यदि जातक का विवाह नहीं हो तो सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि उसकी कुण्डली में ऐसा क्या योग है कि विवाह नहीं हो रहा है । विवाह, दाम्पत्य जीवन, स्त्री संबंध और यौन-सुख इन विचारों के साथ ही सप्तम भाव, सप्तमेश, सप्तम भाव कारक शुक्र का भी ध्यान किया जाना आवश्यक है

इन सबके अतिरिक्त विवाह और स्त्री संबंध की लेखा-जोखा देखने के लिए जन्म कुण्डली में कुछ अन्यान्य कोणों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना परम आवश्यक है।

मैं अपनी खोज, अन्वेषण, अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि सप्तम भाव, सप्तमेश, शुक्र इन्हीं को आधार बनाकर कुण्डली में प्रथम, द्वादश, पंचम भाव व चन्द्रमा की स्थिति को भी देखना आवश्यक है

इस प्रकार सांगोपांग अध्ययन करके ही एक अच्छे ज्योतिषी को फलादेश कहना चाहिए। ‘अविवाहित योग’ के अन्तर्गत मैं आगे कुछ योगों का उल्लेख करूंगा :-

1. यदि जन्म कुण्डली में पाप ग्रहों की स्थिति प्रथम, सप्तम व द्वादश भावों में हो और साथ ही क्षीण चन्द्रमा पंचम भाव में हो या वह किसी पाप ग्रह की राशि में हो या नीच राशिस्थ वृश्चिक राशि में हो तो ऐसे ग्रह योग में उत्पन्न जातक जन्मभर अविवाहित रहता है

1.1 प्रथम भाव अर्थात् लग्न या तनु स्थान मनुष्य का उद्गम या उद्भव का मूल स्रोत होता है या केन्द्र है, अतः लग्न का अपना महत्त्व सर्वोपरि है। यह भाव परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण जीवन को प्रभावित करता है।

अतः ऐसे सहज स्थान पर पाप ग्रह की स्थिति शारीरिक भौतिक सुख के वास्ते बाधाकारक है और ऐसी स्थिति में जन्म लग्न (प्रथम भाव) में स्थित पाप ग्रह अपनी पाप दृष्टि से सप्तम भाव को भी कलुषित करता है । जिससे दाम्पत्य संबंधी फल भोगने में जातक को वंचित होना पड़ता है।

1.2 इसी प्रकार सप्तम भाव में पाप ग्रह की स्थिति प्रत्येक परिस्थिति में वैवाहिक सुखी जीवन के लिए अवांछनीय है और कुछ पूरक दोषों सहित सप्तम में पाप ग्रह का होना विवाह संबंधी कार्यों में प्रतिकूलता लिए होने के साथ ही साथ दाम्पत्य सुख से जातक को वंचित करता है।

1.3 द्वादश भाव शय्या-सुख स्थान है। ऐसे भोग स्थान में पाप ग्रह का होना जातक को स्त्री सुख से वंचित करता है।

1.4 चंद्र बुद्धि का कारक ग्रह है और पंचम भाव जातक का बुद्धि स्थान है। ‘कारको भाव नाशाय’ के अतिरिक्त ऐसे बुद्धि स्थान में क्षीण चंद्र (पापी) का होना सांसारिक के प्रति उदासीनता को बढ़ाता है और जातक को इस दिशा में कायर बनाता है। बुद्धि कारक चंद्र का क्षीण होकर सहज पाप ग्रहों की राशि में स्थित होना भी उक्त बात को बढ़ावा देता है।

2. यदि कुण्डली में शनि सप्तम भाव में स्थित हो और शनि पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो ऐसा जातक आयुपर्यन्त अविवाहित रहता है।

शनि प्रबल पाप ग्रह होने के कारण उसका जन्म कुण्डली में सप्तम भाव में जाना और उस पर पुनः पाप ग्रहों की दृष्टि होना सप्तम भाव संबंधी बातों को निर्बल और निर्वीर्य बनाता है। परिणाम स्वरूप अवैवाहिक जीवन-यापन करना पड़ता है।

3. यदि सप्तम भाव पाप कर्तरी योगगत है अर्थात् 6/8 वें भाव में पाप ग्रह (सूर्य, मंगल,शनि,राहु,केतु) में से कोई हो तो गृहस्थ सुख के लिए चाहे जितना प्रयास करें, नहीं मिलेगा। आजीवन नारकीय जीवन व्यतीत करना होगा।

4. सप्तम शुक्र अतिभोगी बना असंतुष्ट ही रहेगा एवं गलत संबंध बनायेगा ही।

5. यदि जातक सूर्य, चन्द्र व लग्न तीनों से मंगली है, ऐसी अवस्था में जातक विधुर या विधवा होगी ही यह अटूट सत्य है ।

उदाहरण

कुंडली संख्या 1

यहां कुंडली संख्या 1 में

  • जन्म लग्न में पाप ग्रह केतु स्थित है और सप्तम भाव में राहु स्थित है।
  • बारहवें भाव में शनि होने से दूषित है।
  • चंद्रमा मंगल की राशि में है और शनि के साथ होकर मंगल द्वारा दृष्ट है।
  • पंचम भाव में भी पाप ग्रह मंगल है।

इसी कारण जातक अविवाहित है।

कुंडली संख्या 2 में

  • यहां लग्न में राहु व सप्तम भाव में केतु-मंगल जैसे दो पाप ग्रहों के साथ चंद्रमा है।
  • व्यय भाव में शनिश्चर द्वारा दूषित है।
  • चंद्रमा पाप ग्रह की राशि में पाप मध्य है।
  • शुक्र शत्रु राशिस्थ है।

अतः जातक अविवाहित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

विवाह क्यों नहीं ?

आपको भली प्रकार ध्यान होना चाहिए कि सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु पांच ग्रह पृथकतावादी हैं। जब इन ग्रहों का प्रभाव विवाह के कारकों पर पडता है तो गृहस्थ जीवन में समस्या होती है। आईये इसे कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं। कुण्डली संख्या 3 में आप देखेंगे कि

  • लग्नेश जहां स्वगृही है वहीं राहु के साथ राहु-गुरु ‘चाण्डाल योग’ की सृष्टि कर रहा है ।
  • सप्तम भाव पर राहु की एवं शनि की दृष्टि है और ये दोनों ग्रह पृथकतावादी ग्रह है। स्वयं सप्तम भाव में केतु पृथकतावादी ग्रह है।
  • मंगल चतुर्थ दृष्टि सप्तम भाव पर डाल रहा है। मंगल स्वयं भी पृथकतावादी ग्रह है
  • भोगकारक शुक्र शत्रु व रोग भावस्थ विराजमान है। इतना ही नहीं शुक्र महापापी क्रूर ग्रह सूर्य के साथ है।
  • सूर्य स्वयं भाग्येश होकर शत्रु भाव व शत्रु राशि में है। जातक लग्न से चतुर्थ मंगली दोष ग्रसित है।
  • स्वयं चन्द्रमा अष्टम भाव में हैं तथा गुरु से षडाष्टक है।
  • सप्तम भावस्थ बुध नपुंसक ग्रह है तथा अपने प्रबल शत्रु चंद्र से द्वादश है। बुध से सूर्य द्वादश है। बुध, शनि-राहु से पीड़ित है।

इस प्रकार इन पृथकतावादी ग्रहों के प्रभाव के कारण एवं दूषित सप्तम भाव के कारण चालीस की वर्षायु होने पर भी अभी तक विवाह नहीं हो पाया है तथा विवाह भाव ही उत्पन्न नहीं होता ।

विवाह होकर भी नहीं हुआ !

यहां कुण्डली संख्या 4 में

  • लग्नस्थ लग्नेश शनि स्वगृही है तथा सातवीं दृष्टि से सप्तम भाव को एवं अपनी विशेष तीसरी दृष्टि से सप्तमेश सूर्य को देख रहा है। इस प्रकार सप्तम भाव के व सप्तमेश पापाक्रान्त हो गया है।
  • सप्तम कारक शुक्र दो पाप ग्रहों के मध्य अर्थात् सूर्य व राहु के मध्य पाप कर्तरी योग बना रहा है।
  • गुरु जो विवाह करवाने का कारक है। पाप ग्रह सूर्य के व अष्टमेश बुध साथ पीड़ित है। इतना ही नहीं गुरु-शनि से दृष्ट होकर भी पीड़ित है ।
  • सप्तमेश सूर्य स्थित राशि का स्वामी मंगल भी सूर्य व शनि के मध्य पाप कर्तरी योगान्तर्गत है।
  • शुक्र अपनी भाग्य स्थित राशि तुला राशि से से षडाष्टक कर रहा है।
  • वहीं गुरु अपनी राशि से व शनि अपनी राशि से द्वि-द्वादश योग बना रहा है।
  • बुध अपनी कारक राशि कन्या से षडाष्टक बना रहा है एवं शनि दृष्ट भी है।

मात्र गुरु की सप्तम भाव पर जहां दृष्टि है वहीं सप्तमेश सूर्य उच्च राशिस्थ के साथ होकर शुभत्व देने के कारण जातक का विवाह अवश्य हो गया परन्तु पृथकतावादी ग्रह सूर्य, शनि, मंगल, राहु, केतु के दुष्प्रभाव के कारण एक सप्ताह के बाद ही पत्नी छोड़कर चली गई एवं अन्यत्र अपने संबंध बना लिये। सप्तम भाव, सप्तमेश, भोग कारक शुक्र, चन्द्रमा राशीश व मानसिकता का स्वामी दूषित होने के कारण ऐसा हुआ।

यदि सन्तान भाव पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि

  • स्वयं राहु जो पृथकतावादी ग्रह है पंचम भाव में है।
  • पंचम भाव को मंगल चतुर्थ दृष्टि देख रहा है।
  • पंचम भाव का स्वामी बुध सूर्य से पापाक्रान्त है
  • पंचम भाव का कारक ग्रह गुरु क्रूर पापी ग्रह सूर्य के साथ जहां अस्त है वहीं मंगल के सन्निकट व पृथकतावादी ग्रह शनि से दृष्ट है।

मंगल या मंगली दोष क्या है?

मंगल एक क्रूर ग्रह है और ये जहाँ बैठता है उससे 4, 7, 8 स्थान पर पूर्ण दृष्टी से देखता है। बहुत क्रूर ग्रह होने के नाते मंगल जहाँ बैठता है और जहाँ देखता है उन भावों के शुभ प्रभावों को नष्ट करता है ।

कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश स्थान पर मंगल की उपस्थिति जातक को मंगली बनाती है। आइये! देखें मंगल कहां-कहां उपस्थित होकर क्या-क्या दोष प्रदान करता है?

1. यदि लग्न में मंगल उपस्थित है तो उसकी दृष्टि चतुर्थ भाव, सप्तम भाव और अष्टम भाव पर रहेगी । चतुर्थ भाव पर मंगल की दृष्टी से जातक भूमि-भवन सुख रहित तथा अपने स्वभाव के कारण जन-मानस की नजर में आदर का पात्र नहीं होगा। आवेशवशात् निर्णायक बुद्धि का अभाव तथा गलत निर्णय लेकर बार-बार पछतायेगा। पति/पत्नी के विचारों में भारी-मतभेद सहज स्वाभाविक है तब एक पक्ष अति भोगी व प्रतिपक्ष शांत, अल्प भोग रुचि वाला होगा।

सप्तम भाव भोग सुख का है और इस भाव पर मंगल की दृष्टी से जातक के गृहस्थ जीवन में उत्तेजना, आवेश देगा। अतिशय भोगी, भोग में क्रूरता प्रदान करेगा। पत्नी / पति के प्रति क्रूर तथा जातक सुखहीन होगा। ऐसी अवस्था में गृहस्थ जीवन में विघटन, टूटन, विरोध, मानापमान रहना उचित है । मूलतः मंगल दृष्टि प्रभाव से सुख, गृहस्थ एवं बुद्धि बल को जला देता है।

2. यदि मंगल चतुर्थ भाव में है तो उसकी दृष्टि सप्तम भाव, दशम भाव और एकादश भाव पर रहेगी । सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि से गृहस्थ सुख, भोग सुख, व्यापार, घोर उत्तेजना, आवेश, कोध के वशीभूत हो गृहस्थ सुख में न्यूनता प्रदान करेगा ।

वहीं दशम भाव पर मंगल की दृष्टि से कर्महीन होगा। बार-बार नौकरी या व्यापार बदलता रहेगा। पिता से घोर विरोध, अनबन रहेगी। पिता-पुत्र विचारधारा में जमीन-आसमान का अंतर होगा।

ऐसी स्थिति में आर्थिक लाभ में न्यूनता सहज स्वाभाविक है। न कमाने वाला जातक किसी को भी प्रिय नहीं लग सकता। कार्य-व्यवसाय में लाभ से वंचित आवेशी जातक जन-मानस में अपमान का कारक बन जाता है और यही कारण है कि उसका जीवन दुःखी रहता है।

3. यदि मंगल सप्तम भाव में है तो उसकी दृष्टि दशम भाव, लग्न और दूसरे भाव पर रहेगी । सप्तम भाव में अर्थात् स्वयं गृहस्थ भाव में मंगल रहने पर गृहस्थ सुख में भारी बाधा का कारक बन जाता है।

लग्न पर पूर्ण दृष्टि रहने के कारण प्रतिपक्षी घोर जिद्दी, आवेशी, क्रोधी, अति भोगप्रिय, अप्राकृतिक मैथुन करने वाला होगा। फलतः सेक्स रूप में जातक संतुष्ट नहीं होता।

सप्तम का अष्टम कुटुम्ब भाव होने के कारण कुटुम्ब से विरोध अनबन रहे तो आश्चर्य नहीं? पितृ विरोधी व कर्महीन जातक सुखी नहीं रहता और जीवन में घर-जातक के जीवन में शेष क्या रह जाता है?

4. यदि मंगल अष्टम भाव में है तो उसकी दृष्टि एकादश भाव, दूसरे भाव और तीसरे भाव पर रहेगी । मंगल की दूसरे भाव पर दृष्टी से जातक का घर परिवार, कुटुम्ब, धन-धान्य, समृद्धि से रहित होगा। जब वह अर्थोपार्जन ही नहीं करेगा तो संपत्ति कैसे बना पायेगा। उल्टे पैतृक संपत्ति का भी वह नाश करेगा।

मंगल की तीसरे भाव पर दृष्टी से जातक अकर्मण्य, आलसी तथा पराक्रम से हीन होगा। भाई उन्हें नकारा जान किनारा कर लेंगे। सामाजिक मान-सम्मान में न्यूनता आयेगी और मित्र साथ छोड़ देंगे और ऐसी अवस्था में पति-पत्नी में मधुरता रहे, यह संभव नहीं ।

5. यदि मंगल द्वादश भाव में है तो उसकी दृष्टि तीसरे भाव, छठे भाव और सप्तम भाव पर रहेगी । ऐसा मंगल स्वयं द्वादश भाव में होकर अर्थ रहित, लाभ का यथेष्ट भाग अपव्यय करता है। बार-बार अपमानित होता है। भाई मित्र साथ छोड़ जाते हैं तथा निरन्तर रोग, शोक, शत्रुओं से घिरा रहता है।

अपनी परिस्थितियों, हीनता, अपमान, निराशा, कुंठा, संत्राश का बदला वह प्रति-पक्षी पत्नी/पति से निकालता है। क्रोध व आवेश के वशीभूत अपना जीवन नरक बना लेता है। पति-पत्नी में निरंतर अविश्वास व विरोध बना रहता है।

कब मंगली दोष भंग हो जाता है ?

कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश स्थान पर मंगल की उपस्थिति होने के बावजूद मंगली दोष नहीं होता जब :-

1. मंगल कुंडली का कारक ग्रह हो। जैसे सिंह लग्न की कुंडली में मंगल बहुत ही शुभ ग्रह होता है ऐसा मंगल किसी भी स्थिति में मंगली दोष नहीं दे सकता।

2. जब मंगल स्वराशि यॉ उच्च राशि (1, 8, 10) में हो।

3. जब मंगल पर शुभ ग्रहों (गुरु, शुक्र, पूर्ण चंद्र) का प्रभाव हो।

क्या 28 वर्षायु के बाद मंगल का दोष नहीं रहता ?

प्रायः कहा जाता है कि 28 वर्षायु के बाद मंगल का दोष नहीं रहता है। क्या 28 वर्ष के बाद मंगल आकाश मार्ग से लुप्त हो जाता है? या कि प्रभावहीन हो जाता है? मूलतः जब कन्या 28 वर्ष की हो जाती है और कारण-अकारण विवाह नहीं हो पाता है तो माता-पिता की मानसिकता मात्र यह रह जाती है कि अब देश-काल-परिस्थिति देखते हुए येन-केन-प्रकारेण हाथ पीले कर ससुराल विदा कर दी जाये।

प्रायः यह सोच बन जाती है कि लड़का या लड़की में या तो कोई चारित्रिक दोष होगा या कि कोई रोग होगा या कि आर्थिक विषमता चरमावस्था में होगी या कि पुनर्विवाह होगा आदि अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं और तब मंगली होना और न होना छोड़कर कुण्डली मिलान किये बिना ही विवाह कर दिया जाता है।

साथ ही जब कुण्डली मिलाने की बात आये तो मात्र नक्षत्र से नक्षत्र का मिलान कर गुण देख लेना ही यथेष्ट नहीं होता। गुण मिलान तो मात्र एक स्थूल रूप है। स्वयं व्यक्तिगत कुण्डली में मानसिकता, भोग, सौभाग्य योग, सन्तान, आयु कारक ग्रह योगायोग भी देखना चाहिए।

मंगल दोष के अतिरिक्त कुण्डली मिलाने में क्या देखें ?

1. लग्न – परस्पर स्त्री-पुरुष के संबंधित लग्न में 3/11, 5/9, 4/10, 7/7 का संबंध शुभता देता है वहीं 6/8, 2/12 का संबंध निरन्तर कटुता, वैमनस्यता, अविश्वास प्रदान करता है। लग्न और लग्नेश सम्पूर्ण जीवन का प्रतिनिधित्व करता है।

2. चन्द्र – अर्थात् राशि चरित्रबल, मानसिकता, वैचारिकता प्रदान करता है और पारस्परिक राशि से राशि संबंध 5/9, 4/10, 3/11, 7/7 का होना ही श्रेष्ठ पर 2/12 या 6/8 का संबंध अशुभता ही देगा।

3. गुरु – शिक्षा, बौद्धिक पक्ष, समझ, आय, सन्तान पक्ष उजागर करता है।

4. शुक्र – भोग, गृहस्थ, स्थायी संपत्ति के रूप में शुभता देखना आवश्यक है। यदि परस्पर 6/8, 2/12 का संबंध हो तो शुभता नहीं रह सकेगी।

5. आयुकारक व अष्टमेश – आयुकारक शनि की स्थिति भी देख लेनी चाहिए।

उपर्युक्त सभी बिन्दुओं पर विचार कर जातक को संतुष्ट कर निर्णय दें। इन सब बातों को समझने के लिये निम्न उदाहरण को देंखे ।

कुंडली संख्या 5, वर
कुंडली संख्या 6, कन्या

लग्न – संपूर्ण जीवन 6-8 नेष्ट

राशि – स्वभाव, चरित्र, मानसिकता 3-11 श्रेष्ठ

गुरु – सन्तान, शिक्षा, आय, लाभ 6-8 नेष्ट

शुक्र – भोग, ऐश्वर्य, संपत्ति 10-4 श्रेष्ठ

अष्टमेश – परस्पर शत्रु बुध, मंगल, नेष्ट

दोनों में कन्या मंगली भी नहीं हैं। वर मंगली है। ऐसी अवस्था में परस्पर विवाह करना उचित भी नहीं माना जा सकता ।

मांगलिक दोष निवारक उपाय

अगर किसी जातक के विवाह में यॉ दामपत्य जीवन में मंगल के कारण समास्या आ रही हो तो इस अवस्था में मंगल कवच का नित्य एक पाठ करना श्रेष्ठ फलदायक है। पूजा स्थान पर “त्रिकोणात्मक मंगल यन्त्र” प्राण-प्रतिष्ठा युक्त स्थापित कर दें तथा सामान्य पूजा करें।

पूजा के समय साधक का मुंह दक्षिण में रहे तो उत्तम है। लाल वस्त्र धारण किये रहें एवं लाल आसन पर सुखासन या वीरासन में बैठें। अपने समक्ष एक तामड़ी या थाली में यन्त्र लेकर शुद्ध जल से धो-पोंछ कर पुनः पूजा-स्थान पर बिछे लाल वस्त्र पर यंत्र दीवार के सहारे खड़ा करें।

हाथ धोकर लाल कुंकुम (रोली) या सिंदूर का यन्त्र पर तिलक करें। रंगे हुए लाल चावल तिलक पर चढ़ायें। मौली अर्थात् कलावा चढ़ाएं। लाल पुष्प चढ़ाए तथा गुड़ का भोग लगायें। यह सब करते समय अनवरत घी का दीपक जलते रहना चाहिए। हाथ जोड़ प्रणाम करें तथा निम्न कवच का पाठ करें ।

दाहिने हाथ में जल लें उसमें रोली-पुष्प डालें तथा निम्न का उच्चारण करते हुए जल छोड़ दें

विनियोग – अस्य श्री अंगारक-कवच स्तोत्रमन्त्रस्य कश्यप-ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः, अंगारको देवता भौम प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः । (जल छोड़ दें)।

मंगल कवच

रक्ताम्बरो रक्तवपुः किरीटी चतुर्भुजो मेषगतो गदाभृत्।

धरासुतः शक्तिधरश्च शूली सदा मम स्याद् वरदः प्रशान्तः ।। 1 ।।

अंगारकः शिरो रक्षेन् मुखं वै धरणीसुतः ।

श्रुतौ रक्ताम्बरः पातु नेत्रे मे रक्तलोचनः ।। 2 ।।

नासां शक्तिधरः पातु मुखं मे रक्तलोचनः ।

भुजौ मे रक्तमाली च हस्तौ शक्तिधरस्तथा ।। 3 ।।

वक्षः पातु वराङ्गश्च हृदयं पातु रोहितः ।

कटिं मे ग्रहराजश्च मुखं चैव धरासुतः ।। 4 ।।

जानु जङ्घे कुजः पातु पादौ भक्तप्रियः सदा ।

सर्वाण्यन्यानि वाङ्गानि रक्षेन्मे मेषवाहनः ।। 5 ।।

य इदं कवचं दिव्यं सर्वशत्रुनिवारणम् ।

भूत-प्रेत-पिशाचानां नाशनं सर्वसिद्धिदम् ।। 6 ।।

सर्वरोग हरं चैव सर्वसम्पत्प्रदं शुभम् ।

भुक्ति-मुक्ति प्रदं नृणां सर्व-सौभाग्य-वर्धनम् ।

रोगबन्धविमोक्षं च सत्यमेतन्न संशयः।। 7 ।।

विवाह न होने की स्थिति में उपाय #1

अब यदि आपकी कन्या विवाह योग्य हो गई है तथा प्रयास करके थक गये हैं तथापि विवाह संबंध तय नहीं हो पा रहा है। योग्य वर नहीं मिल रहा है। यंत्र-मंत्र-तंत्र प्रयोग करके देख चुके हैं। पण्डित वर्ग ने जो-जो रत्न बताये, वे सभी कन्या पहन चुकी है। जो-जो व्रत और उपवास बताये वे भी करके देख चुके हैं तथापि कन्या का कहीं विवाह संबंध नहीं हो पा रहा है। ऐसी अवस्था में उस कन्या को यह निम्न प्रयोग करना चाहिए। मैंने अपने जीवन में बार-बार इस प्रयोग को करवाया है और सदैव सर्वत्र सफलता प्राप्त हुई है। एक नहीं, कई उदाहरण हैं।

कन्या स्वयं अपने पास के संगृहीत पैसों से किसी दिन अकेले या किसी के साथ जाकर बाजार से पांच गिरी गोला सूखा, जिसे गोटा भी कहा जाता है, खरीद कर ले आये। मैं यहां स्पष्ट कर दूं इस प्रयोग में आपकी अर्थात् उस कन्या की लड़ाई प्रकृति के साथ है। आपको सप्रयास, प्रयत्नपूर्वक, सावधानी के साथ प्रकृति पर विजय प्राप्त करनी है।

मंगलवार के दिन प्रातः उठते ही एक गोला लेकर किसी नुकीली चीज से उसमें छेद कर दें। एक कटोरी में 2/3 चम्मच आटा, एक चम्मच घी, एक चम्मच चीनी या शक्कर मिला लें तथा आटे को घी-शक्कर मिलाकर उस गिरी गोले में भर लें तथा वह गोला ले जाकर कहीं मैदान में जहां चींटियां निकलती हैं। जिसे ‘कीड़ी नगरा’ कहा जाता है, वहां एक हल्का-सा गड्ढा हो जाता है उस गड्ढे में वह गोला रखकर थोड़ा अन्दर ठूंस दें। हर मंगलवार को अर्थात् क्रमशः पांच मंगलवार ऐसा करें।

प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसमें तो प्रकृति से संघर्ष वाली कोई बात ही नहीं है। पर सत्य यह है कि इस प्रयोग में मंगलवार के दिन प्रातः उठने से लेकर यह प्रयोग करके आने तक बोलना वर्जित है अर्थात् सोमवार की रात सोने के बाद से मंगलवार प्रातः प्रयोग करने तक बोलना नहीं है। दूसरे प्रयोग हेतु जाते अथवा लौटते समय पीछे मुड़कर देखना मना है । यदि प्रकृति को मंजूर नहीं है तो कोई-न-कोई ऐसा कारण बन जायेगा कि वह लड़की बोले बिना रह नहीं सकती।

विवाह न होने की स्थिति में उपाय #2

जातक मां भगवती दुर्गा की उपासना करे। दुर्गा यंत्र ताम्रपत्र पर बनवाकर स्थानीय पण्डित से प्राण-प्रतिष्ठा करवाकर पूजास्थान में लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित कर दें तथा नित्य पूजा करें व निम्न मंत्र का जाप करें।

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।

तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम् ।।

इस मंत्र की एक माला अर्थात् 108 बार नित्य रुद्राक्ष माला से जाप किये जाने पर सुन्दर, कुलीन, मनभावन, मनोनुकूल, भोगवती स्त्री की प्राप्ति होती है ।


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