गोचर से फलित कैसे करें ?
आचार्यों ने कुंडली से फलित देखने के सूत्रों की रचना के उपरांत घटनाओं के घटित होने का काल तय करने के लिए एक पृथक् पद्धति की आवश्यकता अनुभव की। इसे आप इस प्रकार समझें कि एक जन्मांग में विवाह का योग देखना है। सामान्य मनन के उपरांत जन्मांग में ऐसा कोई कारण उपस्थित नहीं है, जो कि विवाह के विलंब को व्यक्त करता हो, लेकिन इतने पर भी प्रश्न उसी स्थिति में स्थिर रहता है। विवाह विलंब से नहीं है, लेकिन कब है ? कोई भी ग्रह विवाह के समय का संकेत नहीं कर सकता है। इस प्रश्न के हल के लिए महर्षि पराशर ने विंशोत्तरी आदि दशाओं का आविष्कार किया।
काल निर्धारण के लिए दशाएं अब तक का सर्वोत्तम साधन हैं, लेकिन प्रशिक्षु हमेशा शिकायत करते हैं कि दशाएं सटीक फल देने में सक्षम नहीं हैं। मैं यह तो कतई नहीं स्वीकार करूंगा कि दशाएं स्टीक फल देने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन यह मैं अवश्य स्वीकार करता हूं कि विंशोत्तरी दशा चक्र से घटनाओं का समयांकन करना प्रशिक्षुओं के लिए कतई संभव नहीं है।
विंशोत्तरी दशा बहुत सरल और सहज दृष्टिगोचर होती है, किंतु वास्तव में यह अत्यंत दुरूह पद्धति है। विंशोत्तरी दशा चक्र को समझने के लिए दीर्घ अनुभव की आवश्यकता है। जबकि हमारे पास सरल विकल्प उपलब्ध हैं। पाठक जब तक स्वयं इस स्थिति में न आ जाएं कि वे किसी पद्धति पर स्वविवेक से निर्णय ले सकें, तब तक बेहतर है कि हम गोचर के आधार पर शुभाशुभ समय का निर्णय करें। यह पद्धति सरल और व्यावहारिक है।
गोचर का अर्थ
गोचर अंतरिक्ष में वर्तमान ग्रह-स्थिति को कहा जाता है। जन्म कुंडली में जन्मकालीन सभी ग्रहों के स्थान पर वर्तमान ग्रह स्थापना को गोचर कहते हैं। ध्यान रखें कि मात्र ग्रह बदलते हैं, राशियां उसी स्थिति में रहती हैं। गोचर पद्धति विंशोत्तरी के समान प्राचीन है।
गोचर लग्न से देखें या चंद्र लग्न से
आचार्यों ने तीन लग्नों को प्रधानता दी है। सूर्य, चंद्र और उदय ये तीन लग्न प्रधान हैं। गोचर में उदय और चंद्र लग्न को ही विचारणीय माना है और इनमें पर्याप्त मतभेद हैं। प्राचीन मत चंद्र लग्न को मान्यता देता है और आधुनिक ज्योतिषी उदय लग्न को प्राथमिकता देते हैं ।
आधुनिक मत (मैं स्वयं भी) चंद्र लग्न से गोचर को सटीक नहीं मानता। इसका सीधा-सा तात्पर्य है कि यह एक स्थूल मान्यता है । पाठकों को समझने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि चंद्रमा एक राशि में सवा दो दिन पर्यंत रहता है, जबकि इतने समय में बारह भिन्न लग्नों की दो बार से अधिक पुनरावृत्ति हो जाती है ।
प्राचीन आचार्यों की धारणा कभी मिथ्या नहीं हो सकती है। इन्होंने यदि चंद्र लग्न से गोचर देखने का निर्देश दिया है, तो इसके पीछे अवश्य कोई कारण रहा होगा। जहां तक मैं समझता हूं प्राचीनकाल में जन्म कुंडलियों की उपलब्धता सीमित थी । केवल नाम की राशि के आधार पर ही भविष्यफल कहा जाता था । यही कारण रहा होगा, जिसके चलते आचार्यों को चंद्र लग्न के अनुसार ग्रह-गोचर देखने का निर्देश देना पड़ा।
गोचर से फलित कैसे करें
मूल रूप से गोचर समयांकन की पद्धति है। कुछ विद्वान विंशोत्तरी दशा के स्थान पर गोचर ग्रहों को महत्त्व देते हैं। हालांकि विंशोत्तरी के स्थान पर गोचर से घटनाओं का समय देखना तभी संभव है, जबकि हमारे पास जन्मांग उपलब्ध हो। यदि ऐसा नहीं है, तो घटनाओं की प्रकृति और समय दोनों को गोचर से देखना होता है। छोटे कस्बों और गांवों में अकसर स्थानीय ज्योतिषी ऐसा करते हैं, क्योंकि इन स्थानों पर जन्मांग की उपलब्धता न्यूनतम है ।
जो लोग जन्मांग चक्र के साथ ही गोचर का उपयोग करते हैं, वे सहज सफलता प्राप्त कर लेते हैं। इसका कारण है कि ज्योतिष में फलित के दो रूप हैं।
- पहला है- घटना की प्रकृति को खोजना चाहिए, अर्थात् जीवन में क्या-क्या घटनाएं होंगी, इनका पता लगाना।
- दूसरा है- इन घटनाओं के समय को निर्धारित करना, अर्थात् तय करना कि घटनाएं कब होंगी। पहला रूप आसान है ।
जैसे जन्मांग के ग्रह बता रहे हैं कि जातक को अचानक धन की प्राप्ति होगी या जातक प्रसिद्ध हो जाएगा, लेकिन समस्या है कि ऐसा कब होगा। अकसर ज्योतिषी घटना के समय को निर्धारित करने के लिए विंशोत्तरी दशा का सहारा लेते हैं। महर्षि पराशर ने ऐसा ही आदेश दिया है। लेकिन वर्तमान में एक समस्या उभर कर आ रही है कि विंशोत्तरी से समयांकन करना दुरूह होता जा रहा है। साधारण अनुभव वाला ज्योतिषी प्रायः ऐसा नहीं कर पाता है ।
यही कारण है कि आजकल गोचर पद्धति लोकप्रियता प्राप्त करती जा रही है । पाठकों के लिए भी गोचर से फलित करना या घटना का समय निकालना अधिक कठिन नहीं होगा। मैं यहां नवग्रहों के बारह भावों में गोचर करने के फल दे रहा हूं। पाठक इनके आधार पर व्यक्ति के अच्छे-बुरे समय का निर्धारण कर सकते हैं। पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि दूसरी सभी पद्धतियों की तुलना में गोचर आसान और सर्वसुलभ पद्धति है।
गोचरस्थ ग्रहों के फल
गोचरस्थ ग्रहों के फल देखने के लिए नवग्रहों की दो श्रेणियां बना लेनी चाहिए।
- पहली श्रेणी में सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु हैं। ये सभी पाप ग्रह हैं।
- दूसरी श्रेणी में चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र हैं। ये सभी शुभ ग्रह हैं।
सभी प्राचीन ग्रंथों में और अर्वाचीन विद्वानों के अनुसार पाप ग्रह केवल तृतीय, षष्ठ और एकादश भावगत होने पर ही शुभ फल करते हैं, शेष भावों में इनके फल भावों की प्रकृति के विपरीत होते हैं।
जैसे लग्न में पाप ग्रह गोचरस्थ होने पर स्वास्थ्य हानि करते हैं और भाग्य स्थान में होने पर भाग्य वृद्धि में बाधाएं आती हैं। इसी प्रकार दूसरे भावों के फल देखने चाहिए।
ऊपर जो मत दिए हैं वे पारंपरिक हैं, लेकिन मैंने जो अनुभव किया है, उसके निष्कर्ष दूसरे हैं। प्रायः देखने में आता है कि
- पाप ग्रह विशेष रूप से चतुर्थ, अष्टम और द्वादश में ही अशुभ फल करते हैं, शेष भावों में ये क्षणिक बाधा देते हैं या तटस्थ रहते हैं। इसके साथ ही जन्मांग में ग्रहों की स्थिति भी फलों को प्रभावित करती है ।
पाठक जब तक अपने अनुभव के आधार पर कोई धारणा न बना सकें, तब तक उनको किसी भी पाप ग्रह को चतुर्थ, अष्टम और द्वादश में ही अनिष्टकारी मानना चाहिए। इस दृष्टिकोण के पीछे एक कारण यह भी है कि यदि हम पाप ग्रहों को केवल तृतीय, षष्ठ या एकादश में ही शुभ मानते हैं, तो शनि, बृहस्पति और राहु जैसे मंद ग्रहों के कारण स्थिति कभी भी सकारात्मक नहीं आएगी।
जैसे शनि षष्ठ के उपरांत सप्तम, अष्टम, नवम और दशम जैसे चार भावों को लांघने के उपरांत एकादश में शुभ फल देगा, तो षष्ठ और एकादश के मध्य का समय बहुत लंबा हो जाएगा। शनि एक राशि में ढाई वर्ष पर्यंत रहता है। इस प्रकार चार भावों का समय 10 वर्ष होगा, जो कि व्यावहारिक नहीं है। अनुभव में आता है कि शनि षष्ठ की तुलना में नवम और दशम में ज्यादा शुभ फल करता है ।
शनि के गोचर का विशेष ध्यान रखें
चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र शुभ ग्रह हैं । इनमें चंद्रमा तीव्र गति वाला ग्रह है । वह एक राशि में 56 घंटे ही बिताता है । घटनाओं के समय निर्धारित करने के दौरान वर्ष, माह के उपरांत दिन का निर्धारण चंद्रमा से किया जाता है। शेष ग्रह बुध, बृहस्पति और शुक्र के फलों को मैं यहां दे रहा हूं। इनके फलों को शनि के अनुसार देखना चाहिए। शनि यदि गोचर में अनिष्टकारी है, तो ये ग्रह शुभ स्थान में होने के बावजूद अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाते हैं। विशेष रूप से बुध और शुक्र का गोचर आंशिक प्रभावी होता है।
बृहस्पति चूंकि एक राशि में 13 मास रहता है, अतः शनि के उपरांत यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रह है। नीचे इन शुभ ग्रहों के गोचर फल दिए जा रहे हैं।
बुध के गोचर फल : बुध का गोचर भ्रमण द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम और एकादश भावों में रहने से विजय, धन प्राप्ति, सौभाग्य, उन्नति और स्त्री सुख की प्राप्ति होती है। शेष भावों लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम और द्वादश में बाधाएं, पारिवारिक कलह, विफलता, निरर्थक, भ्रमण, राजभय और चरित्र हानि होती है।
बुध के संबंध में एक तथ्य विचारणीय है कि शास्त्रों में बुध के लिए अष्टम भाव शुभ माना गया है। गोचर और जन्मांग दोनों स्थितियों में बुध का अष्टमस्थ होना शुभ है।
बृहस्पति के गोचर फल : बृहस्पति शुभ ग्रहों में श्रेष्ठ है और इसे देवताओं के गुरु की संज्ञा प्राप्त है। यही कारण है कि बृहस्पति का दूसरा नाम गुरु है। बृहस्पति का गोचर कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। खास तौर पर विवाह के संदर्भ में बृहस्पति की निर्णायक भूमिका होती है ।
- बृहस्पति जब द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम या एकादश में हो, तो धन लाभ, विवाह लाभ, राज सहायता, भाग्य वृद्धि, स्त्री प्रेम, मान-सम्मान और पुत्र प्राप्ति, वाहन सुख, व्यक्तित्व में प्रभाव वृद्धि और यात्राओं में लाभ होता है।
- दूसरे भावों अर्थात् लग्न, तृतीय, चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम और द्वादश भावों में विरोध और कलह, पराजय, संबंधों में बाधा अस्थिरता, कष्ट, बुद्धिभ्रम, दुर्व्यवहार, शोक, धन और मानहानि, वेदना, भाग्य में रुकावट और नाना प्रकार से कष्ट होता है।
शुक्र के गोचर फल: शुक्र के लग्न, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम, एकादश और द्वादश में गोचर के दौरान शत्रुओं का नाश होता है। भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। शुक्र के अनुकूल रहने पर स्त्रियों से लाभ होता है। जातक की रुचि सामाजिक कार्यों में रहती है ।
शुक्र जब षष्ठ, सप्तम और दशम में गोचरवश आए, तो कलह, झगड़े, व्यय का आधिक्य, स्त्री हानि, निरंतर विफलता और निराशा देता है
निष्कर्ष : गोचर से फल देखने की पद्धति सहज और सरल है। इसमें साधारण अनुभव भी अच्छा फल देता है। सर्वप्रथम पाठकों को शनि के गोचर पर ध्यान देना चाहिए। प्रायः अनुभव में आता है कि शनि सभी तरह के फलों को प्रभावित करता है। चूंकि शनि मंद ग्रह है, अतः इससे परिणामों को हासिल करना आसान होता है ।
हालांकि गोचर पद्धति में वेध जैसे क्लिष्ट पक्ष भी हैं, लेकिन आरंभिक काल में इनसे बचना ही बेहतर है ।
आगे गोचर ग्रहों से संबंधित कुछ आवश्यक जानकारियां दी जा रही हैं। ये कई मायनों में पाठकों के लिए उपयोगी हैं। इनके आधार पर गोचर से फलित करना आसान हो जाता है।
गोचर से फल कथन के लिए उपयोगी तथ्य
वैसे तो सभी ग्रह अपनी राशि परिवर्तन के साथ ही अपना फल देते हैं, लेकिन माना जाता है कि गोचर के ग्रहों के फल देने का एक निश्चित समय होता है। मेरे अनुभव में आया है कि
- शनि नई राशि में प्रवेश करने से पूर्व ही नई राशि के फलों को न्यूनाधिक देने लगता है।
जैसे जब शनि कन्या राशि के 28 अंशों पर आएगा, तो वह कन्या के शुभाशुभ फलों को छोड़कर तुला के ही फल देगा। जैसा कि पाठक जानते हैं कि मूल रूप से शनि एक अंश को समाप्त करने में एक माह लेता है । इस प्रकार जब वह कन्या राशि के 28 अंशों पर होगा, तो तुला के फल देने लगेगा।
दूसरे ग्रहों पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता है, लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं कि बृहस्पति और राहु-केतु जैसे अल्प मंद ग्रह भी नई राशि में प्रवेश से एक माह पूर्व ही आगामी राशि के फलों को देने लगते हैं।
एक राशि में तीस अंश होते हैं और जैसे-जैसे राशियों का क्रम है वैसे-वैसे ये उत्तरोत्तर 30 अंशों के अंतर पर होते हैं। इस प्रकार ये एक सर्किल बनाते हैं। सभी ग्रह तमाम अंशों पर समान फल नहीं देते हैं।
- शनि के संबंध में प्रसिद्ध है कि वह जब राशि के 15 से 25 अंशों पर होता है, तो पूर्ण फैल देता है। शेष अंशों पर इसका फल आंशिक मानना चाहिए।
- इसी प्रकार सूर्य और मंगल राशि के 0 से 10 अंशों पर अपना पूर्ण फल देते हैं।
- शुक्र और बृहस्पति राशि के 10 से 20 अंशों पर अपना पूर्ण फल देते हैं।
पाठकों को ग्रहण करना चाहिए कि उपरोक्त अंशों पर ग्रह विशेष फल देते हैं। आंशिक या सामान्य फल तो राशि में प्रवेश के साथ या उससे कुछ समय पूर्व ही आरंभ हो जाता है ।
गोचर ग्रहों से फल कथन कहने के दो तरीके प्रचलित हैं।
- पहला तरीका वह है, जिसमें व्यक्ति के चंद्र लग्न से ही गोचर के ग्रहों का फल देखा जाता है।
- दूसरे तरीके में जन्मांग में पड़े ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति के अनुसार गोचर ग्रहों के फल देखे जाते हैं ।
जैसे जो ग्रह जन्म लग्न में शुभ होगा, उसका गोचर विचरण केवल आभासित दुष्फल देगा। लेकिन कोई ग्रह जन्मांग चक्र में अशुभ और बलहीन हो, तो गोचर में वह कितना भी शुभ क्यों न हो, अपने शुभ फलों को उतनी मात्रा में नहीं दे पाएगा, जितना कि उसे देना चाहिए या जितनी कि उसमें क्षमता है ।
बेहतर तो यह होगा कि हम सर्वप्रथम जन्मांग के आधार पर उन ग्रहों का चयन कर लें, जो कि लग्न के अनुसार शुभ फलों को देने में सक्षम हों। इस प्रकार गोचर से फलों को प्राप्त करने में आसानी होगी।
जब हम शुभ और फलदायी ग्रहों की पहचान कर लें, तो देखना चाहिए कि इन ग्रहों का शुभ और सकारात्मक भावों पर भ्रमण कब होता है। जब-जब ऐसा होगा, जातक को स्थायी संपत्तियों की प्राप्ति और कार्य क्षेत्र में वृद्धि होगी।
जन्मांग में ग्रहों की अनेक स्थितियां होती हैं । ग्रहों की शुभाशुभ स्थितियों का निर्णय करने के लिए उनकी स्वराशियां, नीच राशियां और षडवर्ग में उनके बल को देखना चाहिए। जो ग्रह जितना अधिक बली होगा, उसका शुभ फल भी उसी मात्रा में प्राप्त होगा। जन्म कुंडली में ग्रह के निर्बल होने पर गोचर में भी उसका अच्छा फल नहीं प्राप्त होता है ।
देखा गया है कि गोचर ग्रह जब वक्री होते हैं या वक्री से मार्गी होने के अंशों पर होते हैं, तो प्रायः शुभ फल ही देते हैं।
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