दशाफल कहने के नियम
ग्रह कब ? कैसे ? कितना ? फल देते हैं इस बात का दशा अन्तर्दशा आदि से किया जाता है । दशा कई प्रकार की हैं, परन्तु सब में शिरोमणि विंशोत्तरी दशा है । इस अध्याय में हम विंशोत्तरी दशा के प्रयोग के कुछ आवश्यक नियमों का उल्लेख करेंगे ।
1. सबसे पूर्व कुण्डली में देखिए कि तीनों (लग्न, चन्द्र लग्न, सूर्य लग्न) में कौन-सी दो लग्नों के स्वामी अथवा तीनों ही लग्नों के स्वामी परस्पर मित्र हैं । कुण्डली के शुभ अशुभ ग्रहों का निर्णय बहुमत से लग्नों के आधार पर करना चाहिए।
उदाहरणार्थ यदि लग्न कुम्भ और चन्द्र वृश्चिक में है तो ग्रहों के शुभ-अशुभ होने का निर्णय धनु लग्न से किया जाएगा। अर्थात् गुरु, सूर्य, चन्द्र और मंगल योगकारक होंगे और शुक्र, बुध तथा शनि अनिष्ट फलदायक होगा।
2. यदि उपर्युक्त नियमानुसार महादशा का ग्रह शुभ अथवा योग कारक निकलता है तो वह शुभ फल करेगा। इसी प्रकार यदि अन्तर्दशा का ग्रह भी शुभ अथवा योग कारक निकलता है तो फल और भी शुभ निकलेगा ।
3. स्मरण रहे कि अन्तर्दशा के स्वामी का फल दशानाथ की अपेक्षा मुख्य है अर्थात् यदि दशानाथ शुभ ग्रह न भी हो, यदि भुक्तिनाथ शुभ हो तो फल शुभ होगा।
4. यदि भुक्तिनाथ दशानाथ का मित्र हो और दशानाथ से अच्छे भावों (दूसरे, चतुर्थ, पांचवें, नवम, दशम तथा एकादश) में स्थित हो तो शुभ फल देगा।
5. यदि दशानाथ निज शुभ स्थान से भी अच्छे स्थान में स्थित है तो और भी शुभ फल करेगा ।
6. परन्तु सबसे अधिक आवश्यक यह है कि
- यदि शुभ भुक्तिनाथ केन्द्र स्थान में स्थित है,
- उच्च राशि, स्वक्षेत्र में स्थित है अथवा मित्र राशि में स्थित है और
- भाव मध्य में पापी ग्रह से युक्त या दृष्ट नहीं, बल्कि शुभ ग्रहों से युक्त अथवा वक्र है तथा
- राशि के बिल्कुल आदि में अथवा बिल्कुल अन्त में स्थित नही है
- और नवांश में निर्बल नहीं है
तो भुक्तिनाथ जिस शुभ भाव का स्वामी है उसका उत्तम फल करेगा।
इसके विरुद्ध ग्रह यदि शुभ भाव का स्वामी है परन्तु
- छठे, आठवें, बारहवें आदि नेष्ट स्थानों में स्थित है,
- नीच अथवा शत्रु राशि का है,
- पापयुक्त अथवा पापदृष्ट है,
- राशि के आदि अथवा अन्त में है, नवांश में निर्बल है।
- भाव सन्धि में है, अस्त है, अति चारी है,
तो शुभ होता हुआ भी बुरा फल करेगा ।
7. जब तीन ग्रह एकत्र हों और उनमें से एक नैसर्गिक पापी तथा बाकी दो शुभ हैं और यदि दशा तथा भुक्ति नैसर्गिक शुभ ग्रहों की हो तो फल पापी ग्रह का होगा।
उदाहरणार्थ यदि लग्न कर्क हो मंगल, शुक्र तथा गुरु एक स्थान में कहीं हों, दशा गुरु की, भुक्ति शुक्र की हो तो फल मंगल का होगा। यह फल अच्छा होगा, क्योंकि मंगल कर्क लग्न वालों के लिए योग कारक होता है।
8. जब दशानाथ तथा भुक्तिनाथ एक ही भाव में स्थित हों तो उस भाव सम्बन्धी घटनाएं देंगे।
9. जब दशानाथ तथा भुक्तिनाथ एक ही भाव को देखते हों। भाव सम्बन्धी घटनाएं देते हैं।
10. जब दशानाथ तथा भुक्ति नाथ परस्पर शत्रु हों और एक दूसरे से छठे आठवें स्थित हों और उनमें से मुक्तिनाथ लग्न से भी छठे तथा बारहवें स्थित हो तो जीवन में संघर्ष, बाधाएं, विरोध, शत्रुता आदि अप्रिय घटनाएं घटती हैं।

11. लग्न से दूसरे, चतुर्थ, षष्ठ, आठवें, ग्यारहवें तथा बारहवें के स्वामी अपनी दशा भुक्ति में शारीरिक कष्ट देते हैं। यदि ग्रह इनमें से किसी भाव का स्वामी होकर इन्हीं में से किसी अन्य में स्थित हो तो अपनी महादशा में रोग देने को उद्यत होगा।
इसी प्रकार जब ग्रह इन्हीं भावों में से किसी का स्वामी होकर इन्हीं किसी एक में स्थित हो तो शारीरिक कष्ट कहना चाहिए। ऐसी दशा यदि आयु के अंतिम खण्ड में आ जावे तो मृत्यु हो जाती है। इतना स्मरण रहे कि उपर्युक्त ग्रह जितने निर्बल होंगे उत कष्ट होगा ।
12. गुरु जब चतुर्थ तथा सप्तम अथवा सप्तम तथा दशम का स्वामी हो तो इसमें केन्द्राधिपत्य दोष आता है। ऐसा गुरु षष्ठ आदि नेष्ट भावों में निर्बल स्थित हो तो अपनी दशा में कष्ट देता है।
13. राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं। इनका स्वतन्त्र फल नहीं । ये ग्रह यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम आदि शुभ भावों में स्थित हों और उन भावों के स्वामी भी केन्द्र स्थित तथा शुभ आदि के कारण बलवान् हों तो ये छाया ग्रह अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल देते हैं।
14. राहु अथवा केतु यदि शुभ अथवा योग कारक ग्रहों के प्रभाव में हों वह प्रभाव उन पर चाहे युति द्वारा अथवा दृष्टि द्वारा पड़ रहा हो तो ये ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में उन शुभ अथवा योग कारक ग्रहों का फल करेंगे।
फलित सूत्र
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