दशाफल देखने के लिये सुदर्शन का प्रयोग

इस अध्याय में हम विंशोत्तरी दशा का प्रयोग कुण्डली में करने के लिए निर्दिष्ट नियमों में सबसे आवश्यक और मौलिक नियम का उल्लेख करने जा रहे हैं और वह नियम है सुदर्शन का नियम।

हम यह बात भली प्रकार जानते हैं कि केन्द्र त्रिकोण का स्वामी योगकारक ग्रह अपनी दशा तथा भुक्ति में बहुत अच्छा फल देता है; परन्तु कभी ऐसा भी हो सकता है कि ऐसा योगकारक ग्रह शुभ फल न दे और एक अन्य ग्रह जिसके विषय में हमें स्वप्न में भी ध्यान नहीं था कि अच्छा फल देगा वह बहुत अच्छा शुभ फल कर जावे। इस विरोध का क्या कारण है ? क्या फलित ज्योतिष के नियमों में कोई दोष है ? नहीं; कदापि नहीं। बात यह है कि हमारी निरीक्षण विधि में दोष रह जाता है।

हमारा ज्योतिषशास्त्र एक स्वर से कहता है कि लग्नें तीन होती हैं।

  • एक तो जन्म लग्न अर्थात् वह राशि जो जन्म समय; जन्म-स्थान के पूर्वीय क्षितिज पर उदय हो रही होती है।
  • दूसरी चन्द्र लग्न अर्थात् वह राशि जहाँ जन्म समय में चन्द्रमा स्थित हो और
  • तीसरी सूर्य लग्न अर्थात् वह राशि जहाँ जन्म समय में सूर्य स्थित हो।

हम बहुधा केवल जन्म-लग्न से फल देखते हैं और चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न की अवहेलना कर जाते हैं। इसका फल यह होता है कि हमारा फलादेश बहुधा असत्य निकलता है।

इस असत्य फलादेश का कारण समझने के लिए उदाहरण लीजिए। जैसे किसी व्यक्ति की जन्म लग्न कर्क राशि को लग्न मानकर शनि की महादशा तथा भुक्ति का फल कहेंगे तो आपको कहना होगा कि शनि चूँकि सप्तम तथा अष्टम भाव का स्वामी है; अतः पाराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ फल करेगा; परन्तु आपका ऐसा कहना वास्तविकता न होगा। शनि अवश्य धन आदि का उत्तम फल करने वाला होगा ।

हमें देखना चाहिए कि चन्द्र लग्न मकर है और सूर्य लग्न तुला । शनि इन दोनों लग्नों से योगकारक ग्रह है। इधर दो लग्नों से शनि अतीव शुभ निकल रहा है, उधर एक लग्न से अशुभ। दो की बात मानी जावे अथवा एक की। इस बहुमतवाद ! के जमाने में बहुमत को ही अपनाना श्रेयस्कर होगा। अतः यदि कर्क लग्न की कुण्डली में ऐसी स्थिति में शनि शुभ फल देता है तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

कहने का तात्पर्य यह है कि कुण्डली पर विचार करते समय जब दशा विचार का समय आए तो सबसे प्रथम यह देखना आवश्यक है कि हम किन दो अथवा तीन लग्नों को आधार मानकर फलादेश कहेंगे ?

उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम लग्नों को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। एक श्रेणी दैवी है और दूसरी आसुरी । दैवी श्रेणी में वे सारी लग्नें सम्मिलित समझी जावेंगी जिनके स्वामी सूर्य, चन्द्र, मंगल व गुरु हों (5, 4, 1, 8, 9, 12) और आसुरी श्रेणी में वे सब लग्नें सम्मिलित समझी जावेंगी जिनके स्वामी शनि, शुक्र व बुध हों (10, 11, 2, 7, 3, 6)

इस श्रेणी विभाग के पीछे जो सिद्धांत रखा गया है वह यह है कि एक ही श्रेणी के सभी ग्रह प्रायः परस्पर मित्र हैं और दूसरी श्रेणी के ग्रहों के शत्रु । अतः एक श्रेणी में जो ग्रह योगकारक है वह उस श्रेणी की प्रत्येक लग्न में या तो योगकारक है अथवा अतीव शुभ । इसी प्रकार जो अशुभ ग्रह हैं वे भी एक श्रेणी की सभी लग्नों के लिए अशुभ हैं ।

यदि तीनों की तीनों लग्नें एक ही श्रेणी में पड़ जाती हैं, फिर तो ‘लग्नों’ में चुनाव का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है; परन्तु यदि जन्म लग्न एक प्रकार की हो और चन्द्र तथा सूर्य लग्नें दूसरे प्रकार अथवा श्रेणी की हों तो ऐसी स्थिति में यह प्रश्न अवश्य उपस्थित हो जावेगा कि किस लग्न से विचार किया जावे।

जन्मकुण्डली संख्या 1

उदाहरण के जन्मकुण्डली संख्या 1 को लें। यहाँ जन्म लग्न तुला चन्द्र-लग्न भी तुला और सूर्य लग्न भी तुला है। अतः लग्नें एक ही आसुरी श्रेणी की हैं। अतः यहां श्रेणी के चुनाव का प्रश्न नहीं है ।

जब हम कहते हैं कि किसी कुण्डली की लग्नें आसुरी श्रेणी की हैं तो ऐसा कहने से हमारा तात्पर्य यह कदापि नहीं होता कि वह मनुष्य आसुरी स्वभाव अथवा प्रकृति का है । यह नाम तो हमने केवल विंशोत्तरी दशा के दृष्टिकोण से ग्रहों की मुख्य प्रकृति को ध्यान में रखते हुए रखे हैं।

 परन्तु यदि आप कुण्डली संख्या 2 का अवलोकन करें तो आप देखेंगे कि इसमें जन्म लग्न मीन है जिसका स्वामी गुरु है जोकि दैवी श्रेणी में आता है और शेष दो लग्नें अर्थात् सूर्य तथा चन्द्र लग्नें ‘आसुरी’ श्रेणी में हैं, क्योंकि इनका स्वामी शुक्र आसुरी श्रेणी का ग्रह है ।

कुण्डली संख्या 2

अब यदि इस कुण्डली में मीन लग्न के फल कहेंगे तो फल बहुधा असत्य निकलेगा और यदि तुला लग्न से फल कहा जाएगा तो फलादेश सत्य निकलेगा, क्योंकि तुला सूर्य लग्न भी है और चन्द्र लग्न भी है। अर्थात् तुला के पक्ष में दो मत हैं और मीन के पक्ष में एक ।

यह बात तो सरलता से ही समझ में आ जाती है कि जब किसी कुण्डली में तीनों की तीनों लग्नें एक श्रेणी की हों तो राजयोग करने वाले ग्रहों का फल बहुत प्रबल रूप में बहुत शुभता से हमारे सामने आवेगा, क्योंकि वह शुभ ग्रह तीनों ही लग्नों से शुभ होगा। यही सुदर्शन पद्धति में लग्नों द्वारा दशा विचार का अभिप्राय है ।

पं. जवाहरलाल नेहरू की कुण्डली

उदाहरणार्थ स्वतन्त्र भारत के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की कुण्डली में जन्म लग्न और चन्द्र लग्न तो कर्क है और सूर्य लग्न वृश्चिक है। चूँकि चन्द्र तथा मंगल (सूर्य लग्न का स्वामी) परस्पर मित्र हैं, इसीलिए कुण्डली की सभी लग्नें एक ही श्रेणी दैवी श्रेणी की हैं।

अतः मंगल का दिया या बनाया हुआ राजयोग कोई साधारण सा या बलवान् होता तो भी पंडित जी को किसी ऊँचे पद पर पहुँचा देता; परन्तु मंगल न केवल तीन लग्नों से योगकारक है, अपितु अतीव बलशाली ग्रह भी वह कैसे ? देखिए, एक तो मंगल अपनी राशि मेष को पूर्ण अष्टम दृष्टि से देख रहा है और इसलिए वह राज्य भाव जिसमें कि उसकी वह राशि स्थित है बहुत बल पा रही है, यहाँ तो न केवल दशम भाव को दशमेश देख रहा है बल्कि उस भाव पर एक नहीं, दो नहीं, तीन शुभ ग्रहों शुक्र, बुध तथा गुरु की पूर्ण दृष्टि भी है। तात्पर्य यह है कि मंगल यदि एक लग्न से योग-कारक होता तो पंडित जी को उतना ऊँचा न उठा पाता जितना कि वह तीन लग्नों से योग-कारक होकर कर रहा है।

अतः विंशोत्तरी दशा के प्रयोग करने से पहले सबसे अधिक आवश्यक और पहला काम हमारा यह होना चाहिये कि हम देखें कि अधिकांश लग्नें किस श्रेणी की हैं – देवी की अथवा आसुरी की । उसके अनन्तर ही हमें योग-कारक आदि ग्रहों को निश्चित करना चाहिए और तदनुसार फल कहना चाहिए।

अब हम एक और उदाहरण कुण्डली संख्या 4 लेते हैं जहाँ जन्म लग्न तो एक श्रेणी की है और सूर्य तथा चन्द्र लग्नें दूसरी श्रेणी की।

कुण्डली संख्या 4

यह कुण्डली एक क्लर्क की है जिसने शुक्र की दशा तथा शनि की भुक्ति में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । यदि हम कुम्भ लग्न के आधार पर शुक्र की दशा में शनि की भुक्ति पर विचार करेंगे जैसा कि हम बहुधा (भ्रमवश करते हैं तो कोई कारण दिखाई नहीं देता कि शुक्र की दशा और शनि की भुक्ति में क्यों नौकरी छोड़ी जावे; क्योंकि कुम्भ लग्न के लिए शुक्र और शनि दोनों ही योगकारक ग्रह हैं।

परन्तु यह सत्य है कि नौकरी से इस्तीफा दिया गया। तो हमें इस समस्या का कोई न कोई समाधान ढूँढना होगा। वह समाधान महर्षि पराशर की सुदर्शन-पद्धति प्रस्तुत करती है। देखिये, यदि हम लग्नों पर विचार करें तो देखेंगे कि सूर्य-लग्न तो सिंह है और चन्द्र-लग्न वृश्चिक । उनके स्वामी सूर्य और मंगल परस्पर मित्र हैं और दैवी श्रेणी में आते हैं। अतः दो लग्नें तो दैवी श्रेणी की और एक आसुरी की है।

अतः हमें शुक्र की दशा और शनि की भुक्ति का फल सिंह तथा वृश्चिक लग्नों से कहना चाहिए न कि कुम्भ से। जब हम सिंह लग्न से अथवा वृश्चिक लग्न से शुक्र की दशा और शनि की भुक्ति पर विचार करेंगे तो पता चलेगा कि शुक्र और शनि दोनों के दोनों इन लग्नों के स्वामियों के शत्रु हैं।

अतः उनकी दशा-अन्तर्दशा में आर्थिक अनष्टि का होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि भुक्तिनाथ शनि, धन्धा द्योतक चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न दोनों का शत्रु होता हुआ अपनी भुक्ति में उनको अपनी युति तथा दृष्टि द्वारा हानि पहुँचा रहा है और वही शनि चन्द्र लग्न से दशम भाव तथा दशमाधिपति तथा राज्य कारक सूर्य सभी पर अपनी दृष्टि डाल रहा है। वही शनि, सूर्य लग्न से दशम भाव पर भी अपनी दृष्टि डाले हुए है और उस दशम स्थान के स्वामी शुक्र को भी भुक्तिनाथ होने के नाते पीड़ित कर रहा है।

यह सिद्धान्त कि भुक्तिनाथ का सदा सर्वदा दशानाथ पर प्रभाव रहता है, एक सत्य सिद्धान्त है जिसका अध्ययन विशद रूप से हम आगामी किसी अध्याय में करेंगे। अभी तो आप समझ लें कि भुक्तिनाथ शनि का शुक्र पर प्रभाव अवश्य है और इसलिए वृषभ राशि, जिसका कि शुक्र स्वामी है, पीड़ित होकर सूर्य से दशम भाव को हानि पहुँचा रहा है। इस प्रकार लग्नों से दशम भावों का शनि के पृथकताजनक प्रभाव में आ जाने के कारण दशम भाव प्रदर्शित राज्य सेवा से पृथक् होना पड़ा।

एक और उदाहरण कुण्डली संख्या 5 से इस श्रेणी विभाग के इस सिद्धान्त को समझिये । इस लड़की को उन्माद (Lunacy) रोग हो गया। उन्माद का रोग शुक्र की महादशा में तथा शनि की भुक्ति में आरम्भ हुआ। शुक्र जो कि मकर लग्न के लिए एक योगकारक ग्रह है, अपनी दशा में क्यों इस प्रकार का रोग दे और शनि जो इस कुण्डली में लग्नाधिपति है, क्यों यह भयानक रोग दे – ये विचारणीय प्रश्न हैं।

कुण्डली संख्या 5

अब आइये, कुण्डली की अन्य लग्नें भी देखें। सूर्य लग्न तो सिंह है और चन्द्र लग्न मीन। दोनों के स्वामी, सूर्य तथा गुरु परस्पर मित्र हैं, अतः अधिकांश लग्नें दैवी श्रेणी की हैं। इसलिए फल सिंह तथा मीन लग्न से कहना चाहिए, न कि मकर लग्न से।

जब हम चन्द्र लग्न से शुक्र पर विचार करते हैं तो इसे तृतीय तथा अष्टम भाव का स्वामी पाते हैं और उसी शुक्र को सूर्य लग्न से विचार करने पर तृतीयेश तथा दशमेश पाते हैं। दोनों ही दशाओं में शुक्र पाराशरीय पद्धति में पापी ठहरता है।

इसी प्रकार शनि पर जब हम चन्द्र लग्न से विचार करते हैं तो इसे एकादशेश तथा द्वादशेश पाते हैं और सूर्य लग्न से षष्ठेश, सप्तमेश यहाँ भी शनि पापी ठहरता है। अतः शुक्र और शनि, दोनों सूर्य तथा चन्द्र लग्नों से पापी हैं।

उनकी स्थिति भी रोगजनक है, क्योंकि शनि सूर्य से सप्तम (मारक स्थान) और चन्द्र से द्वादश है और शुक्र सूर्य से द्वितीय (मारक स्थान) और चन्द्र से सप्तम (मारक स्थान) में हैं। अतः दोनों रोगप्रद ग्रह हैं। अतः यदि हम यहाँ शुक्र तथा शनि का विचार मकर लग्न से करते हैं तो एक मौलिक भूल करते हैं।

कुण्डली संख्या 6

एक और उदाहरण कुण्डली संख्या 6 लीजिए। यह व्यक्ति सूर्य की महादशा में तथा चन्द्र के अन्तर में मृत्यु को प्राप्त हुआ । यहाँ जन्म लग्न का स्वामी शुक्र, सूर्य लग्न का स्वामी बुध तथा चन्द्र लग्न का स्वामी शुक्र है। तीनों परस्पर मित्र हैं। और आसुरी श्रेणी में आते हैं। अतः यहाँ सूर्य तथा चन्द्र सभी लग्नों के शत्रु होंगे। अतः उन की दशा-भुक्ति में अनिष्ट का होना युक्तियुक्त होगा ।

इस अध्याय में जिस बात पर हम बल देना चाहते हैं वह यह है कि जब किसी ज्योतिष की समस्या का तीनों लग्नों से और यदि वह एक ही श्रेणी की न हों तो दो लग्नों से निरीक्षण किया जाता है तो वह निरीक्षण बहुत सत्य उतरता है और इसलिए यदि जन्म लग्न की श्रेणी सूर्य तथा चन्द्र की श्रेणी से इतर हो तो कुण्डली का फल सूर्य तथा चन्द्र लग्न से कहना चाहिए।

इसी सुदर्शन पद्धति का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि जब दशा-नाथ तथा भुक्तिनाथ का तीनों की तीनों से लग्नों से एक ही भाव से युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध होता हो तो घटना उस भाव से सम्बन्ध रखती है और प्रभाव के गुण-दोष के अनुसार फल होता है।

उदाहरणर्थ प्रस्तुत कुण्डली संख्या 7 में जब गुरु की महादशा थी और बुध की भुक्ति तो यह लड़का घर से भाग गया था। घर से भागने का तात्पर्य है कुटुम्ब से वियोग अथवा पृथकता। अतः इसमें पृथकताजनक ग्रहों-शनि, सूर्य, राहु का तीनों लग्नों के द्वितीय (कुटम्ब) स्थान से युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध होना चाहिए।

कुण्डली संख्या 7

द्वितीय भाव तथा उसका स्वामी बुध न केवल सूर्य युति द्वारा प्रभावित है, बल्कि उसके दोनों ओर भी केतु-अधिष्ठित राशि के स्वामी मंगल तथा राहु का पृथकताजनक प्रभाव है। यह तो हुई बात लग्न से द्वितीय भाव और उसके स्वामी की। सूर्य लग्न से द्वितीय भाव तथा उसका स्वामी शुक्र भी राहु की पृथकताजनक दृष्टि से पीड़ित है।

इस भाव पर जो गुरु की दृष्टि है वह भी पृथकताजनक है, क्योंकि गुरु शनि (पृथक्ताजनक ग्रह) अधिष्ठित राशि का स्वामी है और पृथकताजनक प्रभाव को अपनी दृष्टि द्वारा सूर्य लग्न से द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर डाल रहा है।

रह गई बात चन्द्र लग्न से द्वितीय भाव की, सो वहाँ वही शनि अधिष्ठित राशि का स्वामी गुरु विद्यमान है। इस प्रकार हमने देखा कि तीनों की तीनों लग्नों से द्वितीय भाव कुटुम्ब का प्रतिनिधि होते हुए पृथकताजनक ग्रहों सूर्य आदि के प्रभाव में है और इसलिए कुटुम्ब से पृथकता (घर से भाग जाना) को ला खड़ा कर रहे हैं।

इस सन्दर्भ में स्मरण रहे कि द्वितीय स्थान बालकपन का है। अतः बहुधा इस प्रकार का पृथकताजनक प्रभाव बाल्यावस्था में ही फलीभूत हो जाता है।

निष्कर्ष यह कि शनि और सूर्य के पृथकताजनक प्रभाव में होने के कारण बुध ने अपनी भुक्ति में कुटुम्ब से पृथकता दी। अर्थात् वह कार्य किया जो दशानाथ गुरु चन्द्र से द्वितीय (कुटुम्ब) स्थानों में स्थित होकर कर रहा है।

नैसर्गिक दशा का विंशोत्तरी से सहयोग

अनुभव में देखा गया है कि जीवन के जिस भाग में कोई दशा चल रही हो और उसी भाग का नैसर्गिक स्वामी भी वह दशानाथ ग्रह हो तो जीवन में उस दशा से सम्बन्धित घटनायें विशेष रूप से घटित होती हैं।

ग्रहों की नैसर्गिक दशा वह दशा है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान है और जो चन्द्र की स्थिति विशेष पर निर्भर नहीं करती सभी ग्रहों की नैसर्गिक दशा इस प्रकार है :-

ग्रहअवस्थामनुष्य जीवन में प्रभाव के वर्ष
चन्द्रमा  शिशु1 से 4 तक
बुध  कुमार5 से 16 तक
मंगल तथा केतुनवयुवक17 से 25 तक  
शुक्र  युवक26 से 32 तक
गुरु  अधेड़ आयु33 से 40 तक
चंद्रअधेड़  41 से 45 तक
सूर्य  स्थविर46 से 55 तक
शनि तथा राहु  वृध55 से ऊपर

निष्कर्ष यह कि यदि किसी ग्रह की विंशोत्तरी दशा के वर्ष जीवन में इन नैसर्गिक वर्षों से कुछ काल तक भी मिलते हैं तो उस ग्रह की विंशोत्तरी दशा अच्छी या बुरी खूब प्रबल रूप से फलीभूत होगी।

जैसे मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को शुक्र की दशा 11 वर्ष से 31 वर्ष की आयु तक चली तो चूँकि शुक्र की नैसर्गिक दशा भी 29 से 32 वर्ष की आयु तक रहती है, अतः शुक्र जिन बातों का इशारा अपनी दशा में देता है वे पक्के और निश्चित रूप से घटित होंगी।

दशाफल रहस्य

  1. ज्योतिष के मौलिक नियम
  2. दशाफल देखने के लिये कुछ अनुभूत सूत्र
  3. लग्नों के शुभ अशुभ ग्रह
  4. दशाफल देखने के लिये सुदर्शन का प्रयोग
  5. अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय – 1
  6. अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय – 2
  7. दशाफल रहस्य
  8. दशा और गोचर

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