लग्नों के शुभ अशुभ ग्रह
ग्रहों की दो श्रेणियाँ विख्यात हैं। पहली श्रेणी में नैसर्गिक शुभ ग्रह – गुरु, शुक्र, बुध और चन्द्र हैं और दूसरी श्रेणी में नैसर्गिक पाप ग्रह सूर्य, मंगल, शनि, राहु तथा केतु । परन्तु ग्रहों का यह वर्गीकरण ‘विंशोत्तरी दशा’ में काम नहीं देता या यूँ कहो कि सीधा काम नहीं देता; क्योंकि इस दशा-पद्धति में कभी अच्छे भी बुरे बन जाते हैं और कभी बुरे भी अच्छा फल देते हैं।
कोई ग्रह विंशोत्तरी दशा पद्धति में कैसा फल देगा, इस बात को भली प्रकार समझने के लिए ज्योतिष के पिता महर्षि पराशर की इस पद्धति के मौलिक तथा अनुपम सिद्धान्तों का कुछ परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है। महर्षि ने ग्रहों को चार श्रेणियों में विभक्त किया है। वे इस प्रकार हैं :-
- पहली श्रेणी वह ग्रह जो सदा शुभ फल करते हैं।
- दूसरी श्रेणी वह ग्रह जो सदा अशुभ फल देते हैं।
- तीसरी श्रेणी वह ग्रह जो सदा तटस्थ रहते हैं।
- चौथी श्रेणी वह ग्रह जो कभी शुभ और कभी अशुभ फल करते हैं।
पहली श्रेणी अर्थात् सदा शुभ फल देने वालों में त्रिकोण के स्वामियों का समावेश होता है। कुण्डली में त्रिकोण भाव प्रथम, पंचम तथा नवम हैं। इन भावों के स्वामी यदि नैसर्गिक पापी ग्रह, मंगल, शनि भी हों तो भी वे अपनी दशा भुक्ति में सदा शुभ फल करते हैं । यदि नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र आदि हों तो क्या कहना ।
दूसरी श्रेणी में अर्थात् सदा अशुभ फल देने वालों में तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव के स्वामियों का समावेश होता है। इन भावों के स्वामी यदि नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र आदि भी हों तो भी अशुभ फल करते हैं और यदि नैसर्गिक पापी ग्रह मंगल आदि हो जावें तो फिर अशुभता का क्या कहना ! परन्तु जहां तक हमारा निजी अनुभव है एकादशेश स्वास्थ्य के सम्बन्ध में तो अशुभ है, परन्तु आय (Income) के सम्बन्ध में नहीं ।
तीसरी श्रेणी अर्थात् सदा तटस्थ रहने वालों में केन्द्र के स्वामियों का समावेश होता है अर्थात् चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव के स्वामी । यदि केन्द का स्वामी नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु आदि हो तो वह अपनी नैसर्गिक शुभता को खोकर तटस्थ हो जाता है । परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह अशुभ रूप से ही काम करे। यदि केन्द्र का स्वामी ग्रह नैसर्गिक पापी ग्रह मंगल आदि हो तो वह अपने नैसर्गिक पाप-प्रभाव को छोड़कर तटस्थ हो जाता है। यह ग्रह कब शुभ अथवा अशुभ रूप से काम करता है, इस बात का विवेचन हम आगे करेंगे।
चतुर्थ श्रेणी अर्थात् वह ग्रह जो कभी शुभ और कभी अशुभ फल करते हैं वे हैं जो कि कुण्डली में द्वितीय तथा द्वादश भाव के स्वामी हैं। ये दो ग्रह उस भाव का फल करते हैं जिस भाव में उनके स्वामी की अन्य राशि स्थित हो और यदि द्वितीयेश और द्वादशेश सूर्य अथवा चन्द्र हों तो जिस भाव में उनकी स्थिति हो उसके अनुरूप फल करते हैं। द्वादशाधिपति के सम्बन्ध में विशेष रूप से शास्त्रों में लिखा है कि “द्वादश भाव के स्वामी की महादशा में योगकारक ग्रह की भुक्ति राजयोग का फल करती है”। भाव यह है कि इस शुभ फल में द्वादशेश की महादशा कोई रुकावट उत्पन्न नहीं करती।
इस प्रकार विविध लग्नों में ग्रह विविध प्रकार से किस तरह का फल करेंगे, इस बात का निर्देश हमको उक्त चार प्रकार के श्रेणियों के ग्रहों द्वारा मिल जाता है । आइए, इस निर्देश का प्रयोग करते हुए हम स्वयं देखें कि किस-किस लग्न के लिए कौन-कौन सा ग्रह अच्छा है अथवा बुरा है और क्यों ? स्मरण रहे कि उक्त अच्छा या बुरा फल सदा दशा-भुक्ति में ही प्राप्त होता हैं ।
मेष लग्न के ग्रह
1. सूर्य – सूर्य मेष लग्न वालों का पञ्चमेश होता है अर्थात् एक त्रिकोण का स्वामी होता है। अतः सूर्य नैसर्गिक क्रूर होता हुआ भी शुभ फल करेगा। इसकी दशा अथवा भुक्ति पंचम भाव सम्बन्धी पुत्र प्राप्ति, शुभ मन्त्रणा शक्ति, प्रतियोगिता की परीक्षा में सफलता आदि और निज कारकत्व सम्बन्धी राज्य, मान, यश, सत्ता-प्राप्ति आदि शुभ फल देगी। हाँ, सूर्य का बलवान् होना अनिवार्य है।
2. चन्द्र – नैसर्गिक शुभ ग्रह होकर चन्द्र का चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होना, चन्द्र की शुभता को न्यून करता है; परन्तु यदि चन्द्र पक्ष में बली (सूर्य से दूर) होकर शुभ प्रभाव में है तो शुभ फल करेगा और यदि पक्ष बल में हीन बली है तथा पापयुक्त व पापदृष्ट है तो अशुभ फल का देने वाला होगा । चन्द्र चतुर्थ भाव सम्बन्धी तथा अपने कारकत्व सम्बन्धी शुभ-अशुभ घटनाओं की सृष्टि करेगा ।
3. मंगल – मेष लग्न में मंगल पहले और आठवें भाव का स्वामी बनता है। आठवाँ भाव बहुत अनिष्टकारी है, परन्तु पहला भाव केन्द्र और त्रिकोण होने के नाते अतीव उत्तम राजयोगकारी है। आठवाँ भाव इतना अनिष्टकारी नहीं जितना पहला भाव शुभकारी है। इसके अतिरिक्त मंगल की मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ने से मुख्य फल लग्न का ही रहेगा। अतः अन्तिम परिणाम में मेष लग्न वालों का मंगल बहुत कुछ शुभ ही होता है।
4. बुध – मेष लग्न में बुध तीसरे और छठे भाव का स्वामी होता है । पाराशरीय नियमों के अनुसार इन दोनों भावों का अधिपति अनष्टिकारी होता है। अतः बुध अशुभ फल देता है । जितना-जितना बुध बलवान् होगा उतना उतना आर्थिक अनिष्ट होगा। जितना-जितना यह ग्रह निर्बल होगा उतना उतना स्वास्थ्य के क्षेत्र में हानिकर, धन के क्षेत्र में लाभदायक होगा। यद्यपि बहिन-भाइयों के विषय में निर्बल बुध अच्छा सिद्ध न होगा अर्थात् उनके जीवन तथा उनकी संख्या को न्यून करने वाला होगा।
5. बृहस्पति – मेष लग्न हो तो गुरु नवम और द्वादश भावों का स्वामी बनता है। द्वादशाधिपति होने के कारण गुरु अपनी दूसरी राशि के भाव अर्थात् नवम भाव सम्बन्धी फल करेगा।
अतः यदि गुरु बलवान् हुआ तो राजपुरुषों की कृपा, धर्म में रुचि, ऊँचे विचार, व्यवसाय में उन्नति, कोई दैवी लाभ आदि नवम भाव सम्बन्धी घटनायें घटेंगीं और यदि निर्बल हुआ तो राजपुरुषों द्वारा विरोध, गुरुजनों से विरोध, धर्म में अरुचि, भाग्य में हानि आदि घटनायें घटेंगीं ।
6. शुक्र – मेष लग्न हो तो शुक्र दूसरे और सातवें भाव का स्वामी बनता है द्वितीय भाव का स्वामी होने के नाते शुक्र अपनी अन्य राशि के भाव अर्थात् सप्तम भाव के सम्बन्ध में कार्य करेगा। अतः यदि शुक्र बलवान हुआ तो एक शुभ ग्रह के केन्द्र के स्वामी होने के नाते शुभ न रहेगा। इसलिए शुक्र के आर्थिक क्षेत्र में अच्छा फल करने के लिए आवश्यक होगा कि उस पर अशुभ प्रभाव युति अथवा दृष्टि द्वारा न हो ।
7. शनि – मेष लग्न वालों के लिए शनि दशम तथा एकादश भाव का स्वामी बनता है। दशम केन्द्र का स्वामी होने के कारण शनि की नैसर्गिक अशुभता जाती रहेगी, परन्तु चूँकि शनि पुनः एकादश स्थान का स्वामी होगा जोकि शुभता के लिए अभीष्ट नहीं, अतः शनि अन्ततोगत्वा पाराशरीय नियमों के अनुसार पाप फल देने वाला ही माना जावेगा। परन्तु हमारे विचार में अभी भी यदि शनि बलवान् है तो रुपए-पैसे के विषय में लाभदायक ही सिद्ध होगा ।
वृषभ लग्न के ग्रह
1. सूर्य – सूर्य चतुर्थ ‘भाव’ का स्वामी होता है। एक नैसर्गिक क्रूर ग्रह का केन्द्र भाव का स्वामी होना सूर्य की क्रूरता को दूर कर देता है और इसलिए सूर्य पर थोड़ा-सा भी शुभ प्रभाव सुख, जायदाद, गृह, वाहन आदि समृद्धि करेगा और सूर्य यदि निर्बल तथा पापयुत अथवा पापदृष्ट हुआ तो सूर्य शरीर में व्याधि, दुःख, मानसिक क्लेश, कलह, शत्रुता, वाहन-हानि, गृह-हानि, राज्य से चिन्ता आदि की सृष्टि कर देगा।
2. चन्द्र – चन्द्र तृतीयेश हो जाता है। तृतीयेश अशुभ माना है । यदि चन्द्र पापयुक्त, पापदृष्ट तथा निर्बल होगा तो विपरीत राजयोग बना देगा अर्थात् बहुत धन देगा और यदि बलवान् हुआ तो साधारण फल देगा।
3. मगंल – द्वादश तथा सप्तम भाव का स्वामी होता है। द्वादशेश होने के कारण मंगल अपनी इतर राशि अर्थात् वृश्चिक के भाव अर्थात् सप्तम भाव का फल करेगा। चूँकि मंगल एक नैसर्गिक पाप ग्रह होता हुआ केन्द्र भाव का स्वामी हो जावेगा। इसमें से अशुभता निकल जाएगी।
अतः यदि थोड़ा-सा भी शुभयुत अथवा शुभदृष्ट हुआ तो शुभ फल करेगा और मंगल पर यदि पाप प्रभाव हुआ तो स्त्री, व्यापार, राज्य आदि सप्तम भाव प्रदिष्ट बातों के लिए मंगल हानिकार सिद्ध होगा और स्वास्थ्य की भी हानि करेगा।
4. बुध – वृषभ लग्न हो तो बुध द्वितीय तथा पञ्चम भावों का स्वामी होता है। द्वितीयाधिपति होने के कारण बुध अपनी इतर राशि के घर का अर्थात् पंचम घर का फल करेगा अर्थात् बहुत शुभ फल करेगा। हाँ, इसका बलवान् होना आवश्यक है। यदि निर्बल हुआ तो बुद्धि की हानि, परीक्षा में असफलता, पुत्र की चिन्ता, योजना में असफलता आदि पंचम भाव सम्बन्धी अनिष्ट फल देगा।
5. बृहस्पति – गुरु अष्टम तथा एकादश भाव का स्वामी बनता है। दोनों भाव अनिष्टकारी हैं। अतः गुरु विशेषतया स्वास्थ्य के सम्बन्ध में शुभ फल नहीं करेगा। हाँ, एकादशेश होने के नाते आर्थिक लाभ अवश्य पहुंचावेगा। यह सब कुछ तभी, जब गुरु बलवान् हो । यदि गुरु निर्बल हो तो आय में हानि, बड़े भाई को हानि, पुत्र हानि, धन का नाश, बीमारी आदि अनिष्टकारी घटनायें घटेंगी
6. शुक्र – शुक्र यहाँ लग्नेश तथा षष्ठेश बनता है। लग्नेश शुभ होता है, षष्ठेश अशुभ और फिर यहाँ शुक्र की मूल त्रिकोण राशि तुला षष्ठ (अनिष्ट) स्थान में पड़ती है, अतः शुक्र बहुत कम शुभ फल देता है। बल्कि महर्षि पराशर तो वृषभ लग्न के लिए “जीवशुक्रेन्दवा पापाः” ऐसा कहते हैं । अर्थात् शुक्र को पापी ग्रह मानते हैं। अतः शुक्र तथा छठा भाव यदि निर्वल होंगे तो धन का लाभ रहेगा।
7. शनि – शनि केन्द्र (दशम) तथा त्रिकोण (नवम) का स्वामी होने से पाराशरीय नियमों के अनुसार राजयोग कारक अर्थात् बहुत धन आदि देने वाला होता है। यदि निर्बल हो तो लाभ थोड़ा होता है ।
मिथुन लग्न के ग्रह
1. सूर्य – इस लग्न के लिए सूर्य तृतीयेश हो जाता है। तृतीयेश अशुभ माना जाता है। अतः सूर्य अधिक शुभ फल नहीं करेगा ।
2. चन्द्र – मिथुन लग्न के लिए चन्द्र द्वितीयेश बन जाता है। अतः चन्द्र बलवान् होगा तो बहुत धन देगा, राज्य प्राप्ति व अधिकार देगा और यदि निर्बल हो तो धन नाश, रोग आदि देगा ।
3. मंगल – मिथुन लग्न के लिए मंगल षष्ठेश तथा एकादशेश होता है। दोनों भाव चोट और क्षति पहुँचाने वाले हैं और मंगल स्वयं भी क्षति का कारक है । अतः मंगल विशेष रूप से क्षति पहुँचाने का काम करेगा।
4. बुध – मिथुन लग्न वालों के लिए बुध चतुर्थेश होने के नाते शुभ नहीं कहा जाता, परन्तु चूँकि यह साथ ही लग्नाधिपति भी होता है। अतः अन्तिम परिणाम में बहुत शुभ फल करता है। यदि बुध निर्बल हो तो जातक जनता का शत्रु होता है, सुखहीन होता है।
5. गुरु – मिथुन लग्न वालों के लिए गुरु दो केन्द्रों, सप्तम तथा दशम का स्वामी बनता है। “केन्द्राधिपत्यदोषस्तु बलवान् गुरुशुक्रयोः” के नियम के अनुसार गुरु सर्वथा दोषपूर्ण होगा और षष्ठ, अष्टम, द्वादश, द्वितीय भावों में निर्बल होकर स्थित होने की अवस्था में स्वास्थ्य के लिए अपनी दशा-भुक्ति में बहुत अनिष्टकारी होगा। यदि बलवान् हुआ तो राज्य और पति/पत्नी पक्ष से विशेष लाभ दिलावेगा।
6. शुक्र – मिथुन लग्न के लिए शुक्र द्वादश तथा पंचम भावों का स्वामी बनता है। द्वादशेश होने के नाते शुक्र अपनी इतर राशि के भाव का फल करेगा अर्थात् पञ्चम भाव का। अतः विद्या-सुख, पुत्र-सुख, भाग्य-सुख, आदि प्रदान करेगा और यदि निर्बल हुआ तो इन्हीं बातों की हानि दिलावेगा ।
7. शनि – यहाँ शनि अष्टमेश तथा नवमेश बनता है । अष्टमेश अशुभ होता है । परन्तु चूँकि शनि की मूल त्रिकोण राशि कुंभ नवम भाव में पड़ती है, अतः शनि अन्ततोगत्वा शुभ फल ही करता है, यद्यपि विशेष अच्छा नहीं । हाँ, यदि शुभ-युत, शुभ-दृष्ट हो तो बहुत अच्छा फल देगा ।
कर्क लग्न के ग्रह
1. सूर्य – सूर्य यहाँ द्वितीयाधिपति बनता है । यदि सूर्य बलवान् हो तो राज्य में अधिकार प्राप्ति होती है। आँखों की ज्योति अच्छी रहती है। धन अच्छा रहता है; यदि निर्वल हो तो धन थोड़ा, अधिकार की हानि, कुटुम्ब से पृथकता, आँखों में कष्ट आदि होते हैं ।
2. चन्द्र – कर्क लग्न के लिए चन्द्र लग्नाधिपति बनता है । अतः बहुत शुभ है, और सूर्य से दूर शुभ-युत, शुभ-दृष्ट आदि होता हुआ बलवान् हो तो अतीव शुभ फलदाता होता है और निर्बल हो तो शरीर में कष्ट, छाती में रोग, रक्त विकार, अपयश आदि अनिष्टकारी बातों की प्राप्ति होती है।
3. मंगल – कर्क लग्न के लिए बहुत शुभ फल करने वाला राजयोग कारक ग्रह होता है; क्योंकि यह दशम केन्द्र तथा पञ्चम त्रिकोण का एक साथ स्वामी बन जाता है। लग्न में स्थित नीच मंगल को अशुभ नहीं समझना चाहिए; क्योंकि यह अपनी एक राशि मेष से चतुर्थ शुभ स्थान में और दूसरी राशि वृश्चिक से शुभ स्थान नवम में पड़ता है।
4. बुध – कर्क लग्न के लिए बुध द्वादश तथा तृतीय भावों का स्वामी बनता है । द्वादशेश होने के कारण बुध तृतीय भाव का फल करता है; क्योंकि इसकी इतर राशि कन्या तृतीय भाव में पड़ती है, अतः बुध इस लग्न के लिए अशुभ फलदायक है।
परन्तु यदि पंचम भाव में अशुभयुक्त-दृष्ट हो और किसी शुभ प्रभाव में न हो तो लाखों रुपये की आय देता है, क्योंकि पंचम भाव में इसकी स्थिति, द्वादश से अनिष्ट भाव छठे में और तृतीय में अनिष्ट स्थान तृतीय में होती है जो स्थिति द्वादश तथा तृतीय दोनों भावों के लिए हानिकारक है और बुरे भावों – द्वादश और तृतीय के स्वामियों का निर्बल होना उनकी अभाव-दरिद्रता का नाश करके ऐश्वर्य की सृष्टि करता है ।
5. बृहस्पति – कर्क लग्न के लिए गुरु षष्ठाधिपति तथा नवमाधिपति होता है । इसकी मूल त्रिकोण राशि षष्ठ स्थान में पड़ती है, तो भी षष्ठ इतना बुरा नहीं जितना नवम शुभ है। अतः अन्तिम परिणाम में गुरु कुछ शुभ फल ही करता हैं। जितना अधिक बलवान् होगा उतना अधिक धन, राज्य, धार्मिकता आदि देगा । यदि निर्बल हुआ तो भाग्य में हानि, राज्य की ओर से विरोध, धर्म से विमुखता, गुरुजनों से विरोध रहेगा।
6. शुक्र – यहाँ शुक्र एकादश तथा चतुर्थ भावों का स्वामी होता है । चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने के कारण शुक्र की नैसर्गिक शुभता जाती रहती है और एकादशेश होने से यह अन्तिम रूप से पापफल करने वाला हो जाता है । परन्तु यह पाप फल स्वास्थ्य एवं यौन-सुख सम्बन्धी समझना चाहिए, न कि धन सम्बन्धी । हाँ, यदि शुक्र निर्बल हो तो धन में भी हानि रहती है। शनि की महादशा में शुक्र और शुक्र की महादशा में शनि की भुक्ति इस लग्न वालों को आर्थिक परेशानी तथा यौन रोग दोनों देती है।
7. शनि – केन्द्राधिपति होने के नाते शनि अपनी नैसर्गिक अशुभता छोड़ देता हे परन्तु चूँकि शनि अष्टम भाव (अशुभ) का स्वामी है यह पाप फल ही करता । बलवान् शनि इस लग्न वालों को अपनी दशा-भुक्ति में धन आदि के विषय अनिष्ट फल देता है। इसका सर्वथा निर्बल होना धन अधिक देता है, परन्तु अपने और स्त्री के स्वास्थ्य तथा आयु की हानि करता है।
सिंह लग्न के ग्रह
1. सूर्य – सूर्य लग्नेश होने से केन्द्र और त्रिकोण का एक साथ स्वामी होता । अतः वहुत शुभ फल प्रदाता है। यदि सूर्य बलवान् हो तो अपनी दशा-भुक्ति में बहुत राज्य, धन, स्वास्थ्य लाभ, यश व प्रताप देता है। यदि निर्बल हो तो थोड़ा धन, अपमान आदि देता है।
2. चन्द्र – सिंह लग्न के लिए चन्द्र द्वादशेश बन जाता है। द्वादशेश अपने वल अनुसार कार्य करता है। अतः चन्द्र यदि पक्ष बल में बलवान् हो और शुभ प्रभाव में हो तो बहुत धन, मान, यश व स्वास्थ्य प्रदान करता है। यदि निर्बल हो तो आंख में विकार, व्यय, अपयश, निर्धनता देता है।
3. मंगल – सिंह लग्न के लिए मंगल चतुर्थ केन्द्र का तथा नवम त्रिकोण का स्वामी होता है। अतः राजयोग कारक होता है। अपनी दशा-अन्तर्दशा में मंगल धन, मान, पदवी, भाग्य, सुख सब कुछ देता है। यदि निर्बल हो तो यह फल अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं।
4. बुध – सिंह लग्न के लिए बुध द्वितीयाधिपति तथा एकादशधिपति बनता है द्वितीयाधिपति होने के नाते यह एकादश भाव का फल करता है, अर्थात् स्वास्थ्य के लिए बुरा फल करता है, परन्तु यदि बलवान् हो तो आय के लिए बुरा नहीं और यदि निर्बल हो तो धन की हानि, कुटुम्व से वियोग, अल्प शिक्षा, माता की बड़ी बहन की हानि आदि अनिष्ट फल करने वाला होता है।
5. गुरु – सिंह लग्न के लिए गुरु पंचम और अष्टम भाव का स्वामी बनता है चूँकि इसकी मूल त्रिकोण राशि धनु, पंचम भाव में पड़ती है अतः गुरु सिंह लग्न वालों को अपनी दशा तथा भुक्ति में शुभ फल ही प्रदान करता है; विशेषतया जब बलवान् हो । यदि निर्बल हो तो पुत्र-नाश, भाग्य-नाश, पिता को हानि आदि अनिष्ट फल देने वाला होता है।
6. शुक्र – सिंह लग्न के लिए तृतीय तथा दशम स्थानों का स्वामी होता दशम केन्द्र का स्वामी होने के कारण शुक्र अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठा है और पुनः अशुभ भाव (तृतीय) का स्वामी होकर पाप-फलप्रद हो जाता है। शुक्र का निर्बल होना तथा शुभ-युक्त शुभ-दृष्ट न होना आर्थिक प्राचुर्य देता परन्तु स्त्री के स्वास्थ्य, मित्रों, छोटी बहन तथा राज्य सम्बन्धी विषयों के लिए अनिष्टकर है।
7. शनि – सिंह लग्न के लिए शनि सप्तम व षष्ठ घरों का स्वामी बन जाता है। सप्तम केन्द्र का स्वामी होने से अशुभ न रहा, परन्तु पष्ठेश होने से पुन अशुभ हो गया। अपनी दशा तथा भुक्ति में शनि रोग देता है, ऋणग्रस्त करता है व धन-नाश करता है।
कन्या लग्न के ग्रह
1. सूर्य – कन्या लग्न के लिए सूर्य द्वादशेश बनता है। यदि बलवान् हो और शुभ-युक्त अथवा शुभ-दृष्ट हो तो अच्छा फल करने वाला धन, राज्य, स्वास्थ्य, प्रताप देने वाला होता है । परन्तु यदि निर्बल हो तो अपनी दशा-भुक्ति में आंखो में कप्ट, महान् व्यय देने वाला तथा सरकार से अनिष्ट करवाता है ।
2. चन्द्र – कन्या लग्न के लिए चन्द्र एकादश भाव का स्वामी होता है। यदि बलवान् हो तो बहुत लाभ देता है, परन्तु स्वास्थ्य के क्षेत्र में एकादशेश अच्छा नहीं गिना गया।
3. मंगल – कन्या लग्न के लिए मंगल तृतीय तथा अष्टम भावों का स्वामी होता है। दोनों बुरे भाव हैं, अतः मंगल इस लग्न वालों को अपनी दशा अन्तर्दशा में दरिद्रता तथा कष्ट देता है। बलवान् मंगल आयु अवश्य देता है, परन्तु धनाभाव के साथ । निर्बल मंगल धन के लिए उत्तम, परन्तु आयु कम करने वाला होगा।
दशम स्थान में पड़ा हुआ मंगल बलवान् नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में मंगल अपनी एक राशि मेष से तृतीय भाव में और दूसरी राशि वृश्चिक से अष्टम भाव में होता है। अतः अन्तिम परिणाम में आयु की हानि करता है; परन्तु धन के लिए बुरा सिद्ध नहीं होता । हाँ, धन प्राप्ति के लिए इस पर शुभ प्रभाव न होना चाहिए।
4. बुध – बुध कन्या लग्न के लिए दशमेश तथा लग्नेश होता है। दशमेश अर्थात् केन्द्रेश होने से बुध अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठता है, परन्तु साथ ही साथ चूंकि यह लग्न का भी स्वामी होता है और चूँकि लग्नेश, केन्द्रेश तथा त्रिकोणेश दोनों एक साथ होता है, इसलिए बुध अन्तिम परिणाम में बहुत शुभ फल करने वाला योगकारक ग्रह होता है। शर्त यही है कि बलवान् होना चाहिए। लग्नेश होने के कारण बुध को केन्द्राधिपत्य दोष नहीं लगता ।
5. गुरु – यहाँ गुरु चतुर्थ तथा सप्तम दो केन्द्रों का स्वामी हो जाता है। अतः ‘केन्द्राधिपत्यदोषस्तु बलवान् गुरुशुक्रयोः’ इस पाराशरीय नियम के अनुसार बहुत दोषयुक्त होता है, क्योंकि यह अपनी नैसर्गिक शुभता सर्वथा खो बैठता है।
अतः यदि निर्बल होकर स्वास्थ्य की दृष्टि से अशुभ स्थानों में जैसे द्वितीय, षष्ठ, अष्टम, द्वादश में स्थित हो तो बहुत रोग तथा राज्य विरोध आदि देने वाला होगा । हाँ यदि केन्द्र में बलवान् हुआ तो अवश्य राज्य, धन, धर्म, ऐश्वर्य आदि देगा।
6. शुक्र – यहाँ शुक्र दूसरे तथा नवम भाव का स्वामी है। द्वितीयेश होने से यह नवम भाव ही का फल करेगा। अतः शुक्र अपनी दशा भुक्ति में धन, भाग्य, उन्नति, विलास, अधिकार आदि देगा; परन्तु निर्बल होने की अवस्था में धन तथा भाग्य का नाश करने वाला तथा अल्प धनदायक होगा।
7. शनि – कन्या लग्न के लिए शनि पंचम तथा षष्ठ स्थानों का स्वामी होता है पंचम उतना ही अच्छा है जितना कि षष्ठ बुरा; परन्तु चूँकि शनि की मूल त्रिकोण राशि पष्ठ भाव में पड़ती है। अतः शनि इस लग्न के लिए थोड़ा अशुभ है। यही कारण प्रतीत होता है कि महर्षि पराशर ने शनि को शुभ श्रेणी का नहीं गिना ।
तुला लग्न के ग्रह
1. सूर्य – तुला लग्न के लिए सूर्य एकादशाधिपति अतः अशुभ होता है, परन्तु यह अशुभता स्वास्थ्य सम्बन्धी होगी न कि धन सम्बन्धी । बलवान् सूर्य अपनी दशा-अन्तर्दशा में अच्छी आय (Income) राज्य-मान, प्रताप देगा ।
2. मंगल – तुला लग्न के लिए मंगल द्वितीय तथा सप्तम स्थान का स्वामी होता है। द्वितीयेश होने के कारण मंगल सप्तमेश रूप से फल देता है और सप्तम (केन्द्र) का स्वामी होने से अशुभ नहीं रहता । अतः शुभ प्रभाव में आया हुआ मंगल शुभ फल करता है।
दो मारक स्थानों का स्वामी होने से मंगल निर्बल होकर द्वितीय, षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश आदि अनिष्ट स्थानों में हो तो गंभीर रोग देगा। यह रोग मंगल की दशा अथवा भुक्ति में होगा जब महादशानाथ अथवा भुक्तिनाथ अन्य ग्रह भी रोगदायक हो ।
3. बुध – तुला लग्न के लिए बुध द्वादश तथा नवम स्थानों का स्वामी होता है। चूँकि द्वादशेश स्थानान्तर का फल करता है, अतः बुध नवमेश रूप से शुभ फल करेगा। भाग्य, धन, राज्यकृपा, धर्म, परोपकार आदि देगा। यदि निर्बल हुआ तो अचानक भाग्य में हानि करेगा
4. बृहस्पति – तुला लग्न के लिए गुरु तृतीयाधिपति तथा षष्ठाधिपति होता है । दोनों स्थान अशुभ हैं। अतः गुरु अशुभ फल देता है।
कुछ आचार्यों के मत से गुरु धनकारक होने के कारण और दो उपचय स्थानों का स्वामी होने से शुभ फल करता है। इससे हम सहमत हैं।
5. शुक्र – तुला लग्न के लिए शुक्र लग्नाधिपति तथा अष्टमाधिपति होता है। यद्यपि किसी ग्रह का अष्टमाधिपति होना अनिष्टकारी है, तो भी, चूंकि यहाँ शुक्र लग्नाधिपति भी है और इसकी मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ती है, अतः कुछ शुभ फल ही करेगा । लग्नाधिपति योग-कारक अतीव शुभ ग्रह होता है, क्योंकि लग्न केन्द्र भी है और त्रिकोण भी ।
6. शनि – शनि केन्द्राधिपति (चतुर्थ) तथा त्रिकोणाधिपति (पंचमेश) होता है, अतः अतीव शुभ फलदायक योगकारक होता है । यदि थोड़ा निर्बल भी हो तो भी कुछ शुभ फल करता है।
वृश्चिक लग्न के ग्रह
1. सूर्य – यहाँ सूर्य दशामाधिपति होता है। एक नैसर्गिक क्रूर ग्रह के केन्द्राधिपति होने से सूर्य में से क्रूरता जाती रहती है । अतः यदि सूर्य तनिक भी शुभ युक्त शुभ दृष्ट हुआ तो बहुत अच्छा फल, यश-पदवी, धन, उन्नति आदि देता है। यदि निर्बल हो तो राज्य की ओर से परेशानी, पिता के धन का नाश, अपयश आदि देता है ।
2. चन्द्र – वृश्चिक लग्न के लिए चन्द्र नवमाधिपति होता है । अतः थोड़ा-सा भी बलवान् चन्द्र शुभ फलदायक होता है। निर्बल चन्द्र पिता की आयु का नाश करने वाला तथा भाग्य में हानि करने वाला होता है ।
3. मंगल – वृश्चिक लग्न के लिए मंगल लग्नाधिपति तथा षष्ठाधिपति बनता है। यद्यपि षष्ठाधिपति रूप से मंगल अशुभ है और इसलिए भी कि इसकी ‘मूल त्रिकोण राशि’ षष्ठ (अनिष्ट) स्थान में पड़ती है; परन्तु लग्न चूँकि ‘केन्द्र’ तथा ‘त्रिकोण’ दोनों हैं, अतः मंगल अन्तिम परिणाम में कुछ शुभ फल देने वाला होता है। महर्षि पराशर इसको सम फलदायक मानते हैं।
4. बुध – वृश्चिक लग्न के लिए बुध अष्टमाधिपति तथा एकादशाधिपति बनता है। दोनों अशुभ स्थान हैं। अतः बुध अशुभ फल करता है; परन्तु यह अशुभ फल शरीर सम्बन्धी होता है। बुध यदि बलवान् हो तो भी अच्छा होता है।
5. बृहस्पति – वृश्चिक लग्न के लिए बृहस्पति द्वितीयेश तथा पंचमेश बनता है द्वितीयेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः गुरु पंचमेश होकर बहुत शुभ फल करेगा। यदि निर्बल हुआ तो पुत्र-हानि, भाग्य-हानि, विद्या-हानि आदि अनिष्ट फल देगा।
6. शुक्र – वृश्चिक लग्न के लिए शुक्र सप्तम तथा द्वादश स्थानों का स्वामी होता है। दोनों स्थान ‘भोग’ से सम्बन्ध रखते हैं। ऐसे मनुष्य प्रायः भोगी तथा विलासप्रिय होते हैं। द्वादशेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः शुक्र सप्तमेश होकर, अर्थात्, केन्द्राधिपति होकर शुभ नहीं होता। यही कारण है कि महर्षि पराशर ने शुक्र को इस लग्न के लिए पापी ग्रह घोषित किया है। अतः आर्थिक क्षेत्र में शुभ फल देने के लिए शुक्र का पीड़ित होना आवश्यक है ।
7. शनि – इस लग्न के लिए शनि तृतीय तथा चतुर्थ भावों का स्वामी होता है। केन्द्राधिपति होने के कारण यद्यपि शनि पापी नहीं रहता तो भी तृतीय भाव का स्वामी होने से पुनः पापी हो जाता है। अतः शनि अपनी दशा-अर्न्तदशा में अशुभ फल करता है । इसका सर्वथा पाप प्रभाव में होकर निर्बल होना ही आर्थिक दृष्टि से उत्तम है।
धनु लग्न के ग्रह
1. सूर्य – यहाँ सूर्य नवमाधिपति होता है । एक सात्विक ग्रह का नवमाधिपति होना, सूर्य को शुभफल देने वाला, राज्यदायक धार्मिक, सात्विक, भाग्यशाली तथा राज्यकृपा का पात्र बनाता है। निर्बल सूर्य पिता की आयु तथा धन को हानि पहुंचाने वाला तथा राज्य से विरोध तथा हानि दिलाने वाला होता है।
2. चन्द्र – धनु लग्न के लिए चन्द्र अष्टम भाव का स्वामी होता है । यद्यपि साधारण नियम यही है कि अष्टमेश अशुभ फल करता है, परन्तु सूर्य तथा चंद्र को अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता। अतः यदि चन्द्र बलवान् हो तो शुभ फल देने वाला होता है ।
3. मंगल – धनु लग्न के लिए मंगल द्वादश तथा पंचम भावों का स्वामी होता है। द्वादशेश, चूँकि स्थानान्तर का फल करता है, अतः मंगल पंचमेश होने से बहुत शुभ फल करने वाला होगा। यदि निर्बल हुआ तो पुत्र से हानि होती है।
4. बुध – धनु लग्न के लिए बुध दो केन्द्रों – सप्तम तथा दशम का स्वामी होता है। अतः यह शुभ नहीं रहता और द्वितीय, षष्ठ आदि स्थानों में निर्बल होकर स्थित हो तो रोग देता है। यदि बुध बलवान् हो तो राजदरबार से लाभ होता है, अच्छी स्त्री की प्राप्ति होती है।
5. बृहस्पति – धनु लग्न के लिए यद्यपि गुरु चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होता है, इसे केन्द्राधिपत्य का दोष नहीं लगता क्योंकि साथ-साथ लग्न का भी स्वामी हो जाता है। चूंकि लग्न का स्वामी होना योगकारक होता है, अतः गुरु बहुत शुभ फलदायक है। सुख, धन, जनप्रियता, वाहन आदि का सुख देता है। यदि निर्वल हो तो व्यक्ति देश छोड़ देता है, दुःखी होता है।
6. शुक्र – धनु लग्न के लिए शुक्र छठे तथा ग्यारहवें भाव का स्वामी होता है। दोनों बुरे भाव हैं। अतः शुक्र अशुभ फल, रोग, चोट आदि देता है; परन्तु बलवान् हो तो लाभ भी अच्छा रहता है।
7. शनि – धनु लग्न के लिए शनि द्वितीय तथा तृतीय स्थान का स्वामी होता है। द्वितीयेश सदा स्थानान्तर का फल करता है । अतः शनि तृतीयेश रूप में अशुभ फल देता है। इसका सर्वथा निर्बल होना अच्छा धनदायक योग बनाता है।
मकर लग्न के ग्रह
1. सूर्य – मकर लग्न के लिए सूर्य अष्टामाधिपति होता है। सूर्य को अष्टमाधिपति होने का दोष नहीं लगता, अतः सूर्य शुभ फल करता है। हाँ, यदि सूर्य बहुत निर्बल हो तो धन तथा आयु की हानि करता है ।
2. चन्द्र – मकर लग्न के लिए चन्द्र सप्तमेश होता है। केन्द्राधिपति होकर चन्द्र शुभ नहीं रहता है। अतः इसका निर्बल होना शुभ फलदायक रहता है ।
3. मंगल – इस लग्न के लिए मंगल एकादश तथा चतुर्थ भाव का स्वामी होता है । केन्द्राधिपति होकर यद्यपि मंगल अशुभ नहीं रहता तो भी एकादशाधिपति होने से पुनः ‘पापी’ संज्ञा वाला हो जाता है और रोग देता है। हाँ, बलवान् होने की दशा में मंगल आय के लिए अनिष्ट फल नहीं करता ।
4. बुध – मकर लग्न के लिए बुध षष्ठ तथा नवम भावों का स्वामी होता है। इसकी मूल त्रिकोण राशि नवम शुभ स्थान में पड़ती है। षष्ठ भाव इतना अशुभ नहीं जितना नवम भाव शुभ है। अतः बुध शुभ फल करने वाला होगा। यदि निर्बल हो तो शत्रुओं द्वारा हानि, पिता को हानि आदि अनष्टि फल की प्राप्ति होती है।
5. बृहस्पति – मकर लग्न के लिए बृहस्पति द्वादशेश तथा तृतीयेश होता है। द्वादशेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः गुरु तृतीय भाव का फल करेगा। अर्थात् अशुभ प्रभाव में निर्धनता आदि देगा।
6. शुक्र – मकर लग्न के लिए शुक्र पंचम तथा दशम भाव का स्वामी होता है । एक त्रिकोण है, दूसरा केन्द्र । अतः शुक्र योगकारक हो जाता है और थोड़ा भी बली बहुत शुभ फल, धन, भाग्य, विद्या, राज्य आदि देता है।
7. शनि – मकर लग्न के लिए शनि लग्नेश तथा द्वितीयेश होता है। द्वितीयेश स्थानान्तर का फल करता है । अतः शनि प्रथम भाव का फल करेगा । लग्नेश तो सदा शुभ फल करता है। अतः शनि बहुत अच्छा फल करेगा ।
कुंभ लग्न के ग्रह
1. सूर्य – सप्तमेश अर्थात् केन्द्र का स्वामी बनता है। अतः अशुभ नहीं रहता, अतः यदि तनिक भी शुभ प्रभाव में हुआ तो सूर्य शुभ फल प्रदाता होगा ।
2. चन्द्र – षष्ठेश होता है। अतः अशुभ है।
3. मंगल – दशम तथा तृतीय भावों का स्वामी होता है। केन्द्र का स्वामी होने के कारण मंगल में इसकी नैसर्गिक अशुभता नहीं रहती, परन्तु चूँकि मंगल पुनः तृतीयाधिपति हो जाता है। यह ग्रह पुनः पाप फल देने वाला बन जाता है । मंगल का निर्बल तथा पाप प्रभाव में होना आर्थिक दृष्टि से बहुत शुभ है ।
4. बुध – कुंभ लग्न के लिए बुध अष्टमेश तथा पञ्चमेश होता है। अष्टम भाव की अशुभता पञ्चम भाव की शुभता से निश्चित ही अधिक है। अतः बुध थोड़ा अशुभ फल ही करेगा । महर्षि पराशर ने इसे समफलदायक माना है।
ऐसी स्थिति में हम समझते हैं कि जहाँ तक धन पक्ष का सम्बन्ध है, बुध का निर्बल होना अभीष्ट ही है। हाँ, निर्बल बुध उपनी दशा भुक्ति में गंभीर रोग भी ला खड़ा करता है ।
5. गुरु – यहाँ गुरु द्वितीय तथा एकादश भावों का स्वामी होता है। द्वितीयेश सदा स्थानान्तर का फल करता है। अतः गुरु एकादशेश रूप में अशुभ गिना गया है । परन्तु यह अशुभता शरीर के लिए है। अर्थात् रोगदायक है, आय (Income) के लिए नहीं । अतः बलवान् गुरु बहुत धन देगा तथा दृष्ट वस्तुओं को अतीव मूल्यवान् बनायेगा, यह निश्चित है।
6. शुक्र – शुक्र केन्द्र (चतुर्थ) तथा त्रिकोण (नवम) का स्वामी है। अतः योगप्रद है। अर्थात् धन, मान, पदवी, विद्या, राज्य सुख, वाहन सब देता है । परन्तु यदि बहुत निर्बल हो तो गृह आदि से वंचित, दुःखी तथा भाग्यहीन बनाता है ।
7. शनि – द्वादशेश तथा लग्नेश है। द्वादशेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः यह लग्न का फल देगा। अर्थात् धन, यश आदि देगा । चूँकि शनि की मूल त्रिकोण राशि प्रथम भाव में पड़ती है, अतः शनि शुभ फलदायक है ।
मीन लग्न के ग्रह
1. सूर्य – मीन लग्न के लिए सूर्य छठे भाव का स्वामी होता है। अतः पाप फल करता है, परन्तु धन आदि के विषय में सूर्य अधिक अशुभ फल नहीं करता ।
2. चंद्र – मीन लग्न के लिए चन्द्र पंचमेश है। त्रिकोण का स्वामी होने के कारण बहुत शुभ फल करेगा। यदि निर्बल हो तो पुत्रनाश, भाग्यनाश तथा धननाश देगा।
3. मंगल – मीन लग्न के लिए मंगल द्वितीयेश तथा नवमेश बनता है । द्वितीयेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः मंगल नवम भाव का शुभ फल, धर्म में रुचि, भाग्य में उन्नति, राज्य से धन की प्राप्ति आदि करेगा। यदि बहुत निर्बल हुआ तो राज्य के कारण धन का नाश, कुटुम्ब के कारण भाग्य में हानि, पिता द्वारा धन का नाश आदि अनिष्ट फल होगा।
4. बुध – मीन लग्न के लिए बुध सप्तम तथा चतुर्थ दो केन्द्रों का स्वामी होता है। केन्द्राधिपत्य दोष के कारण बुध मारक होता है। त्रिक भावों (छठे, आठवें, बारहवें) में रोग आदि शारीरिक कष्ट देता है। गृह, वाहन, सुख का नाश करता है। यदि बलवान् हो तो जनप्रियता माता, वाहन, गृहादि का सुख देता है।
5. गुरु – मीन लग्न के लिए गुरु यद्यपि दशम केन्द्र का स्वामी होता है; तो भी, लग्नेश होने के कारण बहुत शुभ फल करता है। बलवान् गुरु, यश, स्वास्थ्य, सुख, राज्य आदि शुभ फलों की प्राप्ति करवाता है। यदि गुरु बहुत निर्बल हो तो राज्य हानि, राज्याधिकारियों की ओर से परेशानी, दुःख, निर्धनता आदि अनिष्ट फलों की प्राप्ति करवाता है।
6. शुक्र – मीन लग्न के लिए शुक्र तृतीयेश तथा अष्टमेश बनता है। दोनों अशुभ स्थान हैं। अतः शुक्र अशुभ फल प्रदाता है। इसका नितांत निर्बल होना ही धनदायक सिद्ध होता है; परन्तु निर्बल शुक्र आयु को क्षीण करता है, क्योंकि अष्टम तथा तृतीय दोनों आयु के स्थान हैं।
7. शनि – मीन लग्न के लिए शनि ग्यारहवें तथा बारहवें भाव का स्वामी होता है। द्वादशेश स्थानान्तर का फल करता है। अतः शनि अशुभ गिना गया है; परन्तु स्वास्थ्य के लिए, न कि धन के लिए। बलवान् शनि अपनी दशा-भुक्ति में व्यय के साथ-साथ अच्छा लाभ भी देता है।
दशाफल रहस्य
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