वयं के शरीर में कष्ट रहता है भूमि आदि का भी नाश होता है और भाइयों से मतभेद रहता है ।
बुध
1. बुध को ‘विष्णु’ माना गया है। जब बुध नवम भाव का स्वामी हो तो इसमें धार्मिकता, परोपकार, यज्ञीय भावना रूपी वैष्णव गुणों का विशेष समावेश हो जाता है। अतः नवमाधिपति बुध यदि लग्न लग्नेश से सम्बन्ध करे तो व्यक्ति को महान धार्मिक, परोपकारी, स्वार्थरहित बना देता है ।
2. यदि नवम भाव में राहु अथवा केतु हो और लग्न में सूर्य तथा चन्द्र हो तो बुध अकस्मात् महान भाग्योदय से चकित करता है।
क्योंकि बुध एक तो वैसे ही शीघ्र फल करता है और जब राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी होगा तो इसमें आकस्मिकता और भी आ जायेगी और फिर ‘भाग्य’ का स्वामी होने के नाते भी आकस्मिकता (Suddenness) का कुछ अंश बुध में है और वह सब कुछ समस्त लग्न समूह (लग्न, सूर्य तथा चन्द्र) से नवमाधिपति के रूप में हुआ है, अतः बलवान् रूप में घटेगा ।
3. यदि बुध तथा नवम भाव पापयुक्त, पापदृष्ट हों तो भाग्य में अचानक हानि होती है ।
4. यदि सूर्य और बुध द्वादश स्थान में (कन्या राशि में) स्थित हों और उन पर शनि की दृष्टि हो, तो जातक के पिता की मध्यम आयु होती है । यद्यपि वह घनी होता है।
क्योंकि द्वादश भाव में स्थित सूर्य बुध पर शनि की दृष्टि तभी पड़ सकती है जब शनि तृतीय, छठे अथवा दसवें भाव में हो। इन तीनों में से किसी भाव में भी स्थित शनि उपचयस्थ होगा और इसीलिए बलवान् होगा ।
पितृ स्थान (नवम) से अष्टमेश होता हुआ और आयु का कारक होता हुआ बलवान् शनि पिता की आयु को दीर्घ करेगा। परन्तु चूंकि इसकी क्रूर दृष्टि पिता के द्योतक नवमेश बुध और नवम कारक सूर्य दोनों पर पड़ेगी, उस दृष्टि के फलस्वरूप पिता की आयु कम होगी।
इस प्रकार अन्नतोगत्वा पिता की आयु मध्यम श्रेणी की हो जावेगी । शनि पिता का नवमेश है, अतः उसकी प्रबलता पिता को भाग्यवान बनावेगी ।
कन्या लग्न में बुध महादशा का फल
यदि बुध तो भाग्य में उन्नति का समय बुध की दशा भुक्ति देती है। पिता से भी लाभ रहता है । धर्म कार्यों में शुभ व्यय होता है। दूर की यात्राओं से भी लाभ रहता है ।
यदि बुध निर्बल और पीड़ित हो तो बहुत धन पिता पर व्यय होता है। भाग्य में बुध की दशा भुक्ति में हानि रहती है। इस अवधि में दूर-दूर की यात्राओं पर व्यय होता है ।
गुरु
1. यहां भी गुरु दो अशुभ भावों, तृतीय तथा षष्ठ का स्वामी है । इसका निर्बल होना धन देता है।
2. बलवान गुरु छोटे भाई को सुख देता है, अपनी दशा में भी योगप्रद होता है परन्तु धनाधिपति (मंगल) लाभाधिपति (सूर्य) से सम्बन्ध करने पर धन में कमी तथा ऋण की उत्पत्ति करता है ।
3. गुरु मित्र भाव का स्वामी है। यदि नवम में पड़ जाए तो व्यक्ति महात्माओं सन्तों से सत्संग करने वाला, धार्मिक होता है: उसके मित्र भी बड़े धार्मिक होते हैं।

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4. यदि गुरु अष्टम में, शनि नवम में और मंगल और बुध एकादश भाव में स्थित हों तो उत्कृष्ट राजयोग की सृष्टि हो जाती है।
क्योंकि मंगल तुला लग्न वालों के लिये शुभ होता है। इसको प्रमुख उपचय स्थान में मित्र राशि में स्थिति इसको बलवान् करती है और फिर मंगल धन भाव में स्थित निज राशि वृश्चिक को देखता हुआ धन के लिये और भी शुभ हो जावेगा।
बुध का आधिपत्य (नवमेश होना) भी शुभ है और उसने उपरोक्त शुभ मंगल के साथ मिलकर भी शुभ फल ही करना है। बुध यदि शनि अधिष्ठत राशि का स्वामी होकर फल करता है, तो भी शुभ है, क्योंकि शनि राजयोग कारक है ।
जहाँ तक गुरु का संबन्ध है, यह तृतीय और छठे स्थानों का स्वामी है। दोनों अनिष्ट स्थान हैं । अनिष्ट स्थानों का स्वामी होता हुआ एक तीसरे अनिष्ट स्थान अष्टम में स्थित होकर गुरु अनिष्ट की हानि करता हुआ विपरीत राजयोग की सृष्टि द्वारा बहुत अच्छा धन देता है ।

गुरु अष्टम स्थान में न केवल शत्रु राशि में स्थित है बल्कि वह तृतीय से अष्टम और षष्ठ से तृतीय अर्थात् अपने दोनों अनिष्ट स्थानों से अनिष्ट स्थान में पड़ा है, इसलिए भी बहुत पीड़ित होकर अनिष्ट की हानि करता है और उसकी धन कारक होकर धन स्थान पर शुभ दृष्टि धनोत्पादक सिद्ध होगी ।
5. यदि तुला लग्न वालों का गुरु छठे या बारहवें भाव में स्थित हो और चन्द्र लग्न में हो, तो शनि की दशा विशेष शुभ फल करती है । शनि कहीं भी हो, वह शुभ फल ही करेगा, क्योंकि वह यहाँ तो लग्न और चन्द्र लग्न दोनों से केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी होने के कारण दुगुना राजयोग कारक है।
गुरु भी उक्त स्थिति में बलवान् होगा, क्योंकि या तो वह छठे भाव (उपचय) में स्वक्षेत्री होगा और धन भाव को देखेगा या निज भाव को देखकर धनकारक रूप से बलवान् होगा ।
6. तुला लग्न हो और गुरु और शुक्र का पारस्परिक युति अथवा दृष्टि संबन्ध हो और यह दोनों ग्रह मंगल तथा शनि की राशि में स्थित हों, उन पर शनि तथा मंगल की दृष्टि हो, तो शुक्र (दशा गुरु भुक्ति में अथवा गुरु दशा शुक्र भुक्ति) में जातक रोग अथवा घाव आदि से कष्ट पाता है ।
क्योंकि तुला लग्न वालों के लिए शुक्र जिसकी मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ती है, लग्नेश होने से स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करता है । इसी प्रकार गुरु सुख “कारक” होता हुआ षष्टेश बनता है । सुख कारक षष्टेश भी स्वास्थ्य ही का प्रतिनिधित्व करता है, अतः स्वास्थ्य द्योतक गुरु और शुक्र पर मंगल और शनि के पाप प्रभाव के फलस्वरूप गुरु और शुक्र अपनी-अपनी दशा भुक्ति में स्वास्थ्य संबन्धित अशुभ फल देते हैं। मंगल तो घाव और फोड़े-फुंसी आदि का ग्रह है ही । शनि पंचमेश होने से पित्त का ग्रह बनकर मंगल की सहायता करता हुआ उक्त रोगों को उत्पन्न करेगा ।
कन्या लग्न में गुरु महादशा का फल
यदि गुरु बलवान हो तो मित्रों और शत्रुओं दोनों से आंशिक लाभ रहता है। परन्तु आर्थिक स्तर में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता । व्यक्ति के धन मान में वृद्धि होती है। व्यक्ति की मनोकामना शीघ्र ही फलीभूत होती है तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होती है ।
यदि गुरु निर्बल और पीड़ित हो तो गुरु की दशा भुक्ति में जातक को मित्रों, मामा और शत्रुओं से नुकसान उठाना पड़ता है। यदि गुरु और शुक्र इकट्ठे हों और पीड़ित हों तो पेट और जिगर के रोगों से उस समय पीड़ित होना पड़ता है. इस अवधि में मित्रों तथा भाइयों से वैमनस्य रहता है ।
शुक्र
1. यदि शुक्र बलवान् हो और बुध, बृहस्पति से प्रभावित हो तो इस लग्न के व्यक्ति बहुत सत्यप्रिय तथा धार्मिक वृत्ति के होते हैं तथा बहुत आयु पाते हैं। परन्तु यदि शुक्र पाप प्रभाव में हो तो अल्पायु वाले होते हैं।
2. शुक्र अष्टमाधिपति लग्नाधिपति होता है; अतः यदि बलवान् हो तो दीर्घायु देता है; यदि निर्बल हो तो अल्प आयु होती है।
3. इस लग्न वालों के शुक्र पर पड़ने वाला प्रभाव मृत्यु के कारणों को बताता है; क्योंकि शुक्र लग्नेश तथा अष्टमेश दोनों बन जाता है। जैसे शुक्र पर मंगल तथा गुरु के प्रभाव से चोट आने, गोली लगने आदि से मृत्यु होती है।
4. शुक्र की भुक्ति बुरा फल नहीं करती क्योंकि शुक्र लग्नाधिपति भी होता है ।
5. यदि लग्न में सूर्य, शुक्र और बुध स्थित हों, तो जातक धनी और भाग्यशाली होता है ।
क्योंकि सूर्य लाभेश होने से, शुक्र लग्नेश होने से और बुध भाग्येश होने से ये सभी धनदायक ग्रह हैं। लग्न भी धनदायक भाव है, अतः इस भाव में स्थित होकर ये सब ग्रह शुभ फल धनादि देने वाले होंगे ।

6. यदि लग्न में सूर्य शनि, शुक्र और बुध हों और सप्तम भाव में मंगल और चन्द्रमा, तो बुध अपनी दशा में धनादि के संबन्ध में बहुत अच्छा फल देगा ।
क्योंकि बुध का फल उस पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुकूल होता है, चूँकि बुध पर प्रभाव डालने वाले सभी ग्रह शुभ फलदायक हैं, अतः बुध धनादि के संबन्ध में शुभ फल देगा ।
कन्या लग्न में शुक्र महादशा का फल
यदि शुक्र बलवान हो तो ‘मनुष्य को शुक्र की दशा भुक्ति में धन तथा मान की प्राप्ति होती है । इस अवधि में उसको विलास की सामग्री खूब प्राप्त होती है । स्त्रियों से सम्पर्क रहता है ओर स्त्री वर्ग से तथा विलास की सामग्री से लाभ रहता है ।
यदि शुक्र निर्बल और पीड़ित हो तो मनुष्य को शुक्र की दशा भुक्ति भारी शारीरिक कष्ट देती है । उसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। जीवन का भय रहता है। इस अवधि में उसकी विदेश यात्रा की संभावना रहती है । स्त्री से वैमनस्य रहता है । स्त्री वर्ग से तथा विलास सामग्री से हानि रहती है।
शनि
1. शनि अकेला ही इस लग्न के लिये राजयोग कारक अतीव शुभ है, क्योंकि केन्द्र (चतुर्थ) का स्वामी होने से यह ग्रह अपनी नैसर्गिक अशुभता खो देता है और पंचमेश होने से उस पर शुभता का रंग खूब चढ़ता है ।
2. यदि शनि बलवान हो तो बहुत सा धन, भूमि, पदवी, उन्नति, मान, यश देता है। मनुष्य जनता का हितैषी होता है और प्रमोद प्रिय होता है।
3. यदि शनि निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो पुत्र से दुःख, गृह त्याग, अल्प विद्या अल्प धन होता है ।
4. यदि शनि पर राहु का प्रभाव हो तो जातक स्वार्थी होता है ।
5. यदि शनि लग्न में और चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित हो, तो जातक राजयोग का सुख पाता है ।
क्योंकि तुला लग्न में शनि योग कारक रूप से और निज राशियों, मकर और कुंभ से शुभ स्थिति में होने के कारण बहुत शुभ फल करेगा । चन्द्रमा शुभ ग्रह राज्येश होकर उस पर अपना ३/४ प्रभाव डालेगा जिसके फलस्वरूप शनि और भी बलवान् और राज्य और धनप्रद हो जावेगा ।
उक्त स्थिति में ‘कारक’ योग भी शनि और चन्द्र की परस्पर केन्द्र स्थिति द्वारा बनता है, इसलिये भी उक्त योग शुभ फल में उत्कृष्ट होगा ।
6. यदि शनि, गुरु, बुध और मंगल लग्न में स्थित हों, और राहु दशम भाव में हो, तो राहु अपनी दशा में पुण्य कार्य करवाता है।
यद्यपि लग्नस्थ ग्रहों की दृष्टि दशम भाव पर पाद मात्र है, पर जब चार ग्रह लग्नस्थ होकर एक ही तथ्य के द्योतक हों, तो स्पष्ट है कि उनकी सम्मिलित दृष्टि का दशम भाव पर बहुत प्रभाव होगा ।
यहाँ गुरु तो धर्म का कारक है और बुध धर्म स्थानाधिपति, मंगल दशम से दशम का स्वामी होता हुआ दशम भाव की भाँति शुभ कर्मों का द्योतक होगा और शनि नवम से नवम भाव का स्वामी होकर धर्म का द्योतक होगा।
इस प्रकार दशमस्थ छाया ग्रह राहु पर दशम भाव का तथा धार्मिक और यज्ञीय प्रभाव पड़ने के कारण राहु अपनी दशा में तीर्थ-स्थान आदि पुण्य कार्यों को देगा ।
फलित रत्नाकर
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