कुंडली के दूसरे भाव का महत्व

दूसरे भाव से रूप लावण्य, विद्या, कला, गूंगापन, गोद जाना, शासन आदि का विचार किया जाता है

1. जैसे लग्न से चतुर्थ लग्न का अर्थात् निज (Self) का घर है, इसी प्रकार एकादश, अर्थात् आमदनी कमाई से प्राप्त धन आदि के रखने की जगह, एकादश से चतुर्थ, बैंक कोष (Treasury) है ।

2. धन-भाव तथा कुमार अवस्था – प्राथमिकता के गुण के कारण लग्न से जन्मकालीन तथा शैशवकालीन बातों का विचार किया जाता है। द्वितीय स्थान का भी इसी नियम के अनुसार शिशु अवस्था के तुरन्त बाद की अवस्था अर्थात् ‘कुमार’ अवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः कुमार अवस्था, स्वयं, इन सबका विचार द्वितीय भाव से करना चाहिए।

जैसे – यदि द्वितीय स्थान तथा उसके स्वामी पर पृथकताजनक सूर्य, शनि राहु आदि ग्रहों का प्रभाव हो, विशेषतया जब द्वितीयेश स्वयं कुमार (बुध) हो तो मनुष्य कुमार अवस्था में अपने माता-पिता से पृथक (कुटुम्ब से वियुक्त) रहता है और बहुधा उसकी घर से भाग जाने की प्रवृत्ति रहती है

3. धन भाव और रूप लावण्य – लग्न यदि प्रथम भाव होने के कारण प्रथम अंग अर्थात् सिर का प्रतिनिधि है तो धन भाव द्वितीय नम्बर पर आने के कारण द्वितीय अंग अर्थात् मुख, उसकी शोभा अथवा अशोभा को जतलाता है।

यदि द्वितीय भाव का स्वामी बुध अथवा शुक्र हो और बली होकर शुभदृष्ट तथा शुभयुक्त हो तो मनुष्य सुन्दर मुख वाला, शोभनीय आंखों वाला तथा दर्शनीय होता है।

शुक्र स्वतन्त्र रूप से ‘रूप’ का कारक है । उधर रूप मुख्यतया मुख से ही देखा जाता है । अतः जब स्वयं शुक्र द्वितीयाधिपति होगा और बलवान् तथा शुभदृष्ट होगा तो स्पष्ट है कि मनुष्य को रूपवान अर्थात् सुन्दर बनायेगा ।

बुध भी ‘लावण्य’ युक्त है। बुध “रूपवान्” ग्रह है । अतः द्वितीयाधिपति होने की दशा में तथा बलयुक्त होने पर यह ग्रह भी मनुष्य को सुन्दर बनाता है।

4. धन भाव और वाणी विकार – वाणी मुख का ही प्रयोग है। यदि बुध तथा बृहस्पति (वाणीद्योतक ग्रह) द्वितीयाधिपति समेत कहीं भी निर्बल, पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो मनुष्य को वाणी में दोष अथवा रोग होता है। यदि केवल शनि तथा राहु का प्रभाव हो तो जातक गूंगा तक हो जाता है।

गुरु भी बुध की भांति वाणी का कारक है। यह वाणी से आजीविका पाने वाले वकीलों से भी घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। वाणी द्योतक गुरु के सम्बन्ध में सर्वार्थ चिन्तामणिकार का कहना है कि यदि द्वितीय स्थान का स्वामी तथा गुरु दोनों अष्टम स्थान में हों तो मनुष्य मूक अर्थात् गूंगा होता है ।

5. धनभाव तथा प्रबल भाषण शक्ति – यदि द्वितीयेश, गुरु तथा बुध तीनों बलवान हो तो मनुष्य में उपदेश देने, भाषण देने तथा वाद-विवाद करने की अच्छी शक्ति आ जाती है। गुरु और बुध वाणी के कारक हैं।

6. द्वितीय भाव और विशेष धन – यदि द्वितीय भाव में कोई नैसर्गिक शुभ ग्रह स्वक्षेत्री होकर केतु के साथ स्थित हो तो वह मनुष्य विशेष धन (लखपति) होता है; क्योंकि जहां स्वक्षेत्री शुभ ग्रह धन के बाहुल्य का द्योतक है वहां केतु का योग उसकी अधिकतम ऊंचाई (केतु का अर्थ ‘झंडा’ ऊंचाई है) का प्रतीक है।

7. द्वितीय भाव और संगीत कला का ज्ञान – द्वितीयाधिपति, पंचमाधिपति तथा शुक्र का किसी प्रकार का शुभ सम्बन्ध मनुष्य को संगीतज्ञ बनाता है । कारण यह है कि द्वितीय तथा पंचम दोनों भावों का वाणी से सम्बन्ध है और शुक्र उस वाणी को संगीत बनाता है क्योंकि शुक्र एक सुसंस्कृत करने वाला (Sublimating) ग्रह है।

8. द्वितीय भाव तथा अन्धापन – द्वितीय भाव में यदि सूर्य अथवा चन्द्र निर्बल होकर शत्रु राशि में स्थित हों तथा मंगल द्वारा दृष्ट हों तो यह दृष्टिनाश का योग है।

द्वितीय स्थान, सूर्य तथा चन्द्र सभी दृष्टि के द्योतक हैं अतः उनका मंगल द्वारा पीड़ित होना दृष्टि को हानि पहुंचाने वाला होगा, यह युक्तिसंगत ही है।

9. द्वितीय भाव और संन्यास – द्वितीय भाव धन तथा कुटुम्ब दोनों का प्रतिनिधि है। अतः जब अन्य संन्यासप्रद योगों की उपस्थिति में द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर सूर्य, शनि, राहु तथा द्वादशेश (पृथकताजनक ग्रहों) का प्रभाव हो तो मनुष्य धन तथा कुटुम्ब से पृथक हो जाता है। इन दो वस्तुओं का त्याग ही प्रायः संन्यास का मुख्य चिन्ह माना जाता है।

10. द्वितीय भाव और मारक दशा – तृतीय भाव अष्टम (आयु स्थान) से अष्टम होने के कारण आयु का द्योतक है। उस तृतीय स्थान से द्वादश स्थान अर्थात् द्वितीय स्थान आयु के नाश का द्योतक है। इसीलिए द्वितीयेश को मारकेश आदि बोलते हैं।

द्वितीय भाव के स्वामी की दशा में सप्तमेश, द्वादशेश आदि आयुनाशक ग्रहों की अन्तर्दशा मनुष्य की मृत्यु को जतलाती है, विशेषतया जबकि मृत्यु का खण्ड (दीर्घ, मध्यम, अल्प) आ चुका हो और दशा तथा अन्तर्दशा ग्रह निर्बल हों अन्यथा यह अन्तर्दशा शरीर के कष्ट को देती है।

11. धनभाव मूल्यप्रद है – धनाधिपति घन अथवा मूल्य (Value) का द्योतक है। जब गुरु (जो धन का कारक ग्रह है) स्वयं धनाधिपति हो तो बहुमूल्य का परिचय देता है। ऐसा गुरु, विशेषतया तब जबकि वह एकादश (आय) स्थान का भी स्वामी हो तो, अति मूल्यप्रद (Denoting much value) हो जाता है। ऐसे गुरु की दृष्टि अथवा युति से जिस भाव आदि पर प्रभाव पड़ेगा वह भावादि बहु मूल्यवान् हो जाएगा।

जैसे कुम्भ लग्न हो और गुरु और शुक्र दशम स्थान में स्थित हों तो व्यक्ति की जायदाद मूल्यवान् होगी । 

इसी प्रकार यदि वृश्चिक लग्न हो और गुरु की दृष्टि सूर्य पर हो तो मनुष्य बड़े-बड़े मूल्यवान् काम-धन्धों का करने वाला होता है। गुरु की दृष्टि यदि शुक्र पर हो तो वृश्चिक लग्न वाले को बहुत सम्पत्तिशाली ससुराल मिलती है, आदि ।

12. धनभाव और गोद लिया जाना – यदि षष्ठेश, एकादशेश तथा राहु का द्वितीय तथा द्वितीय भाव के स्वामी से पूर्ण सम्बन्ध हो तो यह योग जातक के गोद लिए जाने का द्योतक है। क्योंकि कुटुम्ब स्थान पर परताजनक ग्रहों का प्रभाव अन्य कुल, परकुल अथवा कुटुम्ब में जाने को जतलायेगा ।

13. द्वितीय भाव और साम्राज्य – अखण्ड साम्राज्य योग की परिभाषा करते हुए ज्योतिषशास्त्र कहता है कि जब लग्नेश, दशमेश अथवा धनेश में से कोई एक भी ग्रह चन्द्र से केन्द्र में पड़ जाए और साथ ही साथ गुरु भी धनाधिपति तथा लाभाधिपति अथवा धनाधिपति तथा पंचमाधिपति होता हुआ उसी तरह चन्द्र से केन्द्र में हो तो बहुत साम्राज्य और धन देने वाला साम्राज्य योग बनता है।

विचार करने पर पता चलेगा कि साम्राज्य योग की शुभता अथवा धनादि देने की शक्ति के दो कारण हैं:-

  • एक धन द्योतक भावों के स्वामियों का चन्द्र से केन्द्र में स्थित होने से बलवान् होना ।
  • दूसरे धन कारक गुरु का भी उसी केन्द्रीय स्थिति के कारण बलवान् होना, विशेष रूप से धनद्योतक भावों (दूसरे, पांचवें तथा ग्यारहवें) का स्वामी होकर बलवान् होना ।

14. धन भाव तथा विद्या – सर्वार्थचिन्तामणिकार के मत में द्वितीय स्थान विद्या का भी है। उनका कहना है “दूसरे स्थान से निजपालनीय कुटुम्बी मनुष्य, मुख, वाणी, दाहिने नेत्र आदि, धन, विद्या, भोग विशेष, दास, मित्र इन सब वस्तुओं का विचार करना चाहिए ।“

‘उत्तर कालामृत’ में भी द्वितीय स्थान का सम्बन्ध विद्या से बतलाया है। वहां लिखा है:- “विद्या, स्वर्ण, चांदी, धान्य, विनय, नासिका तथा मन का धैर्य आदि बातें द्वितीय भाव से विचार की जाती हैं।“

15. धन भाव और शासन – शासन का विचार दशम स्थान से किया जाता है, परन्तु द्वितीय भाव भी शासन का भाव है, यह बात सर्वार्थ चिन्तामणिकार कहता है। वहां लिखा है- “यदि द्वितीय भाव का स्वामी उच्च राशि में होकर केन्द्र स्थान में स्थित हो तो मनुष्य को सिंहासन (Ruling Powers) की प्राप्ति होती है ।“

द्वितीय भाव में विविध राशियां

मेष राशि – इस भाव में मेष राशि हो तो धनाधिपति नवमेश भी हो जाता है। यदि मंगल बलवान् हो तो ऐसे व्यक्ति को आशातीत धन की प्राप्ति होती है और राज्याधिकारी धन प्राप्ति में इस व्यक्ति के विशेष सहायक हो जाते हैं।

इसके विपरीत यदि मंगल निर्बल, पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो इस व्यक्ति को धन के विषय में भाग्य की ओर से मार पड़ती है और उसका धन अचानक नष्ट हो जाता है।

वृषभ राशि – धन भाव में वृषभ राशि हो और शुक्र बलवान् हो तो स्त्री पक्ष से तथा व्यापार से धन की अच्छी प्राप्ति होती है। शुक्र यदि निर्बल होकर छठे अथवा आठवें भाव में पड़ा हो तो अपनी दशा अन्तर्दशा में भारी रोग देता है । शुक्र यदि बलवान् हो तो मुख सुन्दर होता है।

मिथुन राशि – यदि द्वितीय स्थान में मिथुन राशि हो और बुध बलवान् हो तो व्यक्ति महान् वक्ता (Orator) होता है, क्योंकि वाणीकारक बुध स्वयं दो वाणी भावों द्वितीय तथा पंचम का स्वामी बन जाता है।

यदि बुध तथा शुक्र एकत्र हों और उन पर मंगल आदि पापी ग्रहों की दृष्टि आदि का प्रभाव हो तो मनुष्य की पहली स्त्री दीर्घजीवी नहीं होती कारण कि स्त्रीभाव का अष्टमेश तथा स्त्रीकारक दोनों पाप प्रभाव से पीड़ित हो जाते हैं।

यदि द्वितीय भाव तथा इसका स्वामी राहु अथवा मंगल के प्रभाव में हो तो ऐसा व्यक्ति कुमार अवस्था में अर्थात् अपने अध्ययेन काल में अपने कुटुम्ब से पृथक् हो जाता है। अर्थात् कहीं किसी होस्टल आदि में माता-पिता से पृथक् होकर रहता है अथवा अन्यत्र किसी सम्बन्धी के पास रहकर पढ़ता है, परन्तु रहता माता पिता से पृथक् होकर ही है।

कर्क राशि – यदि चन्द्र बलवान् हो तो उच्च पदवी की प्राप्ति तथा धन की प्राप्ति होती है। माता की बड़ी बहनों की संख्या अधिक होती है। आंखें सुन्दर होती हैं। यदि चन्द्र निर्बल हो तो मनुष्य निर्धन तथा कुटुम्ब से वैर रखने वाला होता है।

सिंह राशि – यदि द्वतीय भाव में सिंह राशि पड़ जाए और सूर्य बलवान् हो तो शासन की प्राप्ति होती है। मनुष्य की वाणी ओजस्वी होती है। यदि सूर्य निर्बल हो तो आंखों में कष्ट, कुटुम्ब से विरोध तथा राज्य की ओर से हानि होती है।

कन्या राशि – यदि द्वितीय भाव में कन्या राशि हो तो बुध न केवल धनाधिपति, परन्तु लाभाधिपति भी बन जाता है। अतः बुध में बहुत्व तथा मूल्य का समावेश विशेष रूप से हो जाता है। अतः बुध जिस भाव तथा उसके स्वामी को देखेगा उसको मूल्यवान् पदवी, मूल्यवान् वाहन तथा मूल्यवान् भूमि आदि सब उत्तम वस्तुएं प्राप्त होंगीं । बलवान् बुध खूब धन देगा। ऐसा व्यक्ति ब्याज (Interest) से भी धन पाता है, क्योंकि पैसे से पैसा कमाने का योग बनता है। ऐसे व्यक्ति की माता की कई बहनें होती हैं।

इसके विपरीत यदि बुध निर्बल, पापयुक्त या पापदृष्ट हो तो इस व्यक्ति को कुमार अवस्था में विद्या में अड़चनें तथा असफलताएं, धन का नाश कुमार अवस्था में माता-पिता से दूर रहकर विद्या अध्ययन, वाणी में दोष आदि उत्पन्न हो जाते हैं तथा कुरूपता प्राप्त होती है।

तुला राशि – यदि द्वितीय भाव में तुला राशि हो तो शुक्र को नवम भाव का स्वामी होने का सौभाग्य भी प्राप्त हो जाता है। अतः ऐसा व्यक्ति अचानक धन से लाभ उठा जाता है।

वृश्चिक राशि – यदि द्वितीय भाव में वृश्चिक राशि पड़ जाए और मंगल बलवान् हो तो मनुष्य धनी, दीर्घजीवी स्त्री वाला, प्रतापी वाणी वाला, स्त्री पक्ष से धन प्राप्त करने वाला, यौवन में सुखी होता है।

इसके विपरीत यदि मंगल निर्बल, पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो उसकी स्त्री तथा उसका व्यापार उसके धन के नाश के कारण बनते हैं। उसकी स्त्री अल्पजीवी होती है। मंगल पर जिन ग्रहों का प्रभाव हो उनके प्रभाव द्वारा स्त्री की मृत्यु के कारणों का पता चलना चाहिए। ऐसा व्यक्ति यौवन में दुःख पाता है ।

धनु राशि – द्वितीय भाव में धनु राशि हो तो गुरु द्वितीयेश तथा पंचमेश बन जाता है । अतः यदि गुरु बलवान् हो तो मनुष्य पुत्रों से धन पाता है, उसके पुत्र धनी-मानी होते हैं । उसमें बोलने की शक्ति (Oratory) बहुत होती है । उसका बोलना मीठा तथा विद्वत्तापूर्ण होता है, उसको उत्तम विद्या की प्राप्ति होती है, वह विद्या तथा बुद्धि के प्रयास से धन कमाता है।

यदि गुरु निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो उसके धन की हानि होती है। धन की हानि में उसके पुत्र का भी हाथ होता है। उसकी वाणी में दोष होता है।

मकर राशि – यदि द्वितीय स्थान में मकर राशि हो तो जातक बाहु प्रयोग से धन कमाता है। शनि बलवान् हो तो बड़े पुरुषों से मित्रता होती है । इसकी छोटी बहनों से इसे धन प्राप्ति होती है। मित्र भी सहायता करते हैं, इसकी स्त्री की आयु दीर्घ होती है।

शनि यदि निर्बल हो तो थोड़ा धन होता है, धन का नाश भाई द्वारा होता है और स्त्री की आयु कम होती है ।

कुम्भ राशि – यदि द्वितीय भाव में कुम्भ राशि हो तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से धन कमाने वाला होता है। यदि शनि बलवान् हो तो बड़ा धनी-मानी होता है। उसकी माता की कई बड़ी बहनें होती हैं। उसकी स्त्री दीर्घजीवी होती है।

मीन राशि – यदि द्वितीय भाव में मीन राशि हो और गुरु बलवान् हो तो मनुष्य धनी होता है, गुरु जिस भाव, कारक आदि को देखता है उसे धनी अथवा मूल्यवान बना देता है। व्यक्ति की माता के बड़े भाई होते हैं । व्यक्ति ब्याज से धन प्राप्त करता है, उसको अपने बड़े भाई से भी धन की प्राप्ति होती है ।

इसके विपरीत, यदि गुरु निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो धन का नाश, बड़े भाई से वैमनस्य माता के बड़े भाइयों का नाश होता है।

फलित सूत्र

  1.  ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
  2.  ग्रह परिचय
  3.  कुंडली के पहले भाव का महत्व
  4.  कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
  5.  कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
  6.  कुंडली के चौथे भाव का महत्व
  7.  कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
  8.  कुंडली के छठे भाव का महत्व
  9.  कुंडली के सातवें भाव का महत्व
  10.  कुंडली के आठवें भाव का महत्व
  11.  कुंडली के नौवें भाव का महत्व
  12.   कुंडली के दसवें भाव का महत्व
  13.  कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
  14.  कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
  15.  दशाफल कहने के नियम

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