ज्ञान का शिरोमणि स्वर योग ज्ञान नई पीढ़ी के लिए सर्वथा अछूती वस्तु है । कुछ-एक योगाभ्यासियों को छोड़कर अन्य प्रत्येक के लिए इसका ज्ञान और अभ्यास करवाना आज आवश्यक है । क्योंकि इससे अधिक सहज, सरल, कल्याणकारी एवं उपयोगी ज्ञान अन्य कोई नहीं है ।
इस विज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह थोडे से अभ्यास मात्र से ही सिद्ध किया जा सकता है । दूसरे योग के प्रारम्भिक चरणों में बिना किसी गुरु श्रादि के झंझटों से भी कार्य चलाया जा सकता है। इसमें विपरीत प्रभाव की लेशमात्र भी सम्भावना नहीं है । इस अध्याय में इस विषय पर सार संक्षेप सर्वसाधारण के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्रत्येक अभ्यासी को शान्त सदाचारी, शुद्ध, सात्विक, कृतज्ञ और दृढ़ संकल्प होना चाहिए । अन्य विद्याओं के विपरीत स्वर योग में यह अनोखी विचित्रता और विलक्षण गुण निहित है कि उपरोक्त गुण सम्पन्न व्यक्ति के निष्ठापूर्वक अभ्यास प्रारम्भ कर देने से उनमें स्वतः आवश्यक गुणों का प्रादुर्भाव होने लगता है । स्वर साधक के लिए अन्य साधनाएँ जैसे तत्व साधना, प्राण साधना, त्राटक, छाया साधना, ध्यान योग आदि स्वयं ही सहज प्रतीत होने लगती हैं ।
दैनिक जीवन में स्वर योग को प्रायोगिक रूप में प्रयोग करते रहने से व्यक्ति के समस्त दुर्भाग्य दूर होने लगते हैं अर्थात वह धीरे-धीरे समस्त परेशानियों से मुक्त हो जाता है । वह रोगों का शमन कर पूर्ण रूप से स्वास्थ्य लाभ कर सकता है । दुर्घटनाओं से उसकी रक्षा हो सकती है । वह मनवाँछित सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अपने अन्दर ऐसी शक्ति पैदा कर सकता है कि किसी का भी सम्मोहन कर अपने अनुरूप उससे कार्य करवा ले।
प्रत्येक व्यक्ति जीवित अवस्था में दिन और रात निरन्तर सांस लेता रहता है । साँस लेने और छोड़ने के मध्य एक स्वाभाविक अन्तर बना रहता है । श्वसन क्रिया में हमें लगता है कि नासिका के दोनों छिद्रों से समान रूप से क्रिया हो रही है । परन्तु ऐसा है नहीं ।
यदि थोड़े से अभ्यास के बाद नासिका छिद्रों पर ध्यान दें तो हमें पता चलने लगेगा कि श्वसन क्रिया दोनों छिद्रों से बराबर न होकर अदल-बदलकर होती रहती है । सांस के बहाव की स्थिति कभी-कभी दोनों छिद्रों से समान भी हो जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि स्वरों का प्रभाव नासिक छिद्रों से बदलता रहता है। यह पूर्णतया स्वाभाविक प्रक्रिया है । यदि अभ्यास किया जाए तो सरलता से स्वरों के बदलने को साधा जा सकता है अर्थात हम अपनी इच्छानुसार स्वर चला सकते हैं ।
स्वर के अनेक नाम प्रचलित हैं । कोई इसे ‘प्राण’ कहता है तो कोई ‘जीवन धारा’, योग शास्त्र स्वास-निस्वास को ‘प्राण वाहिनी नाड़ी’ कहता है । स्वर से स्थूल शरीर में प्राणशक्ति का संचार होता है इसलिए इसे प्राण शक्ति ही कहना अधिक उचित है । प्राणायाम द्वारा ही प्राणों की साधना होती है और प्राण साधना से टेलीपैथी सिद्ध की जाती है।
प्राण शक्ति विषय में जितना भी प्रवेश करेंगे विषय जटिल और गम्भीर होता जाएगा । विषय की एक अवस्था तक पहुँचने के बाद योग्य गुरु की कृपा और सानिध्य अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि आगे चलकर सहारे के बिना बढ़ना असम्भव है और गुरु से अच्छा सहारा कोई दे नहीं सकता । इस अध्याय में जितना मैं लिख रहा हूँ उतना अध्ययन ‘स्वान्तः सुखाय’ कोई भी सरलता और सहजता से स्वयं ही कर सकता है ।
जो वायु हमारी नाक के दाहिने छिद्र में प्रवाहित होती है उसे ‘दाहिना स्वर’, ‘सूर्य स्वर’ अथवा ‘पिंगला’ नामों से जाना जाता है। इसी प्रकार से बायीं नासिका छिद्र से प्रवाहित होने वाले स्वर को ‘बाँया स्वर’, ‘चन्द्र स्वर’ अथवा ‘इड़ा’ नामों से सम्बोधित करते हैं । इन्हें क्रमश: ‘सूर्य नाड़ी’ और ‘चन्द्र नाड़ी’ भी कहा जाता है ।
स्पष्ट शब्दों में इसे इस तरह समझ लीजिए कि यदि वायु का प्रवाह दायीं नासिका छिद्र से हो रहा है अथवा बाएँ से, तो उसे कहेंगे कि क्रमशः सूर्य स्वर चल रहा है या चन्द्र स्वर चल रहा है ।
नासिका छिद्रों में स्वर का प्रवाह स्वाभाविक रूप से बदलता रहता है । यह परिवर्तन लगभग एक-एक घण्टे के अन्तराल से होता रहता है । अर्थात यदि एक घण्टे सूर्य स्वर चल जाता है तो दूसरे घण्टे में चन्द्र स्वर स्वतः चलने लगता है और तीसरे घण्टे पुनः सूर्य स्वर प्रारम्भ हो जाता है ।
जब दायीं से बायी अथवा बांयी से दायीं नासिका छिद्र से वायु प्रवाह बदलता है तो उस समय कुछ काल के लिए दोनों स्वरों में समान प्रवाह होता है । स्वर के बदलने के समय को ‘स्वर का सन्धि काल’ कहते हैं । स्वर के समान प्रवाह को ‘सुषुम्ना नाड़ी’ कहते हैं ।
ईश्वर और उसकी सृष्टि विलक्षण, अद्भुत और अनन्त है । प्रभु की विचित्रता और पराकाष्ठा का जीता जागता उदाहरण मनुष्य है। यह एक ऐसा यन्त्र है जिसके माध्यम से अनेक ज्ञान संचित किए जाते हैं । स्वर के पीछे के ज्ञान को आज तक विज्ञान भी नहीं समझ पाया है । हमारे ऋषियों और योगियों को इसका पूर्ण ज्ञान था । वह पूर्ण रूपेण स्वर ज्ञानी थे और उनके चरणों में लक्ष्मी और समस्त ऐश्वर्य विराजते थे । यदि नाड़ी के अनुसार समस्त क्रिया कलाप किए जाएँ तो सौभाग्य की प्राप्ति होती है । किस नाड़ी के प्रवाह के समय कौन-कौन से कार्य करें कि हमारा दुर्भाग्य दूर हो, यह संक्षिप्त में वर्णन कर रहा हूँ ।
सूर्य स्वर
श्वास-निश्वास को थोड़ा सा साध कर ध्यान नासाग्र पर केन्द्रित करिए थोडे से अभ्यास में ही आप पहचानने में सिद्धहस्त हो जायेंगे कि कौन सा स्वर चल रहा है। यदि एकाग्रता से स्वर का पता न चले तो बारी-बारी से हाथ की ऊँगली द्वारा नाक के छिद्रों को क्रमशः बन्द करके तेजी से श्वास छोड़िए इस प्रकार दोनों छिद्रों में से अधिक प्रवाह वाला छिद्र आप अनुमान कर लेंगे । यदि दोनों स्वर तुलना करने पर समान दिखाई दें तो समझिए कि सुषुम्ना नाड़ी चल रही है । संयम के साथ ध्यान लगाते रहें फिर यह सब अत्यन्त सरल हो जायेगा । सूर्य स्वर प्रवाह काल में निम्नलिखित कार्यों का चयन करिए, अवश्य ही सफल होंगे।
क्रय-विक्रय, औषधि सेवन, गृह प्रवेश, यात्रा, व्यायाम, विरोध, मदिरापान, खेती, दान, बैरी को दण्ड देना, अपने से बलवान को वश में करना, युद्ध, विष का उपचार, भूत उतारना, लेन-देन ।
इनके अतिरिक्त सूर्य स्वर में उच्च साधनाएँ भी शीघ्रता से सिद्ध हो जाती हैं । यह साधनाएँ हैं— मोहन, मारण, उच्चाटन, वीरता, मन्त्रोपासना, यन्त्र-तन्त्र सम्बन्धी साधना, भूत, प्रेत, वेताल, यक्षिणी की साधना, षट्कर्मों की साधना तथा स्तम्भन सम्बन्धी आदि साधनायें ।
चन्द्र स्वर
चन्द्र स्वर, इड़ा अर्थात बायें स्वर में निम्नलिखित कार्य प्रारम्भ किए जायें तो पूर्ण लाभ प्राप्त करने की सम्भावना बढ़ जाती है । जैसे- व्याधि चिकित्सा, दिव्य श्रौषधियों का सेवन, पौष्टिक कर्म, अन्न और लकड़ी से सम्बन्धित वस्तुग्रों का संग्रह, यात्रा, दान, विवाह, आश्रम प्रवेश, यज्ञ, मित्रता, विद्यारम्भ, देव दर्शन के लिए प्रस्थान, देव मूर्तियों की स्थापना, मन्त्र सिद्ध करना, दीक्षा लेना, मोक्ष प्राप्ति हेतु कर्म करना, द्रव्य संचय, बन्धु-बान्धवों से मिलने जाना, गीत, नृत्य तथा शास्त्र सम्मत कार्य, अपने अधिकारी के पास जाना, घर में पशु लाना, राज मन्दिर अथवा जलाशय बनवाना, आभूषण धारण करना, तिलक लगाना (विशेषकर जब सम्मोहन के लिए लगाना हो) तथा गुरु आदि की पूजा करना आदि ।
शून्य स्वर
शून्य स्वर, रिक्त अथवा सम स्वर भी कहते हैं । सम स्वर की अवस्था में प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित होता है । शून्य स्वर के समय सांसारिक कार्य नहीं करने चाहिए । इस काल में दुष्ट कर्म और योगाभ्यास ही करना चाहिए । मोक्ष प्राप्ति सम्बन्धी कार्य करने के लिए समकाल सर्वश्रेष्ठ माना गया है । यह काल काम, क्रोध, मोह, लोभ, और अहंकार पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत ही प्रभावकारी है । इस काल में कहीं की भी यात्रा सर्वथा वर्जित मानी गई है ।
स्वर के बहाव का समय
जिस प्रकार से प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का समय निश्चित है । ठीक उसी प्रकार से स्वर के बहने का समय भी निश्चित है । दिन, रात, सूर्य ग्रह, नक्षत्र तथा मौसम आदि का प्रकृति ने एक नियम निर्धारित किया है । सब कुछ उसी क्रम में निरन्तर घटता रहता है। स्वर के बहाव का समय सूर्योदय से निर्धारित किया जाता है । वैसे स्वर के बहाव को लेकर अनेक मत हैं ।
कुछ मानते हैं कि स्वरों का बहना निश्चित नहीं है । कुछ की मान्यता है कि यदि व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ है तब ही उसकी सांस एक सुनिश्चित क्रम में बहेगी अन्यथा उसका कोई क्रम नहीं रहेगा । मेरी अपनी स्वयं की मान्यता है कि स्वर का कोई क्रम नहीं होता । शरीर में ऊर्जा का सामंजस्य बना रहे उसी के अनुरूप गरम अथवा ठण्डे अर्थात सूर्य और चन्द्र स्वर का बहना प्राकृतिक नियम से स्वत. होता रहता है।
कुछ आधारभूत नियमों के तथा कृष्ण पक्षों में सूर्य उदय के अनुसार तिथि और शुक्ल समय क्रमशः चन्द्र और सूर्य स्वरों का प्रवाह प्रारम्भ होना माना गया है । फिर उत्तरोत्तर एक-एक घण्टे के अन्तराल से स्वर परिवर्तित होते रहते हैं । इस प्रकार पूरे दिन भर में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी में प्रवाह होता है । इस नियम में परिवर्तन होने अर्थात सूर्योदय के समय से विपरीत नाड़ी में प्रवाह होने से दुर्भाग्य, हानि, नाश, मृत्यु, व्याधि आदि की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
इसीलिए ऋषि मुनि विपरीत स्वर प्रवाह होते ही उसे अपने अनुकूल प्रवाहित करने लगते थे और दुर्भाग्य से कोसों दूर रहते थे। स्वर बहने का समय कुछ भी हो परन्तु यह अकाट्य सत्य है कि विपरीत स्वर बहने से अनिष्ट की सम्भावना बढ़ जाती है ।

स्वर प्रवाह अनुकूल करना
स्वर के प्राकृतिक नियमानुसार यदि वांछित स्वर की प्रतीक्षा में बैठे रहेंगे तब तो गाड़ी ही छूट जाएगी। कुछ सरल प्रयोगों द्वारा हम स्वर को अपनी इच्छानुसार वांछित नाड़ी में प्रवाहित करवाकर मनवांछित फल की प्राप्ति कर सकते हैं ।
प्रयोग 1: ध्यान लगाकर देखिए कि आपका कौन सा स्वर चल रहा है । माना कि आपका चन्द्र अर्थात बांया स्वर चल रहा है और आप चाहते हैं कि आपका सूर्य अर्थात दांया स्वर चलने लगे । आपका जो भी स्वर चल रहा है आप उसके विपरीत स्वर को ऊँगली से दबाकर चल रहे स्वर से श्वास ऊपर खींचें तथा जो नहीं चल रहा है अथवा कहें कि जिसको आपने ऊँगली से बन्द कर लिया था उससे ऊँगली हटाकर अब उससे श्वास बाहर छोड़ें। यही क्रिया आप दोहराते रहें । पांच मिनट में ही आपका वांछित स्वर चलने लगेगा ।
प्रयोग 2: जिस स्वर को चलाने की आप आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं उससे विपरीत करवट से आप लेट जायें । उदाहरण के लिए मान लीजिए आपको दायां स्वर चलाना है तो आप बांए करवट से पूरे शरीर के बांए अंग पर जोर देते हुए पाँच मिनट तक निश्चल लेटे रहें । पूरा ध्यान आप दांए स्वर पर ही केन्द्रित करके रहें । पाँच मिनट में ही आपका दांया स्वर चलने लगेगा ।
प्रयोग 3: मैं अपने कार्यों के लिए यह प्रयोग अधिक सुविधाजनक मानता हूँ क्योंकि इस प्रयोग से कहीं भी और कैसी भी परि-स्थिति में वांछित स्वर चलाया जा सकता है । इस प्रयोग के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति और चित्त की एकाग्रता की आवश्यकता है ।
अपना चित्त नासिका छिद्रों के सबसे संवेदनशील भाग पर लगाइए । एक पल में ही आप प्रवाहित हो रहे स्वर को परख लेंगे । अब जिस स्वर को चलाना हो सारा ध्यान उसके संवेदनशील भाग पर केन्द्रित करके श्वास-निश्वास इतनी लें कि वह वहीं तक ही सीमित होती लगे । इस प्रकार से आपका वांछित स्वर चलने लगेगा । इस प्रयोग में लम्बे अभ्यास की आवश्यकता है परन्तु एक बार यदि अभ्यास हो जाये तो यह प्रयोग सबसे सरल लगने लगेगा ।
इस प्रकार अनुकूल स्वर के कार्य सुगमता से प्रारम्भ किए जा सकते हैं । साधारणतः जब भी विपरीत स्वर प्रारम्भ हो जाए तब समझ लीजिए दुर्भाग्य पीछा करने वाला है ।
स्वर से दूर करें दुर्भाग्य
स्वर विज्ञान के संक्षिप्त से परिचय द्वारा पाठक सम्भवतः इसकी उपयोगिता भली-भाँति समझ गए होंगे। स्वर विज्ञान क्या है, इसे कैसे अपने अनुकूल बनाया जाए यह भी अब तक स्पष्ट हो गया होगा ।
यहाँ पाठकों के लाभार्थं दो सरल परन्तु उतनी ही महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत कर रहा हूं। इनका अनुसरण करके आप भी दुर्भाग्य को दूर भगा सकते हैं ।
प्रयोग 1: पक्ष, तिथि अथवा नक्षत्र मुहुर्त के झंझट में न पड़कर प्रातःकाल मात्र एक बार अनुकूल स्वर के अनुसार उठने की आदत डालिए, आपका सारा दिन अच्छा बीतेगा । प्रातः काल उठते समय सप्ताह के दिनों का ध्यान रखिये। इन दिनों के अनुरूप ही प्रातः उठते समय स्वर बहना चाहिये । यदि ऐसा नहीं है तो स्वर को अनुरूप करने का यत्न करिए। जो स्वर प्रातः चल रहा हो सर्वप्रथम उस तरफ की हथेली की रेखायें देखें । प्रभु से दीन होकर दिन अच्छी तरह से व्यतीत होने की प्रार्थना करें। फिर उस हथेली को उस तरफ की ही कनपटी और गाल तथा आँख पर फिरायें। उसके बाद धरती पर पैर रखने से पहले बहने वाले स्वर की हथेली की अनामिका उँगली से स्पर्श करके माथे से लगायें । अब उस तरफ का ही पैर सर्वप्रथम धरती पर उतारें । प्रातः उठने पर पृथ्वी को माथे से लगाने का यह नियम बना लें। प्रभु सदैव आपकी दुर्भाग्य से रक्षा करेंगे। किस दिन प्रातः कौन सा स्वर चलना शुभ है, यह यहाँ दे रहा हूँ :-
सप्ताह का दिन | चलने वाला स्वर |
सोमवार | बायां |
मंगलवार | दायां |
बुधवार | बायां |
गुरुवार | दायां |
शुक्रवार | बायां |
शनिवार | दायां |
रविवार | दायां |
प्रयोग 2: शरीर में श्वास का जो प्राथमिक स्रोत है उसे जापानी भाषा में ‘तान्देन’ कहते हैं । यदि श्वास सामान्य रूप से चलती है तो नाभि से दो इंच के लगभग नीचे तान्देन से उसका सम्बन्ध होता है यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयोग है पाठक कृपया ध्यान से पढ़कर इसे व्यक्तिगत जीवन में अवश्य अपनायें । व्यक्ति तान्देन के जितने ही ऊपर से श्वास लेगा उतना ही वह तनाव से भरता जाएगा । परन्तु पेट से श्वास लेने को सामान्यतः मना किया जाता है। यही शिक्षा दी जाती है कि छाती चौड़ी करके चलो । छाती चौड़ी तब ही होगी जब श्वास को फेफडे तक ही खींचकर छोड़ा जाता रहे । अनेक लड़कियों और महिलायों को शिक्षा दी जाती है कि पेट तक श्वास खींचने से उनके स्तन जल्दी ढीले पड़ जायेंगे । परन्तु यह सर्वथा अनुपयुक्त है ।
नाभी के नीचे जहाँ तान्देन बिन्दु है ठीक उसके निकट ही वीर्य ऊर्जा का बिन्दु माना गया है । इसलिए तान्देन तक श्वास अन्दर लेते रहने से जननेन्द्रिय पर भी उसका प्रभाव पड़ता है । व्यक्ति रात में जब सोता है तब उसका पूरा स्वास चलता है अर्थात वह तान्देन तक चोट करता है। इसलिए ही रात्रि को गहरी निन्द्रा में होने पर भी प्रायः जननेन्द्रिय में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है । मेहनत का कार्य करने वाले, खिलाड़ियों अथवा पहलवानों में मात्र फेफड़ों से ही सांस लेने के कारण प्रायः नपुंसकता आ जाती है ।
इस प्रयोग में आपको निरन्तर यह अभ्यास करना है कि श्वास के आने और जाने में सीना तो शिथिल रहे और पेट ऊपर नीचे गिरता रहे अर्थात पूरा श्वास नाभी तक खींचना है । दूसरे इस बात पर ध्यान केन्द्रित करिए कि श्वास बाहर की ओर धक्का दिया जा रहा है । अन्दर आती हुई श्वास को स्वतः ही नाभी तक आने दीजिए ।
यदि आप श्वास की इस आने-जाने की प्रक्रिया का अभ्यास कर लेते हैं तो शीघ्र ही आप अनुभव करने लगेंगे कि आप एक दम तनाव मुक्त हैं तथा क्रोध और ईर्ष्या से कोसों दूर हो गए हैं । तब आपको लगने लगेगा कि आपका व्यक्तित्व सन्तुलित हो गया है ।
आज के युग में लगभग प्रत्येक व्यक्ति तनाव से पीड़ित देखा गया है । वास्तव में यह कोई बीमारी नहीं है । मात्र आपकी प्रवृत्ति है। इसे सब दुर्भाग्य कहकर कोसते रहते हैं । इस प्रयोग द्वारा व्यक्ति दुर्भाग्य को भूलकर सुख-शान्ति की नींद सो सकेगा ।
प्रस्तुत पाठ में स्वर विज्ञान का मैंने संक्षिप्त सा परिचय दिया है । वास्तव में यह विज्ञान एक बहुत ही गूढ़ विषय है जितना गहरा इसमें पैठते जायेंगे उतनी ही नन्द की अनुभूति आपको अनुभव होने लगेगी । परन्तु इतना ध्यान रखिए स्वर विज्ञान की इस रेखा से आगे बढ़ने के लिये आपको किसी योग्य गुरु की शरण में अवश्य जाना पडेगा । मेरी चेतावनी भी है कि योग्य गुरु के बिना इसमें आगे बढ़ने का प्रयास न करें, अन्यथा आप हानि उठा सकते हैं ।
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