1. जो भाव अपने स्वामी द्वारा दृष्ट हो तथा उस भाव पर शुभ दृष्टि भी हो तो स्वामी द्वारा दृष्ट भाव की बहुत वृद्धि होती है।
2. जब किसी शुभ भाव (लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम) का स्वामी नीच राशि में पड़ा हो, परन्तु उसको नीच भंग प्राप्त हो तो नीचता के भंग का फल उस भाव के लिए जिसका कि वह नीच ग्रह स्वामी है अतीव शुभ होता है।
3. सुख – यदि चतुर्थ भाव उसका स्वामी तथा गुरु तीनों पाप प्रभाव में हों तो मनुष्य जीवन में बहुत दुख भोगता है क्योंकि सुख के द्योतक सभी अंगों को हानि पहुंचती है। इसके विपरीत यदि यही तीनों अंग शुभ प्रभाव में हों तो मनुष्य का जीवन सुख शान्ति तथा आराम से व्यतीत होता है ।
4. स्वार्थपरायणता – यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा चन्द्र पर राहु-शनि का प्रभाव हो और अन्य शुभ प्रभाव न हों तो मनुष्य स्वार्थपरायण होता है।
5. विद्या सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन – पंचम भाव का बुद्धि से सम्बन्ध होने के कारण विद्या सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन पंचम भाव, उसके स्वामी तथा विद्या कारक बुध द्वारा भी किया जाना चाहिए। इन तीनों में से जितने अंग अधिक बली तथा शुभदृष्ट होंगे उतनी ही अधिक विद्या मनुष्य को प्राप्त होगी ।
शनि काला होने से अंधेरा पसन्द करता है। अतः यह ग्रह विद्या (Education) नहीं चाहता। जब इसकी दृष्टि द्वितीय भाव, द्वितीयेश, पंचम भाव, पंचमेश अथवा बुध पर हो तो अल्पविद्या तथा विघ्नयुक्त विद्या कहनी चाहिए ।
मंगल की पंचम भाव अथवा पंचमेश पर दृष्टि विद्या पढ़ने की शक्ति को बढ़ाती है, कम नहीं करती, क्योंकि मंगल एक ऊहापोह (Logic) प्रिय ग्रह है ।
6. प्रतियोगिता की परीक्षाएं – पंचम भाव चूंकि बुद्धि से सम्बन्ध रखता है । अतः प्रतियोगिता की परीक्षाएं (Competitive Exams.) जैसे- एस. ए. एस. (Subordinate Accounts Service Exam.) आदि का विचार इस स्थान से करना चाहिए । भाव, भावाधिपति तथा भावकारक (यहां बुध) का सामान्य नियम यहां भी लागू होता है ।
7. लाटरी से धन – पंचम भाव सट्टे, लाटरी आदि का स्थान भी है । यदि इस स्थान में राहु अथवा केतु स्थित हों और पंचमेश बलवान होकर शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो लाटरी प्राप्त होने का योग बन जाता है ।
यदि बुध पंचमेश हो तो और भी पक्का योग बन जाता है क्योंकि राहु-केतु की भांति बुध भी सद्यः फलदायक है।
यदि शुभ नवमेश भी इस योग में सम्मिलित हो जाए तो बहुत लाभदायक होता है, क्योंकि नवम भाव भाग्य (Divine Dispensation) का है और लाटरी भी भाग्य का, न कि पुरुषार्थ का, फल है। स्मरण रहे कि नवम से नवम होने के कारण पंचम में भी भाग्य का पर्याप्त अंश है ।
6. रोग कारक – छठा भाव रोग का है। उधर शनि और राहु दो ग्रह रोग कारक (Significators of Disease) माने गए हैं। अतः स्पष्ट है कि यदि किसी कुण्डली में राहु षष्ठ स्थान में, शनि की राशि में स्थित हो तो शनि तीन प्रकार से रोग देने वाला बन जाएगा-
- रोग कारक होने से,
- रोग स्थान का स्वामी होने से,
- राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी होने से।
ऐसा शनि जिस भाव में स्थित होगा अथवा जिस भाव पर दृष्टि डालेगा उसमें रोग की उत्पत्ति कर देगा।
उदाहरणार्थ कन्या लग्न हो और राहु छठे स्थान में हो तो शनि उपर्युक्त तीनों प्रकार से रोगदायक होगा। यह शनि यदि नवम स्थान में पड़ जाए तो रीढ़ की हड्डी, नितम्ब आदि नवम स्थान प्रदर्शित शरीर के अंगों में दोष तथा रोग उत्पन्न करेगा । अपनी तृतीय स्थान तथा एकादश स्थान पर दृष्टि के कारण कान के रोग भी ला खड़े करेगा । छठे स्थान पर दृष्टि के कारण अन्तड़ियों को भी निर्बल बनाएगा ।
7. कर्ज अथवा ऋण – कर्ज अथवा ऋण भी हम दूसरों से अन्यों से लेते हैं, अपनों से नहीं; क्योंकि अपने देकर लेते नहीं । अतः ऋण का सम्बन्ध भी छठे स्थान से है।
जब लग्न, द्वितीय तथा द्वादश पाप प्रभाव में हों और षष्ठेश का सम्बन्ध दूसरे भाव तथा उसके स्वामी से हो तो मनुष्य की आय कम, व्यय ज्यादा होकर, ऋण की उत्पत्ति होती है।
8. पत्नी का सुन्दर होना – उस पुरुष को सुन्दर पत्नी प्राप्त होती है जिसके सप्तम भाव में सम (Even) राशि हो, सप्तमेश भी सम राशि में हो और सप्तम का कारक शुक्र भी सम राशि में हो तथा सप्तमेश एवं अष्टमेश शुभ एवं बलवान् हों ।
जब स्त्री की कुण्डली में उसके लग्न तथा चन्द्र लग्न सम (Even) राशि में होते हैं तथा शुभ दृष्ट हों तो वह स्त्री सुन्दर भी होती है और अच्छे स्वभाव वाली, धनी और गुणवती भी ।
9. दशम भाव – यदि दशम भाव, दशमेश तथा सूर्य सभी पर शनि, राहु, द्वादशेश आदि पृथकताजनक ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य चाहे राजा के घर भी उत्पन्न हो, उसे राज्य से हाथ धोना पड़ेगा।
कुम्भ लग्न में दशम में वृश्चिक राशि में स्थित हुआ शनि बहुत शुभ समझना चाहिए, यद्यपि वह शत्रु राशि में स्थित है। कारण यह है कि शनि लग्नेश है और उसको दो अच्छे बल प्राप्त हो रहे हैं। एक तो प्रमुख केन्द्र (दशम भाव) में स्थित होना और दूसरे शनि का अपनी राशि मकर को देखना। इस दृष्टि के फलस्वरूप लग्न को भी बहुत बल मिलता है।
इसीलिए चन्द्रकला नाड़ी के लेखकों का कहना है कि- “यदि कुम्भ लग्न हो, गदांश हो, लग्नेश शनि दशम भाव में स्थित हो तो मनुष्य जन्म से ही धनवान् होता है और कभी भी गरीबी नहीं देखता ।“
कुंडली में चंद्र का प्रभाव
1. जिन जातकों की जन्मकुंडलियों में चंद्रमा शुभ, दुष्प्रभावों से मुक्त और बली होकर बैठा होता है, उनमें दिमाग से अधिक दिल से काम लेने की प्रवृत्ति स्पष्ट झलकती है। वे सरल, विनम्र, निष्छल होते हैं। वे दिमाग के बजाए आत्मा की आवाज ही अधिक सुनते हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत गहरा ध्यान लगा सकता है।
2. चंद्र और राहु यदि कुंडली के एक ही भाव में बैठे हों तो जातक को अत्यधिक उद्दंड प्रकृति का बना देते हैं। ऐसा व्यक्ति मानसिक द्वंद का शिकार रहता है लेकिन यह योग विदेश यात्राओं/विदेश प्रवास तथा धन-समृद्धि के लिए बहुत अच्छा माना जाता है। राहु विजातीय तत्व का और चंद्र यात्राओं का प्रतिनिधि होता है। यदि नौवें या 12वें भाव में यह योग बैठे तो बहुत प्रभावशाली हो जाता है।
यदि चंद्र और राहु दोनों ही कुंडली में बली हों तो जातक को कूटनीतिक बुद्धि का स्वामी बना देते हैं वह दूसरों की कमजोरियां झट से भांप जाता है। लेकिन यदि चंद्र इस योग में कमजोर हो तो जातक मंदबुद्धि, अतिअम्लीयता का शिकार, धूर्त अथवा मानसिक रोगी हो सकता है।
3. यदि चंद्र व केतु एक-दूसरे के साथ कुंडली में बैठे हों तो जातक में दूसरों के मन की बात जान लेने की दुर्लभ शक्ति आ जाती है। वह जातक ज्ञान और अध्यात्म में गहरी रुचि लेता है। वह दार्शनिकों जैसी बातें करता है।
4. यदि पूर्ण चंद्र पर किसी ऐसे ग्रह की दृष्टि हो जो अपनी राशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में बैठा हो तो ऐसे ग्रह योग वाला जातक निर्धन परिवार तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेकर भी शासक या उसके समतुल्य हैसियत को प्राप्त कर लेता है।
कुंडली की शक्ति का मूल आधार चंद्र का बल ही होता है। चंद्र बली होकर स्थित हो तो उस कुंडली से संबद्ध जातक भी मानसिक रूप से बली व शक्तिशाली होता है।
5. धनु लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में यह दुःस्थान आठवें भाव का स्वामी होने के बावजूद लग्नेश बृहस्पति का मित्र होने के नाते शुभ फल देता है। वस्तुतः इस लग्न वाले जातकों में चंद्र का मंगल, बृहस्पति या सूर्य के साथ संबंध भी अक्सर अच्छे फल देता देखा गया है।
6. ‘सारावली’ में कहा गया है कि राजकुल में जन्म लेने वाले जातकों को छोड़कर अन्य जातकों में ‘राजयोग’ की संभावना निश्चित करने के लिए चंद्र पर शुभ ग्रहों का अनुकूल संगतिकारक या दृष्टिकारक प्रभाव भी अनिवार्य है।
‘फलदीपिका’ में भी इसी मत की पुष्टि की गई है “यदि चंद्र पूर्ण हो और चौथे, सातवें या दसवें भाव में बैठा हो और उस पर स्वराशि या उच्च की राशि में बैठे किसी प्राकृतिक शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा संगति का प्रभाव हो तो निम्न कुल में जन्म लेने वाला एक व्याध (शिकार करके जीवन-यापन करने वाला) भी राजा बन सकता है।“
7. चन्द्र के सम्बन्ध में एक और बात याद रखने की यह है कि चन्द्र सूर्य के समीप होता हुआ भी बलवान् समझा जाएगा यदि सूर्य स्वयं निर्बल हो।
जैसे सूर्य तुला राशि के चतुर्थ स्थान में हो और चन्द्र वृश्चिक राशि द्वितीय तिथि का पंचम भाव में तो भी चन्द्र बलवान समझा जाएगा। क्योंकि यहां सूर्य स्वयं तुला राशि में भी निर्बल है और चतुर्थ केन्द्र में भी दिक् बल को खोकर निर्बल है।
कुंडली में मंगल का प्रभाव
1. यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में मंगल वक्री होकर स्थित हो तो वह जातक को एक पल भी चैन और खुशी से जीने देना नहीं चाहता। विशेषकर वक्री मंगल पूरी वक्रता विंशोत्तरी दशा – अंतरदशा की अवधि में दिखाता है।
2. ‘जातक पारिजात’ में कहा गया है – “यदि मंगल कुंडली में उच्च का होकर या स्वराशि में होकर सूर्य, चंद्र और बृहस्पति की दृष्टि में या उनके साथ बैठा हो तो निम्न और निर्धन कुल में जन्म लेने वाला जातक भी पूरी पृथ्वी का रक्षक, सार्वभौम सम्राट बन सकता है।“
3. मंगल चतुर्थ स्थान में दिक् बल से शून्य अतः निर्बल होता है, अतः यदि मेष लग्न वालों को चतुर्थ स्थान में पड़ जाए और शुभदृष्ट न हो तो अल्पायु कर देता है।
4. लग्न में नीच राशि का मंगल अच्छा माना गया है, क्योंकि कर्क लग्न वालों के लिए यह ग्रह योगकारक होता हुआ अपनी एक राशि मेष से चतुर्थ (शुभ स्थान) तथा दूसरी राशि वृश्चिक से नवम पुनः शुभ स्थान में पड़ता है ।

नमस्कार । मेरा नाम अजय शर्मा है। मैं इस ब्लाग का लेखक और ज्योतिष विशेषज्ञ हूँ । अगर आप अपनी जन्मपत्री मुझे दिखाना चाहते हैं या कोई परामर्श चाहते है तो मुझे मेरे मोबाईल नम्बर (+91) 7234 92 3855 पर सम्पर्क कर सकते हैं । परामर्श शुल्क 251 रु है। पेमेंट आप नीचे दिये QR CODE को स्कैन कर के कर सकते हैं। कुंडली दिखाने के लिये पेमेंट के स्क्रीन शॉट के साथ जन्म समय और स्थान का विवरण 7234 92 3855 पर वाट्सप करें । धन्यवाद ।

5. कर्क लग्न वालों के लिए उच्च राशि का मंगल सप्तम स्थान में काहल योग बनाता है जो एक उत्तम राजयोग है। कारण, मंगल राजयोग कारक भी बन जाता है, केन्द्र में भी स्थित होता है, उच्च भी होता है तथा निज राशि मेष को भी देखता है ।
6. मिथुन लग्न का मंगल – यहॉ मंगल षष्ठाधिपति तथा एकादशाधिपति बन जाता है। एक तो मंगल हिंसाप्रिय है, फिर हिंसा स्थान (छठे) का स्वामी है, पुनश्च एकादश स्थान भी छठे से छठा होने के कारण हिंसात्मक ही है; अतः मंगल में बहुत हिंसा का समावेश हो जाता है। यदि केतु भी षष्ठ अथवा एकादश स्थान में पड़ा हो तो मंगल उग्रतम रूप में हिंसात्मक बन जाता है।
स्पष्ट है कि जितना-जितना अधिक इस मंगल का प्रभाव लग्नादि पर पड़ेगा, मनुष्य उतना उतना अधिक हिंसाप्रिय होता चला जाएगा। यदि इसका प्रभाव लग्न तथा चन्द्र पर हो जाए और मंगल शुभ प्रभाव में न हो तो मनुष्य बहुत हिंसाप्रिय, क्रूरकर्मों का करने वाला होता है।
यदि ऐसा मंगल लग्न में (मिथुन राशि में) हो और चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो मनुष्य घातक (Murderer), लुटेरा आदि होता है।
कुंडली में बुध का प्रभाव
1. बुध ही सात्विक ग्रहों में एक मात्र ऐसा ग्रह भी है जो कि मृत्यु स्थान समझे जाने वाले 8वें भाव में बैठकर भी शुभ फल देने में पूर्ण समर्थ होता है।
2. बुध का आचरण मानव मन की तरह होता है जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य सत्संगति में बैठकर सज्जन और कुसंगति में बैठकर दुर्जन बन जाता है। उसी प्रकार बुध शुभ ग्रहों के साथ अथवा उनकी दृष्टि में स्थित हो तो शुभ ग्रह की भांति और अशुभ ग्रहों के साथ बैठा हो तो अशुभ ग्रह की भांति आचरण करता है। यदि कुंडली में बुध अकेला और दग्धतामुक्त होकर बैठा हो तो शुभ ग्रह कहलाता है ।
3. बुध एक नपुंसक ग्रह है। जब यह एक दूसरे नपुंसक ग्रह शनि से मिलकर सप्तम भाव, सप्तम भाव के स्वामी तथा शुक्र इन सब पर अपना प्रभाव डालता है और उन तीनों वीर्य द्योतक अंगों पर इन दो के अतिरिक्त और कोई प्रभाव नहीं होता है तो मनुष्य नपुंसक होता है।
कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव
यदि बृहस्पति कुंडली में बलहीन और दुष्प्रभावित होकर बैठा हो तो संबंधित जातक के लिए अभिशाप होता है। ऐसी स्थिति में जातक मानवीय और धार्मिक भावनाओं से वंचित हो जाता है और उसकी अंतरात्मा गूंगी हो जाती है। उसके विचार कुमार्गी हो जाते हैं और वह ‘काम निकलना चाहिए, चाहे जिस तरीके से भी निकले’ की उक्ति का कायल, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और धन-लोलुप बन जाता है। ऐसा व्यक्ति आत्म-नियंत्रण खो बैठता है। वह निर्दयता, दिखावे, खर्चीलेपन की प्रवृत्ति रखता है।
वह झूठी आशाओं में जीता है और सस्ती लोकप्रियता पाने का इच्छुक होता है। वह संकीर्ण मानसिकता का और अत्यधिक आशावादिता का भी शिकार होता है। वह ढोंगी होता है और धर्म का दिखावा करता है। ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर पाप करने का शौकीन होता है। वह अपनी वासना का गुलाम भी होता है। उसे कभी भी अपनी करतूतों पर पछतावा नहीं होता । ऐसे व्यक्ति को बच्चे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते। सामाजिक रूप से वह गैर जिम्मेदार और पहले सिरे का बेशर्म होता है। उसे समाज पर बोझ समझा जा सकता है।
बृहस्पति को कर्क, धनु, मीन राशियों तथा केंद्र (1, 4, 9, 10) या त्रिकोण (5, 9) भावों में स्थित होने पर शुभ फल देने वाला और योगकारक कहा गया है। यदि उक्त स्थितियों में वह चंद्र या शुक्र या दोनों के साथ हो अथवा उनकी शुभ दृष्टि में हो तो अत्यंत प्रभावशाली योग देता है लेकिन उक्त स्थितियों में वह राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो योग निरस्त हो जाता है।
यदि बृहस्पति कमजोर और दुष्प्रभावित होने के साथ-साथ छठवें भाव, उसके स्वामी ग्रह, उसके कारक ग्रह शनि या मंगल, राहु अथवा केतु से उसका संबंध हो तो जातक को शारीरिक कष्टों की प्रबल संभावना होती है और यदि बृहस्पति का उक्त स्थिति में होने के साथ-साथ लग्न से भी संबंध हो तो निश्चित ही समझना चाहिए कि ऐसा बृहस्पति अपनी दशा-अंतर के दौरान जातक को शारीरिक कष्ट देगा।
यदि लग्नेश या लग्न भाव के कारक सूर्य या चंद्र से भी लग्न के साथ-साथ ऐसे बृहस्पति का संबंध जुड़ता हो तो पक्का है कि जातक रोगी होगा।
कुंडली में शुक्र का प्रभाव
1. किसी महिला की कुंडली के लग्न भाव में स्थित शुक्र पर यदि सूर्य, मंगल, यूरेनस, राहु आदि अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो वह अभिभावकों की रातों की नींद उड़ा सकती है। वह गुप्त विवाह कर सकती है और अपने प्रेमी के साथ घर से भाग भी सकती है।
यदि बुध, चंद्र आदि शुभ ग्रहों का संगति या दृष्टि प्रभाव लग्न में स्थित शुक्र पर हो तो वह महिला चंचल वृत्ति की तो होती है लेकिन समझदार भी होती है।
2. यदि किसी महिला की कुंडली में शुक्र 12वें भाव में बैठा हो तो उसकी शादी जल्दी कर देना ही ठीक रहता है। यदि इस भाव में बैठा शुक्र शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो महिला सुंदर और अपने पति की जरुरतों का पूरा-पूरा ध्यान रखने वाली होती है।
3. यदि शुक्र सप्तम भाव के स्वामी ग्रह के साथ बैठा हो तो जातक अत्यधिक रोमांसप्रिय होता है।
4. सातवें भाव का स्वामी यदि शुक्र ही हो और वह अपनी नीच की राशि में अथवा सूर्य की समीपता से दग्ध होकर अथवा अशुभ ग्रहों की संगति या दृष्टि से दुष्प्रभावित होकर कुंडली में बैठा हो तो जातक (पुरुष) को हृदयहीन, अमर्यादित और ठग प्रवृत्ति की पत्नी देता है।
लेकिन यदि वह सातवें भाव का स्वामी होकर शुभ नवांश में या मित्र ग्रह के नवांश में या उच्च नवांश में बैठा हो, शुभ ग्रहों का उस पर प्रभाव हो अथवा वह अपनी ही राशि में बैठा हो तो जातक की पत्नी गुणवंती, सहृदय और बतरसिया होती है ।
5. यदि शुक्र और बृहस्पति एक साथ हों अथवा शुक्र पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो जातक (पुरुष) को पत्नी सुंदर और गुणवती मिलती है यदि शुक्र के साथ कोई अशुभ ग्रह हो या अशुभ ग्रह उस पर दृष्टि रखता हो तो जातक की पत्नी न तो सुंदर होगी न गुणवती।
6. शुक्र एक विलासप्रिय ग्रह है। जब एक विलास भाव का स्वामी होकर दूसरे विलास भाव में स्थित होता है तो मनुष्य को विलासी तथा लम्पट बनाता है। जैसे सप्तम भाव में वृषभ का अथवा द्वादश भाव में तुला राशि का ।
7. शुक्र मुख का कारक है। जब मुख स्थान का स्वामी होकर शुभ प्रभाव में हो तो मनुष्य को सुन्दर बनाता है ।
कुंडली में शनि का प्रभाव
1. शनि जब सूर्य से 25° दूरी पर होता है तो वक्री हो जाता है और सूर्य से 109° अंश दूर रह जाने तक वक्री ही रहता है। यह अवधि लगभग 140 दिन की होती है। शनि की वक्रता हमेशा ही जातकों के लिए कष्टकर होती है। विशेषकर उन जातकों को तो शनि के वक्री होने से पहले अत्यधिक कष्ट होता है जिन पर उस समय शनि की महादशा अथवा अंतरदशा चल रही हो।
2. शनि का रंग काला है । यदि शनि तथा राहु लग्न, लग्नेश चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नेश, सूर्य लग्न, सूर्य लग्नेश तथा द्वितीयेश पर प्रभाव डालें तो मनुष्य के शरीर का रंग काला होता है ।
3. शनि की पृथकताजनक प्रवृत्ति का एक फल यह भी है कि शनि जब चन्द्र पर दृष्टि द्वारा प्रभाव डालता है तो मन को वैराग्यमय बना देता है और सांसारिक विषयों से विरक्त कर देता है।
कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव
1. राहु बुध की राशियों मिथुन व कन्या, शुक्र की राशियों वृष और तुला तथा शनि की राशियों मकर व कुंभ में बैठा हो तो भाव स्थिति भी अनुकूल होने पर वह स्वाभाविक शुभ ग्रहों से भी अधिक प्रभावशाली शुभ फल अपनी दशा और अंतरदशा के दौरान प्रदान करता है।
2. दुर्घटनाओं के कारक चार ग्रहों मंगल, शनि, राहु और केतु में से राहु की भूमिका प्रमुख और अधिपत्यकारी होती है। चौथा भाव वाहन और आठवां भाव जीवन काल के विषय में प्रतिनिधि समझे जाते हैं।
यदि किसी कुंडली में ये दोनों भाव कमजोर और दुष्प्रभावित हों तथा साथ-साथ चौथा और आठवां भाव परस्पर संबद्ध भी हों तो दुर्घटनाएं होने की और उनमें जान जाने की संभावनाएं बहुत अधिक होती हैं।
यदि दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार समझे जाने वाले ग्रहों की इन भावों में स्थिति हो अथवा उन ग्रहों की राशियां इन भावों में हों और साथ ही राहु-केतु की स्थिति (विशेषकर चौथे भाव में) हो तो दुर्घटनाएं होने की संभावना सर्वाधिक रहती हैं।
3. राहु तथा केतु अचानक फल देने के लिए प्रसिद्ध हैं। यह अचानक फल अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है।
यदि राहु नवम स्थान में हो और नवमेश बलवान हो, विशेषतया बुध नवमेश होकर बलवान् हो तो अचानक भाग्य चमक उठता है और अनजाने में ही बहुत लाभ तथा पदवी आदि प्राप्त हो जाते हैं।
इसी प्रकार राहु धन, पंचम, लाभ स्थान में लाटरी आदि द्वारा शुभ तथा अचानक फल देता है यदि इन भावों के स्वामी बलवान् हों ।
4. राहु जब शनि के साथ स्थित हो तो राहु की दृष्टि से सचेत हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में राहु की दृष्टि (जो कि सदा राहु से पंचम, सप्तम तथा नवम भावों पर पूर्ण रहती है) न केवल अपना ही अपितु शनि का प्रभाव भी रखती है और विशेष पृथकता आदि अनिष्ट फल को करने वाली होती है।
5. शुभ स्वक्षेत्री ग्रह के साथ मिलकर केतु विशेष लाभ देता है, जैसे स्वक्षेत्री शुक्र तुला राशि में केतु के साथ हो तो मनुष्य बहुत धनवान् होता है। यही योग नवम में हो तो बहुत भाग्यशाली राज्यमानी होता है।
6. केतु भी राहु की भांति अचानक फल देता है। केतु यदि योगकारक ग्रह के साथ स्थित हो तो केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी अपनी भुक्ति से अचानक लाटरी आदि से धन की प्राप्ति करवाता है।
7. यदि राहु और केतु पर ऐसे ग्रहों का अधिकतर प्रभाव है जोकि लग्न के मित्र हैं तो निस्संदेह राहु और केतु अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल करेंगे।
फलित रत्नाकर
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