कुंडली के नौवें भाव का महत्व
प्रभुकृपा, राज्यभोग, देश में यात्रा, भाग्योदय (आकस्मिक लाभ), पौत्र तथा पुत्र की प्राप्ति, दूसरी पत्नी से पुत्र
1. धार्मिक जीवन – जब लग्न अथवा लग्नेश के साथ नवम अथवा नवमेश का घनिष्ठ सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य में भाग्य और धर्म दोनों का उत्थान होता है।
यदि यह सम्बन्ध चन्द्र लग्न तथा उसके स्वामी और चन्द्र लग्न से नवम भाव और उसके स्वामी के बीच में स्थापित हो जाए तो मनुष्य का जीवन बहुत धर्ममय हो जाता है।
और यदि मनुष्य का परम सौभाग्य ऐसा हो कि सूर्य लग्न तथा उसके स्वामी का युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध, सूर्य लग्न से नवम तथा उसके स्वामी के साथ भी हो जाए तब तो फिर कहना ही क्या है मनुष्य ज्ञानियों में श्रेष्ठ जीवन वाला और मुक्ति को प्राप्त करने वाला होता है चाहे वह गृहस्थी हो अथवा संन्यासी ।
2. राज्यभोग – नवम भाव को राज्यकृपा का भाव भी कहते हैं। यदि इस भाव का स्वामी राजकीय ग्रह सूर्य, चन्द्र अथवा गुरु हो और बलवान् भी हो तो राज्य की ओर से उस मनुष्य पर विशेष कृपा होती है। अर्थात् वह मनुष्य राज्य अधिकारी, राज्य सत्ता से सम्पन्न, राजा अथवा राजमन्त्री होता है।
जैसे नवमाधिपति सूर्य हो और उस पर चन्द्र तथा गुरु की दृष्टि हो तो मनुष्य बहुत बड़ा राज्याधिकारी, जैसे प्रेसिडेन्ट (President) अथवा मन्त्री आदि होता है।
3. प्रभुकृपा – प्रभुकृपा का स्थान भी नवम है। क्योंकि यह धर्म स्थान है और प्रभुकृपा के पात्र धार्मिक व्यक्ति ही हुआ करते हैं। इस भाव का स्वामी बलवान् होकर तथा शुभयुक्त अथवा शुभदृष्ट होकर जिस शुभ भाव में स्थित हो जाता है, मनुष्य को अचानक दैवयोग से प्रभुकृपा से उस घर द्वारा प्रदर्शित वस्तु की प्राप्ति होती है। जैसे नवामाधिपति बलवान् होकर दशम में हो तो राज्य प्राप्ति होती है।
4. राजयोग – पराशर महर्षि के आदेशानुसार नवम भाव को कुण्डली के सब भावों से श्रेष्ठ तथा शुभ माना गया है। इस भाव के स्वामी का सम्बन्ध चतुष्टय (परस्पर दृष्टि, स्थान व्यत्यय, एकत्र स्थिति, एकतो दृष्टि) यदि दशम भाव के साथ तथा इसके स्वामी के साथ हो तो मनुष्य अतीव भाग्यशाली, मानी तथा राजयोग को भोगने वाला होता है, क्योंकि दशम केन्द्रों में प्रमुख है और नवम भाव त्रिकोण में प्रमुख है। प्रमुख केन्द्र तथा त्रिकोण के स्वामियों का योग लक्ष्मी तथा पदवी देता ही है, इसमें सन्देह नहीं ।
5. नवम में ग्रहों का फल – नवम में जब सूर्य बैठे तो सूर्य को पिता की लग्न में बैठा समझना चाहिए। स्पष्ट है कि यदि ऐसी स्थिति में नवम भाव बलवान् होगा तो पिता हर प्रकार से सुखी, धनी, मानी होगा।
इसके विपरीत यदि उस नवमस्थ सूर्य पर पापी ग्रहों – शनि, राहु आदि का प्रभाव हो तो पिता रोगी अल्पायु, निर्धन होगा, और इसी कारण से मनुष्य को पैतृक सम्पत्ति का बहुत थोड़ा सुख प्राप्त होगा।
- नवम में चन्द्र यदि बलवान् हो तो पिता को धनी आदि बनाता है।
- नवम में मंगल को निर्बल मानना चाहिए जब तक कि उस पर शुभ प्रभाव न हो।
- नवम में बुध बली होकर स्थित हो तो उस भाव को उन्नत करेगा, जिसका कि वह स्वामी है।
- नवम में गुरु अपनी आयु, धन, यश, पुत्र, विद्या, सब बातों के लिए शुभ है। नवम में शुक्र शुभ है, और उस भाव की भी वृद्धि करता है जिसका कि वह स्वामी है।
- नवम भाव में शनि अपने धर्म से कुछ विरोध देता है।
- नवम भाव में नीच ग्रह पड़ा हो तो मनुष्य वास्तविक अर्थों से धार्मिक नहीं होता, परन्तु बाहरी आडम्बर से वह धर्मध्वजी (Imposer of Religion) बनता फिरता है।
7. पुत्र प्राप्ति – पुत्र प्राप्ति के विचार से नवम भाव का विशेष सम्बन्ध है, क्योंकि नवम भाव पंचम से पंचम है। यदि नवमाधिपति बलवान् हो और गुरु से दृष्ट हो तो अवश्य पुत्र की प्राप्ति होती है, यद्यपि पंचम भाव, उसक स्वामी तथा पुत्रकारक गुरु सबके सब निर्बल ही क्यों न हों। पुत्र का विचार नवम भाव से भी करना चाहिए।
8. आकस्मिक लाभ – यदि राहु अथवा केतु नवम में हों, लग्न में सूर्य अथवा चन्द्र अथवा दोनों स्थित हों, नवम में बुध की राशि मिथुन अथवा कन्या हो और बुध एकादश अथवा पंचम भाव में अथवा लग्न में शुभयुक्त अथवा दृष्ट हो तो अचानक भाग्योदय का योग बनता है।
एक तो भाग्य भाव का स्वामी जब फलीभूत होता है, तो थोड़ी-सी आकस्मिक घटना शुभता के क्षेत्र में घटती है। फिर यदि वह भाग्येश बुध हो तो भाग्य का आकस्मिक रूप से फलीभूत होना दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि बुध को सद्यः प्रतापी कहा है। पुनः राहु केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी होने से बुध अपने अन्दर विशेष आकस्मिकता रखता है। इन सब बातों के अतिरिक्त चूंकि ये सब घटनाएं केवल लग्न से नवम भाव सम्बन्धी ही नहीं हैं, अपितु सूर्य लग्न तथा चन्द्र से नवम स्थान से भी सम्बन्ध रखती हैं। अतः आकस्मिकता का अंश और अधिक प्रभाव के साथ फलीभूत होगा ।
9. देश में लम्बी यात्रा – जहां अष्टम भाव विदेश यात्रा का है वहां नवम भाव अपने ही देश में लम्बी यात्रा का है। नवमाधिपति अपनी दशा अन्तर्दशा में निज देश में दीर्घ यात्रा देता है ।
11. दूसरी पत्नी से पुत्र दूसरी पत्नी (Second Wife) का विचार नवम भाव से किया जाता है। यदि पहली पत्नी मर चुकी हो और दूसरा विवाह हो चुका हो तो पुत्र प्राप्ति का विचार नवम तथा लग्न द्वारा करना चाहिए ।

नवम भाव में राशियां
1. मेष – जब नवम भाव में मेष राशि हो तो मंगल नवमेश तथा चतुर्थेश अर्थात् केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी बनता है। अतः योगकारक कहलाता है। मंगल जितना अधिक बलवान् होगा जातक उतना ही अधिक धन, मान, पदवी पाएगा ।
चतुर्थेश होने से मनुष्य के भाग्य में भूमि होगी। माता का अच्छा सुख होगा, जीवन में उन्नतिशील होगा, राज्य दरबार से सुख तथा मान प्राप्ति करेगा ।
2. वृषभ – जब नवम भाव में वृषभ राशि हो तो शुक्र नवमेश तथा द्वितीयेश होता है। द्वितीय तथा नवम दोनों शुभ भाव हैं। अतः शुक्र यदि बलवान् हो तो अपनी भक्ति में खूब धन देगा । बलवान् शुक्र मनुष्य को सुन्दर तथा राज्यमानी बनाता है।
यदि शुक्र निर्बल हो तो धन का नाश बहुधा हो, राज्य की ओर से तिरस्कृत हो, साले द्वारा धन का नाश पाए ।
3. मिथुन – बुध को ‘विष्णु’ माना गया है। जब बुध नवम भाव का स्वामी हो तो इसमें धार्मिकता, परोपकार, यज्ञीय भावना रूपी वैष्णव गुणों का विशेष समावेश हो जाता है। अतः नवमाधिपति बुध यदि लग्न लग्नेश से सम्बन्ध करे तो व्यक्ति को महान धार्मिक, परोपकारी, स्वार्थरहित बना देता है । यदि नवम भाव में राहु अथवा केतु हो और लग्न में सूर्य तथा चन्द्र हो तो बुध अकस्मात् महान भाग्योदय से चकित करता है।
कारण कि बुध एक तो वैसे ही शीघ्र फल करता है और जब राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी होगा तो इसमें आकस्मिकता और भी आ जायेगी और फिर ‘भाग्य’ का स्वामी होने के नाते भी आकस्मिकता (Suddenness) का कुछ अंश बुध में है और वह सब कुछ समस्त लग्न समूह (लग्न, सूर्य तथा चन्द्र) से नवमाधिपति के रूप में हुआ है, अतः बलवान् रूप में घटेगा ।
यदि बुध तथा नवम भाव पापयुक्त पापदृष्ट हों तो जहां भाग्य में अचानक हानि हो जाती है वहां माता के बड़े बहिन भाइयों की आयु को भी हानि पहुंचती है, क्योंकि नवम भाव द्वितीय भाव का आयु स्थान है और द्वितीय भाव माता के बड़े भाई-बहनों का है।
4. कर्क – जब नवम में कर्क राशि हो तो चन्द्र नवमाधिपति होने के कारण तथा एक राजकीय ग्रह होने के कारण बलवान् हो तो विशेष राज्य कृपा का पात्र बनता है। चन्द्र नीच का भी लग्न में हो, परन्तु क्षीण न हो तथा पापयुक्त पापदृष्ट न हो तो मनुष्य को धार्मिक बनाता है, क्योंकि नवमेश (और वह भी मन-चन्द्र) का लग्न से सम्पर्क स्थापित करना धर्म का निज (Self) से सम्बन्ध स्थापित करना है।
5. सिंह – जब नवम में सिंह राशि हो तो सूर्य नवमाधिपति होता है जिसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के भाग्य में राज्य हो सकता है, शर्त इतनी है कि सूर्य बलवान् हो।
धनु राशि में सूर्य मनुष्य को सात्विक तथा धार्मिक बनाता है, क्योंकि सूर्य सात्विक ग्रह धर्म (सात्विक भाव) का स्वामी बनता है और लग्न में स्थित होता है।
6. कन्या – जब नवम में कन्या राशि हो तो बुध नवमेश तथा षष्ठेश बनता है। इसमें शुभता ही शेष रहती है, यद्यपि षष्ठ भाव अच्छा नहीं। भाग्य का सम्बन्ध गैर हिन्दू जातियों तथा देशों से हो जाता है, आय की तथा व्यवसाय की उन्नति का सम्बन्ध मामा से हो जाता है।
बुध यदि लग्न में हो तो विशेष धार्मिक होता है, पर पापदृष्ट अथवा पापयुक्त नहीं होना चाहिए। बलवान् बुध आकस्मिक रूप से भाग्य में वृद्धि कर देता है, विशेषतया जब नवम भाव में राहु अथवा केतु हो ।
7. तुला – जब नवम में तुला राशि हो तो शुक्र चतुर्थ केन्द्र तथा नवम त्रिकोण का स्वामी होता है। अतः उत्तम राजयोग का फल करता है। यदि निर्बल हो तो कभी-कभी अचानक भाग्यहीनता से दुःख देता है।
बलवान् शुक्र तथा चतुर्थ भाव यदि गुरु से युक्त अथवा दृष्ट हो तो भूमि सम्पत्ति वाला, मोटर गाड़ियों, बंगले, जायदाद वाला सुखी व्यक्ति होता है और जनता का प्रिय होता है । बलवान् शुक्र पत्नी की छोटी बहिनों की वृद्धि करता है ।
8. वृश्चिक – जब नवम में वृश्चिक राशि हो तो मंगल नवमेश तथा धनेश बनता है। बहुत शुभ फल करता है, यदि बलवान् हो । भाग्य में धन होता है। यह व्यक्ति धार्मिक वाणी बोलता है। इसके छोटे साले होते हैं। मंगल तथा गुरु का सम्बन्ध चतुष्टय हो तो विशेष धार्मिक होता है।
9. धनु – जब नवम में धनु राशि हो तो गुरु नवमाधिपति तथा द्वादशाधिपति बन जाता है। अतः धन आदि के विषय में शुभ फल देता है। इस व्यक्ति का व्यय धार्मिक कृत्यों पर होता है। बलवान् गुरु न केवल उसकी पत्नी के छोटे भाइयों की संख्या में वृद्धि करता है, बल्कि पुत्र भी देता है। लग्न में मेष का गुरु धार्मिक बनाता है।
10. मकर – जब नवम में मकर राशि हो तो शनि नवम तथा दशम का स्वामी हो जाता है। यदि शनि साधारण बलवान् हो तो साधारण पिता के घर जन्म पाता है। अर्थात् पिता धनी नहीं होता। यदि शनि गुरु आदि शुभ ग्रहों के प्रभाव में न हो तो पिता कर्कश वाणी बोलने वाला होता है।
इस व्यक्ति का भाग्य धीरे-धीरे उदय होता है परन्तु शनि केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी होता है । अतः शनि अपनी भुक्ति में धन, पदवी आदि शुभ वस्तुओं की प्राप्ति करवाता है ।
11. कुम्भ – जब नवम में कुम्भ राशि हो तो शनि नवम तथा अष्टम भावों का स्वामी होता है। अतः मिश्रित फल देता है। सर्वथा शुभ नहीं होता । यदि बलवान् हो तो शनि दीर्घ आयु तथा भाग्य वृद्धि देता है, विदेश से धन लाभ कराता है। यदि शनि निर्बल हो तो अचानक मृत्यु भय उपस्थित हो जाता है।
12. मीन – जब नवम में मीन राशि हो तो गुरु षष्ठेश और नवमेश बनता है। अपनी भुक्ति में कुछ शुभ ही होता है, क्योंकि षष्ठ स्थान इतना अनिष्टकारी नहीं जितना नवम शुभ है। यदि गुरु निर्बल हो तो शत्रुओं द्वारा भाग्य की हानि होती है। गुरु यदि द्वितीय स्थान में हो तो धार्मिक विषयों पर सभा, मंन्दिर आदि में उपदेश देने वाला होता है।
फलित सूत्र
- ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
- ग्रह परिचय
- कुंडली के पहले भाव का महत्व
- कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
- कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
- कुंडली के चौथे भाव का महत्व
- कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
- कुंडली के छठे भाव का महत्व
- कुंडली के सातवें भाव का महत्व
- कुंडली के आठवें भाव का महत्व
- कुंडली के नौवें भाव का महत्व
- कुंडली के दसवें भाव का महत्व
- कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
- कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
- दशाफल कहने के नियम
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