कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
द्वादश भाव से आंखों तथा पांवों पर प्रभाव, मोक्ष प्राप्ति, खर्च की दशा का विचार किया जाता है।
1. दृष्टि हानि – द्वादश स्थान में सूर्य अथवा चन्द्र का पापयुति अथवा पापदृष्टि में स्थित होना आंखों की दृष्टि की हानि का कारण है क्योंकि द्वादश स्थान बायीं आंख है और सूर्य और चन्द्र ज्योतियां होने से आंख प्रतीक हैं ।
2. शुक्र की द्वादश स्थिति और सहयोग – (i) शुक्र भोग प्रिय ग्रह है। यह ग्रह भोग स्थान जैसे सप्तम तथा द्वादश में, बहुत प्रसन्न रहता है।
अतः यद्यपि साधारण नियम है कि “जो ग्रह द्वादश में हो उसकी हानि होती है” यह नियम शुक्र पर सर्वथा लागू नहीं होता। जिन कुण्डलियों में शुक्र द्वादश स्थान में स्थित होता है उनकी स्त्रियों की आयु प्रायः अधिक होती है
(ii) शुक्र चूंकि भोगात्मक ग्रह है और द्वादश भी; अतः यदि द्वादशेश द्वादश स्थान में हो और शुक्र भी साथ हो तो यह योग महान् भोग सामग्री उत्पन्न करने वाला योग है । अर्थात् इस योग के फलस्वरूप मनुष्य बहुत धनाढ्य तथा सुखी हो जाता है ।
(iii) चूंकि शुक्र का नियम है कि वह जिस भाव आदि में बैठेगा उसको लाभ पहुंचाएगा, अतः यदि लग्न में सूर्य तथा चन्द्र हो और शुक्र द्वादश हो तो मनुष्य बड़ा समृद्ध, भोगी, सुखी, मानी आदि होता है।
(iv) उपर्युक्त नियम का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि जब शुक्र गुरु से द्वादश में बैठता है तो गुरु को खूब लाभ पहुंचाता है। अब चूंकि गुरु धन तथा सुख का कारक है, अतः यह स्पष्ट है कि वह व्यक्ति बहुत धन की प्राप्ति करता है। जब गुरु की दशा में शुक्र की भुक्ति हो तो इस स्थिति का पूर्ण लाभ होता है ।
3. पांव का कटना – काल पुरुष में द्वादश स्थान पांव का है। यदि द्वादश भाव द्वादशेश, गुरु तथा मीन राशि पर पाप प्रभाव युति अथवा दृष्टि द्वारा पड़ रहा हो तो मनुष्य को पांव में चोट, रोग आदि से कष्ट होता है ।
यदि यह पाप प्रभाव मंगल का हो और न केवल लग्न से द्वादश द्वादशेश पर हो, बल्कि चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न से भी द्वादशेश पर हो तो मनुष्य का पांव कट जाता है ।
4. लक्ष धनदायक योग – द्वादशाधिपति की तृतीय, षष्ठ, अष्टम में जब स्थिति हो और उस पर केवल पाप प्रभाव हो, शुभ प्रभाव बिल्कुल न हो तो विपरीत राजयोग नाम के वांछनीय योग की सृष्टि होती है जो बहुत धनदायक योग है और प्रायः लखपतियों की कुण्डलियों में पाया जाता है। (देखिए कु० संख्या 26) ।
यह कुण्डली एक करोड़पति की है। यहां बुध दो अभीष्ट भावों तृतीय और द्वादश से षष्ठ (दोनों बुरी स्थितियां हैं) में स्थित होकर तृतीय तथा द्वादश भाव को हानि पहुंचा रहा है । बुध भी शत्रु राशि में शनि तथा सूर्य से घिरा हुआ तथा मंगल एवं राहु से दृष्ट है। इस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है। अतः यह द्वादश तथा तृतीय भावों का नाश करने वाला अर्थात् अभाव, दरिद्रता आदि का नाश करने वाला विपरीत राजयोग कारक है ।
5. पति का अन्यों से प्रेम – यदि स्त्री की कुण्डली हो और उसमें राहु, षष्ठेश, एकादशेश का योग द्वादश भाव तथा उसके स्वामी से हो तो स्त्री के भोग सुख अन्यत्व को प्राप्त होते हैं। अर्थात् उसके पति के साथ भोगने वाली कोई अन्य स्त्री हो जाती है जिसके फलस्वरूप पति अपनी स्त्री के अतिरिक्त दूसरी स्त्रियों से भोग का व्यवहार रखता है।
7. गुणों का अतिव्यय – द्वादश भाव व्यय का है। व्यय में अपव्यय Wastage) भी सम्मिलित है। अतः यदि सूर्यादि ग्रह द्वादश स्थान में बिना अन्य प्रभाव के पड़े हों तो निज गुणों के अपव्यय को तथा अतिव्यय को दर्शाते हैं । जैसे
- सूर्य हो तो मनुष्य स्वार्थ त्यागी, दूसरे के हित में लगा हुआ होता हैं (सूर्य सात्विक ग्रह है)
- चन्द्र हो तो मनरतत्व का अपव्यय होता है। अर्थात् मनुष्य अधिक भावुक हो जाता है।
- मंगल अथवा केतु हो तो अपनी शक्ति का शारीरिक बल का दूसरों के लिए अत्यधिक प्रयोग करता है।
- बुध हो तो बिना पूछे उपदेश करने वाला होता है।
- यदि गुरु हो तो अपनी सम्पत्ति का दुरुपयोग करता फिरता है।
- शुक्र हो तो वीर्य शक्ति का अत्यधिक व्यय करने वाला, आंखों का बहुत प्रयोग करने वाला अर्थात् बहुत किताब का कीड़ा होता है।
- यदि शनि अथवा राहु हो तो उत्तेजित होने वाला, नसों का अत्यधिक प्रयोग करने वाला होता है।
8. मोक्ष – यदि लग्नों का धर्म स्थानों से सम्बन्ध हो और द्वादश स्थान तथा द्वादशेश पर सात्विक ग्रहों का तथा केतु का प्रभाव हो तो मनुष्य को मोक्ष मिलता है।

द्वादश भाव में राशियां
1. मेष राशि हो तो मंगल द्वादश तथा सप्तम भाव का स्वामी बनता है। दोनों स्थान कामातुरता तथा भोग के हैं। अतः मंगल यदि शुक्र के साथ पंचम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति बहुत कामी विषयासक्त होता है। मंगल की शुक्र के साथ सप्तम अथवा द्वादश भाव में स्थिति भी वही फल करती है।
जहां तक धन का सम्बन्ध है मंगल अपनी दशा, अन्तर्दशा में शुभ ही फल करने वाला होगा (यद्यपि योग कारक नहीं), क्योंकि द्वादशेश सर्वदा अपनी इतर राशि का फल करता है। यहां मंगल सप्तमेश के रूप में फल करेगा । एक नैसर्गिक पापी का केन्द्र का स्वामी होना पाराशरीय नियमानुसार उसे पापहीन बना देता है। अतः शुभ फलकारी है।
2. वषृभ राशि हो तब भी शुक्र पंचम भाव का फल करता है जहां इसकी दूसरी राशि तुला स्थित है। अतः शुक्र अपनी भुक्ति में धन आदि फल देने वाला होगा । शुक्र यदि सप्तम में स्थित हो तो मनुष्य अतीव कामातुर होता है। शुक्र निर्बल हो तो पुत्र से हानि पाता है तथा अपने गलत निर्णयों से नुकसान उठाता है ।
3. मिथुन राशि हो और दो अशुभ घरों, द्वादश तथा स्वामी बुध यदि पंचम भाव में स्थित होकर केवल मात्र पाप ग्रहों, शनि द्वारा दृष्ट हो तो विपरीत राजयोग द्वारा लाखों रुपये देने वाला होता बलवान् बुध छोटी बहिनें बहुत देता है। यदि बुध निर्बल हो तो छोटे पर व्यय करवाता है । परन्तु यदि द्वादश भाव तथा बुध, दोनों पापी ग्रहो की दृष्टि हो तो उत्पन्न सन्तान का शीघ्र नाश होता है।
4. कर्क राशि होने पर चन्द्र का द्वादशेश होने का अर्थ यह है कि मनुष्य भोगप्रिय है, विशेषतया तब जबकि चन्द्र का सम्बन्ध लग्न अथवा चतुर्थ भाव अथवा इन भावों के स्वामियों से हो।
चन्द्र यदि क्षीण न हो तो प्रत्येक भाव में शुभ फल करता है, क्योंकि जब इसे अष्टम का स्वामी होने का दोष नहीं लगता तो द्वादशेश होने का दोष कैसे लगेगा? चन्द्र लग्नवत् है अतः, शुभ है ।
5. सिंह राशि होने पर सूर्य भी यदि बलवान् हो तो द्वादशेश हुआ भी शुभ फल देगा। मनुष्य व्ययशील होगा। यदि सूर्य निर्बल हो तो आंख में कष्ट होगा ।
6. कन्या राशि होने पर बुध द्वादशेश की इतर राशि नवम स्थान में पड़ रही है। अतः बुध बहुत शुभ फल देने वाला है। यदि निर्बल हो तो पिता द्वारा हानि हो, राज्य की ओर से परेशान हो और भाग्य में हानि हो ।
7. तुला राशि होने पर शुक्र द्वादशेश तथा सप्तमेश बनता है। दोनों स्थान अथवा भोग स्थान हैं। यदि शुक्र द्वादश अथवा सप्तम स्थान में हो उस पर राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी शनि की दृष्टि हो तो मनुष्य विवाहित होता हुआ भी दूसरी स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करता है। शुक्र यदि निर्बल हो तो स्त्री पर व्यय करने वाला, राज्य से हानि उठाने वाला होता है ।
8. वृश्चिक राशि होने पर मंगल द्वादश तथा पंचम भाव का स्वामी होता है। द्वादशेश अपनी इतर राशि का फल करता है। अतः मंगल पंचम भाव का शुभ फल करेगा ।
9. धनु राशि होने पर गुरु तृतीय भाव का फल करेगा क्योंकि द्वादशेश की इतर राशि तृतीय स्थान में पड़ती है, गुरु दशा थोड़ा धन देती है। गुरु यादि बलवान् हो तो छोटे भाइयों से लाभ पाता है, मित्र से भी लाभ उठाता है। शुभ मित्रों वाला होता है ।
10. मकर राशि होने पर कुम्भ लग्न होता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि कुम्भ लग्न इस कारण से नेष्ट है कि शनि लग्न के साथ-साथ द्वादश भाव का भी स्वामी हो जाता है जो एक अशुभ भाव है ।
हम इस मत से सहमत नहीं हैं क्योंकि द्वितीय तथा द्वादश भाव के स्वामियों के महर्षि पराशर का सिद्धांत है कि ‘स्थानान्तरानुगुण्येन भवेयुः फलदायकाः” अर्थात् द्वितीय तथा द्वादश भाव के स्वामी अपनी इतर राशि का फल करते हैं। ऐसी स्थिति में कुम्भ लग्न वाले के लिए शनि लग्न को शुभ फल देने वाला माना जाएगा ।
11. कुम्भ राशि होने पर शनि, चूंकि बड़े भाई की वाणी का प्रतिनिधि बन जाता है, अतः बड़े भाई की वाणी में कर्कशता होगी।
12. मीन राशि होने पर गुरु नवम तथा द्वादश का स्वामी हो जाता है। यदि लग्न से सम्बन्ध करे तो धर्म मन्दिरों तथा धर्म से विशेष सम्बन्ध रखता है। यदि गुरु निर्बल हो तो राज्य से हानि तथा राज-पुरुषों से धन का नाश पाए ।
द्वादशेश बृहस्पति पांव का विशेष प्रतिनिधित्व कर यदि द्वादश भाव तथा गुरु पर मंगल आदि का प्रभाव हो तो पांव में कष्ट होता है।
फलित सूत्र
- ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
- ग्रह परिचय
- कुंडली के पहले भाव का महत्व
- कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
- कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
- कुंडली के चौथे भाव का महत्व
- कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
- कुंडली के छठे भाव का महत्व
- कुंडली के सातवें भाव का महत्व
- कुंडली के आठवें भाव का महत्व
- कुंडली के नौवें भाव का महत्व
- कुंडली के दसवें भाव का महत्व
- कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
- कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
- दशाफल कहने के नियम
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