कुंडली के दसवें भाव का महत्व

दशम भाव से  जातक की उन्नति, तीर्थलाभ, साम्राज्य योग व्यवसाय, अवनति तथा अपयश आदि का विचार किया जाता है।

1. दशम में ग्रह – दशम भाव में विविध ग्रहों का फल देवकेरलकार ने निम्नलिखित प्रकार से कहा है:-

(क)

  • यदि चन्द्र से (अथवा लग्न से) दशम स्थान में सूर्य हो तो कर्मों में सिद्धि को पाता है, अर्थात् उसके कार्य सफल होते हैं।
  • यदि वहां मंगल हो तो पाप बुद्धि तथा साहसी (लग्न तथा चतुर्थ मन पर प्रभाव के कारण) होता है।
  • यदि वहां बुध हो तो विद्वान् होता है। (बुध की प्रबलता तथा लग्न पर प्रभाव के कारण) ।
  • यदि उस दशम स्थान में गुरु स्थित हो तो राजा के तुल्य प्रताप वाला होता है। (गुरु राज्य कृपा कारक होने के कारण तथा दशम भाव को बल प्राप्त होने के कारण)।
  • यदि वहां शुक्र हो तो भोगी होता है। (एक भोगी ग्रह का मन तथा लग्न पर प्रभाव के कारण) ।
  • शनि के दशमस्थ होने पर शोक और दुःख को पाता है; क्योंकि फल से अन्तिम जिसका कि दशम भाव द्योतक है, उसकी जुदाई हो जाती है (शनि के एक पृथकताजनक ग्रह होने के कारण) ।

(ख)

  • यदि दशम स्थान में सूर्य बलवान् होकर शुभदृष्ट, शुभयुक्त हो तो मनुष्य प्रतापी, राज्यमानी, बड़ा अधिकारी होता है।
  • यदि इस स्थान में निर्बल चन्द्र हो तो सबसे बड़े पुत्र के जीवन को भय होता है।
  • मंगल इस भाव में स्थित होकर सन्तान की हानि करता है। मिथुन का मंगल दशम में पिता के धन की हानि करता है।
  • बुध दशम में कुम्भ राशि का प्रचुर संख्या में लड़कियां देता है।
  • दशम में गुरु धनी सुखी बनाता है ।
  • दशम में शुक्र प्रायः निर्बल होता है।
  • दशम में शनि यदि मिथुन राशि का हो तो बहुत लड़कियां देता है। दशम में शनि कर्म फल की हानि करता है; अर्थात् मनुष्य चाहे कितना भी परिश्रम करे और आरम्भ में चाहे उसे कितनी ही सफलता प्राप्त क्यों न हो, अन्त में उसे पराजय होती है और उसका किया हुआ सब मटियामेट हो जाता है।

 (ग) केन्द्रों में प्रमुख केन्द्र दशम स्थान है। नियम है कि ग्रह केन्द्र स्थान में बली हो जाते हैं और बली होने का अर्थ यह है कि जिस भाव के स्वामी होकर ग्रह दशम में स्थित हों उस भाव की आयु, संख्या में वृद्धि होती है, जैसे

  • पंचमेश गुरु दशम में पुत्रों की संख्या में वृद्धि तथा पुत्रों की आयु को बढ़ाता है।
  • पंचमेश शनि दशम में लड़कियों की संख्या को अधिक करता है तथा उनकी आयु को बढ़ाता है ।
  • दशम में गुरु आयु को बढ़ाता है क्योंकि यह लग्न से केन्द्र में होने के कारण लग्न को बली करता है और लग्न से आयु का विचार किया ही जाता है

2. केन्द्राधिपत्यदोष – मिथुन तथा धनु लग्न वालों को गुरु तथा बुध के एक साथ दो केन्द्रों, सप्तम तथा दशम का स्वामी होने के कारण केन्द्राधिपत्य दोष प्राप्त होता है। अर्थात् ये ग्रह निर्बल होकर अपनी दशा अन्तर्दशा में बीमारी देते हैं।

3. दशम में राहु – कुम्भ लग्न के दशम भाव में राहु की स्थिति के सम्बन्ध में देवकेरलकार पृष्ठ 50 पर लिखता है:- “कर्म भाव में जब राहु स्थित हो तो मनुष्य को विपत दशा (जन्म से तीसरी दशा) में पुण्यतीर्थ पर अथवा गंगा आदि में स्नान का अवसर तथा फल मिलता है।“

राहु एक छाया ग्रह होने के नाते अपना कोई स्वतन्त्र फल तो करता नहीं है, वह उसी भाव का फल करेगा, जिसमें कि वह स्थित है। चूंकि राहु दशम में स्थित है, अतः गंगा स्नान आदि शुभ कर्मों का दशम भाव से सम्बन्ध प्रमाणित होता है।

दशम भाव की बातों का विशद विवरण देते हुए उत्तरकालामृत खण्ड पांच श्लोक 18 में भी आया है:- “दशम भाव से ज्योतिषी सेवा, कृषि, वैद्य, कीर्ति, निधि अथवा खजाने का रखा जाना तथा यज्ञ आदि शुभ कर्मों का विचार करें।” इससे भी स्पष्ट होता है कि दशम भाव वास्तव में शुभ कर्मों का है न कि आजीविका से सम्बन्धित कर्मों का।

4. साम्राज्य योग – दशम भावाधिपति आदि की प्रबलता के कारण शास्त्रों में अखण्ड साम्राज्य प्राप्ति योग का वर्णन मिलता है। देवकेरलकार का कहना है कि:-

“लाभ, दशम तथा द्वितीय भावों के स्वामियों में से एक भी ग्रह यदि चन्द्रमा से केन्द्र में बैठ जाए और साथ ही साथ गुरु भी द्वितीय तथा पंचम भाव का स्वामी होता हुआ अथवा द्वितीय तथा लाभ भाव का स्वामी होता हुआ उसी प्रकार चन्द्रमा से केन्द्र में स्थित हो जावे तो अखण्ड साम्राज्य की प्राप्ति करवाता है।“

इस योग की महत्त्वपूर्ण शुभता के निम्नलिखित कारण हैं:-

  • लग्नेश, कर्मेश तथा लाभेश में से प्रत्येक किसी न किसी रूप में शासन, पदवी, महान पद की प्राप्ति को दर्शाता है। अतः ऐसे शासन द्योतक ग्रहों का चन्द्र लग्न से केन्द्र में बैठना शासन की प्राप्ति का सूचक होगा ।
  • गुरु स्वतन्त्र रूप से राज्यकृपा (Governmental Favour) सुख का ग्रह है । जब यह ग्रह द्वितीय, पंचम, एकादश आदि शुभ राज्यद्योतक भावों का स्वामी होकर बलवान् होगा (चन्द्र से केन्द्र में स्थित होने के कारण) तो वह भी राज्यकृपा का पात्र अर्थात् राज्याधिकारी हो जावेगा ।

5. मान – राज्य की भांति मान भी ऊंचाई का द्योतक है। जब लग्न, लग्नेश, दशम, दशमेश बलवान् हों तो मनुष्य मान प्राप्ति करता है तथा ख्याति और यश पाने वाला होता है।

6. ऊंचाई का अर्थ – लग्न सूर्य का उदय स्थान है और सप्तम अस्त स्थान । इसी प्रकार जन्म कुण्डली में चतुर्थ भाव मध्य रात्रि है तो दशम मध्य दिन । मध्य दिन में सूर्य सिर पर रहता है। अतः दशम स्थान ऊंचाई का (Zenith) स्थान है।

जब हम ऊंचाई शब्द का प्रयोग करते हैं तो यह शब्द एक प्रतीक (Symbol) के रूप में प्रयुक्त होता है। इस शब्द में प्रत्येक प्रकार की ऊंचाई का समावेश हो जाता है। दशम भाव इसीलिए जहां नभ का द्योतक है, वहां वह ऊंची पदवी का भी परिचायक है। ऊंची पदवी वाले व्यक्ति, जैसे राजे, नवाब, रईस, राज्यपाल, प्रेसीडेण्ट सभी का विचार दशम भाव से किया जाता है।

चूंकि राज्य (State) की ऊंची पदवी होती है और उसका शासन प्रजा पर चलता है, अतः राज्य (State or Government) सम्बन्धी सब बातों का विचार दशम भाव से करना चाहिए। यदि शनि आदि के प्रभाव में दशम, दशमाधिपति तथा सूर्य हो तो राज्य त्याग (Abdication) का योग बनता है।

यदि दशम भाव, दशमेश तथा सूर्य सभी पर शनि, राहु, द्वादशेश आदि पृथकताजनक ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य चाहे राजा के घर भी उत्पन्न हो, उसे राज्य से हाथ धोना पड़ेगा।

उदाहरणार्थ कुम्भ लग्न हो, सूर्य तथा मंगल द्वितीय भाव में हों, शनि अष्टम में हो तो राज्य त्याग (Abdication) का योग बनता है, क्योंकि शनि जो कि लग्नेश होने के कारण निज (Self) को दर्शाता है। उसका प्रभाव दशम भाव, उसके स्वामी मंगल तथा उसके कारक सूर्य पर पड़ता है और शनि है पृथकता देने वाला ग्रह । अतः निज द्वारा राज्य से पृथक होने का युक्तियुक्तयोग बना ।

7. व्यवसाय और दशम भाव – हम इस अध्याय के आरम्भ में ही इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि दशम भाव शुभ कर्मों का भाव है न कि आजीविका प्राप्ति का ढंग बतलाने वाला भाव ऐसा होते हुए भी वराह मिहिर आदि आचार्यों ने दशम भाव में स्थित ग्रहों द्वारा आजीविका का निश्चय करने को कहा है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि दशमस्थ ग्रहों की स्थिति लग्न से दशम केन्द्र में होने के कारण उनका प्रभाव लग्न पर पड़ता है और लग्न ही आजीविका बतलाता है। अतः लग्न पर पाए गए प्रभाव द्वारा आजीविका की सिद्धि दशमस्थ ग्रहों द्वारा युक्तियुक्त है।

कुंडली के दसवें भाव का महत्व

दशम भाव में राशियां

1. मेष राशि – जब दशम भाव में मेष राशि हो तो मंगल दशम भाव का स्वामी तथा पंचम भाव का स्वामी बनता है। केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी होने से मंगल राजयोग कारक ग्रह अर्थात् धन, पदवी आदि शुभता का देने वाला हो जाता है। यदि मंगल सप्तम भाव में मकर राशि का होकर पड़ जाये और पापदृष्ट न हो तो काहल नाम का शुभ योग बनता है। इस शुभ योग का फल चन्द्र कला नाड़ी के शब्दों में यह है:-

“काहल योग में उत्पन्न होने वाला मनुष्य मन्त्री अथवा सेनाध्यक्ष होता है और हजारों रुपये मासिक आय वाला होता है ऐसा ईश्वर का मत है।“

मंगल की इस शुभता के कई कारण हैं।

  • एक तो कर्क लग्न वालों के लिए यह मंगल शुभ बनेगा। उनके लिए राजयोग कारक होने से शुभ है;
  • पुनः यह केन्द्र में स्थित है;
  • तीसरे यह उच्च है और
  • सबसे बढ़कर यह कि मंगल की दृष्टि अपनी राशि मेष पर पड़ेगी, जिसके फलस्वरूप दशम तथा पंचम भाव को और भी अधिक बल प्राप्त होगा। ।

दशम तथा पंचम भाव की ओर मंगल ग्रह की वृद्धि मन्त्री तथा सेनाध्यक्ष बना दे तो आश्चर्य ही क्या है ?

कर्क लग्न में मंगल यद्यपि नीच राशि का होता है तो भी शुभकारी होता है, क्योंकि

  • एक तो राजयोग कारक होता है,
  • दूसरे वह दशम से चतुर्थ पंचम से नवम होने के कारण दोनों भावों के लिए शुभ हो जाता है।

वह व्यक्ति पुत्र द्वारा मान पाता है। अपनी मन्त्रणा शक्ति द्वारा भी राज्य तथा यश पाता है।

2. वृषभ राशि – दशम भाव में वृषभ राशि होने पर शुक्र केन्द्राधिपति होने से अपनी शुभता खो बैठता है और तृतीयाधिपति होने से पुनः अशुभ फल को देने वाला होता है। शुक्र की युक्ति धन की आय को कम करती है और शनि की दशा में यह युक्ति विशेषकर रोग आदि अशुभ फल को देती है।

यदि शुक्र बलवान् हो तो महान व्यक्तियों से मित्रता करने वाला होता है, राजपुरुषों की शुभकामनाएं प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

3. मिथुन राशि – दशम में मिथुन राशि होने पर बुध, लग्नेश तथा दशमेश होने के कारण बहुत शुभ होता है और अपनी दशा में यदि बलवान् हो तो अचानक राज्यपद की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, यश की प्राप्ति आदि देता है, शुभ कर्मों में प्रवृत्त करवाता है । बलवान् बुध पिता के धन की शीघ्र वृद्धि करने वाला होता है ।

4. कर्क – दशम में कर्क हो तो दशमाधिपति चन्द्र बनता है। यदि चतुर्थ भाव में मकर राशि का हो तो मन के साथ दशम का विशेष सम्बन्ध उत्पन्न कर देता है तथा राज तथा राजनीति में अधिक रुचि रखने वाला सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने वाला मानी यशस्वी तथा राज सत्ता को प्राप्त करता है ।

5. सिंह – दशम में सिंह होने पर सूर्य, दशमेश यदि बलवान् हो तो पिता धनी होता है। व्यक्ति बड़े कामों में हाथ डालता है, विख्यात होता है, कार्यों में सिद्धि प्राप्त करता है।

6. कन्या राशि – दशम में कन्या राशि होने पर बुध केन्द्राधिपति दोष उत्पन्न करता है और षष्ठ, अष्टम द्वादश, द्वितीय आदि भावों में निर्बल होकर स्थित होता हुआ अपनी भुक्ति में रोग देता है। बुध यदि बलवान् हो तो राज्य में मान प्राप्ति कराता है । यदि बुध पर सूर्य, शनि राहु आदि की दृष्टि हो तो राज दरबार से शीघ्र पृथक हो जाता है।

7. तुला राशि – दशम में तुला राशि हो तो शुक्र दशम केन्द्र तथा पंचम त्रिकोण का स्वामी होने से अपनी भुक्ति में राजयोग का फल करता है। अर्थात् धन, यश, पदवी, उन्नति आदि शुभ वस्तुओं की प्राप्ति करवाता है। मनुष्य को राज दरबार से सुख प्राप्त होता है, अपने कर्मों से जनता में प्रिय हो जाता है । यदि शुक्र निर्बल हो तो धन मिलता है, धन का अभाव नहीं होता

8. वृश्चिक राशि – दशम में वृश्चिक राशि होने पर मंगल दशमेश होने के कारण अपने नैसर्गिक पापत्व को यद्यपि खो देता है, परन्तु चूंकि तृतीयाधिपति भी होता है, अतः अपनी भुक्ति में अशुभ फल ही करने वाला होता है। यदि मंगल बलवान् हो तो छोटे भाई तथा मित्रों के कारण मान प्राप्त कराता है।

इस राशि में स्थित हुआ शनि बहुत शुभ समझना चाहिए, यद्यपि वह शत्रु राशि में स्थित है। कारण यह है कि शनि लग्नेश है और उसको दो अच्छे बल प्राप्त हो रहे हैं। एक तो प्रमुख केन्द्र (दशम भाव) में स्थित होना और दूसरे शनि का अपनी राशि मकर को देखना। इस दृष्टि के फलस्वरूप लग्न को भी बहुत बल मिलता है।

इसीलिए चन्द्रकला नाड़ी के लेखकों का कहना है कि- “यदि कुम्भ लग्न हो, गदांश हो, लग्नेश शनि दशम भाव में स्थित हो तो मनुष्य जन्म से ही धनवान् होता है और कभी भी गरीबी नहीं देखता ।“

9. धनु राशि – दशम में धनु राशि होने पर गुरु केन्द्र त्रिकोण का स्वामी होने से अति शुभ फलदाता होता है। यदि गुरु बलवान् हो तो बहुत यशस्वी, राज्यमानी, परोपकारी, धनी आदि होता है और अपने कृत्यों से यश की प्राप्ति करने वाला होता है ।

10. मकर राशि – दशम में मकर राशि हो तो शनि लाभेश दशमेश बनता है । पराशर मुनि के मत के अनुसार शनि पाप फल को देने वाला होता है। यद्यपि केन्द्राधिपत्य द्वारा शनि अपना नैसर्गिक पापत्व खो देता है।

शनि तथा बुध मिलकर जिस भाव, भावेश को प्रभावित करेंगे उसे रोगी बनायेंगे, क्योंकि बुध षष्ठेश तथा शनि छठे से छठे घर का स्वामी तथा रोग कारक बनता है ।

11. कुम्भ राशि – दशम में कुम्भ राशि होने पर शनि नवम तथा दशम का स्वामी बनता है। व्यक्ति का पिता प्रायः जबान का कर्कश होता है। परन्तु शनि अपनी भुक्ति में शुभ फल, धन, पदवी, उन्नति, यश आदि देता है; क्योंकि केन्द्र त्रिकोण का स्वामी होने से राजयोग कारक होता है। शनि यदि बलवान् हो तो व्यक्ति भाग्य के कारण राज्य पाता है। अर्थात् इस विषय में उसे आशातीत सफलता प्राप्त होती है।

12. मीन राशि – दशम में मीन राशि होने पर गुरु को केन्द्राधिपत्य दोष होता है। गुरु यदि षष्ठ, अष्टम द्वादश, द्वितीय आदि भावों में स्थित होकर निर्बल हो तो महान् रोग देता है।

गुरु यदि बलवान् हो तो राज्य देता है; क्योंकि एक तो गुरु राज्यकृपा का कारक है, दूसरे दशम भाव भी राज्य का है। बलवान गुरु यश, राज्य, धन, आयु, परोपकार आदि सद्गुण तथा वस्तुएं प्राप्त करवाता है।

फलित सूत्र

  1.  ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
  2.  ग्रह परिचय
  3.  कुंडली के पहले भाव का महत्व
  4.  कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
  5.  कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
  6.  कुंडली के चौथे भाव का महत्व
  7.  कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
  8.  कुंडली के छठे भाव का महत्व
  9.  कुंडली के सातवें भाव का महत्व
  10.  कुंडली के आठवें भाव का महत्व
  11.  कुंडली के नौवें भाव का महत्व
  12.   कुंडली के दसवें भाव का महत्व
  13.  कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
  14.  कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
  15.  दशाफल कहने के नियम

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