कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
तृतीय भाव से अनुसंधान, मित्रता, अचानक मृत्यु, लेखन कला, महान् धन, आत्मघात, विपरीत राजयोग, वायुयान यात्रा आदि का विचार किया जाता है।
1. निजत्व – मनुष्य अपने विचारों तथा भावनाओं को क्रियात्मक रूप देने के लिए बहुधा अपनी भुजाओं का प्रयोग करता है, अतः भुजाओं का या दूसरे शब्दों में तृतीय भाव का निज से अपने आप (Self) से घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः यह स्पष्ट है कि तृतीय भाव तथा लग्न जहां मिलकर कार्य करेंगे वहां निजत्व का अथवा स्वत्व का परिचय अधिक मात्रा में मिलेगा। दूसरे शब्दों में उस कार्य में निज की पहल (Initiative) तथा जानबूझकर (Deliberately) अपने उत्तरदायित्व पर कार्य करने का भाव खूब पाया जाएगा।
2. आत्मघात – जब तृतीयाधिपति तथा लग्नाधिपति शुभ अथवा अशुभ ग्रह अष्टम भाव तथा अष्टमेश दोनों से सम्बन्ध स्थापित किए हुए हों और अष्टम तथा अष्टमेश पर अन्य ग्रहों का दृष्टियुति द्वारा कोई प्रभाव न हो तो मनुष्य आत्मघात द्वारा प्राणों को त्यागता है, क्योंकि अष्टम अथवा अष्टमेश से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह ही मृत्यु के ढंग को दिखाते हैं।
अतः यहां मनुष्य का अपना आप ही जो तृतीयेश तथा लग्नेश दोनों द्वारा निर्दिष्ट है, मृत्यु का कारण बनेगा और इसी को आत्मघात (Suicide) कहते है।

3. मित्रता – तृतीय भाव का स्वामी मित्र अथवा मित्रता का द्योतक है। तृतीयेश का सम्बन्ध जैसे भावादि से होगा, मनुष्य के मित्र भी उसी कोटि के होंगे। जैसे
- सिंह लग्न हो और द्वितीयेश बुध तृतीय स्थान में हो और तृतीयेश शुक्र द्वितीय स्थान में हो तो द्वितीयेश और तृतीयेश के इस व्यत्यय के फलस्वरूप मनुष्य की मित्रता बड़े रईसों, रजवाड़ों (Princes) आदि से होगी, क्योंकि तृतीय भाव तथा उसके स्वामी का सम्बन्ध द्वितीय भाव से हो गया है और द्वितीय भाव दशम भाव अर्थात् राजा का पुत्र (पंचम) है।
- तुला लग्न हो और गुरु नवम भाव में स्थित हो तो मनुष्य धर्मप्रेमी, साधु-महात्माओं की संगति (मित्रता) करने वाला होता है ।
- तृतीयेश तथा चतुर्थेश में व्यत्यय (Exchange) बतलाता है कि मनुष्य सार्वजनिक कार्यों में बहुत दिलचस्पी रखता है।
- तृतीय भाव तथा अष्टम भाव में व्यत्यय आत्मघात का योग है, इत्यादि ।
4. लेखन कला – यदि तृतीयाधिपति का लग्न, सूर्य, चन्द्र तथा धनाधिपति से शुभ सम्बन्ध हो तो मनुष्य साहित्य आदि लेखन सामग्री से धन कमाता है ।
यदि कर्क लग्न हो और बुध का सूर्य, चन्द्र लग्न से अथवा इनके स्वामियों से युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध रखता हो तो लग्नों पर बुध के प्रभाव के कारण, बुध के लेखन भाव (तृतीय) का स्वामी होने के कारण तथा बुध के द्वादश भाव का स्वामी होने के कारण (द्वादश भाव जनता का (चतुर्थ का) भाग्य भाव है) जनता के भाग्य का परिचायक है, अतः मनुष्य ज्योतिष शास्त्रों का लेखक होता है।
5. हाथ – यदि तृतीय भाव तथा भावेश पर मंगल, केतु तथा इनसे अधिष्ठित राशियों के स्वामियों का योग अथवा दृष्टि हो तो हाथ कट जाने का योग बनता है।

इस व्यक्ति का दायां हाथ रेल से कट गया था । यहां तृतीय राशि के स्वामी बुध पर मंगल और केतु दो घातक ग्रहों की पूर्ण दृष्टि है और भूलिएगा नहीं कि मंगल केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी है । अतः क्रूरतम है। उधर तृतीयेश शनि पर भी केतु की पूर्ण दृष्टि है। तृतीयेश दायां बाजू होता है । अतः दायें बाहु का नाश हुआ ।
6. आयु – तृतीय भाव अष्टम से अष्टम होने के कारण आयु का प्रतिनिधित्व भी करता है । अतः यदि तृतीय भाव तथा उसका स्वामी अतीव पाप प्रभाव में पाये जायें तो अचानक मृत्यु हो जाती है, विशेषतया तब जबकि तृतीयाधिपति सद्यः फलद्योतक बुध ग्रह हो ।
इसी सिद्धान्त को हम कुण्डली में अन्य सम्बन्धियों पर भी लगा सकते हैं, जैसे सिंह लग्न हो और मंगल की दृष्टि एकादश स्थान तथा उसके स्वामी बुध पर पड़ती हो तो पिता की आयु घट जाने का योग बनता है, क्योंकि बुध पिता के भाव से अर्थात् नवम भाव से तृतीयाधिपति बनता है और पिता की आयु का प्रतिनिधित्व करता है।
7. महान् धन – यदि तृतीयाधिपति अष्टम स्थान में जा पड़े और केवल षष्ठेश अथवा द्वादशेश पापी ग्रहों से पीड़ित हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि आदि न हो तो यह विपरीत राजयोग बनता है जो मनुष्य को – महाधनाढ्य बना देता है । कारण, तृतीय भावाधिपति की अनिष्टता के सर्वथा नष्ट हो जाने के फलस्वरूप धनादि इष्टों की प्राप्ति होती है! (Negative Destroyed is Positive Gained) I
8. छोटी मोटी यात्रायें – यदि तृतीय भाव तथा उसके स्वामी पर पाप प्रभाव हो तो छोटी यात्रायें, टूर (Tour) आदि करने वाला योग होता है ।
9. वायु यात्रा योग – इस स्थान के स्वामी तथा सप्तम तथा एकादश स्थान के स्वामियों पर परस्पर युति दृष्टि द्वारा सम्बन्ध हो और यह सम्बन्ध वायु द्योतक ग्रहों गुरु, शनि आदि द्वारा स्थापित हो तो मनुष्य को वायुयान आदि की सवारी का अवसर प्राप्त होता है।
10. गहरी खोज (Discoveries) – तृतीयेश तथा अष्टमेश की युति यदि पंचम स्थान में हो तो मनुष्य गम्भीर समस्याओं पर विचार करने की शक्ति रखने वाला होता है तथा अनुसंधान कर्ता (Researcher) अथवा आविष्कारक होता है, क्योंकि अष्टम तथा उसका अष्टम स्थान (तृतीय) गम्भीरता तथा अनुसंधान के भाव हैं । आइन्स्टाइन, न्यूटन आदि की कुण्डली में यह योग बनता है।
11. तृतीय भाव तथा शूरता – तृतीय भावाधिपति बलवान हो अथवा केतु तृतीय स्थान में हो अथवा कोई शुभ ग्रह स्वक्षेत्री होकर केतु के साथ तीसरे भाव में हो तो मनुष्य शूरवीर होता है और तृतीय भाव बाहु स्थान होने से वीरता का स्थान है।
तृतीय भाव में विविध राशियां
1. मेष – यदि तृतीय भाव में मेष राशि हो तो मंगल न केवल तृतीय भाव का स्वामी बन जाता है, अपितु स्वयं अनुजों का कारक भी होता है, अतः मंगल यदि बलवान् हो तो बहुत छोटे भाई देता है और यदि निर्बल, पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो छोटे भाइयों का एकदम अभाव रहता है ।
2. वृषभ – जब तृतीय भाव में वृषभ राशि हो तो शुक्र तृतीय तथा अष्टम दो भावों का स्वामी बन जाता है। अतः यदि शुक्र बलवान् हो तो दीर्घ आयु देता है क्योंकि दोनों भाव आयु के हैं। इस व्यक्ति की छोटी बहनें प्रचुर संख्या में होती हैं । यह व्यक्ति विलासिताप्रिय होता है और विलास के लिए जान जोखिम के कार्य तक भी कर डालता है। शुक्र यदि निर्बल, पापयुक्त. पापदृष्ट हो तो जातक अल्पायु होता है। छोटी बहनों की इसको कमी रहती है ।
3. मिथुन – यदि तृतीय भाव में मिथुन राशि हो तो मनुष्य श्रमप्रिय होता है । यदि बुध बलवान् हो तो उसकी छोटी बहिनें होती हैं। यदि बुध निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो, विशेषतया पंचम भाव में शनि द्वारा युक्त अथवा दृष्ट अथवा शुभ युति न हो, बुध जब पंचम भाव में पड़ेगा तो वह तृतीय से तृतीय होने के कारण तृतीय भाव की हानि करने वाला होगा । पंचम भाव में बुध पड़कर छठे भाव से, जहां इसकी अन्य राशि है, द्वादश पड़ेगा अतः छठे भाव – ऋण दरिद्रता की भी हानि करने वाला होगा और जब बुध पर केवल मात्र पाप दृष्टि होगी तो तृतीय तथा षष्ठ भावों को और अधिक हानि पहुंचेगी। अब तृतीय तथा षष्ठ दोनों अशुभ भाव हैं अतः निर्धनता, अभाव को बहुत हानि पहुंचेगी: अभाव की हानि का अर्थ है धनाढ्य और संपत्तिशाली होना । अतः बुध विपरीत राजयोग बनाता हुआ अत्यन्त शुभ हो जाएगा ।
तृतीय भाव तथा बुध पर यदि दो पाप ग्रहों का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव पड़ रहा हो तो जातक की अचानक मृत्यु हो जाने का योग बनता है: कारण, तृतीय स्थान अष्टम से अष्टम होने के कारण आयु का स्थान हैं और जब बुध आयु स्थान का स्वामी होकर पीड़ित एवं निर्बल हो जाता है तो इसका अर्थ यह होता है कि मनुष्य को आयु सम्बन्धी सद्यः कष्ट मिले, क्योंकि बुध चन्द्रवत् अल्पावस्था का ग्रह होने के कारण शीघ्रतम तथा अचानक अर्थात् समय से पूर्व फल देता है।
4. कर्क – कर्क राशि का स्वामी चन्द्र है जो कि मन से सम्बन्ध रखता है और तृतीय स्थान मनोविनोद (Hobby) का भी है। अतः चन्द्र जिस भाव में स्थित होगा वह भाव इस व्यक्ति को विशेष प्रिय होगा, जैसे चतुर्थ भाव में सिंह राशि का चन्द्र हो और बलवान् हो तो मनुष्य जनता के कार्यों (Politics) में विशेष रुचि लेने वाला यदि पंचम भाव कन्या राशि में हो तो मनोविनोद के स्थानों जैसे सिनेमा क्लब आदि में विशेष रुचि वाला होता है।
यदि चन्द्र निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो छोटे भाई की छाती दुर्बल होती है तथा उसको टी० बी०, न्यूमोनिया आदि छाती के रोगों के होने की संभावना अधिक रहती है। यदि तृतीय भाव पर भी अशुभ दृष्टि विशेषतया मंगल की हो तो छोटा भाई कुबड़ा हो जाता है।
5. सिंह – सिंह राशि का स्वामी सूर्य होता है, सूर्य पुरुष ग्रह है। अतः यदि सूर्य गुरु की दृष्टि द्वारा बलवान् हो तो इस व्यक्ति को छोटे भाई की प्राप्ति होती है। इसका छोटा भाई साहसी, वीर, राज्यमानी होता है । यदि सूर्य एकादश अथवा दशम स्थान में हो तो मनुष्य बड़ा महत्त्वाकांक्षी (Ambitious) होता है तथा राजपुरुषों से सम्पर्क वाला होता है।
6. कन्या – यहां भी बुध तृतीयाधिपति तथा द्वादशाधिपति बनता है । यदि बुध पंचम भाव में वृश्चिक राशि का होकर बैठ जाये तो यह बुध तृतीय भाव से तृतीय, द्वादश भाव (इसकी दूसरी राशि मिथुन) से षष्ठ अर्थात् दोनों भावों को हानि पहुंचाने की स्थिति में हो जाता है। शत्रु की राशि अर्थात् वृश्चिक राशि में बैठकर वह उन दो भावों को और भी अधिक हानि पहुंचाएगा ।
अब यदि बुध पर केवल मात्र शनि आदि ही की पापदृष्टि हो और शुभ ति अथवा शुभ दृष्टि बिल्कुल न हो तो द्वादश भाव तथा तृतीय भाव को अत्यन्त हानि पहुंचेगी। यह हानि बहुत अभीष्ट है, क्योंकि द्वादश तथा तृतीय भाव प्रदर्शित अभाव तथा दरिद्रता की हानि ही करोड़पति बनाने का योग उत्पन्न करती है।
अतः यह महान् सम्पत्ति तथा धनदायक विपरीत राजयोग हुआ। इतना अवश्य है कि यदि तृतीय भाव पर भी केवल पापदृष्टि हो तो बुध अपनी अन्तर्दशा में अकस्मात् मृत्यु योग भी ला खड़ा करेगा ।
7. तुला – जब तृतीय भाव में तुला राशि पड़ती है तो तृतीयाधिपति शुक्र दशमाधिपति भी बन जाता है। अतः ऐसा व्यक्ति राज कार्यों में बाहु प्रयास करने वाला अथवा भाग लेने वाला होता है। यदि शनि भी तृतीय भाव से अच्छी स्थिति में बलवान् हो तो उस व्यक्ति का छोटा भाई, यदि हो तो, जीवन में बहुत उन्नति पाता है। बलवान शुक्र सिंह लग्न वाले को धन के लिए अच्छा नहीं। इसका निर्बल होना ही उसके लिए धनदायक है।
8. वृश्चिक – यदि मंगल बलवान् हो तो बहुत आयु देता है । परन्तु बलवान् मंगल बहुत थोड़ा धन देता है; क्योंकि यह दो अशुभ घरों का स्वामी होता है । दशम भाव में मिथुन में स्थित मंगल यौवन अवस्था में व्यसन देता है तथा हिंसा के कार्य करवाता है।
9. धनु – यहां भी गुरु दो अशुभ भावों, तृतीय तथा षष्ठ का स्वामी है । इसका निर्बल होना धन देता है। गुरु मित्र भाव का स्वामी है। यदि नवम में पड़ जाए तो व्यक्ति महात्माओं सन्तों से सत्संग करने वाला, धार्मिक होता है: उसके मित्र भी बड़े धार्मिक होते हैं।
10. मकर – यदि शनि चतुर्थ स्थान में बली हो तो व्यक्ति निम्न वर्ग का हितैषी, जनता के हित को चाहने वाला, जनप्रिय होता है। उसका छोटा भाई कुछ सख्त बोलने वाला होता है। उसको भूमि जायदाद की अच्छी प्राप्ति होती है। शनि यदि बलवान हो तो उसकी छोटी बहनें संख्या में प्रचुर होती हैं, क्योंकि शनि स्वतन्त्र रूप से एक स्त्री ग्रह है।
यद्यपि इसका प्रभाव वीर्यहीनता (Impotency) का है । यदि शनि निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो छोटी बहनों की कमी होती है। मित्रों से कष्ट पाता है।
11. कुम्भ – यदि शनि बलवान् हो तो छोटी बहिनें संख्या में बहुत होती हैं। इसको दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। इसको मित्रों तथा बहिन-भाइयों से धन की प्राप्ति होती है। यदि शनि निर्बल हो तो छोटे बहिन भाइयों तथा मित्रों द्वारा धन का नाश होता है। आयु क्षीण होती है।
12. मीन – यहां गुरु तृतीयाधिपति तथा द्वादशाधिपति बनता है । दोनों भाव अशुभ हैं। अतः गुरु निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो बहुत धन देता है। यदि गुरु बलवान् हो तो छोटे भाई देता है। यदि गुरु नवम में स्थित हो तो सन्तों के साथ सत्संग करने वाला होता है। गुरु पर पापदृष्टि हो तो धन का नाश छोटे भाइयों द्वारा होता है ।
फलित सूत्र
- ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
- ग्रह परिचय
- कुंडली के पहले भाव का महत्व
- कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
- कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
- कुंडली के चौथे भाव का महत्व
- कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
- कुंडली के छठे भाव का महत्व
- कुंडली के सातवें भाव का महत्व
- कुंडली के आठवें भाव का महत्व
- कुंडली के नौवें भाव का महत्व
- कुंडली के दसवें भाव का महत्व
- कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
- कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
- दशाफल कहने के नियम
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