अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय
घटनाओं का स्वरूप भुक्तिनाथ तथा दशानाथ से पीड़ित अंगों द्वारा
इस विषय का एक और नियम यह है कि वे भाव आदि दो अंग जो पापी दशानाथ तथा पापी भुक्तिनाथ दोनों से प्रभावित हों, अपने स्वरूप से घटनाओं के अनिष्ट स्वरूप को दर्शायेंगे। इस सिद्धांत को समझने के लिए निम्नलिखित कुण्डली संख्या 11 को लीजिए।

इसकी श्रेणी दैवी है, क्योंकि लग्न तथा चन्द्र लग्न के स्वामी चन्द्र तथा सूर्य एक ही दैवी श्रेणी में आते हैं। यहाँ राहु और शनि जो दोनों पापी एवं पृथकताजनक ग्रह हैं, न केवल पूर्ण दृष्टि से नवम भाव को देख रहे हैं अपितु अपनी युति द्वारा अपना पृथकताजनक प्रभाव नवमेश पर भी डाल रहे हैं।
अतः स्पष्ट है कि राहु की दशा तथा शनि की भुक्ति में अथवा शनि की दशा और राहु की भुक्ति में इस व्यक्ति को नवम भाव सम्बन्धी बातों से पृथक् हो जाना चाहिए। हुआ भी यही राहु की महादशा में और शनि की भुक्ति में इस व्यक्ति को धन्धे में ही सब कुछ खो देना पड़ा।
गुरु ऊपर दी हुई जन्मकुण्डली में भाग्य भाव का स्वामी भी है और धन का कारक तो वह है ही। इस प्रकार गुरु दो रूपों में धन का प्रतिनिधित्व करता है। उसका शनि और राहु पापी पृथकताजनक ग्रहों द्वारा भाग्य भवन के साथ-साथ मार खाना यही अर्थ रखता है कि भाग्य तथा धन में महान् हानि हो।
उदाहरण का निष्कर्ष यह है कि राहु तथा शनि पापी दशानाथ तथा भुक्तिनाथ ने दो प्रतिनिधित्व रखने वाले अंगों अर्थात् भाग्य, भाग्येश, धनकारक पर पड़कर, साझे तथ्य अर्थात् धननाश की घटना का द्योतक सिद्ध कर दिया।
यह नियम कि भावादि दो भाग जो दशानाथ तथा भुक्तिनाथ दोनों से पीड़ित हों अपने साझे स्वरूप से घटनाओं का स्वरूप दर्शाते हैं – निम्नलिखित कुण्डली संख्या 12 पर भी लागू होती है। इस कुण्डली में चन्द्र द्वितीय भाव में है। चन्द्रमा भी आँख है और दूसरा भाव भी आँख दोनों मिलकर मानो आँख के क्षेत्र (Region) की सृष्टि कर रहे हैं। यह प्रभावित क्षेत्र है और प्रभाव करने वाले दो ग्रह हैं-राहु और केतु।

अतः जब प्रभावक ग्रहों की दशाभुक्ति आए तो आँख को हानि पहुँचनी चाहिए। हुआ भी यही इस व्यक्ति की आँखें जन्म के शीघ्र बाद जाती रहीं।
अब आप देखेंगे कि यहाँ लग्न में सूर्य है, अतः घटनायें प्रबल रूप से घटेंगीं, क्योंकि ग्रह दो लग्नों से एक ही तथ्य के प्रतिनिधि बन जावेंगे। इसीलिए यहाँ धन स्थान न केवल लग्न से द्वितीय है, अपितु सूर्य लग्न से भी द्वितीय है। अतः द्वितीय भाव तथा चन्द्र को जो हानि होगी वह निश्चित होगी; उसमें सन्देह न होगा।
अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि शास्त्र में लिखा है कि शुभ दृष्टि से बुरे योग हट जाते हैं। यहाँ एक महान् शुभ ग्रह गुरु द्वितीय भाव तथा चन्द्र दोनों को अपनी पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। फिर क्या कारण है कि आँखें जाती रहीं और वह भी शिशु अवस्था में ? ज्योतिष के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर होना चाहिए। हाँ, इस प्रश्न का शास्त्र के पास उपयुक्त उत्तर है।
देखिए, जन्मकुण्डली में गुरु का आधिपत्य । गुरु, सूर्य तथा शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी है, अतः इसकी दृष्टि में शुभता के स्थान पर पापत्व है। अतः यह गुरु भी अपनी दृष्टि से वहीं अनिष्ट कार्य करेगा जोकि राहु और केतु अपनी दृष्टि आदि से करना चाहते हैं। अर्थात् आँख का नाश यह भी स्मरण रहे कि इस कुण्डली में आँख का कारक चन्द्र, पक्षबल पे अतीव निर्बल है, क्योंकि वह सूर्य के समीप है और फिर आँख के प्रतिनिधियों-द्वितीय भाव तथा चन्द्र पर मंगल की अशुभ दृष्टि भी विद्यमान है।
पापी दशानाथ तथा पापी भुक्तिनाथ से पीड़ित; परन्तु प्रतिनिधित्व पूर्ण दो अथवा दो से अधिक ज्योतिष के अंग (भाव तथा भाव स्वामी) किस प्रकार पीड़ित पदार्थ द्वारा घटना के स्वरूप को व्यक्त करते हैं, इसका उदाहरण साथ की कुण्डली संख्या 13 भी है। यह कुण्डली एक स्त्री की है। इस स्त्री की मृत्यु गोली लगने से हुई और यह दुर्घटना राहु की महादशा में शनि की भुक्ति में हुई।

जब हम राहु और शनि के प्रभाव को देखते हैं तो पता चलता है कि कोई लग्नेश इनके पाप प्रभाव से नहीं बच पाया; क्योंकि शनि की पूर्ण दृष्टि लग्न पर है, लग्नेश सूर्य पर है, चन्द्र लग्न के स्वामी पर है।
रह गया चन्द्र लग्न और सूर्य लग्न का स्वामी। चन्द्र लग्न पर तो दशानाथ राहु का युति प्रभाव है और सूर्य लग्न का स्वामी मंगल, दशानाथ राहु और भुक्तिनाथ शनि के मध्य में स्थित है।
इस प्रकार दशानाथ राहु तथा भुक्तिनाथ शनि का प्रभाव तीनों लग्नों और उनके तीनों स्वामियों पर है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि राहु की महादशा में और शनि के अन्तर् में लग्नों को बड़ा भारी धक्का लगेगा और शरीरान्त हो सकता है।
शरीरान्त गोली लगने से ही क्यों हुआ ? इस प्रश्न पर भी थोड़ा विचार कर लें। इस कुण्डली में भुक्तिनाथ शनि षष्ठेश है और छठा स्थान चोट आदि का होता है – यह सर्वविदित ही है। इतना ही नहीं; शनि मंगल अधिष्ठित राशि मकर का भी स्वामी है; दूसरे शब्दों में शनि में मंगल का चोट देने वाला प्रभाव भी विद्यमान है। अतः भुक्तिनाथ शनि ने अपने प्रभूत अनिष्टकारक प्रभाव से लग्नों को अर्थात् शरीर को चोट पहुंचाई। यह स्पष्ट दिखाई देता है।
निःसन्देह दशानाथ तथा भुक्तिनाथ जिन दो अथवा दो से अधिक प्रतिनिधित्व रखने वाले अंगों पर प्रभाव डालते हैं, घटनाएँ उनके सम्बन्ध में घटती हैं; परन्तु प्रभावक पापी ग्रह भी यदि एक ही तत्व के प्रतिनिधि हों तो उस तत्व द्वारा उक्त घटना घटती है।
इस सन्दर्भ में निम्नलिखित कुण्डली का अध्ययन कीजिए। यह जन्म कुण्डली उस व्यक्ति की है जिसको सूर्य की महादशा में और शनि की भुक्ति में आग लग गई थी। यहाँ सूर्य तो अग्निमय ग्रह है ही, वह एक और अग्निमय ग्रह केतु के साथ स्थित है। उधर भुक्तिनाथ शनि भी सूर्य तथा केतु (अग्निमय ग्रह) अधिष्ठित राशि का स्वामी होने से अग्नि रूप हो रहा है।

अब आइये देखें इन अग्निमय ग्रहों का प्रभाव। सूर्य तथा केतु तो अपने केन्द्रीय प्रभाव द्वारा चन्द्र लग्न तथा उसके स्वामी को पीड़ित कर रहे हैं और शनि न केवल चन्द्र लग्न तथा उसके स्वामी को अपितु सूर्य लग्न को तथा लग्नेश को अपने अग्निमय प्रभाव में ले रहा है। अतः सूर्य की महादशा में और शनि की भुक्ति में शरीर का कष्ट पाना और वह आग लग जाने से दशानाथ तथा भुक्तिनाथ के अग्निमय स्वरूप से यहाँ प्रकट हो रहा है।
इस तथ्य को और स्पष्ट रूप से दर्शाने के लिये कि पापी दशानाथ तथा भुक्तिनाथ जब किन्हीं ऐसे प्रतिनिधित्व रखने वाले अंगों पर प्रभाव डालते हों तो उन अंगों में कष्ट उत्पन्न करते हैं और वह कष्ट उस धातु से सम्बद्ध होता है जिस धातु के दशानाथ तथा भुक्तिनाथ – दोनों प्रतिनिधि हों। अर्थात् व्यापक नियम यह हुआ कि इधर दो भावादि अंग (Factors) भी शरीर के एक ही अवयव के प्रतिनिधि हों। इस तथ्य को यहाँ दी गई कुण्डली संख्या 15 से अध्ययन कीजिये।

राहु की महादशा तथा शनि की भुक्ति में इस व्यक्ति को लकवा (Facial Paralysis) हो गया। लकवा एक दिमाग की नसों का रोग है जिसके कि शनि तथा राहु दोनों प्रतिनिधि हैं। स्पष्ट है कि नसात्मक शनि तथा नसात्मक राहु का प्रभाव यदि दिमाग तथा मुंह पर पड़ रहा हो और दिमाग के दिखाने वाले भावादि प्रतिनिधित्व रखते हों तो रोग हो जावेगा।
इस कुण्डली में देखिये राहु का लग्नों पर कितना व्यापक प्रभाव हैं। राहु लग्न को पंचम दृष्टि से देख रहा है, चन्द्र को भी पंचम दृष्टि से देख रहा है। लग्नाधिपति तथा चन्द्रलग्नाधिपति गुरु को राहु अपनी युति से पीड़ित कर रहा है। गुरु, सूर्य लग्नाधिपति होता हुआ भी राहु द्वारा पीड़ित है। कोई भी लग्न अथवा उसका स्वामी राहु की दृष्टि अथवा युति से नहीं बच पाया।
इधर कालपुरुष की दूसरी राशि वृषभ तथा उसके स्वामी शुक्र पर केतु, राहु का प्रभाव है और द्वितीयाधिपति मंगल पर शनि का इस प्रकार दिमाग और मुख पर नसों द्वारा रोग का प्रभाव देखने में आया। यही कारण था कि राहु की दशा तथा शनि की भक्ति में मुंह का लकवा हुआ।
राहु और शनि का स्नायुओं (Nerves) पर आपने प्रभाव देखा जो इन दोनों ग्रहों का साझा (Common) धर्म है। इसी प्रकार राहु और सूर्य में पृथकताजनक प्रभाव भी साझा है। इस पृथकताजनक प्रभाव को हम अगली कुण्डली संख्या 16 में देखेंगे।

यहॉ राहु की महादशा में तथा शनि की भुक्ति में कुटुम्ब में अचल सम्पत्ति के बँटवारे का प्रश्न उपस्थित हुआ और यह बँटवारा भी हुआ। अब देखिये राहु और सूर्य दोनों पृथकताजनक ग्रह किन प्रतिनिधित्व रखने वाले भावादि पर अपना यह अनिष्ट प्रभाव डाल रहे हैं। चूँकि दोनों पंचम स्थान में स्थित है; अतः दोनों का प्रभाव पंचम भाव पर है।
यदि दोनों का प्रभाव पंचमेश पर भी हो तो पीड़ित अंग पंचम भाव का पूरा प्रतिनिधित्व कर पायेगा। राहु और सूर्य का यह पृथकताजनक प्रभाव गुरु पर भी है, क्योंकि राहु और सूर्य गुरु से दशम केन्द्र में स्थित हैं; बल्कि गुरु पर तो शनि की युति का भी पृथकताजनक प्रभाव पहले से ही उपस्थित है।
पंचम भाव तथा पंचमेश पर पृथकताजनक प्रभाव के फलस्वरूप राहु तथा सूर्य ने कुटुम्ब की जायदाद का बटवारा करवा दिया। कुटुम्ब द्वितीय स्थान है और कुटुम्ब की जायदाद वहाँ से चतुर्थ भाव अर्थात् पंचम भाव । जैसे हमारी सम्पत्ति जायदाद हमारे भाव (लग्न) से चतुर्थ है; इसी प्रकार कुटुम्ब की जायदाद कुटुम्ब भाव से चतुर्थ है।
नैसर्गिक पापी दशानाथ तथा भुक्तिनाथ किस प्रकार अपने प्रभाव को अष्टम भाव अथवा उसके स्वामी पर डालकर विदेश यात्रा की स्थिति उत्पन्न करते हैं, यह तथ्य हम कुण्डली संख्या 17 के अध्ययन से जान सकते हैं। यह कुण्डली एक महिला की है जिसको राहु की दशा में तथा शनि की भुक्ति में विदेश यात्रा करनी पड़ी।

महादशानाथ पापी राहु की नवम दृष्टि अष्टम भावाधिपति गुरु पर है जो कि पहले ही षष्ठ स्थान में नीच राशि का होकर केतु तथा सूर्य से युक्त होकर काफी पीड़ित है। शनि का प्रभाव चन्द्र लग्न से अष्टम अष्टमेश पर भी है।
अस्तु, इस प्रकार राहु तथा शनि दशानाथ तथा भुक्तिनाथ ने अपना पृथकताजनक प्रभाव अष्टम भाव तथा उसके स्वामी पर डालकर विदेश यात्रा की स्थिति को उत्पन्न किया।
जब महादशानाथ केतु हो और भुक्तिनाथ केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो उस केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी को भी केतु की ही भाँति एक पाप ग्रह मान लेना चाहिए।
इस स्थिति में यदि केतु और केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी दोनों कुण्डली के किन्हीं भाव आदि को, जो एक ही वस्तु अथवा तथ्य के प्रतिनिधि हों, पीड़ित करें तो केतु की दशा में और केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी की भुक्ति में उस वस्तु अथवा तथ्य संबंधी घटना घटेगी। इस सिद्धान्त का उदाहरण हमको कुण्डली संख्या 18 में मिलता है।

यहाँ केतु अपनी पञ्चम दृष्टि से लग्न को सप्तम दृष्टि से चन्द्र को नवम दृष्टि से सूर्य को पीड़ित कर रहा है। मानो, केतु इस बात की प्रतीक्षा में है कि कोई भुक्तिनाथ ऐसा आवे जो मेरे इन लग्नों को पीड़ा पहुँचाने के कार्य में मेरा सहयोग दे।
यह कार्य शुक्र कर रहा है; क्योंकि एक तो केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी होने से शुक्र केतु रूप ही है; दूसरे शुक्र मंगल से अपनी युति द्वारा केतु का पापी मारणात्मक प्रभाव मंगल में डाल रहा है।
मंगल भी उधर आयु का प्रतिनिधि है, क्योंकि वह अष्टम तथा तृतीय, दो आयुष्य स्थानों का स्वामी है और लग्न की ही भाँति आयुरूप है।
अतः केतु की महादशा में तथा केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी शुक्र की भुक्ति में लग्नों और अष्टम आदि भावों के पीड़ित होने के फलस्वरूप इस मनुष्य की आयु पीड़ित हो गई अर्थात् उसकी मृत्यु हो गई।
आधार रूप से देखा जावे तो शुक्र कन्या लग्न के लिए मारकेश है ही और उसकी एक पापी ग्रह मंगल के साथ एक अनिष्ट स्थान (छठे ) में स्थिति शुक्र की भुक्ति में मारकेश का काम करती है।
एक और बात इस कुण्डली (18) में नोट करने योग्य यह है कि इस व्यक्ति की मृत्यु पेट में घाव (Ulcer) होने के कारण हुई। जरा देखिये कि अष्टमेश मंगल अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव से किस प्रकार मरण विधि को जतला रहा है। मंगल पर तीन ग्रहों का प्रभाव है। उसको शुक्र की युति है तथा शनि और गुरु की दृष्टि शुक्र तो सूर्य लग्न से पञ्चमेश है। शनि लग्न से पञ्चमेश है और गुरु चन्द्र लग्न से पञ्चमेश है अतः स्पष्टतया पञ्चम भाव अर्थात् पेट ही मृत्यु का कारण बन रहा है।
एक ही दशा तथा भुक्तिनाथ द्वारा
जब दशा और भुक्ति एक ही ग्रह की चल रही है और वह ग्रह पाप प्रभाव से पीड़ित हो तो वह दशा एवं भुक्तिनाथ अपनी पीड़ा द्वारा घटना के स्वरूप का बोध करवा देता है।
उदाहरण के लिए कुण्डली संख्या 19 को लें। यह कुण्डली एक लड़की की है। लड़की की मृत्यु 22 वर्ष 4 मास 2 दिन की आयु में हुई जबकि शुक्र की महादशा तथा शुक्र की ही भुक्ति चल रही थी। इस लड़की की मृत्यु जलने से हुई ।

यदि वृषभ लग्न के आधार पर शुक्र की दशा में शुक्र की भुक्ति का फल कहा जावे तो कैसे सम्भव है कि कोई व्यक्ति स्वक्षेत्री शुभ लग्नाधिपति की दशा भुक्ति में मृत्यु को कहेगा। इसलिए यहाँ कर्क लग्न लेकर फल कहना होगा; क्योंकि कुण्डली की श्रेणी दैवी है और सूर्य और चन्द्र कर्क स्थित हैं। जब हम कर्क लग्न से फल कहेंगे तो शुक्र एक पापी ग्रह बन जावेगा क्योंकि वह चुतर्थाधिपति तथा लाभाधिपति होगा। तब यह केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी तथा पापी युक्त शनि से मृत्यु देने योग्य होगा ।
जब हम शुक्र पर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान से अध्ययन करते हैं तो हम देखते हैं कि एक तो अग्निमय केतु शुक्र से दशम केन्द्र में विद्यमान होकर अपना अग्निमय प्रभाव शुक्र पर डाल रहा है, दूसरे केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी शनि भी केतु ही के अग्निमय प्रभाव को शुक्र पर डाल रहा है।
वही अग्नि का रूप शनि अपनी दृष्टि द्वारा सूर्य तथा चन्द्र लग्नों और उनके स्वामियों पर भी अपनी दृष्टि द्वारा आग बरसा रहा है। अस्तु, दशा तथा भुक्तिनाथ शुक्र पर पड़े साझे (Common) प्रभाव ने मृत्यु के ढंग को भी बता दिया ।
ऊपर की पंक्तियों में हमने ऐसी कुण्डलियों का अध्ययन किया जहाँ दशा तथा भुक्ति एक ही ग्रह की चल रही थी; परंतु ऐसा भी सम्भव है कि जब दशा और भुक्ति दो भिन्न ग्रहों की चल रही हो और वे दोनों ग्रह सुदर्शन पद्धति के अनुसार लग्नों से एक ही भाव के स्वामी बनते हों, उस स्थिति में भी, यदि वे दो ग्रह पीड़ित हों तो घटना उस भाव से सम्बद्ध होगी जिसके कि वे दशानाथ तथा भुक्तिनाथ स्वामी हैं।
उदाहरणार्थ निम्नलिखित कुण्डली संख्या 20 में गुरु की महादशा तथा बुध की भुक्ति में विदेश यात्रा करनी पडी, जैसा कि हम अन्यत्र लिख चुके हैं। अष्टम भाव तथा उनके स्वामी के पीड़ित होने से विदेश यात्रा का योग बनता है। यहाँ महादशानाथ गुरु चन्द्र लग्न से अष्टमेश है और बुध लग्न से अष्टमेश । ये दोनों अष्टम स्थान तथा उसके स्वामी पीड़ित हैं।

चन्द्र से अष्टम स्थान पर शनि तथा मंगल दो पापी ग्रहों का प्रभाव है और लग्न से अष्टम पर मंगल की युति तथा केतु-सूर्य का पापमध्यत्व है। फिर गुरु के एक ओर सूर्य-शनि हैं और दूसरी ओर मंगल-शनि केतु का प्रभाव। इस प्रकार गुरु पाप-मध्यत्व में है और बुध तो शनि-सूर्य के साथ है ही।
इस प्रकार परीक्षण करने पर विदित हुआ कि दशानाथ तथा भुक्तिनाथ ऐसे दो भावों के स्वामी होकर पीड़ित हैं जो कि एक ही तथ्य अर्थात् विदेश यात्रा के प्रतिनिधि हैं, अतः विदेश यात्रा करवाते हैं।
जब महादशा तो लग्न के मित्र किसी शुभ ग्रह की चल रही हो और वह बलवान् हो; परन्तु भुक्ति ऐसे ग्रह की हो जो कि लग्न का शत्रु हो तो फल कैसा रहेगा? यहाँ लग्न का शत्रु ग्रह जिसकी भुक्ति है, यदि अतीव निर्बल पापयुक्त पापदृष्ट हो तो उत्तम फल की प्राप्ति होती है। इस विषय का उदाहरण कुंडली संख्या 21 में देख सकते हैं।

जातक गुरु की महादशा में तथा शुक्र की भुक्ति में डिफेंस सेक्रेटरी के पद पर आरूढ़ हुआ। महादशानाथ गुरु तो तीनों लग्नों का मित्र होकर लाभ स्थान में बहुत बलवान् है और शुभ फल देने को उद्यत है। शुक्र भुक्तिनाथ है। तीनों मंगल के शत्रु हैं; परन्तु मंगल के पापमध्यत्व में, राहु से दृष्ट, शनि से दृष्ट, और किसी भी शुभ ग्रह से दृष्ट नहीं है। शुक्र का इस प्रकार से अतीव पीड़ित होना बहुत अच्छा है क्योंकि इससे शुक्र के पापत्व का नाश होकर विपरीत राजयोग की सृष्टि हुई है।
लग्न के दो शत्रु – दशानाथ तथा भुक्तिनाथ द्वारा
जब दो ऐसे ग्रहो की दशा और भुक्ति चल रही हो जो दोनों के दोनों लग्नेश के शत्रु हों तो मनुष्यों को आर्थिक कष्ट के साथ-साथ शारीरिक कष्ट की भी प्राप्ति होती है। उदाहरण के लिए संलग्न कुण्डली संख्या 22 को लें। बुध की महादशा तथा शुक्र की भुक्ति में इस व्यक्ति के पिता को महान् शारीरिक कष्ट हुआ। नवम भाव पिता का होता है। उसमें मंगल की राशि मेष है।

अतः स्पष्ट है कि मंगल के शत्रुओं की दशा तथा भुक्ति मंगल को अर्थात् पिता को कष्ट पहुँचायेगी; विशेषतया इस कारण भी कि बुध और शुक्र निर्बल भी हैं। बुध, शनि राहु ग्रहों के साथ होने से और शुक्र शत्रु राशि में स्थित होने तथा पापमध्यत्व में होने से। शुक्र पर ‘पाप-मध्यत्व’ एक ओर शनि आदि की स्थिति से तथा दूसरी ओर सूर्य मंगल के प्रभाव से उत्पन्न हो रहा है।
कर्क लग्न की कुण्डलियों का उल्लेख करते हुए देवकेरलकार ने पृष्ठ 42 पर लिखा है- ‘लाभाधिपदशाकाले शनिभुक्तौ महाविपत्’ अर्थात् जब लाभाधिपति अर्थात् शुक्र की दशा हो और शनि की भुक्ति हो तो कर्क लग्न वालों को महान् विपत्ति सहनी पड़े। सम्भवतया ग्रन्थकार ने यह अनिष्ट फल शुक्र और शनि की कर्क लग्न के स्वामी चन्द्र के प्रति शत्रुता को दृष्टि में रखते हुए लिखा है।
लग्न के शत्रु दशानाथ तथा भुक्तिनाथ किस प्रकार अनिष्टकारी होते हैं। इस संदर्भ में एक और उदाहरण कुण्डली संख्या 23 लीजिए। इस व्यक्ति को 44 वर्ष की आयु में महान् शारीरिक कष्ट हुआ। उस समय शनि की दशा में बुध की भुक्ति थी। लग्नेश सूर्य होने के कारण तथा सूर्य-लग्न वृश्चिक होने के कारण लग्न तथा सूर्य-लग्न एक ही दैवी श्रेणी के हैं।

अतः इस कुण्डली में आसुरी ग्रहों की दशा तथा भुक्ति शारीरिक अनिष्ट को देगी, क्योंकि दोनों आसुरी ग्रह दैवी लग्नों के शत्रु होंगे। शनि की मारक स्थान में स्थिति और बुध का मारकेश (द्वितीयेश) होना दशानाथ तथा भुक्तिनाथ दोनों को मारक बना रहा है।
मृत्यु से बचाव इस कारण हो गया कि आयु खण्ड दीर्घ है, क्योंकि गुरु अपने शुभ प्रभाव को आयु के कई अंगों पर डाल रहा है। गुरु अपनी स्थिति द्वारा अष्टम भाव को अपनी सप्तम दृष्टि द्वारा आयुष्य-कारक शनि को, अपनी नवम दृष्टि द्वारा सूर्य को तथा लग्नेश को बल प्रदान कर रहा है। चन्द्र-लग्नेश पर भी इसकी शुभ दृष्टि है। चन्द्र लग्न से अष्टमेश को भी गुरु देख रहा है। अस्तु, लग्न के शत्रुओं की दशाभुक्ति अरिष्ट देती है यह सिद्ध हुआ।
लग्न के मित्र दशानाथ तथा भुक्तिनाथ द्वारा
लग्नों के शत्रु ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में लग्नों को अर्थात् धन तथा शरीर आदि को हानि पहुँचाते हैं और इसके विपरीत लग्नों के मित्र ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में इन्हीं बातों अर्थात् धन तथा शरीर को बाहुल्य तथा पुष्टि प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये एक कुण्डली संख्या 24 देखिये। आपने राहु की महादशा तथा शनि की भुक्ति में मंत्री पद प्राप्त किया।

चूँकि इस कुण्डली में लग्नेश शनि तथा सूर्य-लग्नाधिपति शुक्र दो लग्नों के स्वामी मित्र हैं, तथा यह कुण्डली आसुरी श्रेणी की है और इसी कारण आसुरी ग्रह शनि आदि बहुत शुभ फलदायी सिद्ध हुए। राहु तो छाया ग्रह है। इसे तो शुक्र ही का फल करना है जिसके साथ यह स्थित है और शुक्र भी लग्न के लिए योग कारक है। अतः राहु तथा शनि इस कुण्डली में लग्नों के मित्र रूप से कार्य करने के कारण-धन, मान, प्रतिष्ठा, विजय आदि लग्न-प्रदिष्ट शुभ राजयोग का फल करेंगे।
अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रुदरफोर्ड हेज को (Ruther Ford Hayes) शनि की दशा तथा शुक्र की भुक्ति में अमरीका का राष्ट्रपति चुना गया। उनकी कुण्डली संख्या 25 में तीनों लग्ने अर्थात् लग्न, सूर्य-लग्न तथा चन्द्र-लग्न आसुरी श्रेणी में आती हैं, क्योंकि तीनों लग्नों के स्वामी आसुरी श्रेणी के ग्रह-बुध तथा शुक्र हैं और वे परस्पर मित्र है।

अतः स्पष्ट है कि आसुरी ग्रह शनि तथा शुक्र इस कुण्डली में उत्तम फल के करने वाले होंगे। इस विषय में अधिक विचार की आवश्यकता नहीं है।
आप देखेंगे कि शुक्र ने, यद्यपि वह नीच राशि में स्थित है, उत्तम फल दिया। इसका कारण यही है कि शुक्र तीनों लग्नों से योगकारक तथा शुभ ग्रह है।
शनि अर्थात् दशानाथ भी नीच है; परन्तु बहुत बलवान् है। शनि के बलवान् होने में चार कारण हैं। एक तो यह ग्रह प्रमुख उपचय स्थान अर्थात् एकादश स्थान में स्थित है जहाँ की स्थिति ग्रह को सदा बलवान् करती है। दूसरे यह वक्री है। ग्रह का वक्री होना उसको उच्चता से अधिक बल प्रदान करना है। तीसरे यह अपनी राशि मकर को पूर्ण दशम दृष्टि से देख रहा है और चौथे शनि सब लग्नों से योगकारक तथा शुभ है। इस प्रकार दशानाथ तथा भुक्तिनाथ – दोनों ग्रह लग्नों के बली मित्र होने के कारण शुभप्रद सिद्ध होते हैं।
पापी दशानाथ की भुक्ति द्वारा
जब किसी नैसर्गिक पापी ग्रह की दशा चल रही हो और उसी ग्रह की भुक्ति भी हो तो देखना चाहिए कि वह ग्रह किसी भी लग्न, अष्टमेश तथा कारक को प्रभावित तो नहीं कर रहा। यदि कर रहा हो तो उस लग्न-प्रदिष्ट सम्बन्धी को महान् शारीरिक कष्ट इस दशा भुक्ति में कहना चाहिए बल्कि उस सम्बन्धी की मृत्यु तक भी सम्भव है।

इस नियम का उदाहरण कुण्डली संख्या 26 है। इस व्यक्ति की माता की मृत्यु उसकी तीन वर्ष की ही आयु में हो गई। यह घटना राहु की महादशा तथा राहु ही की भुक्ति में हुई। अब राहु को देखिए। वह अपनी युति से माता के कारक चन्द्र को पीड़ित कर रहा । माता के भाव (चतुर्थ) से अष्टम अर्थात् माता की आयु स्थान में स्थित होकर उसको हानि पहुँचा रहा है।
अपनी पंचम दृष्टि से उस भाव के स्वामी शुक्र को भी पीड़ित कर रहा है और केतु तथा शनि से मिलकर चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी पर पाप मध्यत्व भी बना रहा है। इस प्रकार माता के भाव चतुर्थ, उसके स्वामी, उसके कारक, उसके अष्टम (आयु) भाव – सभी पर राहु अपनी दशा तथा भुक्ति द्वारा पाप प्रभाव डालता हुआ माता की मृत्यु का कारण बन रहा है।
यह भी आप देखेंगे कि माता का भाव अर्थात् चतुर्थ भाव तथा उसका स्वामी पहले ही निर्बल हैं, क्योंकि चतुर्थ भाव में क्रूर पापी मंगल विद्यमान है जिसमें असाधारण क्रूरता है, क्योंकि मंगल स्वामी है केतु तथा शनि अधिष्ठित राशि का, और वही मंगल माता की आयु (अष्टम) स्थान अर्थात् कुण्डली के एकादश स्थान को भी पूर्ण अष्टम दृष्टि से देख रहा है।
यह भी ध्यान रहे कि राहु की जो पंचम दृष्टि शुक्र पर पड़ रही है उसमें शनि का पाप प्रभाव भी सम्मिलित है और यह बात भी है कि शुक्र जो इतना पाप प्रभाव में तथा नीच एवं निर्बल है, माता के भाव से तृतीयेश तथा अष्टमेश दोनों है, अर्थात् माता की आयु का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है।
इस प्रकार केवल एक ही पापी ग्रह ने अपनी दशा तथा भुक्ति में माता की आयु का प्रतिनिधित्व करने वाले विविध अंगों को पीड़ित कर उसकी आयु को समाप्त कर दिया।
एक ही नैसर्गिक शुभ ग्रह की दशा भुक्ति द्वारा
जब किसी नैसर्गिक शुभ ग्रह की दशा चल रही हो और भुक्ति भी उसी नैसर्गिक शुभ ग्रह की हो और वह अपनी युति अथवा अपनी दृष्टि द्वारा किसी एक विशेष भाव, उसके स्वामी तथा उसी भाव के कारक तीनों को प्रभावित कर रहा हो तो उस दशा-भुक्ति में प्रभावित भाव से सम्बन्धित घटनाएँ घटित होती हैं।

उदाहरणार्थ – कुण्डली संख्या 27 को लीजिए। विवाह की समस्या का विचार सप्तमाधिपति तथा सप्तम भाव, सप्तम भाव के कारक शुक्र (स्त्री) द्वारा सर्वदा किया जाता है। देखिए यहाँ गुरु अपनी युति द्वारा सप्तम भाव को अपनी दृष्टि (सप्तम दृष्टि) द्वारा सप्तमेश चन्द्र को, और अपनी नवम तथा सप्तम दृष्टि (स्त्री) कारक शुक्र को प्रभावित कर रहा है। अतः गुरु की दशा और गुरु ही की भुक्ति में इस व्यक्ति का विवाह हो गया।
लग्नेश की दशा में अन्य भुक्तियों द्वारा
प्रायः देखा गया है कि लग्नेश की महादशा में जिन-जिन भुक्तियों का फल होता है वह फल स्पष्ट और निश्चित रूप से मनुष्य को मिलता है। यह स्पष्टतया निश्चित रूप से अधिक मात्रा में अनुभव में आता है जबकि लग्नेश दो लग्नों का स्वामी हो जावे – जैसे कि लग्न में सूर्य अथवा चन्द्र अथवा दोनों की स्थिति से होगा।

एक उदाहरण कुण्डली संख्या 28 को लें। इसमें चन्द्र न केवल स्वयं लग्न रूप है, बल्कि लग्नेश तथा सूर्य-लग्न का स्वामी भी है। अतः चन्द्र की महादशा में भुक्तियों का फल विशेष रूप से प्रभावजनक रहा।
चन्द्र-दशा, चन्द्र भुक्ति में व्यक्ति को पंचम भाव द्वारा (जिसमें चन्द्र स्थित है) प्रदर्शित सिनेमा आदि आमोद-प्रमोद का जीवन मिला। चन्द्र-दशा मंगल-भुक्ति में मंगल के राजयोग का फल आफिसर ग्रेड की प्राप्ति हुई।
चन्द्र-दशा राहु-भुक्ति में राहु ने अपनी विनाशकारी तथा पृथकताजनक वृत्ति का खूब परिचय दिया और चतुर्थ तथा चतुर्थेश पर प्रभाव के कारण चतुर्थ (जन्मभूमि) से सदा के लिए पृथक् कर दिया। चन्द्र-दशा तथा गुरु भक्ति में ऋण स्थान के स्वामी ने लग्न में बैठकर ऋणग्रस्त कर दिया।
चन्द्र-दशा शनि-मुक्ति ने आर्थिक कठिनाइयों की सृष्टि की, क्योंकि शनि सब लग्नों का शत्रु है। लग्न से सप्तम का स्वामी होने से तटस्थ, परन्तु अष्टम भाव का स्वामी होने से अनिष्टकारी तथा निर्धनतादायक बन गया।
चन्द्र की महादशा में केतु की भक्ति ने खूब मानसिक व्यथा दी जो कि राज्य सम्बन्धी थी, क्योंकि चन्द्र स्वयं एक राज्य द्योतक ग्रह है और सूर्य (राज्य) अधिष्ठित राशि का स्वामी है। यह स्वाभाविक था, क्योंकि जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं, चन्द्र में राहु अथवा राहु में चन्द्र, चन्द्र में केतु अथवा केतु में चन्द्र सदा मानसिक चिन्ता उत्पन्न करते हैं, चाहे इनकी स्थिति कुण्डली में कहीं भी हो।
चन्द्र-दशा शुक्र-भुक्ति में पुनः आफिसर ग्रेड की प्राप्ति अर्थात् उन्नति, धन, मान में वृद्धि हुई जिससे यह भी स्पष्ट हो गया कि यद्यपि महर्षि पराशर के मौलिक नियमों के अनुसार एकादशाधिपति पापी माना जाता है, परन्तु यह पापत्व स्वास्थ्य सम्बन्धी समझना चाहिए न कि धन, पदवी सम्बन्धी।
सूर्य भुक्ति में राज्य की ओर से मान प्राप्त हुआ। भाव यह है कि प्रतिनिधित्व रखने वाले लग्नेश की महादशा में विविध भुक्तियों का फल निश्चित और प्रचुर होता है।
भावेश की दशा में भावेश युक्त राहु की भुक्ति द्वारा
चूँकि राहु एक छाया ग्रह है औ र उसी ग्रह का फल देता है जिसके साथ यह स्थित हो अथवा जिस ग्रह के प्रभाव में हो। यह स्पष्ट है कि जब ऐसे भावेश की दशा चल रही हो जिस भावेश के साथ राहु स्थित है तो राहु भी भावेश का ही फल करेगा।

उदाहरण के लिए देखिए कुण्डली संख्या 28 ही में शुक्र की महादशा और राहु की भुक्ति में इस व्यक्ति का भाग्योदय हुआ और इसे सरकारी नौकरी प्राप्त हुई। शुक्र लाभेश है, अतः लाभ देता है। हम बहुत स्थानों पर लिख चुके हैं कि लाभाधिपति यद्यपि अपनी दशा तथा भुक्ति में शरीर सम्बन्धी अनिष्ट कर दे, परन्तु यह लाभ भी देता है। यहाँ शुक्र लाभाधिपति होने से लाभ दे रहा है और राहु अपनी भुक्ति ही का लाभफल दे रहा है।
चूंकि राहु पर एक ओर राजकीय ग्रह चन्द्र का प्रभाव है और दूसरी ओर मंगल आदि राजकीय ग्रह है। अतः नौकरी सरकारी हुई। वैसे भी लग्न व लग्नेश पर राजकीय ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति को राज्य सेवक (Govt. servant) बना रहा है।
दशाफल रहस्य
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