मीन लग्न का फलादेश

मीन लग्न में जन्मे व्यक्ति धार्मिक बुद्धि से ओतप्रोत, मेहमान प्रिय, सामाजिक अच्छाईयों व नियमों का पालन करने वाले होते है। ऐसे जातक आस्तिक एवं ईश्वर के प्रति श्रद्धावान होते हैं तथा सामाजिक रूढ़ियों का कट्टरता से पालन करते हैं। आप कूटनीति, रणनीति व षडयंत्रकारी मामलों में कभी रूचि नहीं लेते।

सूर्य

1. षष्ठेश सूर्य यदि बलवान् हो तो शत्रु बलवान् होते हैं।

2. षष्ठेश सूर्य निर्बल होकर अष्टम द्वादश आदि स्थानों में स्थित हो तो रोग देता है।

मीन लग्न में सूर्य महादशा का फल

यदि सूर्य बलवान हो तो मनुष्य रोग रहित रहता है । यदि छठे भाव और सूर्य दोनों पर शुभ प्रभाव ही हों तो उस अवधि में ऐसे व्यक्ति का कोई शत्रु नहीं होता । उसके लघु भाइयों के सुख में वृद्धि होती है। इस अवधि में जातक को प्रायः कुछ न कुछ आर्थिक कठनाई ऋण आदि उठाने पड़ते हैं ।

यदि छठे भाव और सूर्य पर पाप प्रभाव हो तो मनुष्य इस अवधि में शत्रुओं के हाथों पीड़ित होता है। इसको बहुत ऊंचे स्तर के शत्रुओं का सामना करना पड़ता है ।

यदि सूर्य के साथ लग्नेश भी हो और दोनों पीड़ित हों तो पित्त के रोगों तथा पेट के रोगों में ग्रस्त होना पड़ता है । बड़े भाई को बहुत शारीरिक कष्ट रहता है । पुत्र के धन का भी नाश इस अवधि में होता है।

चन्द्र

1. चन्द्र बलवान हो तो मनुष्य की स्मरण शक्ति बलवान् होती है, विद्या भी अच्छी होती है।

2. पंचमेश चन्द्र यदि बलवान् हो तो पुत्र अच्छी उन्नति करता है।

3. द्वितीय भाव में मेष राशि में यदि चन्द्र हो और पंचम भाव में मंगल, तो चन्द्रमा की दशा में धन की प्राप्ति होती है ।

क्योंकि चन्द्रमा नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह है और यदि यह सूर्य के बहुत समीप न हो, तो शुभ फल ही करता है। ऐसा शुभ चन्द्रमा पंचम त्रिकोण का स्वामी होकर और भी अधिक शुभ होगा ।

और फिर यदि मंगल पंचम भाव में हुआ, तो यह मंगल अधिष्ठित राशि का स्वामी होने के कारण मंगल (द्वितीयेश और भाग्येश) का शुभ फल भी करेगा। ऐसा शुभ चन्द्रमा धन भाव में सादृश्य के सिद्धान्तानुसार और भी अधिक शुभ फल आर्थिक क्षेत्र में करेगा ।

4. यदि चन्द्र बुध और मंगल एकादश स्थान में मकर राशि में स्थित हों, तो धन और वाहन की प्राप्ति का योग बनाते हैं।

मीन लग्न में चन्द्र और मंगल की एकादश भाव में स्थिति धनप्रद है । जब बुध चतुर्थेश की युति उन ग्रहों के साथ लाभ स्थान में होगी, तो धन के साथ-साथ वाहन की की प्राप्ति भी होगी । ध्यान रहे कि चतुर्थेश बुध की चन्द्र लग्न से युति भी वाहन प्राप्ति का योग बनावेगी ।

5. द्वादश भाव में स्थित चन्द्र से जातक निर्धन होता है। यदि चन्द्र द्वादश हो, इसका अर्थ हुआ पंचमेश द्वादश में है। पंचमेश का पंचम भाव से अष्टम में जाना और फिर लग्न से व्यय भाव में होना और फिर शत्रु राशि में होना, ये सब बातें चन्द्र की शुभता को दूर कर उसे अशुभ बनाती हैं, अतः धन और लग्न रूपचन्द्र अपनी निर्बलता से धनहीन करता है, विशेषतया जबकि वह पक्ष बल में भी निर्बल हो ।

6. मीन लग्न हो और चन्द्रमा तीसरे, सूर्य छठे, बुध सातवें, शुक्र आठवें, गुरु दसवें, एकादश में मंगल और द्वादश भाव शनि हो तो वृहद जातक में इस योग का फल भाग्य गुण और कीर्ति लिखा है ।

क्योंकि सूर्य के छठे होने से तृतीयस्थ चन्द्रमा पक्ष बल में निर्बल न होगा, अतः बली चन्द्र उच्च राशि में स्थित होकर जहाँ पंचम भाव की उत्कृष्टता द्वारा धनदायक होगा वहाँ वह अपनी उत्कृष्टता द्वारा भी धनी बनावेगा । उसकी नवम भाव पर दृष्टि भाग्यशाली बनावेगी।

मंगल दो शुभ भावों अर्थात् द्वितीय और नवम का स्वामी होता हुआ प्रमुख उपचेय में उच्च राशि में स्थित होकर धन और भाग्य की उत्कृष्टता का दायक होगा।

गुरु की उत्कृष्ट फल देने की शक्ति का उल्लेख हो चुका है । ऐसे शुभ गुरु की दशम भाव पर प्रभाव का फल यज्ञीय कर्मों की प्राप्ति होगा । स्वक्षेत्री बुध की लग्न पर दृष्टि व्यक्तित्व में बुध के यज्ञीय गुणों का समावेश करेगी।

एकादश भाव का फल देता हुआ शनि द्वादश भाव में वक्री होकर बहुत बलवान् होगा और बहुत लाभ देगा । वक्री ग्रह बलवान् होता है और इसीलिये अपने कारकत्व आदि के संबन्ध में शुभ फल करता है ।

मीन लग्न में चन्द्र महादशा का फल

यदि चन्द्रमा बलवान हो तो उसकी दशा भुक्ति में जातक को प्रखर बुद्धि की प्राप्ति होती है । उसमें मन्त्रणाशक्ति आ जाती है जिससे वह अच्छी नेक सलाह दे सकता है। मनुष्य की अपने इष्टदेव में निष्ठा दृढ़ हो उठती है । उसको सट्टे आदि से भी कुछ प्राप्ति होती है। धन में उसके विशेष वृद्धि होती है । किसी पुत्री की प्राप्ति की सम्भावना भी रहती है । उसका मन आमोद-प्रमोद की ओर विशेष रूप से इस अवधि में आकर्षित होता है।

यदि चन्द्रमा क्षीण और पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति के धन का बहुत नाश होता है । उसके भाग्य की सख्त हानि होती है । उसके पुत्रों आदि को कष्ट की प्राप्ति होती है । उसकी स्मरण शक्ति में ह्रास आ जाता है, विशेषतया जबकि चन्द्र पर तथा पंचम भाव पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो । जातक की योजनाएं (Schemes ) पूरी नहीं हो पातीं। उसको सट्टे आदि में हानि होती है।

यदि बुध, चन्द्र और गुरु इकट्ठे अथवा अलग-अलग राहु तथा शनि के प्रभाव में हों तो मनुष्य को मस्तिष्क के रोगों का शिकार होना पड़ता है। और बहुत पाप प्रभाव होने की दशा में पागल तक हो जाने का भय रहता है । पिता के भाग्य में भी हानि आती है। सट्टे आदि से जातक को हानि रहती है।

मंगल

1. इस लग्न में मंगल नवमेश तथा धनेश बनता है। बहुत शुभ फल करता है।

2. यदि मंगल बलवान् हो तो ऐसे व्यक्ति को आशातीत धन की प्राप्ति होती है और राज्याधिकारी धन प्राप्ति में इस व्यक्ति के विशेष सहायक हो जाते हैं। यह व्यक्ति धार्मिक वाणी बोलता है।

3. यदि मंगल निर्बल, पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो इस व्यक्ति को धन के विषय में भाग्य की ओर से मार पड़ती है और उसका धन अचानक नष्ट हो जाता है।

मीन लग्न में मंगल महादशा का फल

जब मंगल बलवान होता है तो अपनी दशा भुक्ति में पिता से धन दिलवाता है। तर्क शास्त्र में मनुष्य इस अवधि में प्रवीण होता है। वह सख्त परन्तु युक्तियुक्त वाणी का प्रयोग करता है। इस अवधि में उसका भाग्य बढ़ता है और रुपये, पैसे को वह धर्मानुकूल तरीकों से कमाता है । इस अवधि में यह व्यक्ति विद्या में उत्तीर्ण हो जाता है।

यदि मंगल निर्बल और पाप ग्रहों से पीड़ित हो तो मनुष्य को इसकी दशा भुक्ति में धन का नाश होता है। उसकी स्त्री के लिए शारीरिक तौर पर यह समय बहुत कष्टप्रद होता है। जातक को उसके साले के हाथों आर्थिक हानि उठानी पड़ती है । विद्या में असफलता मिलती है। ऐसी अवधि में जातक के धन की हानि का कारण बहुधा उसका पिता होता है। अपनी उन्नति की आशा रहती है, पर यह आशा पूरी नहीं होती। इस अवधि में उनको विफलता का ही मुंह देखना पड़ता है ।

बुध

1. बुध चतुर्थेश तथा सप्तमेश बनता है।

2. बुध बलवान हो तो जातक बुद्धिमान तथा ज्ञानप्रिय होता है, क्योंकि बुध चतुर्थ तथा चतुर्थ से चतुर्थ का स्वामी बनता है और चतुर्थ भाव मन होता है ।

3. बुध बलवान् हो तो मनुष्य भूमि-जायदाद का स्वामी होता है।

4. बुध बलवान हो तो जातक की स्त्री गुणवती और मान प्राप्त करने वाली होती है।

5. निर्बल बुध वाला व्यक्ति स्त्री से दुःख पाता है।

6. बुध यदि सूर्यादि पृथकताजनक ग्रहों के प्रभाव में हो और शुक्र पर भी यह प्रभाव हो तो पति-पत्नी एक-दूसरे से पृथक हो जाते हैं। क्योंकि बुध शीघ्र फल देता है।  

7. बुध यदि बहुत निर्बल हो तो पिता की मृत्यु व्यक्ति के बाल्यकाल में ही हो जाती है, विशेषतया जबकि बुध तथा चतुर्थ भाव दोनों मंगल द्वारा दृष्ट हों।

8. बुध यदि शुक्र तथा चन्द्र के साथ हो और पापयुक्त व पापदृष्ट हो तो माता के पागल हो जाने का योग बनता है।

मीन लग्न में बुध महादशा का फल

यदि बुध बलवान हो तो सुख की विशेष प्राप्ति होती है, भूमि तथा वाहन मिलता है, यदि क्रमशः बुध पर मंगल तथा शुक्र का प्रभाव हो । माता की ओर से इस समय अधिक प्यार मिलता है और मन आमोद-प्रमोद में लगा रहता है।

यदि बुध निर्बल और पीड़ित हो तो व्यक्ति बुध की दशा भुक्ति में दुःख पाता है । उसको मानसिक रोगों का शिकार होना पड़ता है। अक्मात् शारीरिक कष्ट आ खड़ा होता है । सम्बन्धियों से इस समय हानि ही रहती है।

गुरु

1. इस लग्न में गुरु केन्द्र त्रिकोण का स्वामी होने से अति शुभ फलदाता होता है।

2. यदि गुरु बलवान् हो तो जातक धार्मिक प्रवृत्ति वाला, बहुत यशस्वी, राज्यमानी, परोपकारी, धनी आदि होता है और अपने कृत्यों से यश की प्राप्ति करने वाला होता है ।

3. यदि गुरु पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो राज्य की ओर से अपमानित तथा राज्यविरोधी होता है। उसके पांव में चोट अथवा रोग होता है। उसके पेट में भी कष्ट रहता है।

4. यदि गुरु राज्य भाव में (दशम में) यदि स्थित हो, तो बहुत धन की प्राप्ति होती है। क्योंकि धनकारक गुरु राज्यकृपा कारक भी है। ऐसे गुरु का लग्नेश होकर प्रमुख केन्द्र में स्वक्षेत्री होकर बलवान् होना धनीमानी बनाता ही है।

5. यदि गुरु छठे, शुक्र आठवें, शनि नवम हो और मंगल और चन्द्रमा एकादश भाव में हों, तो जातक बहुत भाग्यशाली होता है ।

क्योंकि यहॉ धन भाव का अपने हो स्वामी मंगल द्वारा तथा दो शुभ ग्रहों शुक्र और गुरु द्वारा दृष्ट होना धन की विशेष वृद्धि करने वाला योग है । फिर गुरु और शुक्र लग्न से क्रमशः छठे और आठवें होकर लग्न पर ‘अधि’ योग बनावेंगे जिसका फल भी धन की प्राप्ति होगा।

इसके अतिरिक्त गुरु की अपना ही राशि धनु पर शुभ दृष्टि दशम और लग्न दोनों भावों की वृद्धि द्वारा भी धनप्रद होगी।लाभेश शनि और भाग्येश मंगल का व्यत्यय भी भाग्य प्राप्ति का सुन्दर योग होगा।

इसी प्रकार प्रमुख उपचय स्थान में धनेश, पंचमेश, नवमेश की स्थिति भी धनदायक होगी, अतः इस योग को उत्कृष्ट भाग्य देने वाला योग कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है ।

6. यदि गुरु पंचम भाव में कर्क राशि में स्थित हो, तो जातक को कई पुत्रियों की प्राप्ति होती है, परन्तु कभी कहीं एक पुत्र की प्राप्ति संभव होती है ।

प्रायः ऐसा होगा कि पंचम भाव पर पाप प्रभाव भी होगा। इस पाप प्रभाव फलस्वरूप पंचम भाव तथा गुरु जो कि पुत्रकारक है, दोनों को हानि पहुँचेगी, जिससे पुत्र का अभाव हो जावेगा ।

यदि शुभ दृष्टि हुई, तो वह दृष्टि शुक्र, चन्द्र अथवा बुध में से एक अथवा अधिक ग्रहों ही की संभव है और ये सारे ग्रह स्त्री संज्ञक हैं, इसलिए इस दशा में एक स्त्री राशि (कर्क) में स्थित हुआ गुरु और स्त्री ग्रहों से दृष्ट स्त्री प्रजा का बाहुल्य करेगा ।

7. मीन लग्न हो और बुध, गुरु, चन्द्र और मंगल चतुर्थ भाव में हों, शुक्र उनके साथ न हो, तो उनकी दशा चिरकाल तक कीर्ति देने वाली और राज्य की प्राप्ति करवाने वाली होगी।

क्योंकि गुरु मंगल और चन्द्र लग्न के सभी मित्र हैं। फिर गुरु की दृष्टि द्वारा दशम और लग्न को जहाँ गुरु की अपनी राशि है, विशेष लाभ पहुँचेगा ।

इसी प्रकार यह लाभ चन्द्र से दशम भाव को भी पहुँचेगा। इस प्रकार लग्न चन्द्र लग्न और उनसे दशम भावों की वृद्धि कीर्ति देगी, क्योंकि कीर्ति की प्राप्ति लग्न दशम और सूर्य की प्रबलता से कही है।

फिर दशम भावों का बलवान् होना राज्यदायक भी रहेगा, क्योंकि दशम भाव राज्य का भी भाव है। शुक्र अष्टमेश है और गुरु मंगल चन्द्र सभी का शत्रु, अतः इसका प्रभाव धन की प्राप्ति में बाधक होगा ।

मीन लग्न में गुरु महादशा का फल

यदि गुरु बलवान हो तो इसकी दशा भुक्ति में विशेष मान-सम्मान होता है। राज्य की ओर से बहुत कृपा रहती है। जातक शुभ यज्ञीय कार्यों में प्रवृत्त रहता है और उसे खूब धन की प्राप्ति होती है।

यदि गुरु निर्बल और पाप ग्रहों से पीड़ित हो तो जातक को राज्य की ओर से दुःख उठाना पड़ता है । उसको कार्यों में असफलता मिलती है। धन और मान दोनों का नाश होता है और उसके कार्यों में अधार्मिकता आ जाती है।

शुक्र

1. इस लग्न में शुक्र तृतीय तथा अष्टम दो भावों का स्वामी बन जाता है। अतः यदि शुक्र बलवान् हो तो दीर्घ आयु देता है क्योंकि दोनों भाव आयु के हैं। इस व्यक्ति की छोटी बहनें प्रचुर संख्या में होती हैं । यह व्यक्ति विलासिताप्रिय होता है और विलास के लिए जान जोखिम के कार्य तक भी कर डालता है।

2. शुक्र यदि निर्बल, पापयुक्त. पापदृष्ट हो तो जातक अल्पायु होता है। छोटी बहनों की इसको कमी रहती है । निर्बल शुक्र मित्रों द्वारा अपमानित कराता है।

3. शुक्र तथा अष्टम भाव पर पड़ा प्रभाव मृत्यु के कारण का पता बतलाता है।

4. मीन लग्न वालों के द्वादश स्थान में स्थित शुक्र योगप्रद नहीं होता। क्योंकि शुक्र एक भोग और विलास का ग्रह है और उधर द्वादश भाव भी भोग-विलास का भाव है, इसलिये साधारणतया शुक्र जब भी द्वादश स्थान में स्थित होता है, भोग-विलास अर्थात् धनादि देता है ।

परन्तु शुक्र की द्वादश स्थिति का शुभ फल मीन लग्न वालों को नहीं मिलता । कारण यही है कि इस लग्न के द्वादश स्थान में शनि की राशि पड़ती है, चूंकि शनि अभाव और निर्धनता का ग्रह है । उसका स्वभाव शुक्र से भोग आदि के विषय में विरुद्ध है, अतः शुक्र शनि की राशि में द्वादशस्य अच्छा फल नहीं करता । दूसरी राशियों में द्वादशस्य शुक्र शुभ फल करता है ।

5. यदि लग्न में शनि और चन्द्र हों, मंगल एकादश और शुक्र छठे भाव में हो, तो शुक्र की दशा में बहुत धन की प्राप्ति होती है।

क्योंकि शुक्र की मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थान में पड़ती है, अतः मीन लग्न वालों को शुक्र अष्टम भाव का फल करता है । एक अत्यन्त बुरे भाव का स्वामी होकर शुक्र जब एक दूसरे बुरे भाव अर्थात् छठे में स्थित होगा, तो अष्टम भाव की हानि होगी।

चूँकि छठे भाव में शुक्र शत्रु राशि (सिंह) में होगा, यह शत्रु राशि में स्थिति अष्टम अष्टमेश के लिये और भी हानिकारक सिद्ध होगी और फिर पापी मंगल की शुक्र पर दृष्टि उसे और भी हानि पहुँचावेगी ।

इस प्रकार दरिद्रता सूचक अष्टमेश के प्रबल रूप से पीड़ित होने के कारण दरिद्रता का सर्वथा नाश होकर प्रचुर धन की, विपरीत राजयोग द्वारा प्राप्ति होगी ।

मीन लग्न का फलादेश

मीन लग्न में शुक्र महादशा का फल

यदि शुक्र बलवान हो तो इसकी दशा भुक्ति में मित्रों से लाभ रहता है । आमोद-प्रमोद के लिए छोटी यात्राएं होती हैं। धन की आय साधारण स्तर की रहती है।

यदि शुक्र आठवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो इसकी दशा भुक्ति में जीवन का भय रहता है। मित्रों से हानि होती है। इस अवधि में जातक के विदेश भ्रमण की भी संभावना रहती है। धन की आय अच्छी मात्रा में रहती है।

शनि

1. शनि यदि बलवान् हो तो व्यक्ति की बड़ी बहिनें बहुत होती हैं, भूमि से लाभ होता है।

2. यदि शनि निर्बल हो तो बड़े भाई अथवा बहिन द्वारा धन का नाश होता है।

3. द्वादश भाव में स्थित शनि शुभ फल करता है । क्योंकि मीन लग्न में शनि एकादश और द्वादश भावों का स्वामी होता है । पाराशरीय नियमों के अनुसार शनि द्वादशेतर राशि का फल करता है अर्थात् एकादश का फल करेगा, इसलिये एकादशेशे एकादश से द्वितीय में स्थित होकर एकादश भाव के लिये शुभ फल करेगा।

मीन लग्न में शनि महादशा का फल

यदि शनि बलवान हो तो उसकी दशा भुक्ति में अच्छी आय रहती है; परन्तु व्यय भी खूब रहता है। बड़े बहिन-भाइयों से सहायता मिलती है। पुरुषार्थ अथवा काम अधिक करना पड़ता है। भूमि आदि की प्राप्ति होती है।

यदि शनि निर्बल और पीड़ित हो, तो जातक को शनि की दशा भुक्ति में अर्थ की हानि रहती है। उसे यात्राओं से कोई लाभ नहीं होता। बहिन-भाइयों से इस समय कोई सहायता प्राप्त नहीं होती।

फलित रत्नाकर

  1. ज्योतिष के विशेष सूत्र
  2. मेष लग्न का फलादेश
  3. वृष लग्न का फलादेश
  4. मिथुन लग्न का फलादेश
  5. कर्क लग्न का फलादेश
  6. सिंह लग्न का फलादेश
  7. कन्या लग्न का फलादेश
  8. तुला लग्न का फलादेश
  9. वृश्चिक लग्न का फलादेश
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  13. मीन लग्न का फलादेश

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