ग्रह परिचय
सूर्य
1. सूर्य गर्मी देता है, यह सबका अनुभव है । अतः सूर्य को आग माना गया है । जब मंगल, केतु आदि अन्य अग्निद्योतक ग्रहों के साथ मिलकर सूर्य लग्न, लग्नेश, चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नेश आदि व्यवसाय द्योतक अंगों पर प्रभाव डालता है तो मनुष्य अग्नि से सम्बद्ध भट्ठी, बिजली का सामान, रेडियो आदि के काम करता है ।
2. सूर्य आंख का प्रतिनिधि है । जब सूर्य द्वितीय, षष्ठ अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित होकर युति अथवा दृष्टि द्वारा मंगल, शनि आदि के पाप प्रभाव में होता है तो चक्षुहीन कर देता है।
3. सूर्य ग्रहों का राजा है। अतः संसार में राज्य गवर्नमेंट, नवाब बड़े जमींदार आदि महान् सत्तारूढ़ व्यक्तियों आदि का प्रतिनिधित्व करता है । यह राजा सूर्य यदि राज्य स्थान (दशम, द्वितीय) अथवा राज्य कृपादर्शक स्थान (नवम) का स्वामी होकर बहुत बलशाली हो तो मनुष्य को राज्य अथवा अधिकार की प्राप्ति होती है ।
4. सूर्य चूंकि आकार आदि में भी महान् है, अतः
- यदि द्वितीयेश होकर बलवान् हो तो बहुत धन देता है;
- तृतीयेश होकर बलवान् हो तो बहुत प्रतिष्ठित मित्र देता है;
- चतुर्थेश होकर बलवान् हो तो बड़ा खुला, रोशनीवाला मकान देता है तथा छाती को खुला तथा बड़ा बनाता है;
- पंचमेश होकर बलवान् हो तो उसका पुत्र संसार में बहुत उन्नति पाता है तथा साहसी होता है;
- षष्ठेश हो तो उससे शत्रु महान् होते हैं, उसकी मां के छोटे भाई ऊंची पदवी पाते हैं;
- सप्तमेश होकर बलवान् हो तो मनुष्य किसी बड़े घराने से विवाह करता है;
- अष्टमेश होकर और बलवान हो तो बहुत आयु देता है;
- नवमेश हो और बलवान् हो तो राज्य अथवा महान् अधिकार देता है और सात्विक, धर्मशील बनाता है;
- दशमेश होकर बलवान हो तो शुभ कर्मों को करने वाला तथा महान कार्यों का कर्ता बनाता है;
- यदि लाभेश होकर बली हो तो राज्य देता है;
- द्वादशेश होकर बलवान् हो तो जहां प्रभाव डालता है उससे मनुष्य को पृथक् कर देता है; जैसे सप्तम, सप्तमेश से सम्बन्ध करे तो स्त्री को छोड़ दे । यदि पंचम तथा गुरु से सम्बन्ध करे तो पुत्र को छोड़ दे, आदि ।
- यदि लग्नेश होकर बलवान् हो तो राज्य देता है तथा सुख देता है ।
5. सूर्य चूंकि प्रकाश देता है, इसलिए इस ग्रह का द्वितीयेश, पंचमेश होकर बलवान् होना ऊंची विद्या देता है; परन्तु बुद्धिकारक बुध भी बलवान् होना चाहिए ।
6. सूर्य अपने प्रकाश से सब वस्तुओं को पालता है । अतः इसे पिता कहते हैं । अतः पिता का विचार नवम भाव, उसके स्वामी तथा सूर्य को लेकर करना चाहिए। यदि तीनों बलवान् हों तो पिता दीर्घायु, धनी, सुखी, स्वस्थ, उच्च पदवी से युक्त होता है तथा मनुष्य को पैतृक सम्पत्ति की प्राप्ति भी होती है ।
7. सूर्य आधार रूप है, अतः हड्डी का कारक है, अतः जब लग्नाधिपति होकर निर्बल हो तो हड्डी में चोट आदि से मनुष्य कष्ट पाता है।
8. सूर्य पांच नम्बर राशि का स्वामी है। पांच नम्बर का अंग पेट है यदि सिंह राशि, सूर्य, पंचम भाव, पंचमेश सब शनि तथा राहु से पीड़ित हों तो पेट में दीर्घ रोग होता है।
9. सूर्य जगत् की आत्मा है। अतः जब भी किसी गूढ़ आन्तरिक, आधारभूत तथ्य का परीक्षण निरीक्षण होगा, उसका विचार सूर्य से किया जायेगा। जैसे वर्णमाला में हम जानते हैं कि व्यंजनों (क, ख, आदि) का उच्चारण बिना स्वरों की सहायता के नहीं हो सकता, यहां स्वर वर्णमाला के ‘आत्मा’, ‘अधिष्ठान’ आधाररूप होने से सूर्य द्वारा उल्लिखित होते हैं। स्वर हैं – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ ।
चन्द्र
देखने में आंखों को ठण्डक देता है । अतः लक्षण शास्त्रानुसार एक जलीय ग्रह है। जब दूसरे जलीय ग्रह शुक्र, चतुर्थेश, अष्टमेश आदि से मिलकर लग्न, लग्नेश, चन्द्रलग्न, चन्द्रलग्नेश आदि पर प्रभाव डालता है तो मनुष्य जलीय व्यवसाय, जैसे – जल सेना की नौकरी, सोडा वाटर फैक्टरी, वाटर सप्लाई विभाग, नहर के महकमा आदि कार्य करने वाला होता है।
2. यह ग्रह सबका मित्र है। अतः जब लग्नाधिपति होकर बलवान् हो और चतुर्थ भाव (जनता) तथा चतुर्थेश से शुभ सम्बन्ध (युति अथवा दृष्टि द्वारा) स्थापित करता हो तो मनुष्य को सर्वप्रिय तथा जनकार्यों (Politics) में रत बना देता है।
3. यह ग्रह चूंकि किसी का शत्रु नहीं है और सूर्य की पत्नी है, अतः सबकी मां है । अतः चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा चन्द्र के बलाबल से माता की आयु का निर्णय करना चाहिए ।
4. जातक की मन की स्थिति को लग्न, चतुर्थ भाव के साथ-साथ चन्द्र की अवस्था से भी देखना चाहिए। यदि चन्द्र पर तथा दूसरे ‘मन’ द्योतक अंगों पर शनि का युति अथवा दृष्टि से प्रभाव पड़ता हो तो मनुष्य उदासीन मन वाला, विरक्तचित्त, संन्यासप्रिय होता है ।
5. यदि चन्द्र स्वयं चतुर्थेश हो जाए तो स्पष्ट है कि वह मन का बढ़िया प्रतिनिधित्व करेगा । ऐसे चन्द्र पर तथा चतुर्थ भाव पर यदि राहु का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव हो और चन्द्र अष्टम आदि त्रिक स्थान में हो तो मनुष्य के मन में भय की विशेष सृष्टि होती है। ऐसा व्यक्ति मिरगी, हिस्टीरिया, बेहोशी आदि भयदायक रोगों से पीड़ित तथा चिन्तातुर रहता है ।
6. काल पुरुष में चन्द्र चतुर्थ राशि का स्वामी है । अतः मनुष्य के चतुर्थ भाग (फेफड़ों) का प्रतिनिधि है। यदि चंद्र चतुर्थेश होकर शनि मंगल के प्रभाव में हो और चतुर्थ भाव पर भी पाप प्रभाव हो तो मनुष्य को फेफड़ों आदि का रोग, खांसी, निमोनिया तथा प्लूर्सी आदि से कष्ट होता है ।
7. चन्द्र तरल है, शीघ्रगामी है, जीवनप्रद है । अतः रक्त है । जब चन्द्र लग्नेश होकर पाप युति अथवा पाप दृष्टि में हो तो मनुष्य को रक्तविकार होता है ।
8. सूर्य की भांति चन्द्र भी प्रकाशमय है, यद्यपि थोड़ा । अतः यह भी आंख है । चन्द्र भी जब षष्ठ आदि त्रिक भावों में क्षीण शत्रु राशि में स्थित होकर पाप प्रभाव में हो तो आंख की हानि को देता है ।
9. चन्द्र शिशु है । यदि लग्नाधिपति होकर अथवा लग्नाधिपति के सहित क्षीण बली होता हुआ पाप दृष्टि में हो तो मनुष्य की मृत्यु बहुत अल्पायु में कर देता है।
10. चूंकि चन्द्रमा मन है, अतः चतुर्थेश होकर जिस भाव में स्थित होगा मनुष्य के मन का विशेष झुकाव अथवा प्रवृत्ति उस भाव से प्रदर्शित वस्तुओं में होगी। जैसे यदि कन्या राशि का चन्द्र छठे हो तो पुरुषार्थ प्रिय, व्यायामप्रिय होगा । यदि राहु भी साथ हो तो म्लेच्छप्रिय होगा आदि ।
11. य, र, ल, व, ष, स, ह – ये अक्षर चन्द्र द्वारा प्रतिनिधित्व पाते हैं ।
मंगल
1. सूर्य नारंगी रंग का और चन्द्र श्वेत है तो मंगल लाल रंग वाला है । यह महान रजोगुण का ग्रह है । इसमें बहुत क्रियाशक्ति है। जब यह ग्रह लग्नेश होकर बलवान् होता है तो मनुष्य को बहुत पुरुषार्थी, क्रियाशील, व्यवस्थापक, साहसी, अग्रणी बनाता है।
2. लाल तथा राजसी होने से मंगल एक शक्तिशाली ग्रह है। अतः शरीर में मांसपेशियों (muscles) का प्रतिनिधित्व मंगल करता है। जब यह शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो तो मांसपेशियों के सूखे का रोग देता है ।
3. मंगल छोटे भाई का कारक है। जब यह तृतीय भाव में शत्रु राशि में स्थित हो और तृतीयेश तथा मंगल पर पाप प्रभाव हो तो अनुज से वंचित करता है ।
4. मंगल की दृष्टि जब दो ग्रहों पर पड़ रही हो तो किसी आपत्ति की ओर इशारा होता है। उदाहरणार्थ, यदि बुध और शुक्र इकट्ठे हों और लग्न वृषभ हो तो यदि मंगल की दृष्टि बुध, शुक्र पर पड़ेगी तो शीघ्र ही स्त्री की मृत्यु हो जाएगी, क्योंकि बुध सप्तम (स्त्री) का अष्टमेश होगा, शीघ्र फलकारी वह है ही तथा उस पर और स्त्रीकारक शुक्र पर क्रूर मंगल की दृष्टि स्त्री की आयु का नाश करेगी ।
5. मंगल जब मेष लग्न का स्वामी होकर बलवान् हो तो बहुत आयु देता है क्योंकि तब वह लग्नेश भी और अष्टमेश भी दोनों आयु-द्योतक भावों का स्वामी बन जाता है।
इसी प्रकार कन्या लग्न वालों का बलवान् मंगल भी बहुत आयु देता है, क्योंकि तब मंगल अष्टमाधिपति तथा तृतीयाधिपति (अष्टम से अष्टम भाव का स्वामी) होता है । अतः आयु का द्योतक बन जाता है ।
6. कुम्भ लग्न वालों के शनि तथा मंगल यदि किसी भाव तथा भावाधिपति पर अथवा कारक पर प्रभाव डालें तो व्यक्ति उस भाव सम्बन्धी बातों का जान-बूझकर नाश करता है; जैसे
- यदि एकादश भाव तथा इसके स्वामी गुरु पर इन दोनों की दृष्टि हो तो बड़े भाई का शत्रु और उसकी जान तक लेने वाला होता है।
- इसी प्रकार यदि पंचम भाव तथा उसके स्वामी अथवा कारक पर इन दोनों की दृष्टि हो तो सन्तान निरोध के सिद्धांतानुकूल चलने वाला होता है।
- यदि द्वितीय तथा द्वितीयेश पर इन दोनों का प्रभाव हो तो जान-बूझकर धन नष्ट करने वाला होता है।
- यदि सप्तमेश तथा शुक्र पर दोनों का प्रभाव हो तो स्त्री का शत्रु होता है, इत्यादि ।
7. मंगल चतुर्थ स्थान में दिक् बल से शून्य अतः निर्बल होता है, अतः यदि मेष लग्न वालों को चतुर्थ स्थान में पड़ जाए और शुभदृष्ट न हो तो अल्पायु कर देता है।
परन्तु नीच राशि का मंगल लग्न में अच्छा माना गया है, क्योंकि कर्क लग्न वालों के लिए यह ग्रह योगकारक होता हुआ अपनी एक राशि मेष से चतुर्थ (शुभ स्थान) तथा दूसरी राशि वृश्चिक से नवम पुनः शुभ स्थान में पड़ता है ।
8. उच्च राशि का मंगल सप्तम स्थान में काहल योग बनाता है जो एक उत्तम राजयोग है। कारण, मंगल राजयोग कारक भी बन जाता है, केन्द्र में भी स्थित होता है, उच्च भी होता है तथा निज राशि मेष को भी देखता है ।
9. मिथुन लग्न वालों का मंगल बड़ा क्रूर होता है। यदि इसका प्रभाव लग्न तथा चन्द्र पर हो जाए और मंगल शुभ प्रभाव में न हो तो मनुष्य बहुत हिंसाप्रिय, क्रूरकर्मों का करने वाला होता है।
10. मंगल की पंचम भाव अथवा पंचमेश पर दृष्टि विद्या पढ़ने की शक्ति को बढ़ाती है, कम नहीं करती, क्योंकि मंगल एक ऊहापोह (Logic) प्रिय ग्रह है ।
11. मंगल की दृष्टि यदि मिथुन राशि तथा बुध दोनों पर पड़ रही हो तो जिस सम्बन्धी के अष्टम स्थान में मिथुन राशि पड़ती हो उसको जीवन में भय कहना चाहिए, यदि मिथुन तथा बुध पर शुभ प्रभाव न हो, कारण कि मंगल एक तो बुध का परम शत्रु है, दूसरे बुध पाप प्रभाव में अनिष्ट फल को अपेक्षाकृत शीघ्रतर देता है।
जैसे मीन लग्न हो और बुध और सूर्य एक स्थान में हों और उन पर तथा चतुर्थ स्थान पर केवल मंगल की दृष्टि हो तो पिता की मृत्यु शीघ्र हो जाएगी। क्योंकि चतुर्थ स्थान पिता की आयु का स्थान है और सूर्य पिता का कारक और दोनों मंगल के क्रूर प्रभाव में होंगे ।
12. मंगल यदि लग्नाधिपति होकर बलवान् हो तो और बातों के अतिरिक्त उदार भी होता है।
13. मंगल को दशम भाव में दिक् बल मिलता है।
14. कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) का प्रतिनिधित्व मंगल करता है अर्थात् जहां नाम निर्णय का प्रश्न हो और मंगल नाम का द्योतक हो तो वह इन अक्षरों द्वारा नाम को जतलाता है।
बुध
1. बुध का दूसरा नाम विष्णु भी है। यह ग्रह जब नवमेश होता है और लग्न से सम्बन्धित होता है तो मनुष्य को बहुत परोपकारी तथा यज्ञीय जीवन व्यतीत करने वाला बनाता है। जैसे, तुला लग्न में स्थित बुध ।
2. बुध जब सप्तमाधिपति हो तो शीघ्र विवाह करा देता है, यदि पाप युति अथवा दृष्टि में न हो, क्योंकि बुध कुमार है और कुमार अवस्था जीवन में शीघ्र आने वाली अवस्था है।
3. बुध जब द्वितीयाधिपति हो तथा शनि तथा राहु के प्रभाव में हो और द्वितीय भाव पर भी ऐसा ही पृथकताजनक प्रभाव शनि, सूर्य, राहु आदि का पड़ता हो तो मनुष्य कुमार अवस्था में कुटुम्ब से पृथक हो जाता है।
या तो वह किसी अन्य नगर में होस्टल आदि में रहकर अध्ययन करता है। या घर से भागने की आदत डाल लेता है।
4. बुध त्वचा है। यदि लग्नाधिपति होकर बुध पाप प्रभाव में हो तो त्वचा में रोग देता है। इसी प्रकार यदि लग्न में हो अथवा सूर्य के साथ हो अथवा चन्द्र के साथ हो और उस पर शनि अथवा राहु की दृष्टि पड़ती हो तो मनुष्य को फुलबहरी आदि चर्म रोग होते हैं ।
5. कन्या लग्न का स्वामी बुध सूर्य या शनि से प्रभावित हुआ तो हर्निया आदि अन्तड़ियों के रोग देता है। मिथुन लग्न का स्वामी बुध इस प्रकार पीड़ित होकर सांस की नली तथा बाहु आदि तृतीय स्थानस्थ अंगों को कष्ट देता है ।
6. बुध, शनि, राहु, लम्बे आकार के हैं। जब लग्न, लग्नेश, चन्द्र लग्न, चन्द्रलग्नेश आदि जन्म द्योतक अंगों पर प्रभाव डालते हों तो मनुष्य को लम्बे कद (Stature) वाला कर देते हैं।
7. वृषभ लग्न वालों का बुध यदि बलवान् हो तो उनमें वक्ता शक्ति (Oratory) विशेष होती है, क्योंकि एक तो बुध वाणी का कारक है, दूसरे यह जिन दो स्थानों का स्वामी बनता है, वे दोनों ही वाणी के द्योतक हो जाते हैं ।
8. मिथुन लग्न वालों का बुध यदि मंगल आदि से पीड़ित हो तो सिर में चोट आने का भय रहता है। यदि इस लग्न वालों का चन्द्र तथा शुक्र भी पाप प्रभाव में हो तो दिमाग की बीमारी हो जाने तथा बहुत पाप प्रभाव में होने पर पागल तक हो जाने का डर रहता है।
9. द्वितीयाधिपति तथा बुध बलवान् होकर यदि लग्नों से सम्बन्ध करे तो मनुष्य ज्योतिष का ज्ञाता होता है, क्योंकि बुध ज्योतिष का कारक है तथा द्वितीयाधिपति ज्योतिष विद्या है ।
10. बुध एक नपुंसक ग्रह है। जब यह एक दूसरे नपुंसक ग्रह शनि से मिलकर सप्तम भाव, सप्तम भाव के स्वामी तथा शुक्र इन सब पर अपना प्रभाव डालता है और उन तीनों वीर्य द्योतक अंगों पर इन दो के अतिरिक्त और कोई प्रभाव नहीं होता है तो मनुष्य नपुंसक होता है।
11. बुध को लग्न में स्थित होने से दिक् बल मिलता है।
12. बुध ट, ठ, ड, ढ, ण टवर्ग को दर्शाता है। इस तथ्य का प्रयोग व्यक्तियों तथा वस्तुओं के नाम निकालने में होता है।

बृहस्पति
1. यह सबसे शुभ ग्रह है। जिन भावादि को देखता है उनकी खूब वृद्धि करता है। यह मूल्य का प्रतिनिधि है ।
2. यदि गुरु से शुक्र द्वादश स्थान में स्थित हो तो मनुष्य विशेष धनवान तथा समृद्ध होता है, क्योंकि गुरु एक धनकारक ग्रह है, शुक्र के इससे द्वादश स्थान में आ जाने पर इसे बल मिलता है, जिससे धन की खूब वृद्धि होती है ।
3. मिथुन तथा कन्या लग्न वालों के लिए गुरु दो केन्द्रों का स्वामी बन जाता है और केन्द्राधिपत्य दोष वाला हो जाता है। ऐसे मनुष्य का निर्बल गुरु अपनी दशाभुक्ति में रोग कष्ट देता है ।
4. मेष लग्न वालों का गुरु यदि पाप ग्रहों से पीड़ित हो और द्वादश स्थान भी पाप प्रभाव में हो तो मनुष्य को पांव में चोट लगने अथवा रोग होने का डर होता है, क्योंकि बारह नम्बर के अंग को हानि पहुंचाने का योग बनता है ।
5. कुम्भ लग्न वालों का गुरु यदि बलवान् हो तो एक वरदान सिद्ध होता है । ऐसा बली गुरु जिस भाव भावेश को देखेगा उसे विशेष रूप से प्रफुल्लित करेगा, क्योंकि गुरु एक तो धन अथवा मूल्य का कारक है, पुनः दो धन स्थानों – द्वितीय तथा एकादश का स्वामी बन जाता है।
6. गुरु कद में लम्बा है। बुध, शनि, राहु की भांति इसकी दृष्टि भी शरीर आदि वस्तुओं को दीर्घ कद (Stature) का बनाती है ।
7. स्त्रियों के लिए गुरु विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री की कुण्डली में गुरु उसका पति होता है। अतः यदि गुरु स्वयं सप्तमाधिपति हो जाए और बलवान् हो तो पति का बहुत सुख तथा उसका प्यार स्त्री को मिलता है । इसके विरुद्ध यदि सप्तमेश गुरु स्त्री की कुण्डली में सूर्य, शनि, राहु आदि पृथकताजनक (Separative) ग्रहों के प्रभाव में हो और इन्हीं ग्रहों में से दो का प्रभाव सप्तम भाव पर भी पड़ता हो तो स्त्री पति द्वारा त्याग दी जाती है, अर्थात् तलाक आदि की नौबत आ जाती है ।
8. मीन लग्न वालों का बलवान् गुरु उनको राज्य से प्रतिष्ठा प्राप्त करवाता है, क्योंकि राज्य कृपा कारक गुरु स्वयं लग्न तथा दशम मानप्रद भावों का स्वामी बन जाता है ।
9. वृश्चिक लग्न वालों का बलवान् गुरु भी उनमें भाषण शक्ति प्रदान करता है, क्योंकि गुरु दो भाषण के भावों का स्वामी बन जाता है तथा स्वयं वाक्पति है ही ।
10. तुला लग्न वालों का नवम स्थान में स्थित गुरु खूब गुरुभक्ति देता है तथा गुरु के साथ सहवास देता है, क्योंकि गुरु मित्र (तृतीय) स्थान का स्वामी बन जाता है ।
11. तुला राशि का गुरु अर्थात् शत्रु राशि में स्थित द्वादश (अनिष्ट) स्थान में स्थित हुआ भी पुत्रदायक हो जाता है, यदि वक्री हो । अन्यथा नहीं, क्योंकि वक्रत्व से गुरु पुत्र (बल) पाता है ।
12 लग्न में स्थित होने से गुरु को दिक् बल मिलता है।
13. गुरु त, थ, द, ध, न – तवर्ग का प्रतिनिधि है और वस्तुओं अथवा व्यक्तियों के नाम का निश्चय करने में इन अक्षरों द्वारा नाम के प्रथम अक्षर आदि को निर्धारित करता है।
शुक्र
1. विलासप्रिय ग्रह है। जब एक विलास भाव का स्वामी होकर दूसरे विलास भाव में स्थित होता है तो मनुष्य को विलासी तथा लम्पट बनाता है। जैसे सप्तम भाव में वृषभ का अथवा द्वादश भाव में तुला राशि का ।
2. शुक्र स्त्री का कारक है। यदि सप्तम स्थान में शत्रु राशि का होकर स्थित हो तथा पाप दृष्टि में हो और सप्तमेश पर भी पाप दृष्टि अथवा युति हो तो स्त्री की आयु अल्प हो जाती है ।
3. शुक्र मुख का कारक है। जब मुख स्थान का स्वामी होकर शुभ प्रभाव में हो तो मनुष्य को सुन्दर बनाता है ।
4. शुक्र का सम्बन्ध विलास की सामग्री से है। यदि शुक्र, लग्न, लग्नेश, चन्द्र लग्नेश आदि पर अपना प्रभाव डाल रहा हो तो मनुष्य सुसंस्कृत होता है और विलास सामग्री (Fancy goods) द्वारा आजीविका उत्पन्न करता है ।
5. शुक्र सत्यप्रिय ग्रह है । यदि लग्नाधिपति होकर नवमाधिपति बुध शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो मनुष्य सत्यवक्ता होता है।
6. वृषभ लग्न का स्वामी शुक्र पाप प्रभाव से पीड़ित हो तो गले में कष्ट देता है । तुला लग्न का स्वामी शुक्र पाप प्रभाव में हो तो गुप्त अंगों में कष्ट होता है ।
तुला लग्न वालों का शुक्र तथा गुरु दोनों यदि किसी भाव आदि को सम्यक् प्रकार से प्रभावित करें तो उसका विशेष हित करते हैं, जैसे शनि तथा चतुर्थ भाव से सम्बन्ध हो तो जनता की भलाई विशेष रूप से करते हैं। अष्टम भाव तथा अष्टमेश पर दोनों का प्रभाव हो तो दूसरों को प्राणदान देने वाला होता है।
शुक्र यदि द्वादश स्थान में शनि तथा राहु के प्रभाव में हो तो बहुत पढ़ने वाला अर्थात् आंखों का बहुत प्रयोग करने वाला तथा वीर्य को व्यर्थ खोने वाला होता है । कारण स्पष्ट है कि शुक्र वीर्य है; शनि तथा राहु आदि ग्रह पृथकताजनक (Separative) हैं।
8. धनु लग्न वालों का शुक्र विशेष पापी समझना चाहिए, क्योंकि यह दो पाप स्थानों का षष्ठ तथा छठे से छठे का स्वामी बनकर रोग, चोट, हिंसा आदि का द्योतक होता है।
9. शुक्र जब शनि को साथ लेकर सूर्य को युति तथा दृष्टि (शनि द्वारा) से प्रभावित करे तो सूर्य बहुत निर्बल हो जाता है जिससे पिता का सुख कम हो जाता है।
10. तुला लग्न वालों के शुक्र तथा लग्नेश एवं अष्टमेश पर जो प्रभाव हो वह मरण विधि को बतलाता है; जैसे तुला लग्न में शुक्र तथा मंगल की स्थिति अग्नि से मृत्यु जतलाती है।
11. शुक्र की तीनों लग्नों से द्वादश में स्थिति एक महान् वरदान है, क्योंकि ऐसी स्थिति से तीनों लग्नों को बल मिलता है।
12. शुक्र को चतुर्थ स्थान में स्थित होने से दिक् बल मिलता है।
13. वर्णमाला में शुक्र को ‘चवर्ग’ अर्थात् च, छ, ज, झ, अ का प्रतिनिधित्व प्राप्त है । इन अक्षरों से शुक्र अपने प्रभाव में आई वस्तुओं का नाम बतलाता है ।
शनि
1. आयु का कारक है। यदि लग्नेश तथा अष्टमेश और शनि सब बलवान् हों तो मनुष्य की दीर्घ आयु होती है।
2. शनि का रंग काला है । यदि शनि तथा राहु लग्न, लग्नेश चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नेश, सूर्य लग्न, सूर्य लग्नेश तथा द्वितीयेश पर प्रभाव डालें तो मनुष्य के शरीर का रंग काला होता है ।
3. शनि रोग का भी कारक है। जब षष्ठ स्थान में मकर अथवा कुम्भ राशि हो और वहां राहु स्थित हो तो शनि में रोग देने की विशेष शक्ति आ जाती है। ऐसा शनि जिस भाव में स्थित होगा अथवा जिसको देखेगा उसको रोगयुक्त बना देगा।
4. शनि काला होने से अंधेरा पसन्द करता है। अतः यह ग्रह विद्या (Education) नहीं चाहता। जब इसकी दृष्टि द्वितीय भाव, द्वितीयेश, पंचम भाव, पंचमेश अथवा बुध पर हो तो अल्पविद्या तथा विघ्नयुक्त विद्या कहनी चाहिए ।
5. शनि स्नायु है। यदि एकादश स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की मृत्यु सन्निपात (Paralysis) आदि स्नायु रोगों से कर देता है। कारण यह है कि तब इसका प्रभाव लग्न तथा अष्टम भाव पर पड़ता है और ये दोनों भाव मरण विधि को बतलाने वाले हैं ।
6. शनि भृत्य है, अतः इसकी वाणी असंस्कृत, कर्कश होती है । अतः जिस भाव में मकर राशि पड़ जाए वह सम्बन्धी कर्कश वाणी वाला होता है। यदि शनि पर शुभ दृष्टि का अभाव हो तो। जैसे:-
- वृषभ लग्न हो तो पिता कर्कश वाणी वाला,
- कर्क लग्न हो तो स्त्री कर्कश वाणी वाली,
- मकर लग्न हो तो स्वयं कर्कश वाणी वाला होता है, क्योंकि प्रत्येक अवस्था में द्वितीयेश वाणी द्योतक ग्रह शनि बन जाता है ।
7. शनि यदि मकर अथवा कुम्भ लग्न का स्वामी होकर कुण्डली में पीड़ित हो तो मनुष्य को जंघाओं में कष्ट होता है, क्योंकि लग्नेश शनि दस तथा ग्यारह नम्बर के अंगों का विशेष रूप से प्रतिनिधित्व करेगा।
8. शनि, सूर्य, राहु, राहु-अधिष्ठित राशि का स्वामी, द्वादशेश ये सब ग्रह अपने में पृथकताजनक (Separative) प्रभाव रखते हैं। इनमें से यदि दो ग्रहों का भी प्रभाव किसी प्रतिनिधित्व रखने वाले (Representative) अंगों पर पड़ जाए तो मनुष्य को उससे पृथक कर देते हैं। जैसे:-
- लग्न लग्नेश पर प्रभाव हो तो स्वास्थ्य तथा धन का नाश ।
- सप्तम भाव, सप्तमेश तथा शुक्र (अथवा स्त्रियों की कुण्डली में गुरु) पर यह प्रभाव हो तो पति-पत्नी में वियोग हो जाता है।
- द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर हो तो परिवार छोड़ता है,
- चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी पर हो तो घर बार तथा जन्म भूमि छोड़नी पड़ जाती है,
- यदि दशम दशमेश सूर्य पर यह प्रभाव हो तो राज्य छोड़ना पड़ जाता है, इत्यादि इत्यादि ।
9. शनि की गति बहुत धीमी है, अतः शनि द्वारा स्वयं कार्यों में विलम्ब होता है। यही कारण है कि प्रायः जिन व्यक्तियों का सप्तमेश शनि होता है और सप्तम भाव तथा शुक्र पर शुभ दृष्टि नहीं होती वे देर से विवाह करते हैं।
10. शनि प्रायः स्त्री ग्रह होने का फल देता है। जब शनि पंचमेश होकर अतीव बलवान हो (जैसे कि उच्च राशि तथा केन्द्र स्थिति द्वारा) तो उस व्यक्ति के यहां लड़कियों की भरमार होती है।
11. शनि की पृथकताजनक प्रवृत्ति का एक फल यह भी है कि शनि जब चन्द्र पर दृष्टि द्वारा प्रभाव डालता है तो मन को वैराग्यमय बना देता है और सांसारिक विषयों से विरक्त कर देता है।
संन्यासियों की कुण्डली में प्रायः ऐसा योग मिलता है। इतना अवश्य है कि संन्यास की प्राप्ति के लिए द्वितीय (कुटुम्ब), चतुर्थ (मकान, जायदाद), द्वादश (भोग सामग्री) भावों तथा इनके स्वामियों का सूर्य, शनि, राहु आदि पृथकताजनक ग्रहों के प्रभाव में होना आवश्यक है, क्योंकि संन्यासी को कुटुम्ब (2) घर (4) तथा भोग (12) छोड़ने होते हैं ।
12. शनि क्षेत्र है । जब चतुर्थाधिपति होकर बलवान् हो तो क्षेत्र जायदाद का विशेष सुख देता है जैसे कुम्भ का शनि चतुर्थ भाव में ।
13. शनि की सप्तम स्थान में स्थिति इसे दिक बल देती है।
14. शनि वर्णमाला में ‘पवर्ग’ अर्थात् प, फ, ब, भ, म का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थात् जब शनि वस्तुओं अथवा व्यक्तियों का नाम बतलाता है। तो पवर्ग द्वारा बतलाता है।
राहु
1. राहु के गुण दोष प्रायः शनि की भांति ही हैं। शनि की भांति राहु भी काला, धीमी गति वाला, रोगप्रद, स्नायु रोगकारक पृथकताजनक, दीर्घाकार, अन्धकारप्रिय तथा भय उत्पादक है।
2. राहु तथा केतु अचानक फल देने के लिए प्रसिद्ध हैं। यह अचानक फल अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है।
- यदि राहु नवम स्थान में हो और नवमेश बलवान हो, विशेषतया बुध नवमेश होकर बलवान् हो तो अचानक भाग्य चमक उठता है और अनजाने में ही बहुत लाभ तथा पदवी आदि प्राप्त हो जाते हैं।
- इसी प्रकार राहु धन, पंचम, लाभ स्थान में लाटरी आदि द्वारा शुभ तथा अचानक फल देता है यदि इन भावों के स्वामी बलवान् हों ।
3. राहु जब शनि के साथ स्थित हो तो राहु की दृष्टि से सचेत हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में राहु की दृष्टि (जो कि सदा राहु से पंचम, सप्तम तथा नवम भावों पर पूर्ण रहती है) न केवल अपना ही अपितु शनि का प्रभाव भी रखती है और विशेष पृथकता आदि अनिष्ट फल को करने वाली होती है।
जैसे शनि और राहु दशम स्थान में स्थित हों तो धननाश अथवा त्याग का योग बनता है, क्योंकि राहु की द्वितीय भाव में पंचम दृष्टि में राहु तथा शनि दोनों का प्रभाव है।
केतु
1. केतु के गुण-दोष प्रायः मंगल जैसे हैं । केतु भी मंगल की भांति अग्नि स्वरूप है। यदि सूर्य, मंगल तथा केतु का प्रभाव कहीं एकत्र सीधा अथवा केतु की दृष्टि द्वारा पड़ रहा हो तो उस स्थान से प्रदर्शित वस्तु में आग लग जाती है जैसे यह प्रभाव लग्न पर हो तो सिर में आग लग जाए आदि ।
2. शुभ स्वक्षेत्री ग्रह के साथ मिलकर केतु विशेष लाभ देता है, जैसे स्वक्षेत्री शुक्र तुला राशि में केतु के साथ हो तो मनुष्य बहुत धनवान् होता है। यही योग नवम में हो तो बहुत भाग्यशाली राज्यमानी होता है। 3. केतु भी राहु की भांति अचानक फल देता है। केतु यदि योगकारक ग्रह के साथ स्थित हो तो केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी अपनी भुक्ति से अचानक लाटरी आदि से धन की प्राप्ति करवाता है।
4. राहु म्लेच्छ ग्रह है, षष्ठ स्थान भी म्लेच्छ स्थान है। अतः जिन वस्तुओं पर षष्ठेश तथा राहु का प्रभाव पड़ेगा वे वस्तुएं म्लेच्छ (Foreign) बन जायेंगी।
यदि स्त्री की कुण्डली में षष्ठेश पर राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी आदि म्लेच्छ (Foreign) प्रभाव हो तो स्त्री से शयन-सुख (Pleasures of the bed) म्लेछ बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, स्त्री की शैया का सुख अन्य स्त्रियां भोगती हैं जिसका अर्थ यह निकलता है कि उसका पति अपनी स्त्री के अतिरिक्त दूसरी स्त्रियों को भी अपनी स्त्री बनाता है ।
5. राहु सर्वथा उल्टा (Retrograde) चलता है। जब किसी वक्री ग्रह की महादशा में राहु की भुक्ति आ जाए अथवा राहु की दशा में वक्री की भुक्ति आ जाए तो मनुष्य को वस्तुएं लौटाई जाती हैं, मकान-जायदाद आदि नष्ट पदार्थों की पुनः प्राप्ति होती है ।
6. राहु तथा मंगल का प्रभाव यदि द्वितीय भाव तथा इसके स्वामी पर पड़े तो राहु के टेढ़ेपन के प्रभाव के कारण मुख टेढ़ा हो जाने का रोग (Facial paralysis) हो जाता है।
फलित सूत्र
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