कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व

पंचम भाव से मंत्री पद योग, पुत्र प्राप्ति, प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता, प्रेम विवाह, लाटरी आदि का विचार किया जाता है।

1. बुद्धि से सम्बन्ध – पंचम भाव का बुद्धि से सम्बन्ध होने के कारण विद्या सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन पंचम भाव, उसके स्वामी तथा विद्या कारक बुध द्वारा भी किया जाना चाहिए। इन तीनों में से जितने अंग अधिक बली तथा शुभदृष्ट होंगे उतनी ही अधिक विद्या मनुष्य को प्राप्त होगी ।

2. मन्त्री पद – यदि पंचम स्थान बहुत बली हो तो मनुष्य की मन्त्रणा शक्ति अर्थात् दूसरों का मार्ग प्रदर्शन करने की शक्ति बलवान् होती है और उसकी नियुक्ति मन्त्री पद पर भी हो सकती है।

यदि पंचमेश तथा दशमेश में शुभ व्यत्यय हो, अर्थात् इन दो भावों के स्वामी नैसर्गिक शुभ ग्रह हों और एक दूसरे की राशि में स्थित हों, जैसे – वृषभ राशि का दशम भाव में गुरु और धनु राशि का पंचम भाव में शुक्र हो तो पंचम तथा दशम का पारस्परिक घनिष्ठ संबंध होने के कारण, अपनी मन्त्रणा शक्ति (पंचम) (Advisory Capacity) का लाभ राज्य (दशम) को पहुंचाने की योग्यता वह मनुष्य रखता है।

3. पुत्र प्राप्ति – पुत्र का विचार पंचम भाव, उसके स्वामी, पुत्र कारक, गुरु, नवम भाव तथा नवमेश इन सब द्वारा करना चाहिए। यदि ये सब निर्बल अथवा पापयुक्त व पापदृष्ट हों तो पुत्र की प्राप्ति नहीं होती ।

जैसे किसी भी लग्न की कुण्डली में यदि मंगल द्वितीय भाव में और शनि तृतीय भाव में हो और गुरु पंचम अथवा नवम में से किसी भाव में हो तो पुत्र या तो होता ही नहीं और यदि पंचमेश आदि के बली होने के कारण हो भी जाए तो जीवित नहीं रह सकता। शिशु अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

कारण यह है कि ऐसी स्थिति में शनि तथा मंगल दोनों पापी ग्रहों की पूर्ण दृष्टि पुत्र स्थान अर्थात् पंचम भाव पर पड़ती है और पुत्र का कारक ग्रह भी इन्हीं दोनों की पापदृष्टि के प्रभाव में आ पड़ता है। इस प्रकार पुत्रदायक अधिकांश अंग प्रबल दुहरे पाप प्रभाव में आ जाते है जिससे पुत्र प्राप्ति असंभव हो जाती है।

पंचम भाव में सूर्य गर्भो की हानि करता है। इस स्थान में बलवान चन्द्र अधिक कन्याओं की उत्पत्ति करता है। इस भाव में मंगल – विशेषतया शत्रु राशि का मंगल, संतानों का नाश करता है ।

इस स्थान में मेष राशि का मंगल भी पुत्रोत्पत्ति में बाधक होता है । इसका कारण यह है कि मंगल द्वादशाधिपति होकर आता है। और पंचम के अष्टमाधिपति होने से और भी अधिक अनिष्टकारी हो जाता है।

बुध तथा शनि के एकांतिक (Exclusive) प्रभाव की उत्पत्ति में प्रबल बाधा होती है; क्योंकि दोनों ग्रह ठण्डे तथा नपुंसक हैं ।

गुरु इस स्थान में तभी शुभ फल करता है, अर्थात् पुत्रदायक होता है; जबकि पापयुक्त, पापदृष्ट तथा निर्बल न हो । शुक्र इस भाव में पुत्र-पुत्रियां दोनों देता है। शनि इस भाव में गर्भहानि करता है। राहु तथा केतु का फल शनि तथा मंगल के अनुसार समझना चाहिए।

यदि पंचमाधिपति शनि बुध के अंश में हो और बुध द्वारा ही दृष्ट भी हो तो सन्तान रुकने का योग बनता है।

4. प्रेम विवाह – पंचम स्थान प्रियतमा (Beloved) अथवा प्रियतम का है। जब इस भाव का सम्बन्ध घनिष्ट रूप से सप्तम भाव अथवा उसके स्वामी से हो जाता है तो पुरुष का विवाह मर्यादित विवाह न होकर एक प्रेम विवाह (Love Marriage) हो जाता है।

जैसे तुला लग्न और पंचमेश शनि सप्तमेश मंगल के साथ एकादश भाव में स्थित हो तो मनुष्य प्रेम व्यवहार द्वारा प्रेम विवाह (Love Marriage) करता है, न कि परम्परानुसार ।

5. विनोद – पंचम स्थान विनोद का भी है । विनोद के स्थानों जैसे- सिनेमा, क्लब, खेल के स्थान आदि का विचार इसी भाव से करते हैं। यदि चतुर्थेश और पंचमेश में व्यत्यय हो और बुध-शुक्र का युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध भी हो तो व्यक्ति सिनेमा आदि विनोदप्रद स्थानों का इच्छुक होता है ।

6. प्रतियोगिता की परीक्षाएं – पंचम भाव चूंकि बुद्धि से सम्बन्ध रखता है । अतः प्रतियोगिता की परीक्षाएं (Competitive Exams.) जैसे- एस. ए. एस. (Subordinate Accounts Service Exam.) आदि का विचार इस स्थान से करना चाहिए । भाव, भावाधिपति तथा भावकारक (यहां बुध) का सामान्य नियम यहां भी लागू होता है ।

7. लाटरी से धन – पंचम भाव सट्टे, लाटरी आदि का स्थान भी है । यदि इस स्थान में राहु अथवा केतु स्थित हों और पंचमेश बलवान होकर शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो लाटरी प्राप्त होने का योग बन जाता है । यदि बुध पंचमेश हो तो और भी पक्का योग बन जाता है क्योंकि राहु-केतु की भांति बुध भी सद्यः फलदायक है।

पुनः यदि शुभ नवमेश भी इस योग में सम्मिलित हो जाए तो बहुत लाभदायक होता है, क्योंकि नवम भाव भाग्य (Divine Dispensation) का है और लाटरी भी भाग्य का, न कि पुरुषार्थ का, फल है। स्मरण रहे कि नवम से नवम होने के कारण पंचम में भी भाग्य का पर्याप्त अंश है ।

8. राजयोग – नवम से नवम होने के कारण पंचम भाव भी शुभता में श्रेष्ठ है। यह भी एक त्रिकोण स्थान है: अतः चतुर्थेश (केन्द्र का स्वामी) से पंचमेश का सम्बन्ध पाराशरीय नियमों के अनुसार राजयोग, धन आदि को उत्पन्न करने वाला होता है। चतुर्थेश की दूसरी राशि भी अच्छे भाव का स्वामी होनी चाहिए ।

9. बालारिष्ट – चन्द्र जब पंचम स्थान में क्षीण बली होकर पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो बालारिष्ट देता है अर्थात् नवजात को शैशव में मृत्यु का भय रहता है। बुध भी चन्द्र का पुत्र माना गया है। अतः इस विषय में यह भी चन्द्रवत् ही कार्य करता है। अर्थात् बुध यदि पंचम भाव में पापयुक्त तथा पापदृष्ट हो तो रोग इतना गम्भीर होता है कि बच्चे के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में डाक्टर लोगों को भी इलाज नहीं सूझता ।

10. पापी ग्रह जो ग्रह निसर्ग से पापी है जैसे – मंगल, शनि, सूर्य, वह जब पंचम भाव में पड़ जाता है तो निर्बल हो जाता है। इस अवस्था में ये उन भावों को, जिनके कि ये स्वामी हों, हानि पहुंचाते हैं।

अतः शुभ घरों के स्वामी, परन्तु नैसर्गिक पापी ग्रह, जब पंचम भाव में स्थित हों तो उन पर शुभ दृष्टि आवश्यक है अन्यथा वे अनिष्ट फल देते हैं।

11. यदि पंचम भाव में चन्द्र पापी ग्रहों से पीड़ित हो तो पिता को तुरन्त ही अरिष्ट (रोग) होता है। इस सम्बन्ध में देवकेरलकार का कहना है:- “यदि पंचम भाव में चन्द्र स्थित हो और उस पर शनि तथा मंगल की दृष्टि हो तो जातक की जन्म दशा अर्थात् पहली दशा में ही तथा दशानाथ के नवांश के स्वामी की भुक्ति में पिता को महान् शारीरिक कष्ट होता है।“

यहां पिता को अरिष्ट की प्राप्ति का यह कारण नहीं है कि पंचम स्थान दशम स्थान (जो कई पंडितों की सम्मति में पिता का भाव है) से अष्टम बनता है और वहां पाप ग्रहों का प्रभाव है, बल्कि वास्तविक कारण यह है कि पंचम भाव पिता के भाव (नवम भाव) से नवम भाव बनता है।

यदि पंचम भाव पीड़ित होता है तो दो प्रकार से पिता के शरीर को कष्ट पहुंचाता है- एक तो इसलिए कि ‘भावात् भावम् के सिद्धांतानुसार पंचम भाव से नवम होने के कारण नवम भाव ही समझा जाएगा।

दूसरे, अरिष्ट का उल्लेख करते हुए वराह मिहिर आचार्य ने अपने बृहज्जातक ग्रंथ में लिखा है- “जब चन्द्र किसी लग्न से पंचम, सप्तम, नवम, प्रथम अथवा अष्टम भाव में पापी ग्रहों से युक्त होता है तो मनुष्य की मृत्यु जन्म के शीघ्र बाद ही हो जाती है।“

इस सिद्धान्त को यदि पिता की लग्न पर लगाया जाये तो स्पष्ट है कि पिता के स्थान (नवम) से नवम स्थान अर्थात् पंचम स्थान में पापयुक्त चन्द्र पिता को अरिष्ट देगा ।

कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व

पंचम भाव में विविध राशियां

1. मेष – मंगल, पंचमेश तथा द्वादशेश बनता है। यदि मंगल बलवान् हो तो धन आदि का देने वाला होता है क्योंकि द्वादशेश इतर राशि का फल करता है।

यदि मंगल मिथुन राशि का सप्तम में हो तो मनुष्य को अतिशय विषयी बनाता है। मेष राशि में स्वक्षेत्री मंगल भी द्वादशेश होने के कारण कर्मों की हानि करने वाला होता है। बलवान् मंगल (पंचम से इतर स्थान में) पुत्र की प्राप्ति करवाता है। निर्बल मंगल से विद्या की हानि होती है, पुत्र द्वारा धन का नाश होता है।

2. वृषभ – शुक्र योगकारक होने के कारण अतीव शुभ, धन, पदवी आदि का देने वाला होता है । बलवान् शुक्र पुत्र द्वारा शुभ कार्यों को करवाने वाला, मन्त्रणा शक्ति तथा शासन शक्ति को देने वाला होता है। यदि शुक्र निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो शुक्र अपनी भुक्ति में थोड़ा लाभ कराता है। पुत्र द्वारा कर्मों का नाश होता है, अपने विचारों के कारण राज्य से विरोध हो जाता है।

3. मिथुन – बुध साधारण बलवान् हो तो कोई विशेष लाभ नहीं देता, क्योंकि यह अष्टमेश भी हो जाता है। बुध विशेष बली हो तो अचानक लाटरी आदि से लाभ पहुंचाता है, व्यक्ति बुद्धिमान्, सुशिक्षित होता है ।

यदि शनि आदि का प्रभाव पंचम भाव पर हो और पंचमेश तथा गुरु पर भी पाप प्रभाव हो तो सन्तान नहीं होती तथा पेट में वायु रोग होता है।

4. कर्क – पंचमेश चन्द्र यदि बलवान् हो तो पुत्र अच्छी उन्नति करता है। यदि निर्बल हो तो पुत्र को छाती के रोग न्यूमोनिया, खांसी आदि होते हैं। चन्द्र बलवान हो तो मनुष्य की स्मरण शक्ति बलवान् होती है, विद्या भी अच्छी होती है।

5. सिंह – सूर्य पांच नम्बर की राशि तथा पांच नम्बर के भाव, दोनों का स्वामी हो जाता है । अतः यदि पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो पेट में रोग देता है ।

यदि राहु आदि से पीड़ित हो तथा राहु आदि का प्रभाव पंचम भाव पर भी हो तो दिल का रोग (Heart Trouble) देता है, क्योंकि सिंह राशि तथा सूर्य दिल है तथा राहु अचानक आक्रमण करने के लिए प्रसिद्ध है !

6. कन्या – बुध द्वितीयाधिपति तथा पंचमाधिपति होता है। यदि बलवान् हो तो मनुष्य को विद्वान्, महान् वक्ता (Orator) धनी और बुद्धिमान बनाता हैं, उसका पुत्र विशेष मान पाता है। शरीर से सुन्दर होता है।

यदि बुध निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो धन का नाश होता है, विद्या अल्प होती है, शीघ्र ही गर्भपात होते हैं, वाणी में दोष होता है, पुत्र द्वारा धन का नाश होता है।

7. तुला – शुक्र पंचमेश तथा द्वादशेश बन जाता है। यदि बलवान् हो तो बहुत धन देता है, क्योंकि द्वादशेश अपना इतर राशि का फल करता है, जो कि शुभ पंचम त्रिकोण में पड़ती है। यदि शुक्र सप्तम स्थान में हो तो मनुष्य अतिशय विषयी होता है, क्योंकि भोग स्थानों के स्वामी का योग, भोग स्थान से एक भोगी ग्रह द्वारा हो जाता है।

बलवान् शुक्र बहुत कन्या (सन्तान) देता है। शुक्र निर्बल हो तो पुत्र नाश होता है। शुक्र पर प्रभाव से के मरण की विधि का ज्ञान होता है, क्योंकि शुक्र पंचम भाव का लग्नेश तथा अष्टमेश है। यदि पंचम भाव को लग्न मानने पर शनि बलवान् होकर स्थित हो तो पुत्र उच्च पदवी प्राप्त करता है ।

8. वृश्चिक – मंगल दशम केन्द्र तथा पंचम त्रिकोण का स्वामी होने से योगकारक शुभ ग्रह है और धन, पदवी देने वाला होता है। अपनी भुक्ति में बहुत शुभ फल करता है। मंगल बलवान् हो तो अपनी बुद्धि के प्रताप से राज्य सत्ता को प्राप्त करने वाला होता है मन्त्रणा शक्ति के कारण वह संसार में मान प्राप्त करता है।

यदि मंगल निर्बल हो तो उसके मान को उसके पुत्र अथवा दूसरी सन्तान द्वारा हानि पहुंचती है। उसकी विद्या में बाधा पड़ती है, उसके पेट में रोग आदि होते हैं।

9. धनु – यदि गुरु बली हो तो पुत्र देता है, नहीं तो बहुत थोड़ा भी पाप प्रभाव से गुरु पुत्र देने में असमर्थ हो जाता है। बलवान् गुरु उच्च विद्या देता है, मंत्रणा शक्ति देता है ।

10. मकर – यदि शनि बलवान् हो तो व्यक्ति की कई लड़कियां होती हैं। इसके पुत्र की वाणी कर्कश होती है। यदि शनि निर्बल हो तो पुत्र कार्य में बाधा डालने वाला होता है।

11. कुम्भ – शनि योगकारक शुभ फलदाता, धन, मान, पदवी दाता हो जाता है। बलवान् शनि शत्रु पुत्र से सुख देता है, पुत्र द्वारा भूमि की प्राप्ति भी होती है। यदि शनि निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो पुत्र से दुःख, गृह त्याग, अल्प विद्या अल्प धन होता है ।

12. मीन – गुरु दो शुभ भावों का स्वामी होने से अतीव शुभ फल का देने वाला हो जाता है। बलवान् गुरु, कुटुम्ब का सुख, पुत्र का सुख विद्या का सुख, वाणी का सुख (Oratory) आदि हर प्रकार का सुख देने वाला हो जाता है, बल्कि गुरु जिस भाव तथा भावेश अथवा कारक पर दृष्टि डालता है उस भाव को धनी, मूल्यवान प्रशस्त बना देता है, जैसे शनि पर दृष्टि हो तो मनुष्य मूल्यवान् भूमि का स्वामी हो जाता है।

फलित सूत्र

  1.  ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
  2.  ग्रह परिचय
  3.  कुंडली के पहले भाव का महत्व
  4.  कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
  5.  कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
  6.  कुंडली के चौथे भाव का महत्व
  7.  कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
  8.  कुंडली के छठे भाव का महत्व
  9.  कुंडली के सातवें भाव का महत्व
  10.  कुंडली के आठवें भाव का महत्व
  11.  कुंडली के नौवें भाव का महत्व
  12.   कुंडली के दसवें भाव का महत्व
  13.  कुंडली के ग्यारहवें भाव का महत्व
  14.  कुंडली के बरहवें भाव का महत्व
  15.  दशाफल कहने के नियम

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