तुला लग्न के धन योग

तुला लग्न में जन्म लेने वाले जातकों के लिए धन प्रदाता ग्रह मंगल है। धनेश मंगल की शुभाशुभ स्थिति से धन स्थान से सम्बन्ध जोड़ने वाले ग्रहों की स्थिति एवं योगायोग, मंगल एवं धनस्थान पर पड़ने वाले ग्रहों की दृष्टि सम्बन्ध से जातक की आर्थिक स्थिति, आय के स्रोतों तथा चल सम्पत्ति को पता चलता है।

इसके अतिरिक्त लग्नेश शुक्र, पंचमेश शनि, भाग्येश बुध एवं लाभेश सूर्य की अनुकूल परिस्थितियां तुला लग्न वालों के लिए धन ऐश्वर्य एव वैभव को बढ़ाने में पूर्ण सहायक होती हैं।

तुला लग्न के लिए गुरु, सूर्य और मंगल अशुभ फल देते हैं। शनि, बुध शुभ होते है। चंद्र और बुध राजयोग कारक हैं।

मंगल प्रधान मारकेश होकर भी मारक का कार्य नहीं करेगा। मंगल साहचार्य से मारक का कार्य करेगा। गुरु षष्टेश होने से अशुभ फलदायक है, परम पापी है। सूर्य व शुक्र भी पापी हैं। शनि अतिशुभ फलदायक है।

शुभ योग – 1. शुक्र+शनि  2. शुक्र+बुध 3. चंद्र+बुध

सफल योग – 1. गु+श  2. बु+श  3. श+चं  4. मं+श

योगकारक – चंद्र, बुध, शनि।

निष्फल योग – मंगल+बुध

लक्ष्मी योग – मंगल द्वितीय, सप्तम, नवम में; सूर्य सप्तम, एकादश में; शनि केन्द्र, त्रिकोण में।

विशेष योगायोग

1. लग्न में शुक्र हो; शनि, बुध से युत यॉ दृष्ट हो तो जातक शहर का प्रतिष्ठित धनवान व्यक्ति होता है।

2. पंचम स्थान में शनि हो, लाभ स्थान में सिंह का बुध हो तो जातक अपनी विद्या, हुनर के द्वारा लाखों धन कमाता हुआ शहर का प्रतिष्ठित धनवान व्यक्ति होता है।

3. पंचम स्थान में शनि तथा लाभ स्थान में सिंह का मंगल हो तो जातक शहर का माना हुआ धनवान होता है।

4. बुध, मिथुन या सिंह राशि में हो तो जातक अल्प प्रयास से बहुत धन कमाता है। धन के मामले में ऐसा व्यक्ति भाग्यशाली कहलाता है।

5. मंगल मेष, वृश्चिक या मकर राशि में हो तो व्यक्ति धनाध्यक्ष होता है। लक्ष्मी चेरी की तरह उस व्यक्ति की सेवा करती है।

6. मंगल, बुध के घर में तथा बुध, मंगल के घर में परिवर्तन योग करके बैठा हो तो व्यक्ति भाग्यशाली होता है तथा जीवन में खूब धन कमाता है।

7. मंगल यदि सूर्य के घर में तथा सूर्य मंगल के घर में हो तो जातक महाभाग्यशाली होता है। ऐसे व्यक्ति की लक्ष्मी दासी के समान सेवा करती है।

8. यदि चंद्रमा केन्द्र, त्रिकोण में हो तथा मंगल स्वगृही हो तो जातक कीचड़ में कमल की तरह खिलता है अर्थात् सामान्य परिवार में जन्म लेकर धीरे-धीरे अपने पुरुषार्थं व पराक्रम से लक्षाधिपति व कोट्याधिपति हो जाता है। यह स्थिति प्राय: 28 वर्ष के बाद होती है।

9. शुक्र, चंद्रमा और सूर्य की युति हो तो जातक महाधनी होता है तथा धनशाली व्यक्तियों में अग्रगण्य गिना जाता है।

10. शनि मकर या कुम्भ का हो तो जातक धनवान होता है।

11. शुक्र सिंह राशि में एवं सूर्य तुला राशि में हो तो जातक 33वें वर्ष

में धनवान होता है तथा शत्रुओं का नाश करते हुये स्वअर्जित धनलक्ष्मी को भोगता है। ऐसे व्यक्ति को जीवन में अचानक धन मिलता है।

12. लग्नेश शुक्र, धनेश मंगल, भाग्येश बुध तथा लाभेश सूर्य अपनी-अपनी उच्च एवं स्वराशि में हों तो जातक करोड़पति होता है।

13. धनेश मंगल यदि छठे, आठवें और बारहवें स्थान में हो तो ” धनहीन योग” की सृष्टि होती है। ऐसे व्यक्ति के पास धन नहीं ठहर पाता। सदैव रुपयों की तंगी बनी रहती है। इस दुर्योग से बचने के लिए गले में अभियन्त्रित “मंगल यन्त्र ” धारण करना चाहिए। पाठक चाहें तो “मंगल यन्त्र” हमारे कार्यालय से प्राप्त कर सकते हैं।

14. धनेश मंगल यदि आठवें हो परन्तु सूर्य यदि लग्न को देखता हो तो ऐसे व्यक्ति को भूमि में गढ़े हुए धन की प्राप्ति होती है या लॉटरी से धन मिल सकता है पर धन पास में टिकेगा नहीं।

15. मंगल यदि मेष या मकर राशि में हो तो “रूचक” योग बनता है। ऐसा जातक राजतुल्य ऐश्वर्य को भोगता हुआ अथाह भूमि, सम्पत्ति व धन का स्वामी होता है।

16. यदि सुखेश शनि, लाभेश सूर्य, नवम भाव में मंगल से दृष्ट हो तो व्यक्ति को अनायास धन की प्राप्ति होती है।

17. गुरु-चंद्र की युति वृश्चिक, मकर, कुम्भ या मिथुन राशि में हो तो इस प्रकार के गजकेसरी योग के कारण व्यक्ति को अनायास उत्तम धन की प्राप्ति होती है। ऐसे व्यक्ति को लॉटरी, शेयर बाजार या अन्य व्यापारिक स्रोत से अकल्पनीय धन की प्राप्ति होती है।

18. धनेश मंगल अष्टम स्थान में एवं अष्टमेश शुक्र धन स्थान में परस्पर परिवर्तन करके बैठे हों तो जातक गलत तरीके से धन कमाता है। ऐसा व्यक्ति ताश, जुआ, मटका, घुड़रेस स्मगलिंग एवं अनैतिक कार्यों से धन अर्जित करता है।

19. तृतीयेश गुरु लाभ स्थान में एवं लाभेश गुरु तृतीय स्थान में परस्पर परिवर्तन करके बैठे हों तो ऐसे व्यक्ति को भाई मित्र एवं भागीदारों द्वारा धन की प्राप्ति होती है।

20. बलवान मंगल के साथ यदि चतुर्थेश शनि हो तो व्यक्ति को मातृपक्ष के द्वारा धन की प्राप्ति होती है।

21. गुरु धनु राशि का हो, बुध भाग्य भवन में तथा शनि स्वगृही हो तो जातक अतुल धनवान होता है।

22. राहु, शुक्र, मंगल, शनि 12वें भाव में यानी कन्या राशि में हों तो जातक कुबेर से भी अधिक धनवान होता है।

23. यदि लग्न में वर्गोत्तम नवांश हो और चंद्रमा भी वर्गोत्तम नवांश हो और लग्न को चंद्रमा के अतिरिक्त 4 अन्य ग्रह देखते हो ऐसा जातक अधम से अधम घर में जन्म लेकर भी उत्तम शुभ सुख भोगता है, लक्ष्मीवान होता है।

24. पंचम भाव में शनि बैठा हो तो जातक का पुत्र गोद जाता है। वहां से उसे धन मिलता है।

25. शुक्र यदि केतु सहित द्वितीय भाव में हो तो जातक को निश्चय ही लक्ष्याधिपति बना देता है।

26. षष्टेश का तथा लगनेश का परस्पर परिवर्तन योग बनता हो तो जातक ऋण ग्रस्त रहता है।

27. शुक्र, शनि की युति धनु राशि में हो तथा गुरु की भाग्य भवन से दृष्टि हो, मंगल कर्क का हो तथा सूर्य व बुध चतुर्थ भावस्थ हों तो जातक अतुल धनवान होता है।

28. सूर्य मेष का सप्तम भाव में, चंद्रमा द्वादश भाव में एवम बुध शत्रु भाव में स्थित हो, गुरु की 5वीं दृष्टि चंद्रमा पर हो तो जातक मंत्री बनता है तथा खूब धनोपार्जन करता है।

29. मंगल यदि बलवान हो तो स्त्री पक्ष से अर्थ की प्राप्ति होती है।

30. शुक्र बली हो तो स्त्री संचित धन द्वारा सहायता करें।

31. पंचम स्थान में चंद्रमा हो उस पर शुक्र की दृष्टि हो तो जातक को लॉटरी इत्यादि से यकायक धन मिलता है।

32. लग्नेश धन भाव में हो तथा धनेश अष्टमस्थ हो तो भूमि से धन प्राप्ति होती है।

33. सूर्य, बुध, मंगल व शनि एक साथ 10वें, 5वें, 9वें भाव में हो तो जातक लक्ष्याधिपति होता है।

34. यदि बलवान मंगल पंचमेश शनि के साथ हो तथा द्वितीय भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो ऐसे व्यक्ति को पुत्र द्वारा धन की प्राप्ति होती है यॉ पुत्र जन्म के बाद ही जातक का भाग्योदय होता है।

35. बलवान मंगल की यदि षष्टेश गुरु से युति हो तथा धन भाव शनि से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को शत्रुओं के द्वारा धन की प्राप्ति होती है। ऐसा जातक कोर्ट-कचहरी में शत्रुओं को पराजित करता है तथा शत्रुओं के कारण ही उसे धन व यश की प्राप्ति होती है।

36. बलवान मंगल की शुक्र से युति हो, सप्तम भाव में शुभग्रहों से दृष्ट हो तो ऐसे जातक का भाग्योदय विवाह के बाद होता है तथा उसे पत्नी, ससुराल पक्ष से धन की प्राप्ति होती है।

37. बलवान मंगल की नवमेश बुध से युति हो तो ऐसा जातक राजा से, राज्य पक्ष से सरकारी अधिकारियों, अनुबन्ध (ठेकों) से काफी धन कमाता है।

38. बलवान मंगल की दशमेश चंद्रमा से युति हो तो जातक को पैतृक सम्पत्ति मिलती है। पिता द्वारा सम्पादित धन की प्राप्ति होती है तथा पैतृक व्यवसाय से जातक को लाभ होता है।

39. दशम भवन का स्वामी चंद्रमा यदि छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो तो जातक को परिश्रम का पूरा फल नहीं मिलता। ऐसा जातक जन्म स्थान पर नहीं कमाता, उसे सदैव धन की कमी बनी रहती है।

40. शुक्र यदि छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो एवं सूर्य छठे या आठवें स्थान में हो तो व्यक्ति कर्जदार होता है तथा धन के मामले में कमजोर होता है।

41. धन स्थान में पाप ग्रह हो तथा लाभेश सूर्य यदि छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो तो व्यक्ति दरिद्री होता है।

42. यदि केन्द्र स्थानों को छोड़कर चंद्रमा बृहस्पति से छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो तो शकट योग बनता है। जिसके कारण व्यक्ति को सदैव धन का अभाव रहता है।

43. धनेश मंगल अस्त हो, नीच राशि (कर्क) में हो एवं धन स्थान तथा अष्टम स्थान में कोई पाप ग्रह हो तो व्यक्ति सदैव ऋण ग्रस्त रहता है।

44. यदि लाभेश सूर्य छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो, अस्तगत हो तथा पाप पीड़ित हो तो जातक महादरिद्री होता है।

45. अष्टमेश शुक्र वक्री होकर कहीं भी बैठा हो या अष्टम स्थान में कोई भी ग्रह वक्री होकर बैठा हो तो अकस्मात् धन हानि का योग बनता है। अर्थात् ऐसे व्यक्ति को धन के मामले में परिस्थितिवश अचानक भारी नुकसान हो सकता है।

46. अष्टमेश शुक्र शत्रुक्षेत्री, नीच राशिगत या अस्त हो तो अचानक धन की हानि होती है।

तुला लग्न के योग

तुला लग्न के राजयोग

1. यदि तुलालग्न अपने पूर्णाश पर उच्च के शनि से युक्त हो तो और साथ ही उच्च का एकाकी मंगल चतुर्थ स्थान में हो, उच्च सूर्य सप्तम स्थान में हो और उच्च का बृहस्पति दशम में अपने उच्चांश पर हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

2. उच्च का शनि लग्न में, सप्तम में तथा उच्च का गुरु दशम में हो या उच्च का शनि लग्न में, उच्च का मंगल चतुर्थ में और उच्च का सूर्य सप्तम में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

3. उच्च का शनि लग्न में हो, उच्च का मंगल चतुर्थ में और उच्च का गुरु दशम में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

4. उच्च का शनि लग्न में, उच्च का सूर्य सप्तम में और स्वगृही चंद्रमा दशम में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

5. उच्च का शनि लग्न में और उच्च का बृहस्पति स्वगृही चंद्र के साथ दशम में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

6. उच्च का शनि लग्न में, उच्च का मंगल चतुर्थ और स्वगृही चद्रमा दशम में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

7. उच्च का मंगल चतुर्थ, स्वगृही शनि पंचम, उच्च का सूर्य सप्तम तथा स्वगृही बुध नवम स्थान में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

8. वृश्चिक का मंगल धन स्थान में, मकर का शनि चतुर्थ स्थान में, कर्क का चंद्रमा दशम स्थान में और सिंह का सूर्य एकादश या लाभ स्थान में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

9. वृश्चिक का मंगल धन भाव में, मेष का सूर्य सप्तम भाव में, कर्क का बृहस्पति दशम में और उच्च का शनि लग्न में हो तो जातक राजा के समान ऐश्वर्य एवं वैभव को भोगता है।

10. शुक्र, शनि व गुरु दशम हो; सूर्य, बुध के साथ द्वादश में, मेष का मंगल सप्तम स्थान में; वृष का पूर्ण चंद्रमा अष्टम स्थान में हो जातक बड़ा आदमी बनता है।

11. गुरु तीसरे स्थान में हो, शुक्र छठे स्थान में हो तो शेष सभी ग्रह गुरु व शुक्र के मध्य हों तो यह एक उत्तम राजयोग होता है।

12. व्ययेश बुध 1, 2, 4, 5, 9, 10 भावों में से किसी भाव में हो तो उत्तम नौकरी का योग बनता है।

13. लग्नेश व जन्म राशि का अधिपति केन्द्र में हो तथा शुभ व मित्र ग्रहों से दृष्ट हो, शत्रु और पाप ग्रहों की दृष्टि न हो तथा जन्म राशि के स्वामी से चंद्रमा 9वें भाव में हो तो वह जातक एम. पी. या एम. एल. ए. होता है।

14. गुरु उच्च, त्रिकोण या स्वराशि में स्थिति होकर चंद्रमा को सम्पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो जातक को निश्चय ही मंत्री पद प्राप्त होता है।

15. यदि गुरु, बुध, चंद्रमा 2/5/11 वें भाव में हों, दो ग्रह षष्ट भाव में, शेष दो ग्रह सप्तम भाव में हों तो व्यक्ति राजदूत का पद प्राप्त करता है।

16. शुक्र द्वादश भाव में हो, शनि शत्रु भवन में हो सूर्य, चंद्र लग्न में हो तो जातक खूब धन प्राप्त करता है तथा कुशल नीतिज्ञ मंत्री होता है।

17. सूर्य, शुक्र मकर राशि में चतुर्थ भाव से तथा चंद्र, शनि दशम भाव में हो परस्पर दृष्टि डाल रहे होने से जातक को उत्तम धन योग व राजयोग होता है।

18. उच्च का शनि प्रथम भाव में, उच्च का मंगल चतुर्थ भाव में, उच्च का सूर्य 7वें भाव में हो तो जातक राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है, मंत्री होता है।

19. चंद्र, शनि तथा शुक्र केन्द्र स्थानों में हों लग्नेश मकर राशि का हो, गुरु अष्टम भाव में हो, सूर्य व शुक्र की युति हो तो जातक राज्य में उच्च स्थान प्राप्त करता है।

20. धनु, मीन व लग्न में शनि बैठा हो तो जातक राजा होता है।

21. छठा चंद्रमा जलचर राशि में हो, लग्न में उदित शुभ ग्रह और केन्द्र में पाप ग्रह न हो तो राजयोग होता है।

तुला लग्न के आयुष्य योग

तुला लग्न वालों के लिए मंगल द्वितीयेश होकर भी मारक का कार्य नहीं करेगा। गुरु षष्टेश होने से अशुभ फलदायक है। सूर्य व शुक्र पापी हैं। मंगल साहचार्य से मारक का कार्य करेगा। आयुष्य प्रदाता ग्रह शुक्र है।

1. तुला लग्न में कन्या का सूर्य द्वादश में हो तो ऐसा जातक सौ वर्ष जीता है।

2. लग्न में शुक्र हो तो जातक दीर्घ देह वाला एवं उत्तम आयु को भोगने वाला प्राणी होता है।

3. लग्न में शनि हो, शुक्र या बृहस्पति केन्द्र में हो, सभी पाप ग्रह तीसरे छठे या ग्यारहवें स्थान में हो तो जातक 120 वर्ष की परमायु को भोगता है।

4.  शनि शुक्र के साथ चौथे स्थान मकर राशि में हो तो जातक सौ वर्ष से ऊपर स्वस्थ दीर्घायु को भोगता है।

5. शुक्र एवं गुरु अन्य शुभग्रहों से दृष्ट हो तो जातक सौ वर्ष की स्वस्थ दीर्घायु को प्राप्त करता है।

6. चंद्रमा छठे मीन का हो, अष्टम स्थान में कोई पाप ग्रह न हो तो तथा सभी शुभग्रह केन्द्रवर्ती हों तो जातक 86 वर्ष की स्वस्थ आयु को प्राप्त करता है।

7. शुक्र लग्न को देखता हो तथा सभी शुभ ग्रह केन्द्र में हों तो जातक 85 वर्ष की स्वस्थ आयु को भोगता है।

8. मेष का मंगल दशम भाव को देखता हो तथा बुध एवं शुक्र की युति केन्द्र-त्रिकोण में हो तो जातक 85 वर्ष की आयु प्राप्त करता है। 13.

9. उच्च का बृहस्पति केन्द्र में हो, बुध त्रिकोण में तथा लग्नेश शुक्र बलवान हो तो जातक 80 वर्ष की स्वस्थ आयु भोगता है।

10. मंगल पांचवें कुम्भ का, शनि मेष का, सूर्य सातवें शनि के साथ हो जातक 70 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।

11. शनि लग्न में, मकर का चंद्र चौथे, मंगल स्वगृही सातवें, सूर्य दसवें किसी अन्य शुभ ग्रह के साथ हो तो ऐसा जातक राजातुल्य ऐश्वर्य को भोगता हुआ 60 वर्ष की आयु में गुजर जाता है।

12. अष्टमेश शुक्र सातवें हो तथा चंद्रमा पाप ग्रहों के साथ छठे या आठवें स्थान में हो तो व्यक्ति 58 वर्ष की आयु में गुजर जाता है।

13. लग्नेश शुक्र पाप ग्रहों के साथ आठवें हो तथा षष्टम भाव में चंद्रमा पाप ग्रहों के साथ हो, शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो ऐसा जातक मात्र 45 वर्ष तक ही जी पाता है।

14. लग्न में शनि-मंगल हो, चंद्रमा पाप ग्रहों के साथ आठवें एवं बृहस्पति छठे पाप ग्रहों के साथ हो तो ऐसा जातक राजा तुल्य ऐश्वर्य को प्राप्त करता हुआ 32 वर्ष की अल्पायु को भोगता है।

15. द्वितीय व द्वादश भाव में पाप ग्रह हो, लग्नेश शुक्र निर्बल हो तथा लग्न, द्वितीय या द्वादश भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो जातक मात्र 32 वर्ष की अल्पायु को प्राप्त करता है।

16. बृहस्पति मेष का तथा मंगल मीन का परस्पर घर बदल कर बैठे

तो बालारिष्ट योग बनता है ऐसे बालक की मृत्यु 12 वर्ष के भीतर होती है।

17. बुध यदि छठे हो, लग्न व चंद्रमा कमजोर हो तो बालारिष्ट योग बनता है। उपचार न करने पर ऐसा जातक छ: वर्ष के पूर्व मृत्यु को प्राप्त करता है।

18. शनि सप्तम में नीच का एवं द्वादश भाव में गुरु, शुक्र, राहु हो अन्य शुभ योग न हो तो ऐसा बालक एक वर्ष के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है।

19. सूर्य चौथे, अष्टम में बृहस्पति द्वादश में चंद्रमा हो तथा लग्नेश शुक्र कमजोर हो तो ऐसा बालक जन्म लेते ही शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है।

20. सप्तम भाव में शनि, राहु, मंगल, चंद्र की युति शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो ऐसा बालक शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है।

21. दूसरे स्थान में वृश्चिक का मंगल हो तथा चतुर्थ एवं दशम भाव में भी पापग्रह हो तो ऐसा व्यक्ति बहुत कष्ट से जीता है।

22. सप्तम भाव में शनि के साथ राहु या केतु हो तो ऐसा जातक मातृघातक होता है।

23. लग्नस्थ सूर्य के साथ राहु या केतु हो तो ऐसा बालक मातृघातक होता है।

24. लग्नेश शुक्र एवं मंगल दोनों पाप ग्रहों के मध्य हो, सप्तम में पाप ग्रह हो तथा आत्मकारक सूर्य निर्बल हो तो ऐसा जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या करता है।

तुला लग्न के रोग योग

1. षष्टेश गुरु लग्न में पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति जलस्राव से अंधा होता है।

2. चौथे भाव में पाप ग्रह हो तथा चतुर्थेश शनि पाप ग्रहों के मध्य हो तो जातक का हृदय रोग होता है।

3. चतुर्थेश शनि यदि अष्टमेश शुक्र के साथ अष्टम स्थान में हो तो जातक को हृदय रोग होता है।

4. चतुर्थेश शनि मेष, सिंह या वृश्चिक राशि में हो, निर्बल या अस्तगत हो तो जातक को हृदय रोग होता है।

5. चतुर्थ स्थान में शनि एवं छठे स्थान में सूर्य अन्य पाप ग्रहों के साथ हो तो व्यक्ति को हृदय रोग होता है।

6. चौथे एवं पांचवें भाव में पाप ग्रह हो तो व्यक्ति को हृदय रोग होता है।

7. चतुर्थ भाव में शनि एवं पंचम भाव में कुंभ का सूर्य हो तो जातक को हृदय रोग होता है।

8. चतुर्थ भाव में राहु अन्य पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा लग्नेश शुक्र निर्बल हो तो जातक को असहय हृदय शूल (हार्ट-अटैक) होता है।

9. वृश्चिक का सूर्य दो पाप ग्रहों के मध्य हो तो जातक को तीव्र हृदय शूल (हार्ट-अटैक) होता है।

10. शुक्र, शनि, गुरु की युति एक साथ दुःस्थानों में हो तो जातक की वाहन दुर्घटना से अकाल मृत्यु होती है।

11. लग्न में पाप ग्रह हो, लग्नेश शुक्र बलहीन हो तो व्यक्ति रोगी रहता है।

12. लग्न में क्षीण चंद्रमा बैठा हो, लग्न पाप ग्रह से दृष्ट हो तो व्यक्ति रोगग्रस्त रहता है।

13. अष्टमेश शुक्र लग्न में हो, अष्टम स्थान में कोई पाप ग्रह हो तथा लग्न पर एकाधिक पाप ग्रहों का प्रभाव हो तो ऐसा व्यक्ति दवाई लेने पर भी ठीक नहीं होता, सदैव रोगी रहता है।

14. लग्नेश शुक्र चौथे या द्वादश भाव में मंगल, बुध के साथ हो तो जातक कुष्ट रोग से पीड़ित रहता है।

15. चंद्र, शनि, बृहस्पति, छठे स्थान में हो तो जातक कुष्ठ रोग से पीड़ित रहता है।

16. तुला (चर) लग्न में चंद्रमा पाप ग्रहों के साथ हो, सप्तम में शनि हो तो जातक देवता के शाप या शत्रुकृत अभिचार कर्म से पीड़ित रहता है।

17. षष्टेश बृहस्पति सप्तम या दशम भाव में हो, लग्न पर मंगल की दृष्टि हो तो व्यक्ति शत्रुकृत अभिचार रोग से पीड़ित रहता है।

18. निर्बल चंद्रमा अष्टमा स्थान में शनि के साथ हो तो जातक प्रेत बाधा एवं शत्रुकृत अभिचार रोग से पीड़ित रहता हुआ अकाल मृत्यु को प्राप्त करता है।

तुला लग्न के विवाह योग

1. लग्न में शनि तथा चंद्रमा हो, छठे भवन में शुक्र हो तो जातक राज्य-मान्य, अतिकामी व पत्नी को भोगने वाला होता है।

2. यदि स्त्री की कुण्डली में लग्नेश, सप्तमेश, नवमेश और चंद्र स्थित राशि के स्वामी उत्तम स्थानों में स्थित हों एवम अस्त न हो तो स्त्री भाग्यशालिनी, सुन्दरी, बन्धुओं में पूज्य और पुण्य कर्म करने में कुशल होती है।

3. मंगल द्वितीय स्थान में वृश्चिक राशि का हो, शुक्र भी वृश्चिक राशि में स्थित हो तो जातक की स्त्री आत्महत्या करती है।

4. शनि सप्तम भाव में चंद्रमा के साथ हो तथा लग्न में सूर्य हो तो ऐसे जातक के विवाह में भयंकर बाधा आती है। विलम्ब विवाह तो निश्चित है अविवाह की स्थिति भी बन सकती है।

5. शनि द्वादशस्थ हो, द्वितीय स्थान में सूर्य हो तथा लग्नेश शुक्र निर्बल हो तो जातक का विवाह नहीं होता।

6. शनि छठे हो, सूर्य अष्टम में हो एवं सप्तमेश मंगल बलहीन हो तो ऐसे जातक का विवाह नहीं होता।

7. सूर्य, शनि और शुक्र की युति हो, सप्तमेश मंगल बलहीन हो तो ऐसे जातक का विवाह नहीं होता।

8. शुक्र दशम या लाभ स्थान में हो, शुक्र से द्वितीय या द्वादश स्थान में सूर्य या चंद्रमा हो तो ऐसे जातक का विवाह नहीं होता।

9. द्वितीयेश मंगल वक्री हो अथवा द्वितीय स्थान में कोई भी ग्रह वक्री होकर बैठा हो तो जातक के विवाह में अत्यधिक अवरोध उत्पन्न होता है।

10. राहु या केतु सप्तम भाव या नवम भाव में क्रूर ग्रहों से युक्त होकर बैठे हों तो निश्चय ही जातक का विवाह विलम्ब से होता है। ऐसा जातक प्रायः अन्तर्जातीय विवाह करता है।

11. सप्तमेश मंगल वक्री हो, सप्तम भाव में कोई ग्रह वक्री हो अथवा किसी भी वक्री ग्रह की सप्तम भाव पर दृष्टि हो तो जातक के विवाह में अवरोध आते हैं और विवाह समय पर सम्पन्न नहीं होता।

12. तुला लग्न वालों के लिए शनि का द्वितीयस्थ होना और मंगल का अष्टमस्थ होना अनिष्टकारक है। ऐसे जातक का विवाह नहीं होता। विवाह हो भी जाए तो जातक का वैवाहिक सुख से वंचित रहना पड़ता है।

13. सप्तमेश मंगल यदि शनि से दृष्ट हो तो विवाह में विलम्ब व ससुराल से खटपट रहती है।

14. राहु यदि सप्तम भाव में मंगल की राशि में हो तो ऐसी स्त्री को वैधव्य दुःख भोगना पड़ता है।

15. चंद्रमा चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो, पाप ग्रह केन्द्र में हो शुभ ग्रह उन्हें न देखते हो तो ऐसी स्त्री विवाह के पूर्व अन्य पुरुषों से संसर्ग करती है।

16. सप्तम भावस्थ मंगल पर शनि की दृष्टि हो तो जातक में प्रबल कामवासना होती है। यदि ऐसे मंगल के साथ राहु हो तो जातक अपने आश्रम में रहने वाली सेविका से यौन संबंध रखता है।

17. सप्तमेश मंगल यदि चर राशि में हो तो स्त्री का पति परदेश में रहेगा। ऐसे में यदि बुध व शनि सप्तम भाव में हो तो स्त्री का पति नपुंसक होगा।

18. मंगल आठवें हो तो स्त्री मृगनयनी एवं कुटिल होती है। ऐसी स्त्री प्रेम विवाह करती है तथा स्वच्छंद यौनाचार में विश्वास करती है।

19. लग्नस्थ सूर्य और मंगल यदि शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो ऐसी स्त्री विधवा होती है।

20. द्वितीयेश मंगल शनि से युत हो एवं शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो, तो ऐसी स्त्री व्याभिचारिणी होती है।

21. चंद्रमा यदि (1/3/5/7/9/11) राशि में हो तो ऐसी स्त्री पुरुष की तरह कठोर स्वभाव वाली एवं साहसिक प्रकृति की महिला होती है।

22. सप्तमेश मंगल यदि चर राशि (1/4/7/10) में हो तो ऐसी स्त्री का पति निरन्तर प्रवास में रहता है।

23. तुला लग्न में उत्पन्न कन्याएं सुन्दर होती हैं। यदि चंद्रमा लग्न में हो तो ऐसी स्त्री पति की प्रिया प्राण-वल्लभा होती है।

24. स्वगृही शुक्र लग्न में हो तो “दिभार्या योग” बनता है। ऐसा जातक दो नारियों के साथ रमण करता है।

25. सप्तमेश मंगल द्वितीय या द्वादश भाव में हो तो पूर्ण व्यभिचारी योग बनता है। ऐसा पुरुष जीवन में अनेक स्त्रियों से सम्भोग करता है।

तुला लग्न में संतान योग

1. शनि पांचवें स्थान में बैठा हो तो पांच पुत्र होते हैं।

2. पंचमेश शनि आठवें हो तो जातक के अल्प सन्तति होती है।

3. पंचमेश शनि अस्त हो या पाप ग्रस्त होकर छठे, आठवें या बारहवें हो तो व्यक्ति के पुत्र नहीं होता।

6. पंचमेश शनि लग्न (तुला राशि) में हो, गुरु से युत या दृष्ट हो तो जातक की प्रथम सन्तति पुत्र ही होता है।

7. पंचमेश शनि कुम्भ राशि का हो तो जातक के पांच पुत्र होते हैं।

8. पंचमेश शनि लग्न में हो एवं लग्नेश शुक्र पंचम में परस्पर परिवर्तन करके बैठे हों तो जातक दूसरों की सन्तान गोद में लेकर अपने पुत्र की तरह पालता है।

9. पंचमेश शनि पंचम, षष्ठ या द्वादश भावों में हो तो “अनपत्य योग” बनता है। ऐसे जातक को पुत्र सन्तान नहीं होती। पर उपाय करने से इस योग की शांति हो जाती है।

10. राहु, सूर्य एवं मंगल पंचम भाव में हो तो ऐसे जातक को शल्य चिकित्सा द्वारा कष्ट से पुत्र सन्तान की प्राप्ति होती है। आज की भाषा में ऐसे बालक को “सिजेरियन चाइल्ड” कहते हैं।

11. पंचमेश शनि कमजोर हो तथा राहु एकादश में हो तो जातक को वृद्धावस्था में सन्तान की प्राप्ति होती है।

10. पंचम स्थान में राहु, केतु या शनि इत्यादि पापग्रह हो तो गर्भपात अवश्य होता है।

11. लग्नेश शुक्र द्वितीय स्थान में हो तथा पंचमेश शनि पापग्रस्त या पाप पीड़ित हो तो जातक के पुत्र उत्पन्न होने के साथ नष्ट हो जाता है।

12. पंचमेश यदि वृष, कर्क, कन्या या तुला राशि में हो तो जातक को प्रथम सन्तति के रूप में कन्या रत्न की प्राप्ति होती है।

13. तुलालग्न में पंचमेश शनि की सप्तमेश मंगल से युति हो तो जातक को प्रथम सन्तति के रूप में कन्या रत्न की प्राप्ति होती है।

14. चंद्रमा सिंह राशिस्थ हो तथा गुरु स्वराशि (9, 12) में हो तथा पाप व शुभ ग्रह 1/4/7/10 स्थानों में हो तो जातक सन्तान को नाश करने वाला होता है।

15. जातक की कुण्डली में यदि गुरु, शुक्र और चंद्रमा तीनों मीन राशि में हों तो उसकी पत्नी के पुत्र अधिक होते हैं।

16. समराशि (2, 4, 6, 8, 10, 12) में गया हुआ बुध कन्या सन्तति की बाहुल्यता देता है। यदि चंद्रमा और शुक्र का भी पंचम भाव पर प्रभाव हो तो यह योग अधिक पुष्ट हो जाता है।

17. पंचमेश निर्बल हो, लग्नेश शुक्र भी निर्बल हो तथा पंचम भाव में राहु हो तो जातक के सर्पदोष के कारण पुत्र सन्तान नहीं होती। ऐसे जातक को वंश की वृद्धि की चिन्ता एवं मानसिक तनाव रहता है।

18. पंचम भाव में राहु हो और एकादश स्थान में स्थित केतु के मध्य सारे ग्रह हों तो पद्यनामक “कालसर्प योग” के कारण जातक के पुत्र सन्तान नहीं होती। ऐसे जातक को वंश वृद्धि की चिन्ता एवं मानसिक तनाव रहता है।

19. सूर्य अष्टम हो, पंचम भाव में शनि हो, पंचमेश राहु से युत हो तो जातक को पितृ दोष होता है तथा पितृ शाप के कारण पुत्र सन्तान नहीं होती ।

20. लग्न में मंगल, अष्टम में शनि, पंचम में सूर्य एवं बारहवें स्थान में राहु या केतु हो तो ” वंशविच्छेद योग” बनता है। ऐसे जातक के स्वयं का वंश समाप्त हो जाता है। आगे पीढ़ियां नहीं चलतीं।

22. चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो तथा चंद्रमा जहां बैठा हो उससे आठवें स्थान में पाप ग्रह हो तो “वंशविच्छेद योग” बनता है ऐसे जातक के स्वयं का वंश समाप्त हो जाता है, उसके आगे पीढ़ियां नहीं चलतीं।

23. तीन केन्द्रों में पाप ग्रह हो तो व्यक्ति को “इलाख्य नामक” सर्पयोग बनता है। इस दोष के कारण जातक को पुत्र सन्तान का सुख नहीं मिलता।

24. पंचमेश पंचम, षष्ठ या द्वादश भाव में हो तथा पंचम भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो “अनपत्य योग” बनता है ऐसे जातक को निर्बीज पृथ्वी की तरह सन्तान उत्पन्न नहीं होती पर उपाय से दोष शांत हो जाता है।

25. जिस स्त्री की जन्म कुण्डली में सूर्य लग्न में और शनि यदि सातवें हो, अथवा सूर्य-शनि का युति सातवें हो तथा दशम भाव पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो “अनगर्भा योग” बनता है ऐसी स्त्री गर्भधारण योग्य नहीं होती।

26. पंचमेश मिथुन या कन्या राशि में हो, बुध से युत हो, पंचमेश और पंचम भाव पर पुरुष ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक को “केवल कन्या योग” होता है। पुत्र सन्तान नहीं होती।

28. जिस स्त्री की जन्म कुण्डली में शनि-मंगल छठे या चौथे स्थान में हो तो “अनगर्भा योग बनता है ऐसे स्त्री गर्भधारण करने योग्य नहीं होती।

29. शुभ ग्रहों के साथ सूर्य, चंद्रमा यदि पंचम स्थान में हो तो “कुलवर्द्धन योग ” बनता है। ऐसी स्त्री दीर्घजीवी, धनी एवं ऐश्वर्यशाली सन्तानों को उत्पन्न करती है।


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