कुंडली के पहले भाव का महत्व
लग्न से जातक के रंग, रूप, कद, आकृति स्वभाव, सुख-समृद्धि, यश, मान, आजीविका आदि का विचार किया जाता है।
लग्न और मनुष्य का स्वभाव
मनुष्य के स्वभाव का विचार जहां चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा चन्द्र पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव द्वारा करना चाहिए वहां इस सन्दर्भ में लग्न का भी पर्याप्त महत्त्व है, क्योंकि लग्न जहां मनुष्य का सिर और विचार शक्ति है, वहां वह मानव का समष्टि रूप भी है। अतः जब लग्न तथा लग्नाधिपति शुभ प्रभावों में हो तो मनुष्य का स्वभाव शुद्ध सात्विक होता है और यदि अशुद्ध हों तो इसके विपरीत ।
सर्वार्थ चिन्तामणिकार ने कहा भी है- “जब लग्न में गुरु, शुक्र से युक्त हो तो मनुष्य का मन शुद्ध होता है अर्थात वह सात्विक प्रकृति का होता है।“
इस सम्बन्ध में देवकेरलकार लिखते हैं:- “यदि लग्न में चन्द्र के साथ राहु हो तो मनुष्य मूर्ख स्वभाव वाला तथा क्रोधयुक्त होता है ।“ राहु शनिवत् होने के कारण मूर्खता को जतलाता है । अतः जब इस अन्धकारमय ग्रह का प्रभाव लग्न तथा चन्द्र लग्न पर स्थिति द्वारा पड़ेगा तो स्पष्ट है कि लग्न अर्थात् स्वभाव में मूर्खता तथा क्रोध आदि राहु के दुर्गुण आ जायेंगे।
लग्न और हिंसा वृत्ति – जब लग्न और लग्नाधिपति विशेष रूप से
निर्बल हों और मन में हिंसा वृत्ति का योग भी बनता हो तो मनुष्य घातक होता है ।
परोपकारी अथवा परपीड़क – यदि लग्नेश और राशीश आदि जन्म द्योतक ग्रह, नैसर्गिक रूप से शुभ हों तथा बली भी हों तो मनुष्य परोपकारी, दानी, शुभचिंतक होता है। इसके विपरीत यदि लग्न, लग्नेश आदि पर शनि राहु आदि का प्रभाव हो तो मनुष्य स्वार्थी, कृपण, अनिष्टकारी और परपीड़क होता है ।
वैराग्य – शनि जब चन्द्र पर दृष्टि द्वारा प्रभाव डालता है तो मन को वैराग्यमय बना देता है और सांसारिक विषयों से विरक्त कर देता है।
लग्न से प्रेम और विरोध का विचार – लग्न तथा लग्नेश से जो ग्रह नवम, पंचम आदि शुभ भावों में स्थित होगा उसकी जातक से प्रीति रहेगी और जो ग्रह लग्न अथवा लग्नेश से षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में पड़ा होगा तो उस ग्रह द्वारा प्रदर्शित सम्बन्धी से जातक का वैमनस् रहेगा।
जैसे यदि किसी स्त्री की कुण्डली में वृष लग्न हो और शुक्र सप्तम भाव, मंगल तथा गुरु से षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में हो तो वह स्त्री पति के बहुत विरुद्ध रहेगी। वह उसकी घातक तक हो सकती है। वर-कन्या की कुण्डलियों को मिलाते समय इन बातों का विचार कर लेना चाहिए।
लग्न और मान प्राप्ति – यदि लग्न, चन्द्राधिष्ठित राशि का स्वामी, सूर्य आदि लग्न द्योतक ग्रह बलवान् हों तथा शुभयुक्त अथवा शुभ दृष्ट हों और दशम तथा दशमाधिपति बलवान् हो तो मनुष्य को महान् मान तथा यश एवं कीर्ति की प्राप्ति होती है क्योंकि ये लग्नें मान तथा गौरव की द्योतक हैं।
राज्य शक्ति की प्राप्ति – यदि लग्नेश लग्न को, चन्द्राधिष्ठित राशि का स्वामी चन्द्र को और सूर्याधिष्ठित राशि का स्वामी सूर्य को देखे तो मनुष्य महान् नेता, शासक, राज्य की शक्ति वाला, मानी, मनस्वी तथा धनी होता है, क्योंकि अपने स्वामियों द्वारा दृष्ट लग्नें बलवान् होती हैं और लग्नों का बलवान् होना उपर्युक्त सभी सुखों को देने वाला होता है।
उपर्युक्त योग के पीछे वह सिद्धान्त कार्य कर रहा है जिसका उल्लेख ज्योतिष की इस प्रसिद्ध उक्ति में किया गया है कि “जो-जो भाव अपने स्वामी द्वारा युक्त अथवा दृष्ट हो उस भाव की वृद्धि होती है।“
चूंकि लग्नें अपने-अपने स्वामी तथा शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हैं और लग्न कुण्डली का सार सर्वस्व होती हैं, अतः ऐसे व्यक्तियों का महान् यशस्वी पदाधिकारी, राज्याधिकारी आदि विशेषणों से सुभूषित होना ज्योतिष के मौलिक सिद्धान्तों के अनुरूप ही है।
जन्मकालीन ग्रहों से देह की रचना आदि का ज्ञान
जब जलीय ग्रहों का योग दूसरे ग्रहों की अपेक्षा लग्न से अधिक रहता है तो मनुष्य स्थूल (मोटे) शरीर वाला होता है। इस सम्बन्ध में सर्वार्थचिन्तामणिकार लिखते हैं:- “यदि लग्न में जल राशि स्थित हो और शुभ ग्रहों से युक्त हो अथवा लग्नाधिपति जलीय ग्रह होता हुआ बलवान् हो तथा शुभ ग्रह युक्त हो तो मनुष्य स्थूल शरीर वाला होता है।“
शरीर का कद – जन्मद्योतक लग्न आदि (लग्न, लग्नेश, चंद्र-लग्न, चंद्र-लग्नेश, सूर्य-लग्न, सूर्य-लग्नेश) पर जब शनि, राहु, बुध, गुरु आदि दीर्घाकार ग्रहों का प्रभाव दृष्टि अथवा ‘योग’ द्वारा होता है तो मनुष्य का शरीर लम्बा होता है। जब मंगल, शुक्र आदि छोटे कद वाले ग्रहों का प्रभाव रहता है तो शरीर छोटे कद का होता है और मिश्रित प्रभाव से मध्यम कद प्राप्त होता है।
शरीर का रंग – शनि का रंग काला है । यदि शनि तथा राहु लग्न, लग्नेश चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नेश, सूर्य लग्न, सूर्य लग्नेश तथा द्वितीयेश पर प्रभाव डालें तो मनुष्य के शरीर का रंग काला होता है ।
बालारिष्ट – लग्न शिशु अवस्था को जतलाता है । अतः यदि लग्नेश तथा चन्द्र आदि जन्म द्योतक ग्रह बलवान् हों तो शिशु अवस्था सुख से व्यतीत होती है और बालारिष्ट नहीं होता, अन्यथा बालारिष्ट होता है ।
वराह मिहिर ने बालारिष्ट अध्याय में बृहज्जातक में कहा है:- “जब व्यय स्थान में चन्द्र हो, लग्न तथा अष्टम स्थान में पाप ग्रह हों, केन्द्र स्थानों में कोई शुभ ग्रह न हो तो बालक शिशु अवस्था में शीघ्र ही मर जाता है ।“
चन्द्र लग्न रूप होने से जब व्यय स्थान में होगा तो लग्न अर्थात् शरीर का नाश होगा, पाप ग्रह जब लग्न तथा अष्टम भाव में होंगे तब भी आयु की हानि होगी, क्योंकि लग्न और अष्टम दोनों भाव आयु के भाव हैं।
फिर कहा है कि केन्द्र में शुभ ग्रह न हों, स्मरण रहे कि जब केन्द्र में कोई ग्रह होता है तो उसका प्रभाव सदा लग्न पर पड़ता है। अतः केन्द्रों के शुभ ग्रहों से शून्य होने का अर्थ यह हुआ कि लग्न को इस शुभ स्थिति का बल भी नहीं मिल रहा।
लग्न और रोग
लग्नेश में व्यापक शारीरिक अंगों की कल्पना –
- सूर्य यदि लग्नाधिपति हो तो हड्डी का द्योतक होता है,
- चन्द्र यदि लग्नाधिपति हो तो रक्त का,
- मंगल यदि लग्नाधिपति हो तो मासपेशियों का,
- बुध यदि लग्नाधिपति हो तो त्वचा का
- गुरु यदि लग्नाधिपति हो तो चर्बी का,
- शुक्र यदि लग्नाधिपति हो तो वीर्य का,
- शनि यदि लग्नाधिपति हो तो नस-नाड़ियों (Nerves) का प्रतिनिधि होता है।
यदि
- लग्नेश सूर्य निर्बल अथवा पाप प्रभाव से पीड़ित हो तो हड्डी में कष्ट,
- चन्द्र लग्नेश इस प्रकार का निर्बल तथा पाप प्रभाव में हो तो रक्त विकार,
- मंगल ऐसा हो तो मासपेशियों के रोग, सूखा (Atrophy of Muscles) आदि,
- बुध ऐसा हो तो त्वचा के रोग,
- गरु ऐसा हो तो चर्बी के रोग,
- शुक्र ऐसा हो तो वीर्य के रोग,
- शनि ऐसा हो तो नसों (Nerves) के रोगों को देता है।
विशेष अंगों में कष्ट – लग्नेश यदि निर्बल तथा पाप युक्त अथवा पाप दृष्ट हो तो लग्न में स्थित राशि के अनुसार प्रदर्शित काल पुरुष के अंग में रोग आदि कष्ट होता है।
- लग्न मेष हो तो निर्बल एवं पाप प्रभाव में आया हुआ मंगल सिर में कष्ट देता है।
- लग्न वृष हो तो निर्बल एवं पाप प्रभाव में आया हुआ शुक्र मुख में
- लग्न मिथुन हो तो उपर्युक्त दशा वाला बुध सांस की नली में
- लग्न कर्क हो तो उपर्युक्त प्रकार का चन्द्र फेफड़ों तथा छाती में
- लग्न सिंह हो तो उपर्युक्त प्रकार का सूर्य दिल तथा पेट में
- लग्न कन्या हो तो उपर्युक्त प्रकार का बुध अन्तड़ियों में
- लग्न तुला हो तो उपर्युक्त प्रकार का शुक्र मूत्रेन्द्रिय में
- लग्न वृश्चिक हो तो उपर्युक्त प्रकार का मंगल अण्डकोषों में
- लग्न धनु हो तो उपर्युक्त प्रकार का गुरु नितम्बों (Hips) में
- लग्न मकर हो तो उपर्युक्त प्रकार का शनि जानुओं (Knees) में
- लग्न कुम्भ हो तो उक्त प्रकार का शनि टांगों के निचले भाग में तथा
- लग्न मीन हो तो उपर्युक्त प्रकार का निर्बल तथा पाप प्रभाव स्थित गुरु पांवों में रोग, चोट आदि कष्ट देता है ।
लग्न में स्थित ग्रह और रोग – लग्न में जो ग्रह आ जाता है वह निज धातु का और भी पक्का प्रतिनिधि बन जाता है और फलस्वरूप, यदि ऐसा ग्रह पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो, वह धातु व्याधिग्रस्त हो जाती है । जैसे:-
- लग्न में पड़ा मंगल यदि पापदृष्ट हो अथवा शुभ दृष्टियोग से हीन हो तो मासपेशियों में रोग देता है ।
- बुध, जो त्वचा का प्रतिनिधि है, जब लग्न में स्थित हो (अथवा सूर्य अथवा चन्द्र के साथ स्थित हो) और पापयुक्त एवं पापदृष्ट हो तो फुलबहरी आदि चर्म रोगों को उत्पन्न करने वाला होगा
- इसी प्रकार गुरु यदि लग्न में पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो जिगर आदि के रोगों को देने वाला होता है।
- इसी प्रकार लग्न में पड़ा शुक्र पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो वीर्य के अथवा मूत्रेन्द्रिय के रोगों को उत्पन्न करने वाला होता है।
- शनि यदि लग्न में पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो नसों (Nerves) के रोगों अधरंग, कम्पन, पोलियो आदि को उत्पन्न करता है ।
नीच लग्नेश और रोग – लग्नेश यदि नीच हो तो प्रायः उस अंग में रोग, पीड़ा आदि कष्ट देता है जिस अंग के भाव में वह नीच होकर बैठता है।
- मेष लग्न का स्वामी मंगल चतुर्थ स्थान में काल पुरुष के चतुर्थ अंग से सम्बद्ध रोगो – फेफड़ों तथा छाती के रोगों को देगा।
- वृषभ लग्न का स्वामी शुक्र, पंचम स्थान में नीच होकर पंचम भाव से सम्बद्ध पेट में,
- नीच का होकर स्थित हो तो घुटनों में कष्ट देता है, परन्तु थोड़ा ही। क्योंकि दशम स्थान प्रमुख केन्द्र स्थान है, जहां ग्रह बलवान् हो जाते हैं।
- कर्क लग्न का स्वामी चन्द्र पंचम भाव में नीच हो तो पेट में जलीय रोग देता है ।
- सिंह लग्न का स्वामी सूर्य यदि तृतीय भाव में नीच हो तो बाहु अथवा सांस की नली में कष्ट होता है, परन्तु थोड़ा।
- कन्या लग्न का स्वामी बुध सप्तम भाव में नीच हो तो वीर्य सम्बन्धी दोष देता है।
- तुला लग्न का स्वामी शुक्र यदि द्वादश भाव में नीच होकर स्थित हो तो आंखों तथा पांवों में थोड़ा कष्ट देता है।
- वृश्चिक लग्न का स्वामी मंगल यदि नवम भाव में नीच होकर स्थित हो तो नितम्ब (Hips) स्थान में कष्ट होता है।
- धनु लग्न का स्वामी गुरु यदि द्वितीय स्थान में नीच राशि का होकर स्थित हो तो मुख में कोई दोष होता है।
- मकर लग्न का स्वामी शनि यदि चतुर्थ स्थान में नीच राशि का होकर स्थित हो तो छाती के रोग देता है।
- कुम्भ लग्न का स्वामी शनि यदि तृतीय स्थान में नीच होकर पड़ा हो तो सांस की नली में कष्ट होता है।
- मीन लग्न का स्वामी गुरु यदि एकादश स्थान में नीच राशि का होकर स्थित हो तो पांव में थोड़ा कष्ट कभी-कभी होता है; अधिक नहीं, क्योंकि गुरु एकादश स्थान में बहुत बलवान् हो जाता है।

लग्नाधियोग से धनी
चन्द्राधियोग का उल्लेख करते हुए सारावलीकार ने लिखा है:-
“जिस व्यक्ति की कुण्डली में चन्द्रमा से छठे, सप्तम तथा अष्टम भावों में शुभ ग्रह स्थित हों और यदि वे ग्रह, न तो अशुभ ग्रहों के प्रभाव में हों और न ही सूर्य के समीप हों तो वह व्यक्ति बलशाली राजा होता है ।“
इस चन्द्र अधियोग की इतनी महिमा क्यों है ? कारण यह है कि चन्द्र लग्न समान है, जब चन्द्र बलवान होता है तो लग्न बलवान् समझनी चाहिए और बलवान् लग्न राज्य देती ही है।
उपर्युक्त चन्द्र से षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम भाव में शुभ ग्रहों की स्थिति चन्द्र को कैसे बलवान् बनाती है, यह बात इस प्रकार समझिए कि चन्द्र से सप्तम स्थान में स्थित ग्रह की शुभ दृष्टि तो चन्द्र पर सीधी पड़कर चन्द्र लग्न को बलवान् करेगी ही।
बाकी रही षष्ठ तथा अष्टम में शुभ ग्रहों की स्थिति की बात, इस स्थिति में एक शुभ ग्रह तो चन्द्र के एक ओर अर्थात् द्वादश स्थान पर और दूसरा शुभ ग्रह चन्द्र के दूसरे ओर अर्थात् द्वितीय भाव पर शुभ प्रभाव डालेगा जिसके फलस्वरूप चन्द्र को एक प्रकार का शुभता का मध्यत्व प्राप्त हो जावेगा।
दूसरे शब्दों में, अधियोग द्वारा चन्द्र शुभ ग्रहों के मध्यत्व में भी आ जाऐगा और दृष्टि में भी इस प्रकार लग्न स्वरूप चन्द्र के धनादि शुभ फल देने में कुछ भी संशय नहीं रहता ।
यह नियम लग्नाधियोग पर भी लागू होगा। अर्थात् लग्न को भी शुभ दृष्टि तथा शुभ मध्यत्व मिलेगा जिसके फलस्वरूप लग्नाधियोग भी उत्तम धन का देने वाला होगा।
यह तो स्पष्ट ही है कि यदि उन शुभ ग्रहों पर जो कि लग्न से अथवा चन्द्र से षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम भाव में स्थित हैं, पाप प्रभाव होगा अथवा वे ग्रह यदि अस्त, अतिचारी आदि होकर निर्बल होंगे तो लग्न अथवा चन्द्र को लाभ न पहुंचा सकेंगे। इसी कारण उनके शुभ तथा बलवान होने की शर्त है।
लग्नाधियोग का उल्लेख भी सारावलीकार ने किया है और कहा है:-
“जब लग्न से षष्ठ, सप्तम तथा अष्ठम भाव में नैसर्गिक शुभ ग्रह स्थित हों और वे शुभ ग्रह पाप ग्रहों से युक्त दृष्ट न हों तो व्यक्ति मन्त्री, दण्डपति अथवा राजा होता है जो कि बहुत ऐश्वर्ययुक्त, शीलवान् तथा सुखी होता है।“
वैसे तो लग्नेश चूंकि मनुष्य का निज (Self) होता है, अतः जिस भाव से यह सम्बन्ध स्थापित करे मनुष्य उस भाव द्वारा प्रदर्शित वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है । परन्तु जब लग्नेश तथा धनेश में व्यत्यय (Exchange) आदि द्वारा घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाए तो यह महाधन योग हो जाता है। यहां धन बाहुल्य में यह कारण है कि लग्न तथा धन स्थान दोनों ‘धन’ के द्योतक हैं।
उसी सादृश्य (Principle of Similarity) को ध्यान में रखते हुए ही सम्भवतया सर्वार्थ चिन्तामणिकार ने कहा है:-
“जब लग्न भाव का स्वामी धन भाव में स्थित हो, धन भाव का स्वामी लाभ अर्थात् ग्यारहवें भाव में स्थित हो अथवा लाभ भाव का स्वामी लग्न में स्थित हो तो मनुष्य को महान् निधि आदि धन की प्राप्ति होती है।“ कारण, धन के विषय में लग्न, द्वितीय तथा लाभ भाव का समान होना है।
दशम केन्द्रस्थ ग्रह और लग्न
जब कोई ग्रह दशम स्थान में बैठता है तो उसका प्रभाव लग्न पर अवश्य पड़ता है चाहे उस ग्रह की दृष्टि प्रचलित नियमों के अनुसार लग्न पर न भी पड़ रही हो।
इसी कारण जब दशम केन्द्र में गुरु आदि शुभ ग्रह बलवान् होकर बैठे हों तो ऐसी स्थिति में लग्न को बल मिलता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य की आयु, धन आदि की वृद्धि होती है।
लग्न में आग का प्रभाव
लग्न, पंचम तथा नवम भाव आग्नेय अर्थात् अग्नि द्योतक भाव हैं। यदि लग्न में कोई अग्नि द्योतक ग्रह जैसे सूर्य अथवा मंगल अथवा केतु पड़े हों तो लग्नेश अग्नि रूप माना जायेगा चाहे वह लग्नेश नैसर्गिक जलीय ग्रह चन्द्र ही क्यों न हो, ऐसा लग्नेश जिस भाव में स्थित होगा उसको अग्नि द्वारा हानि होगी, विशेषतया तब जबकि उस भाव में जाकर वह ग्रह नीचादि निर्बल अवस्था में हो।
जैसे यदि लग्न में सूर्य, मंगल अथवा बुध हो और लग्न का स्वामी चन्द्र पंचम में नीच राशि का हो तो मनुष्य के पेट में आग लगती है।
सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न भी लग्न भाव
इस सम्बन्ध में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिन भावों में सूर्य तथा चन्द्र हो उनको भी लग्न भाव ही की भांति समझना चाहिए। अर्थात् जब भावादि की गणना की जाए तो लग्न से जितने संख्या वाले भाव का विचार किया जाए चन्द्र लग्न (तथा सूर्य लग्न) से भी उसी संख्या वाले भाव का विचार करना चाहिए । तीनों लग्नों द्वारा प्रत्येक विषय का विचार करना अत्यधिक लाभदायक रहता है।
प्रथम भाव और सुदर्शन पद्धति – सुदर्शन पद्धति के अनुसार समस्त भावों का विचार तीन लग्नों से किया जाता है अर्थात् (i) लग्न से, (ii) सूर्य से और (iii) चन्द्र लग्न से । जब एक ही ग्रह तीनों ही लग्नों से एक ही भाव का स्वामी हो जाता है तो स्पष्ट है कि वह उस भाव का अधिकतम प्रतिनिधित्व करेगा। इसका अर्थ यह है कि उस ग्रह पर पाप प्रभाव अधिकतम अनर्थ का उत्पादक होगा, अपेक्षाकृत उस अवस्था के जबकि वह ग्रह केवल एक ही लग्न से उस भाव का स्वामी हो।
जैसे लग्न मेष हो और चन्द्रलग्न कन्या हो तो शुक्र लग्न से भी और चन्द्र लग्न से भी द्वितीय भाव का स्वामी होगा, अतः स्पष्ट है कि यदि बलवान् होकर तथा शुभयुक्त अथवा शुभ दृष्ट होकर स्थित होगा, तो मुख के सौन्दर्य को अधिक प्रकट करेगा।
अतः दो अथवा तीन लग्नों द्वारा एक ही तथ्य के द्योतक ग्रहों का स्वरूप निश्चित करके कुण्डली का फल कहना चाहिए ।
लग्न में विविध राशियों का फलादेश
मेष – यदि प्रथम भाव अर्थात लग्न में मेष राशि हो तो मनुष्य बहुधा मंगल के गुणों को लिए हुए होता है। काम-काज में तेज, कुछ-कुछ क्रोधी प्रकृति का होता है। चूंकि मंगल लग्नाधिपति तथा अष्टमाधिपति दोनों बन जाता है, अतः मंगल पर जिन ग्रहों का प्रभाव हो उन ग्रहों की प्रकृति, स्वभाव तथा तत्व आदि द्वारा मनुष्य की मृत्यु होती है। मंगल का एक साथ दो आयु द्योतक घरों का स्वामी बन जाना मंगल को आयु के सम्बन्ध में विशेष महत्व प्रदान करता है। अर्थात् यदि मंगल बलवान हो तो आयु दीर्घ खण्ड में पड़ जाती है और यदि मंगल निर्बल हो तो मनुष्य अल्पजीवी होता है ।
मंगल लग्नेश का प्रमुख व्यसन स्थान का स्वामी होना मनुष्य को व्यसनशील बना देता है; विशेषतया तब जबकि मंगल का प्रभाव चतुर्थ भाव पर तथा चन्द्र भाव पर हो ।
वृषभ – इस लग्न वाले बहुधा शरीर से सुन्दर होते हैं, क्योंकि शुक्र एक सुन्दर ग्रह है । वे विलास प्रिय होते हैं और गैर हिन्दू जातियों से सम्पर्क रखते हैं, क्योंकि शुक्र की दूसरी राशि अन्यताद्योतक छठे भाव में पड़ती है। ऐसे मनुष्यों को चोट लगने का अवसर भी रहता है, क्योंकि षष्ठ भाव चोट का है, विशेषतया जबकि गुरु तथा मंगल का प्रभाव भी शुक्र पर हो । ऐसे मनुष्य विलासप्रिय होते हुए भी जब कार्य करने पर उतारू होते हैं तो बैल की तरह खूब परिश्रम से काम करते हैं ।
मिथुन – इस लग्न वाले का यदि बुध बहुत निर्बल न हो तो बुद्धि के तीव्र होते हैं। यदि बुध, सूर्य, शनि तथा राहु आदि पृथकता जनक ग्रहों के प्रभाव में हों तो ऐसा मनुष्य अपनी जन्म भूमि तथा जन्म स्थान से दूर रहता है। यदि चन्द्र पर भी यह प्रभाव हो तो माता का सुख बहुत कम पाता है । राज कर्मचारी का इस प्रकार से प्रभावित बुध बहुत बार स्थान परिवर्तन (Transfers) कर देता है।
यदि बुध और चन्द्र का सम्बन्ध चतुर्थ भाव से हो तो ऐसा व्यक्ति राजकार्यों (Politics) में भाग लेने वाला होता है ।
इस लग्न वालों का बुध और चन्द्र पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो और शुक्र भी ऐसा ही हो तो व्यक्ति के पागल हो जाने का डर रहता है, क्योंकि पागलपन में आने वाले सभी अंग लग्न, चतुर्थ भाव, पंचमेश, बुध तथा चन्द्र निर्बल हो जाते हैं ।
मिथुन लग्न वालों के लिए मंगल चोट स्थान अर्थात् छठे स्थान का स्वामी होता है, चूंकि मंगल स्वयं भी एक हिंसाप्रिय ग्रह है, अतः क्षति आदि का कारक है। पुनश्च मंगल भावात् भावाम् के सिद्धान्त के अनुसार छठे से छठे भाव का भी स्वामी है, अतः मंगल में अतिशय क्रूरता पाई जाएगी ।
यह मंगल यदि लग्न में स्थित हो जाये तथा चतुर्थ भाव तथा चन्द्र पर दृष्टि डाले तो मनुष्य को हिंसाप्रिय, क्रूर, डाकू आदि बना देता है। मंगल का मिथुन लग्न में स्थित होना सिर में चोट लगने का योग है, विशेषतया तब जबकि बुध पर भी मंगल का प्रभाव हो ।
कर्क – चूंकि इस लग्न का स्वामी चन्द्र है और वह सबकी माता है, अतः इस लग्न वाले मृदु स्वभाव के सबके हितैषी, शत्रुहीन, सत्यप्रिय होते हैं। इनमें छल का अंश कम होता है। ऐसे मनुष्य शीघ्रताप्रिय होते हैं, क्योंकि चन्द्र शीघ्रगामी है। ऐसे व्यक्ति अपने निश्चयों में परिवर्तन करने के लिए उद्यत रहते हैं, क्योंकि चन्द्र अपनी कलाओं से परिवर्तनशील है।
ऐसे व्यक्तियों का चन्द्र जिस भाव में स्थित हो उस भाव से सम्बन्धित विषयों से उनका विशेष प्रेम हो जाता है। जैसे, यदि चन्द्र द्वितीय भाव में हो तो धन कुटुम्ब से तृतीय भाव में हो तो मित्रों तथा छोटे भाइयों से चतुर्थ भाव में हो तो अपने देश, उसकी जनता, माता तथा सर्वसाधारण से, पंचम में हो तो विद्या तथा बच्चों से, छठे भाव में हो तो निम्न वर्ग से तथा गैर हिन्दू लोगो से सप्तम भाव में हो तो पत्नी तथा व्यापार के भागीदारों से, अष्टम भाव में हो तो जान जोखिम में डालने वाले कार्यों तथा व्यसनों से नवम भाव में हो तो धर्म से, ऊंचे विचारों से दूर-दूर की यात्राओं से, दशम भाव में हो तो व्यय करने तथा पढ़ने से (आंखों के प्रयोग से) प्रेम हो जाता है ।
सिंह – इस लग्न वाले व्यक्तियों का स्वामी सूर्य होता है । अतः उनमें सूर्य के अधिकांश गुण-दोष आ जाते हैं। यदि सूर्य बलवान् हो तो ऐसे व्यक्ति साहसी, वीर, शासन की शक्ति को प्राप्त करने वाले, हृदय के बलवान् मजबूत हड्डी वाले, उदार, सात्विक होते हैं।
इसके विपरीत यदि सूर्य निर्बल, पापयुक्त या पापदृष्ट हो तो वे अपमानित, आंख के रोग वाले, हृदय के तथा पेट के रोगों से युक्त और राज्य के विरोधी होते हैं ।
कन्या – इस लग्न में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति यदि उनका बुध बलवान हो तो बहुत बुद्धिमान्, मानी, लावण्य युक्त, सुन्दर आकृति वाले, गुणी, गाने बजाने के इच्छुक होते हैं। यदि बुध निर्बल हो तो पेट तथा अन्तड़ियों के रोग से युक्त, चर्म रोग से युक्त, बचपन में कष्ट उठाने वाले तथा अपमानित होने वाले होते हैं।
तुला – यह बहुत अच्छी लग्न है क्योंकि शनि ग्रह जो निसर्गतः पापी है, इस लग्न वालों को अतीव शुभकर हो जाता है। इस लग्न वाले व्यक्ति सुन्दर, विलासप्रिय, व्यसनप्रिय होते हैं।
यदि शुक्र बलवान् हो और बुध, बृहस्पति से प्रभावित हो तो इस लग्न के व्यक्ति बहुत सत्यप्रिय तथा धार्मिक वृत्ति के होते हैं तथा बहुत आयु पाते हैं। परन्तु यदि शुक्र पाप प्रभाव में हो तो अल्पायु वाले होते हैं।
इस लग्न वालों के शुक्र पर पड़ने वाला प्रभाव मृत्यु के कारणों को बताता है; क्योंकि शुक्र लग्नेश तथा अष्टमेश दोनों बन जाता है। जैसे शुक्र पर मंगल तथा गुरु के प्रभाव से चोट आने, गोली लगने आदि से मृत्यु होती है।
वृश्चिक – इस लग्न वाले व्यक्ति बड़े उग्र स्वभाव के अपनी मनमानी करने वाले, क्रोधयुक्त, कर्मठ, हठी, चोरी से व्यापार करने वाले पुलिस तथा मिलिटरी वालों के मित्र होते हैं। ऐसे व्यक्ति का यदि मंगल बलवान् हो तो शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। इस लग्न वालों का मंगल तथा शनि मिलकर जिस भाव तथा उसके स्वामी अथवा कारक को देखें उससे उनका कड़ा विरोध होता है।
धनु – इस लग्न वालों का दिल अच्छा होता है। ये परोपकारी, जनता से सम्पर्क रखने वाले, ज्ञानवान्, धार्मिक प्रवृत्ति वाले, धैर्यशील, सज्जन पुरुष होते हैं । यदि गुरु पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो पेट, जिगर, तिल्ली, मेदा आदि के रोगों से पीड़ित होते हैं तथा इनको नितम्बों में कष्ट होता है और ये जनता के क्रोध के भागी बनते हैं।
मकर – इस लग्न वाले प्रायः क्षुद्र विचारों वाले होते हैं। इनकी वाणी बहुत कर्कश (Harsh) होती है। ये विलम्ब से उन्नति पाते हैं। शनि बलवान् हो तो लम्बी आयु पाने वाले, निम्न वर्ग के लोगों से प्रीति करने वाले होते हैं। इनको प्रायः भूमि से लाभ रहता है।
कुम्भ – इस लग्न वाले खरचीले, क्षुद्र स्वभाव वाले, स्वार्थीप्रिय, नीच वर्गों से प्रीति करने वाले होते हैं। ऐसा तब होता है जब शनि शुभ प्रभाव से हीन हो । यदि शनि पर गुरु आदि का प्रभाव हो तो बड़ी सम्पत्ति और भूमि वाले दीर्घायु तथा धनी मानी होते हैं।
इस लग्न वालों का गुरु महत्वशाली होता है, क्योंकि यह दो मूल्यवान घरों, द्वितीय (धन) तथा एकादश (लाभ) का स्वामी है और स्वयं भी धनकारक है।
इस लग्न वालों की कुण्डली में गुरु यदि किसी भाव और उसके स्वामी को देखे तो उसको चार चांद अवश्य लगा देता है। जैसे चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी शुक्र को देखे तो व्यक्ति के पास बहुत भूमि बढ़िया मोटर कार तथा अन्य सुख की सामग्री होगी। इस दृष्टिकोण से यह लग्न प्रायः सब लग्नों से उत्तम है।
इस लग्न वालों का लग्नेश शनि तथा तृतीयेश मंगल होता है। दोनों क्रूर ग्रह हैं और दोनों ही जातक के क्रियात्मक निजत्व (Deliberate Self) को दर्शाते हैं। यदि शनि तथा मंगल का किसी एक अथवा दो विशेष प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रहों पर, दृष्टि अथवा युति द्वारा प्रभाव पड़ जाये तो प्रभावित व्यक्ति से कुम्भ लग्न वाले व्यक्ति की बहुत शत्रुता हो जाती है और कई बार तो कुम्भ लग्न वाला प्रभावित व्यक्ति की जान तक लेने के लिए उतारू हो जाता है। जब लड़के तथा लड़की की कुण्डलियों के मिलाने का प्रश्न उपस्थित हो और लड़के की कुण्डली में शनि तथा मंगल सप्तम भाव तथा शुक्र अथवा सप्तमेश तथा शुक्र पर दृष्टि डाल रहे हों तो ऐसे वर को बहुत सोच समझकर स्वीकार करना चाहिए ।
निष्कर्ष यह कि कुम्भ लग्न वाले मनुष्य के शनि तथा मंगल जान बूझकर उल्टा काम करने की प्रवृत्ति को दर्शाते है। यदि इनका प्रभाव पंचम तथा पंचमेश पर हो तो मनुष्य सन्तान निरोध करता है। यदि इन दोनों ग्रहों का प्रभाव अष्टम, अष्टमेश पर हो तो जान-बूझकर मरता है, अर्थात् आत्मघात करता है आदि आदि ।
मीन – इस लग्न का व्यक्ति बहुत धनी-मानी, यशस्वी शुभ कार्यों को करने वाला, धार्मिक प्रवृत्ति वाला, राज्य से मान प्राप्त करने वाला होता है। यदि गुरु पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो राज्य की ओर से अपमानित तथा राज्यविरोधी होता है। उसके पांव में चोट अथवा रोग होता है। उसके पेट में भी कष्ट रहता है।
फलित सूत्र
- ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
- ग्रह परिचय
- कुंडली के पहले भाव का महत्व
- कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
- कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
- कुंडली के चौथे भाव का महत्व
- कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
- कुंडली के छठे भाव का महत्व
- कुंडली के सातवें भाव का महत्व
- कुंडली के आठवें भाव का महत्व
- कुंडली के नौवें भाव का महत्व
- कुंडली के दसवें भाव का महत्व
- कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
- कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
- दशाफल कहने के नियम
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