दशा और गोचर
दशा उस पद्धति का नाम है जिसमें जन्मकालीन चन्द्राधिष्ठित नक्षत्र के स्वामी की अवधि के अनुसार जन्मकालीन ग्रह की दशा का निर्णय किया जाता है और तदनन्तर क्रमानुसार अन्य ग्रहों की दशाओं को निर्धारित किया जाता है। स्पष्ट है कि दशा का निर्णय जन्मकालीन स्थिर ग्रह स्थिति पर निर्भर करता है।
इसके विपरीत गोचर पद्धति जैसा कि उस शब्द के नाम से प्रतीत हो रहा है एक चर पद्धति है अर्थात् ग्रह मनुष्य के जीवन में चलते-चलते जब किसी कुण्डली के लिए शुभ अथवा अशुभ योग बनाते हैं तो उनका गोचर में शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं।
दशा और गोचर में प्रधानता दशा की है। यदि जन्मकुण्डली में शुभ योग तो बनता है; परन्तु उपयुक्त दशा तथा अन्तर्दशा जीवन में आती ही नहीं तो फिर न तो उस योग से कोई विशेष लाभ है और न गोचर से भले ही गोचर ग्रहों द्वारा अनुकूल स्थितियाँ बनती रहें। यदि उस समय शुभ दशा भुक्ति नहीं चल रही तो गोचर निष्फल हो जावेगा।
इस प्रकार गोचर का फल दशा के अधीन होता है। जब दशा भुक्ति शुभ ग्रहों की अथवा योगकारक ग्रहों की चल रही हो और गोचर में भी ग्रह उस शुभता के सूचक हों जो जन्मकालीन ग्रहों की दशा भुक्ति द्वारा व्यक्त होती है। तो फिर गोचर न केवल शुभ फल ही देता है; बल्कि दशा भुक्ति द्वारा निर्दिष्ट शुभ फल के ठीक समय को भी सूक्ष्म रीति से निश्चित कर देता है।
किस प्रकार जन्मकालीन ग्रहों द्वारा प्रदर्शित शुभ अथवा अशुभ घटनाओं का फलीभूत होने का समय गोचर निर्धारित कर देता है यह प्रस्तुत अध्याय का विषय है। इस विषय को हम क्रियात्मक (Practical) उदाहरण से स्पष्ट करेंगे और एक अतीव परिचित व्यक्ति की जन्म कुण्डली के आधार पर उसके जीवन की मुख्य घटनाओं का दशा तथा गोचर – दोनों ही द्वारा अध्ययन करेंगे।
निम्न कुंडली एक व्यक्ति की है जिसका का जन्म 8-8-1908 को हुआ। जन्म समय बुध की दशा के शेष वर्षादि 4-3-0 थे ।

इस व्यक्ति के जीवन की सबसे पहली घटना जिसका उल्लेख हम इस गोचर प्रकरण में करेंगे वह है 12-1-1925 की लोहड़ी (पर्व) की रात्रि की घटना । इस रात्रि को वह व्यक्ति आतिशबाजी से खेल रहा था और खेलते-खेलते एक चिंगारी उस बारूद में पड़ी जो इसके हाथ के कागज में था। बारूद में आग लग जाने से बारूद की ज्वाला द्वारा उस व्यक्ति का मुँह जल गया।
उस समय शुक्र की महादशा में चन्द्र की भुक्ति चल रही थी। सबसे पूर्व तो हमको यह देखना है कि शुक्र की दशा और चन्द्र की भक्ति में अर्थात् दो जलीय ग्रहों के राज्य में अग्निकाण्ड कैसे हो गया ?
इस बात का उत्तर हम दे चुके हैं और वह यह कि चन्द्र यद्यपि एक नैसर्गिक जलीय ग्रह है; परन्तु यह ग्रह इस कुण्डली में सूर्य, मंगल तथा बुध तीन अग्निद्योतक ग्रहों (बुध, सूर्य, मंगल के साथ, बुध मंगल ही का रूप ग्रहण करेगा यह बुध के लिये मौलिक नियम है) से अधिष्ठित राशि का स्वामी है। अतः यह अग्नि का द्योतक है और अपनी दृष्टि से दो संख्या की राशि वृषभ (मुख) पर अपना अग्निमय प्रभाव डाल रहा है।
दूसरी बात यह है कि जैसा हम कई बार उल्लेख कर चुके हैं भुक्तिनाथ का सदा सर्वदा दशानाथ पर प्रभाव रहता है, अतः चन्द्र अपनी भुक्ति में उपरोक्त अग्निमय प्रभाव को शुक्र पर डाल रहा है।
दूसरे शब्दों में, दो संख्या की राशि ही नहीं, उसका स्वामी और वह भी मुख का कारक शुक्र, अग्नि के प्रभाव में है। इस प्रकार हनमे देखा कि शुक्र की दशा में चन्द्र की भुक्ति किस प्रकार मुँह को आग लगा सकती है।
इस बात का निर्णय हो जाने पर कि दशा और भुक्ति मुँह को जलाने के लिए उपयुक्त है अब हमको विचार करना है कि यह दुर्घटना कब होनी चाहिए जिससे हम कह सकें कि आज का दिन इस दुर्घटना के लिए उपयुक्त अथवा ज्योतिष सम्मत है। गोचर पद्धति पर मनन करने से यह सिद्धान्त निश्चित हुआ है कि गोचर में ग्रहों की स्थिति भी उसी शुभ अथवा अशुभ घटना की सूचना देती है जिसका परिचय हमको दशाभुक्ति देती है।
गोचर को देखने की सरल विधि
यद्यपि गोचर में समस्त ग्रहों के अध्ययन से फल कहा जाता है; परन्तु गोचर को देखने का एक बहुत सरल एवं शास्त्र समस्त तरीका हम पाठकों के हितार्थ यहाँ लिखते हैं।
संसार में कोई भी घटना हो और उसका सम्बन्ध मनुष्य के जीवन के किसी भी विभाग से हो, चाहे शारीरिक विभाग से हो, चाहे भावनात्मक विभाग से, चाहे बौद्धिक विभाग से, चाहे आर्थिक विभाग से, चाहे पदवी से, चाहे मान-अपमान से, अन्ततोगत्वा उस घटना का रूप उस व्यक्ति के लिए या तो सुखद होगा या दुःखद । अतः सुख और दुखः ये दो विभाग हमको ग्रहों में भी मानने होंगे। सुख का कारक ज्योतिष ने गुरु को माना है। इसी प्रकार ज्योतिष में दुख का कारक शनि है। यही कारण है कि गोचर में मुख्यतया घटनाओं का निश्चय गुरु तथा शनि द्वारा किया जाता है।
इस मुख पर आग लग जाने की दुर्घटना का परीक्षण गोचर में हम शनि से करेंगे। व्यक्ति की जन्मलग्न को लग्न मानकर यदि हम 12-1-1925 की रात्रि में ग्रहों की स्थिति को देखें तो वह इस प्रकार थी (गोचर कुंन्डली संख्या 1)।

अब देखिए शनि देव एक मंगल को छोड़कर सभी ग्रहों पर अपना प्रभाव डाल रहे हैं। लग्न पर इनकी दृष्टि है, लग्नेश पर इनकी दृष्टि है । चन्द्र लग्न को यह देख रहे हैं। चन्द्र लग्न के स्वामी को भी यह देख रहे हैं।
सूर्य लग्न पर इनकी दृष्टि है और सूर्य लग्न के स्वामी पर भी इनकी दृष्टि है। इस प्रकार तीनों की तीनों लग्नें और उन सबके स्वामी शनि के प्रभाव में हैं। दूसरे शब्दों में, शरीर पर शनि का प्रभाव है।
अब देखिए शनिदेव केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी हैं। अतः वह अपनी दृष्टि द्वारा केतु का अग्निमय प्रभाव शरीर पर डाल रहे हैं और फिर ध्यान देने की बात यह है कि द्वितीयाधिपति सूर्य (मुख) और मुख का कारक शुक्र, दोनों इकट्ठे हैं। दोनों पर उसी शनि का अग्निमय प्रभाव पड़ने से मुख में आग लग रही है।
लेकिन आप कहेंगे कि गुरु भी तो उनके साथ है। हां, है, परन्तु मंगल अधिष्ठित राशि का स्वामी होकर। अतः गुरु भी सूर्य शुक्र पर उसी तरह आग बरसा रहा है जिस तरह उन पर शनि बरसा रहा है। इस तरह प्रत्येक लग्न से दूसरा घर आग की लपेट में पाया गया।
निष्कर्ष यह निकला कि गोचर में यदि तीनों ही लग्नों से कोई भाव अथवा उसका स्वामी शनि द्वारा पीड़ित हो तो व्यक्ति को उस भाव सम्बन्धी कष्ट गोचर में कहना चाहिए।
इसी प्रकार यदि तीनों लग्नों से एक ही भाव अथवा उसके स्वामी पर गुरु का शुभ प्रभाव पड़ रहा हो तो व्यक्ति को उस भाव से सम्बद्ध सुख कहना चाहिए।
गोचर सम्बन्धी उक्त नियमों का अध्ययन इसी व्यक्ति के जीवन की अन्य घटनाओं से भी करेंगे।
गोचर से विवाह निर्णय
इस व्यक्ति का विवाह 17-11-1929 को हुआ। उस समय शक्र की महादशा में गुरु की भुक्ति चल रही थी। शुक्र स्त्री है तो गुरु विवाह करवाने वाला पुरोहित और स्त्री का पति और फिर इस कुण्डली में गुरु की दृष्टि सप्तम भाव पर है। अतः इस शुभ प्रभाव के कारण सप्तम भाव विवाह के लिए योग बना रहा है।
अब आइए, गोचर कुण्डली में गुरु की स्थिति पर विचार करें और देखें कि यह सुखदायक शुभ ग्रह गोचर में भी लग्नों से सप्तम भाव (विवाह) का सुख दे रहा है कि नहीं।
उसी जन्मकालीन कर्क लग्न से 17-11-1929 में गुरुदेव की पूर्ण नवम दृष्टि विवाह स्थान (सप्तम भाव) पर पड़ रही है। यह तो हुई लग्न से सप्तम भाव की बात ।
सूर्य लग्न से सप्तम भाव में स्वयं गुरुदेव विराजमान हैं और चन्द्र लग्न से सप्तम भाव और उसके स्वामी दोनों पर गुरु महाराज की दृष्टि है।
इस प्रकार तीनों की तीनों लग्नों से सप्तम भाव अथवा सप्तमेश पर गुरु विवाह का उस दिन में होना बतला रहा है।
गोचर से नौकरी का निर्णय
इसी व्यक्ति की एक और जीवन घटना उसका 25-10-1928 को भाग्योदय है। अर्थात् उसका राज्य की नौकरी में आ जाना है। यह घटना शुक्र दशा राहु की भुक्ति में हुई। राहु शुक्र के साथ होने से शुक्र का फल करता है और शुक्र लाभेश होने से धन तथा पदवी का दाता है। सरकारी नौकरी का लग जाना राज्यकृपा है।
राज्यकृपा का सम्बन्ध नवम भाव से है। यही भाव भाग्योदय का भी है। अतः सुख कारक गुरु का प्रभाव प्रत्येक लग्न से नवम भाव अथवा उसके स्वामी से गोचर में होना चाहिए तभी भाग्योदय की गोचर से सिद्धि मानी जावेगी और इसी प्रकार भाग्योदय की तिथि भी निश्चित हो जावेगी।

25-10-1928 की ग्रह स्थिति जन्मकालीन कर्क लग्न सहित ऊपर दी जा चुकी है। लग्न से नवम भाव के तो गुरुदेव स्वयं स्वामी हैं। और चन्द्र लग्न से नवम स्थान पर उनकी पूर्ण सप्तम दृष्टि है। इसी प्रकार सूर्य लग्न से नवम भाव के स्वामी बुध पर भी गुरुदेव की शुभ दृष्टि है। इस प्रकार प्रत्येक लग्न के नवम भाव अथवा नवमेश पर गुरु का प्रभाव होने से 25-10-1928 को भाग्योदय की तिथि हुई।
गोचर से पदोन्नति का निर्णय
गोचर में सिद्धि देखने के लिए और दशा के फलने का समय ज्ञात रने के लिए एक और उदारहण इसी कुण्डली का लीजिए। इस व्यक्ति की आफिसर रूप में पदोन्नति पहली बार 25-10-1946 को हुई।
उस समय चन्द्र की महादशा में मंगल की भुक्ति चल रही थी। कर्क लग्न वालों के लिए चन्द्र और मंगल दोनों ही शुभ और योगकारक ग्रह हैं। अतः चन्द्र में मंगल की भुक्ति पदोन्नति के लिए उपयुक्त है।
अब देखना यह है कि इस भुक्ति में गोचर में उस समय शुभ सुखद गुरु का प्रभाव तीनों लग्नों के पद स्थान अर्थात् दशम स्थान पर था या नहीं ? जब यह प्रभाव दशम भाव पर तीनों लग्नों से बने तब ही पदोन्नति कहनी चाहिए। गोचर में यह योग 25-10-1946 को बनता है। इस तारीख के ग्रह जन्मकालीन लग्न कर्क के लिए साथ में दिये हैं।

गुरुदेव अपनी पूर्ण दृष्टि से लग्न से दशम भाव को देख रहे हैं और वहां अपना उन्नतिशील प्रभाव डाल रहे हैं। वही गुरु देव सूर्य-लग्न से दशम स्थान के स्वामी चन्द्रमा पर भी अपनी पंचम दृष्टि का प्रभाव डाल रहे हैं और वही गुरु देव चन्द्र-लग्न से दशम भाव के पति मंगल से युति द्वारा उसे प्रभावित कर रहे हैं। इस प्रकार गोचर में हमने देखा कि तीनों की तीनों लग्नों से दशम भाव अथवा उनके स्वामी गुरु की युति अथवा दृष्टि प्रभाव में विद्यमान हैं। इस बात से सिद्ध हो गया कि 25-10-1946 पदोन्नति के लिए गोचर में भी उपयुक्त है और भुक्ति फल की तिथि को भी निर्धारित करता है।
इसी जीवन की एक और सुखद घटना व्यक्ति को दूसरी बार 7-7-1954 की पदोन्नति है। उस समय चन्द्र की महादशा में शुक्र की भुक्ति चल रही थी। चन्द्र तो स्वयं अपने में भी एक लग्न है, और सूर्य का स्वामी है। अतः बहुत शुभ है और शुक्र, सूर्य तथा लग्न से लाभाधिपति है। हम कई बार उल्लेख कर चुके हैं कि लाभाधिपति धन-मान दे सकता है, भले ही स्वास्थ्य के लिए अच्छा न हो।
अतः चन्द्र-दशा शुक्र भुक्ति पदोन्नति तथा धन लाभ के लिए उपयुक्त है, विशेषतया जबकि जन्म कुण्डली में शुक्र, लग्न तथा सूर्य लग्न से द्वादश स्थान में स्थित होकर इन लग्नों को प्रफुल्लित एवं संवर्द्धित कर रहा है और नियमानुसार अपनी भुक्ति में, दशानाथ अर्थात् लग्नेश पर शुभ प्रभाव डालता है। लग्न भी पदवी तथा मान का स्थान अतः दशानाथ का लग्नेश होना और शुक्र का भुक्ति द्वारा लग्नेश को तथा स्थिति द्वारा (गुरु से मिलकर) लग्न पर शुभ प्रभाव डालना, चन्द्र-दशा शुक्रभुक्ति को पदोन्नति के लिए उपयुक्त बनाता है। अब गोचर की ओर आइये।
गोचर में भी सबकी सब लग्न गुरु के शुभ प्रभाव में होनी चाहिएं। तब भुक्ति फल की पुष्टि हो सकेगी। 7-7-1954 को ग्रह स्थिति जन्मकालीन लग्न के साथ यहाँ पर दी है।

पहली बात यह देखिए कि लग्न को शुक्र अपनी स्थिति से और चन्द्र और गुरु अपनी शुभकर्तरी से लाभान्वित कर रहे हैं। सूर्य-लग्न का स्वामी बुध तथा स्वयं सूर्य गुरु से युक्त है। मंगल योगकारक की दृष्टि भी सहयोगी (Complementary) तथा शुभप्रद है।
चन्द्र-लग्न का स्वामी सूर्य उसी प्रकार गुरु-बुध शुभ ग्रहों के साथ है। इस प्रकार तीनों की तीनों लग्नें अथवा उनके स्वामी गुरु तथा अन्य शुभ ग्रहों से युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभावित पाये गए जिससे पदोन्नति तथा उसका काल गोचर में भी सिद्ध हुआ ।
इसी व्यक्ति के जीवन से सम्बद्ध एक और सुखद घटना लीजिए। 25-3-1945 को डेप्युटेशन (Deputation) द्वारा उस व्यक्ति की आय तथा पद में कुछ उन्नति हुई। उस समय सूर्य की महादशा में शुक्र की भुक्ति चल रही थी। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं एकादशेश शुक्र धन-मान के लिए उपयुक्त है, स्वास्थ्य के लिए चाहे न भी हो। सूर्य तो कर्क लग्न के लिए शुभ है ही । अतः सूर्य की दशा शुक्र की भुक्ति आर्थिक तथा पदोन्नति के लिए उपयुक्त है।

अब गोचर में भी पदोन्नति को गुरु द्वारा दशम भाव के प्रफुल्लित किये जाने से प्रकट होना चाहिये। यह प्राकट्य 25-3-1945 को हुआ। इस तारीख की गोचर की कुण्डली यह दी है। गुरु की दृष्टि दशम भाव पर भी है और दशमेश मंगल पर भी लग्न से दशम भाव के गुरु द्वारा प्रभावित होने की शर्त तो पूरी हुई । चन्द्र लग्न से दशम स्थान का स्वामी शुक्र है जिस पर भी गुरु की पूर्ण नवम दृष्टि विद्यमान है। सूर्य-लग्न से दशम स्थान पर भी गुरु की दृष्टि है।
इस प्रकार तीनों की तीनों लग्नों से दशम भाव अथवा उनके स्वामी गुरु की शुभ सुखद दृष्टि में पाई गई स्थिति द्वारा गोचर 25-3-1945 में उत्पन्न अपनी दशाभुक्ति के फल को अनुमोदित करते हैं।
यह व्यक्ति 15-4-1934 को टाइफाइड के कारण लगभग 7-1⁄2 मास के लिए रोगी हो गया। उस समय शुक्र-दशा शनि भुक्ति चल रही थी। शुक्र और शनि दोनों, सभी लग्नों के शत्रु हैं। इसलिए यह दशाभुक्ति रोग के लिए उपयुक्त है। अब हमको गोचर में देखना है कि दुःखकारक शनिदेव भी क्या गोचर में भी उस समय तीनों की तीनों लग्नों पर अपना रोगजनक अनिष्ट प्रभाव डाल रहे थे ? 15-4-1934 की गोचर की कुण्डली, कर्क लग्न सहित यहाँ दी जा रही है।

एक बड़ी विचित्र परन्तु अर्थपूर्ण बात सबसे पहले यह देखिए कि सूर्य मंगल तथा चन्द्र तीनों के तीनों परस्पर अंशपूर्ण युति कर रहे हैं; अर्थात् तीनों के तीनों मेष राशि में एक ही अंश में विद्यमान हैं जिसका अर्थ यह है कि सूर्य लग्न, चन्द्र लग्न तथा लग्नेश तीनों एकत्र होकर शुभ अथवा अशुभ प्रभाव को ग्रहण करने के लिए पूर्ण रूप से उद्यत हैं और अब इन तीनों लग्नों पर दीर्घ रोगप्रद रोगकारक शनिदेव की पूर्ण तृतीय दृष्टि है और शनिदेव न केवल अष्टम भाव में (जो कि शनि के लिए अनुकूल तथा बलप्रद है) स्वक्षेत्र में स्थित होकर बलवान ही है और इसी कारण अपनी दृष्टि से लग्नों को अर्थात् शरीर को अधिक समय के लिए रुग्ण करने में समर्थ हैं अपितु राहु-अधिष्ठित राशि के स्वामी भी हैं जिससे उनमें और भी रोगप्रद शक्ति आ चुकी है।
शनि द्वारा तीनों लग्नों तथा उनके स्वामियों का 15-4-1984 को प्रभावित होना उक्त रोग को उत्पन्न करने में उपयुक्त तथा दशाभुक्ति फल के अनुरूप ही है यह बात भी चित्त आकर्षण से खाली नहीं कि तीनों की तीनों लग्नें अग्नि रूप हैं। सूर्य अग्नि है, सूर्य राशि का स्वामी मंगल अग्नि है। लग्न में केतु होने से चन्द्र भी (लग्नेश) अग्नि रूप है और चन्द्र अधिष्ठित राशि का स्वामी मंगल भी अग्नि। यही कारण था कि सरकारी काम के लिए धूप में घूमने के कारण व दूषित खान-पान के कारण रोग की उत्पत्ति हुई। यह दशाभुक्ति आर्थिक दृष्टि से भी बहुत हानिकर थी। उस समय व्यक्ति की आय केवल 35 रुपए मासिक रह गई थी।
इस व्यक्ति को सरकारी नौकरी से अवकाश (Retirement) 9-8-1966 जो प्राप्त हुआ। नौकरी से अवकाश प्राप्त करने का अर्थ हुआ राज्य-कृपा की समाप्ति अथवा उसमें बहुत कमी। जन्मकुण्डली में उस समय राहु की महादशा में गुरु की भुक्ति चल रही थी। गुरु न केवल राज्य कृपा का कारक है बल्कि इस कुण्डली में तो नवमाधिपति होने के कारण भी राज्य-कृपा का द्योतक है। ऐसा गुरु जन्म कुण्डली में अंशों में सूर्य के समीप और केतु से दृष्ट तथा पाप – मध्यत्व (शनि और सूर्य द्वारा दृष्ट) में है।
अतः गुरु राज्य कृपा की हानि करने वाला भी है। राहु अर्थात् दशानाथ गुरु का शत्रु है और गुरु की स्थिति राहु से अनिष्ट स्थान अर्थात् तृतीय स्थान में तथा नवम से षष्ठ (पुनः अनिष्ट) स्थान में है। इसलिए भी गुरु नवम भाव के लिए, अर्थात् राज्य की नौकरी के लिए हानिकारक है। इस प्रकार जन्मकुण्डली में नौकरी से अवकाश प्राप्त करने का योग बना।

अब गोचर की ओर आइए। यहाँ भी हमें नवम भाव तथा उसके स्वामी विशेषतया गुरु को कष्ट में तथा पीड़ित पाना होगा। तभी तो दशाभुक्ति प्रदत्त फल की पुष्टि हो सकेगी और यह काम शनि द्वारा होना चाहिए। देखिए, शनिदेव नवम भाव में आकर उस भाव को पीड़ित कर रहे हैं, बल्कि उस भाव के स्वामी, राज्य-कृपाकारक गुरु पर भी अपना केन्द्रीय प्रभाव डाल रहे हैं। अर्थात् उसे भी पीड़ित कर रहे हैं।
चूँकि गुरु लग्न से व सूर्य लग्न से दोनों से नवमाधिपति है। शनि ने दोनों लग्नों, उनके नवमाधिपति को गोचर में पीड़ित किया। रह गई बात चन्द्र-लग्न से नवम भाव की, सो उस भाव का स्वामी पुनः गुरु ही है जिसका शनि द्वारा पीड़ित होना हम अभी-अभी देख चुके हैं। इस प्रकार गोचर में भी जब नवम नवमेश को शनि से पीड़ित पाया तो गोचर को दशाभुक्ति के फल का अनुमोदन देखा।
एक और बड़े महत्त्व की मुख्य घटना जो इस व्यक्ति के साथ घटी वह थी 30-9-1947 को इसका सदा-सर्वदा के लिए अपनी जन्मभूमि से पृथक् हो जाना। यह घटना चन्द्र की दशा और राहु की भुक्ति में घटित हुई । जन्मकुण्डली में इस घटना का औचित्य तो इस प्रकार है कि चूँकि भुक्तिनाथ सदा सर्वदा दशानाथ पर अपना प्रभाव डालता है; अतः राहु ने अपनी भुक्ति में दशानाथ चन्द्र पर अपना प्रभाव डाला और व्यक्ति को उस भाव से पृथक कर दिया जिस भाव का कि चन्द्र स्वामी है।
अर्थात् प्रथम भाव से या दूसरे शब्दों में जन्म स्थान से उधर राहु अपनी भुक्ति में चतुर्थ स्थान मातृभूमि को अपनी पंचम दृष्टि से प्रभावित एवं पीड़ित कर रहा है; बल्कि चतुर्थेश शुक्र को भी अपनी युति द्वारा पीड़ित कर रहा है। ऐसी स्थिति में राहु की भुक्ति यदि अपना पृथक करने का कार्य जन्मभूमि पर करती है तो क्या आश्चर्य है !
अब हमको गोचर में भी देखना है कि क्या शनिदेव का पृथकताजनक प्रभाव तीनों की तीनों लग्नों से चतुर्थ भाव अथवा उनके स्वामी पर विद्यमान है ? और क्या यही पृथकताजनक प्रभाव लग्नादि पर भी है ? उत्तर हाँ में है।
पहले तो देखिए कि शनिदेव लग्न में ही विराजमान हैं और वहाँ बैठकर न केवल लग्न को पीड़ित कर रहे हैं, बल्कि लग्नाधिपति पर भी उनकी क्रूर पृथकताजनक दृष्टि है। इतना ही नहीं, चन्द्र भी एक दूसरी लग्न के नाते इनके प्रभाव से पीड़ित है ।
चन्द्र-लग्नाधिपति शनि भी शनि अधिष्ठित राशि के स्वामी चन्द्र से पीड़ित है। सूर्य लग्न तथा उसका स्वामी स्वयं सूर्य भी राहु से केन्द्र में होकर राहु क पृथकताजनक प्रभाव में है। याद रहे, राहु शनिवत् होता है। इस प्रकार गोचर में तीनों की तीनों लग्नों और उनके स्वामियों पर शनिदेव का पृथकताजनक प्रभाव पाया गया।
लग्नों से चतुर्थ भाव (मातृ भूमि) का भी यही हाल है। देखिए, गोवर में चतुर्थ स्थान पर शनि का केन्द्रीय प्रभाव है और शुक्र पृथकताजनक सूर्य के साथ सटकर बैठा है, बल्कि उसके एक ओर शनि का और दूसरी ओर शनि और राहु का प्रभाव है जिसका अर्थ यह है कि शुक्र भी शनि तथा राहु के पृथकताजनक पाप मध्यत्व में है।

चन्द्र लग्न से चतुर्थ स्थान पर भी शनि की पूर्ण दृष्टि है और उस चतुर्थ भाव का स्वामी मंगल द्वादश (पृथकताजनक भाव) में शनि तथा राहु के पृथकताजनक पाप मध्यत्व में है। रह गया सूर्य से चतुर्थ भाव । सो उसको सूर्य अपने केन्द्रीय प्रभाव से प्रभावित कर रहा है और उसका स्वामी मंगल किस प्रकार पृथकताजनक शनि के प्रभाव में है यह हम देख चुके हैं।
इस प्रकार गोचर ने उसी बात अनुमोदित की जिसका इशारा दशा तथा भुक्ति दे रहे हैं।
इसी व्यक्ति के जीवन की एक शुभ, सुखद घटना और लीजिए। वह घटना है उसको 5/6-2-1932 को पुत्र की प्राप्ति। यह प्राप्ति शुक्र दशा तथा गुरु की भक्ति में हुई। जन्मकुण्डली में गुरु की दृष्टि पंचम भाव पर है और उसका योग पंचमाधिपति से। गुरु पंचम भाव का स्वामी होने से और पुत्र का कारक होने से भी पुत्रदायक है। यह तो हुई जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति की बात।

अब आइए, गोचर की ओर गोचर में तीनों लग्नों से पंचम भाव अथवा उसके स्वामी पर गुरु का प्रभाव होना चाहिए, नियमानुसार यहाँ यही हमारी प्रतिज्ञा है, तो देखिए, यहाँ गुरुदेव लग्न में स्थित हैं और इसी कारण पुत्र भाव पर पूर्ण दृष्टि से पुत्र की प्राप्ति करवा रहे हैं। उधर शुक्र सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न दोनों लग्नों से पंचमाधिपति है और वह भी गुरु से पूर्णतया दृष्ट होकर, उच्च होकर तथा पंचम से पंचम (नवम) में स्थित होकर पुत्र प्राप्ति दर्शा रहा है। इस प्रकार गोचर ग्रह दशाभुक्ति का अनुमोदन कर रहे हैं।
4-11-1935 को इस व्यक्ति को एक पुत्री की प्राप्ति हुई । जन्मकुण्डली बुध की भुक्ति चल रही थी । बुध पंचमाधिपति मंगल के साथ है और इसीलिए सन्तान की प्राप्ति वी अथवा कन्या रूप में करवा रहा है। शुक्र गुरु साथ मिलकर पहले ही मंगल पर प्रभाव डाल रहे हैं। शुक्र और बुध दोनों, स्त्री-ग्रह हैं, अतः कन्या की प्राप्ति हुई।

अब पुत्री के जन्म की पुष्टि गोचर में गुरु द्वारा होनी चाहिए। गुरु को तीनों लग्नों से पंचम भाव अथवा उसके स्वामी को गोचर में प्रभावित करना होगा। देखिए गुरु की ओर। यह शुभ ग्रह पहले तो पंचम भाव में स्थित है, पुनः चन्द्र लग्न से पंचम को देख रहा है।
इसी गुरु का केन्द्रीय प्रभाव सूर्य लग्न से पंचम तथा उसके स्वामी शनि पर भी है। अतः गोचर में तीनों लग्नों से पंचम भाव पर गुरु का प्रभाव देखा गया जो संततिदायक है। चूँकि गोचर में सूर्य से पंचम, चन्द्र से पंचम और लग्न से पंचम प्रत्येक स्थान पर स्त्री संज्ञक राशि है। अतः सन्तति पुत्र न होकर पुत्री हुई।
अस्तु, गोचर में गुरु ने तीनों लग्नों से पंचम भाव पर प्रभाव डालकर मौलिक सिद्धांत की पुष्टि की और दशामुक्ति के फल पुत्री प्राप्ति का अनुमोदन भी और समय भी निश्चित किया ।
इस व्यक्ति को एक और पुत्री की प्राप्ति 26-12-1934 को भी हुई थी। उस समय शुक्र की दशा में शनि की भुक्ति चल रही थी। दोनों स्त्री ग्रह हैं, अतः पुत्री की प्राप्ति सिद्ध हो सकती है। शनि जन्मकुण्डली में नवम स्थान में स्थित है और नवम चूँकि पंचम से पंचम है अतः सन्तान का प्रतिनिधि है। अतः अपनी नवम स्थिति से शनि पुत्री की प्राप्ति की ओर इशारा कर रहा है।
शुक्र गुरु से मिलकर पंचमाधिपति मंगल को प्रभावित कर सन्तान की प्राप्ति की ओर पहले संकेत कर रहा है। यह तो शुक्र दशा में शनि भुक्ति की पुत्री प्राप्त करवाने की बात।

अब गोचर देखिये। गोचर में जैसा कि हमारी प्रतिज्ञा है सन्तान भाव अथवा उसके स्वामी पर गुरु की युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव होना चाहिए।
गोचर पर विचार करने से पूर्व एक नियम की ओर ध्यान दीजिए। वह नियम यह है कि गुरु अधिष्ठित राशि का स्वामी गुरु ही की भाँति कार्य करेगा।
अब देखिए, लग्न से पंचम भाव को गुरु ने घेर रखा है। दूसरे शब्दों में पंचम भाव गुरु के प्रभाव में है। सूर्य से पंचम भाव पर तो सीधी गुरु की दृष्टि है ही रह गया चन्द्र से पंचम भाव, वहाँ पर वही शुक्र गुरु रूप होकर बैठा है। इस प्रकार तीनों लग्नों से सन्तान (पंचम) भाव पर गोचर में गुरु का प्रभाव पाया गया जिससे दशामुक्ति फल का अनुमोदन तथा समय निर्णय हुआ।
दशाफल रहस्य
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