दशाफल देखने के लिये कुछ अनुभूत सूत्र

यहॉ हम ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा के सम्बन्ध में उन विशेष बातों का उल्लेख करेंगे जो अध्ययन तथा अनुभव में आयी हैं :-

सूर्य

(1) यह तो आप जानते हैं कि ग्रहों में सूर्य सबसे बड़ा ग्रह है। यह ग्रह जिस सम्बन्धी आदि के भाव में स्थित होता है उसको अपने महान् आकार के प्रताप से पीड़ित करता है ओर कुण्डली वाले व्यक्ति को उस सम्बन्धी से कलह करने पर बाधित कर देता है।

उदाहरण के लिए जब सब कुंडली के सप्तम भाव में स्थित हो तो मनुष्य का उसकी स्त्री से, और यदि स्त्री की कुण्डली हुई तो स्त्री का अपने पति से कलह चलता रहता है। इसी प्रकार सूर्य यदि चतुर्थ भाव में स्थिति हो तो माता से और पंचम में पुत्र से कलह उत्पन्न करता है। यह कलह मनुष्य सूर्य की दशा अथवा मुक्ति में और अधिक अनुभव करता है।

(2) दूसरी दिशा जिसमें सूर्य प्रायः अपनी दशा-भुक्ति में काम करता है वह पृथकता (Separation) की दिशा है। राहु, शनि आदि पृथकताजनक ग्रहों से मिलकर सूर्य जिस भाव, भावेश आदि पर अपना प्रभाव डालता है व्यक्ति को उस भाव से सम्बन्धित बातों से पृथक कर देता है, दूर कर देता है, हटा देता है, वंचित कर देता है।

जैसे यदि सूर्य तथा राहु अथवा सूर्य तथा शनि अथवा तीनों ही ग्रहों का प्रभाव द्वितीय स्थान पर हो तो जातक को अपने परिवार से पृथक होना पडता है जैसा कि बच्चों को होस्टल आदि में रहकर होना पड़ता है। अथवा संन्यासियों को कुटुम्ब त्याग कर घर से पृथक होना पड़ता है।

इसी प्रकार यदि सूर्य तथा उसी प्रकार के अन्य पृथकताजनक ग्रहों का प्रभाव तृतीय भाव तथा तृतीयेश पर हो तो व्यक्ति के भाई और मित्रों से, सूर्य आदि पृथकताजनक ग्रहों का प्रभाव यदि चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी पर पड़ रहा तो पृथकता चतुर्थ भाव सम्बन्धी बातों से हो जाती है। जैसे – मनुष्य अपना मकान नहीं बना पाता और यदि उसका मकान हो तो उसको छोड़कर वह कहीं दूसरी जगह निवास करता है। इसी प्रकार ऐसी स्थिति में मनुष्य अपनी मातृभूमि से दूर अन्य देश में जा बसता है। उपर्युक्त पृथकतानजक प्रभाव पञ्चम भाव तथा उसके स्वामी पर हो तो मनुष्य की अपने पुत्र से पृथकता हो जाती है।

यह प्रभाव दशम भाव पर तथा दशमेश पर हो मनुष्य को वृत्ति से हाथ धोना पड़ता है और यदि वह व्यक्ति सत्तारूढ़ है तो उसको राज्यत्याग (Abdication) करने पर विवश होना पड़ता है।

(3) सूर्य चूँकि एक विशाल ग्रह है, बल्कि महत्तम ग्रह है । यदि वह बलवान् होकर स्थित हो तो मनुष्य को उस दिशा में, वलवान, बड़ा धनाढ्य आदि बना देता है। जिस दिशा को भी वह अपने आधिपत्य से दर्शाता है उसका फल सूर्य की दशा मुक्ति में मिलता है।

जैसे किसी व्यक्ति की लग्न राशि कुम्भ हो और सूर्य बलवान होकर केन्द्र में स्थित हो तथा वह गुरु अथवा चन्द्र से दृष्ट होतो उस व्यक्ति का विवाह बहुत ऊँचे घराने की किसी राजा अथवा नवाब की लड़की से होता है।

यदि सूर्य द्वितीयाधिपति होकर बलवान हो तो मनुष्य बहुत अधिक विद्वान् तथा महाधनी होता है और राज्यसत्ता प्राप्त करता है। इसी प्रकार यदि सूर्य चतुर्थेश होकर बलवान् हो तो वह अपनी ‘दशा’ तथा ‘भुक्ति’ में खुला, रोशनीदार मकान दिलवाता है, आदि-आदि।

चन्द्र

बड़प्पन में चन्द्र का दर्जा सूर्य से दूसरे नम्बर पर है। सूर्य अगर पुरुष है तो चन्द्र स्त्री ग्रह है और सूर्य राजा है तो यह रानी है। यदि जन्मकुण्डली में किसी शुभ भाव का स्वामी होकर चन्द्रमा बलवान् हो तो उस भाव को अपने गुणों में अत्यधिक प्रफुल्लित तथा परिवर्द्धित करता है।

चन्द्रमा यदि जन्म कुण्डली में विशेष रूप से बलवान् हो जैसा कि शुभ चन्द्राधियोग होने की दशा में होता है तो मनुष्य अवश्य धनाढ्य होता है और उसको यह फल चन्द्र की दशा तथा भुक्ति में प्राप्त होता है ।

चन्द्र की महादशा में यदि राहु की भुक्ति हो या राहु की महादशा में चन्द्रमा की भुक्ति हो तो मनुष्य को अवश्य चिन्ताग्रस्त होना पड़ता है, चाहे जन्म कुण्डली में चन्द्र तथा राहु की कैसी ही स्थिति क्यों न हो। हाँ, यदि उनका परस्पर सम्बन्ध भी हो फिर तो चिन्ता, विशेष रूप धारण कर लेती है; कारण यह कि चन्द्रमा मन का कारक है ओर राहु से वह बहुत भय खाता है । चन्द्र चूँकि लग्न की भाँति कार्य करता है। इसकी दशा तथा मुक्ति प्रायः शुभप्रद होती है सिवाय उस हालत में कि जब चन्द्र अतीव निर्बल हो, तब तो चन्द्र अपनी दशा-भुक्ति में दुःख और दरिद्रता दोनों देता है ।

मंगल

(1) इस ग्रह की दशा तथा अन्तर्दशा सम्बन्धियों आदि की जान लेने में प्रसिद्ध है, विशेषतया उस स्थिति में जबकि मंगल एक तो केतु से मिलकर अथवा केतु अधिष्ठित राशि के स्वामी से मिलकर हानि पहुंचा रहा हो और दूसरे मंगल, केतु आदि क्रूर ग्रहों का प्रभाव भी प्रतिनिधित्व रखने वाले अंगों पर हो। अर्थात पीड़ित भाव उसके स्वामी तथा उसके ‘कारक’ – तीनों पर हो। ऐसी स्थिति में मंगल अथवा केतु अपनी दशा-भुक्ति में अत्यन्त हानिकर सिद्ध होते हैं।

मंगल का हिंसा व शौर्य से विशेष सम्बन्ध है। यही कारण है कि मिलिटरी तथा पुलिस विभाग में कार्य करने वाले लोगों और क्रूर अपराधियों की जन्म-कुण्डलियों में इसका तथा केतु का लग्नों तथा लग्नों के स्वामियों पर विशेष प्रभाव होता है।

(2) इसी प्रकार जब मंगल, पष्ठेश तथा एकादशेश मिलकर लग्न, लग्नेश, सूर्य, चन्द्र अथवा इन ग्रहों द्वारा अधिष्ठित राशि स्वामियों पर प्रभाव डाल रहे हों तो समझ लेना चाहिए कि ये मंगल आदि ग्रह अपनी दशा तथा भुक्ति में शरीर को क्षति, आघात आदि पहुंचाएंगे।

चोट कैसे लगेगी इस बात का निर्णय भी इस प्रकार कर लेना चाहिए। यदि मंगल आदि प्रहारात्मक ग्रहों का सम्बन्ध केवल चतुर्थ भाव अथवा सप्तम भाव (चतुर्थ से चतुर्थ) से हो तो वाहन से चोट कहनी चाहिए। यदि द्वितीयेश चतुर्थेश तथा षष्ठेश तीनों का प्रभाव भी लग्नों पर सम्मिलित हो तो प्रहार किसी जीवित व्यक्ति द्वारा जान-बूझकर किया जाता है।

(3) यदि उपर्युक्त षष्ठेश, एकादशेश आदि का प्रभाव न हो और केवल मंगल-केतु का अथवा उन द्वारा अधिष्ठित राशि के स्वामियों का ही हो या फिर पञ्चमेश, नवमेश, लग्नेश में से किसी का प्रभाव लग्नों पर हो तो आग लग जाने की दुर्घटना कहनी चाहिए। ये सब बातें मंगल आदि ग्रहों की ‘दशा’ तथा ‘भुक्ति’ में देखनी चाहिएं।

बुध

 (1) बुध एक सात्विक ग्रह है। यह विष्णु रूप है। धर्म-संस्थापना और दुष्टों का नाश आदि परोपकार के कार्य विष्णु अपने अवतार द्वारा संपन्न करते हैं, इसी प्रकार बुध अनुकूल स्थिति में बहुत परोपकार, आत्मोत्सर्ग तथा यज्ञीय भावनाओं मनुष्य के जीवन में लाता है, जैसे बुध यदि नवमेश, दशमेश आदि होकर लग्नों से सम्पर्क स्थापित करे और बलवान् भी हो, तो इस ग्रह की दशा-भुक्ति में जातक परोपकर तथा जनसेवा के बहुत कार्य करता है। वह यज्ञादि धार्मिक कृत्यों में भी संलग्न रहता है, दान देता है तथा अन्य कई प्रकार के निष्काम सेवा के कार्य करता है।

(2) बुध जब किसी ग्रह के साथ हो अथवा उससे दृष्ट हो तो वह अपना फल न देकर उस ग्रह का फल देगा जिसके प्रभाव में वह है, अतः बुध की दशा-भुक्ति का फल कहते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि बुध का फल उसको प्रभावित करने वाले ग्रहों के अनुकूल ही कहा जाय।

(3) एक और बात जो बुध की दशा-मुक्ति के सम्बन्ध में स्मरण रखने की है वह है कि बुध का अच्छा अथवा बुरा फल उसकी भुक्ति के आरम्भ कं तीन-चार मासों में ही प्रायः फलीभूत हो जाता है। कारण यह है कि बुध कुमार अवस्था का द्योतक ग्रह है और इसी कारण यह अपना फल भी जल्द ही देना चाहता है।

बृहस्पति

(1) बृहस्पति की दृष्टि में जितना शुभकारी प्रभाव है उतना किसी अन्य ग्रह की दृष्टि में नहीं है । अतः जिन भावों, ग्रहों आदि पर गुरु की दृष्टि पड़ती है, वे प्रायः अपने गुणों आदि में प्रचुर, प्रफुल्लित, दीर्घजीवी, प्रसन्न धनी आदि होते हैं और यह शुभ फल ‘भावेश’ की अथवा स्वयं गुरु की दशा भुक्ति में प्राप्त होता है ।

परन्तु गुरु की दृष्टि का विचार करते समय यह अवश्य देख लेना चाहिये कि गुरु स्वयं तो राहु, शनि आदि अनिष्ट अशुभ ग्रह से अधिष्ठित राशि का स्वामी नहीं है । यदि ऐसा है तब तो उसकी ‘दृष्टि’ भी उन्हीं राहु आदि अशुभ ग्रहों से दूषित समझी जावेगी ।

(2) दूसरी बात गुरु के सम्बन्ध में विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि गुरु यदि पञ्चमेश होता हुआ पञ्चम स्थान से अष्टम अर्थात् द्वादश स्थान में शत्रु राशि में है तो जातक को पुत्रों की प्राप्ति नहीं होती। परन्तु (उदाहरणार्थ) तुला राशि में द्वादश भाव में स्थित गुरु यदि वक्री है तो एक से अधिक पुत्रों की प्राप्ति अपनी ‘दशा-भुक्ति’ में करवाता है ।

(3) एक और बात जो गुरु कं सम्बन्ध में हम पाठकों की दृष्टि में लाना चाहते हैं वह यह है कि जब गुरु कर्क राशि में उच्च होकर एकादश स्थान में स्थित होता है तो एक पुरुष ग्रह होते हुए भी यह अपनी दशा अथवा भुक्ति में स्त्री-सन्तान अर्थात् लड़कियों को जन्म देता है। यह सर्वदा अनुभवसिद्ध है ।

इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में गुरु जिन दो भावों का अर्थात् चतुर्ध और सप्तम का स्वामी बनता है वे दोनों स्त्री भाव हैं- एक माता का तो दूसरा पत्नी का । गुरु इस स्त्री प्रभाव को लेकर स्त्री राशि कर्क में स्थित होकर ही अपनी पूर्ण सप्तम दृष्टि पंचम भाव पर डालता है, जिसका परिणाम स्त्री सन्तान की उत्पत्ति होता है।

(4) यह भी देखा गया है कि मिथुन लग्न वालों के लिये मिथुन लग्न पर पड़ रही गुरु की दृष्टि लाभप्रद नहीं होती; विशेषतया उस दशा में जबकि गुरु पर कोई पाप प्रभाव हो और गुरु स्वक्षेत्री अथवा उच्च न हो।

उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति का जन्म तुला राशि में हो और गुरु नवम भाव को देखता हो परन्तु स्वयं मंगल द्वारा दृष्ट हो अथवा केतु या मंगल आदि पापी ग्रहों द्वारा अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, तो पिता को अपनी दृष्टि द्वारा आयु नहीं देता, भले ही अन्य किसी प्रकार से पिता को आयु प्राप्त होती हो ।

(5) एक और बात बृहस्पति के सम्बन्ध में हम पाठकों के ध्यान में लाना चाहेंगे, वह यह है कि गुरु स्त्रियां के ‘पति’ का कारक है। जिन स्त्रियों की लग्न कन्या अथवा मिथुन हो उनकी कुण्डली में वृहस्पति स्वयं सप्तमाधिपति बन जाता है। पति कारक वृहस्पति का स्वयं पति भाव का ‘स्वामी’ बन जाना विशेष अर्थ रखता है – वह यह है कि गुरु ऐसी स्थिति में अपने ऊपर जो भी प्रभाव लेगा वह प्रभाव कुण्डली का सप्तमेश और ‘सप्तम भाव’ कारक दोनों लेंगे।

अतः यदि मिथुन और कन्या लग्न वाली स्त्रियों की कुण्डली में गुरु पर चन्द्र, शुक्र आदि का शुभ प्रभाव है तथा गुरु केन्द्रादि स्थिति के कारण बली है और पाप प्रभाव में नहीं है तो स्त्रियों को दीर्घजीवी, धार्मिक, अनुकूल, धनाढ्य व गुणी पति मिलेगा और इसके प्रतिकूल यदि इन्हीं मिथुन तथा कन्या लग्न वाली स्त्रियों की कुण्डली गुरु तथा सप्तम भाव पर मंगल, केतु आदि का प्रभाव हुआ तो पति के जीवन को भारी भय होगा और यदि शनि, राहु आदि का उन पर प्रभाव हुआ तो गृहस्थ जीवन कलहमय होगा और तलाक तक की नौबत आ जायेगी

शुक्र

(1) गुरु की भाँति शुक्र भी शुभ फल करता है, परन्तु उन लोगों के लिए जिनकी कुण्डली में यह योगकारक होता है। शुक्र का सम्बन्ध जिस कुण्डली में सप्तम तथा द्वादश भाव से हो वे व्यक्ति प्रायः विषयी होते हैं । जातक की कुण्डली में यदि राहू अधिष्ठित राशि के स्वामी शनि या बुध, शुक्र या सप्तम भाव को प्रभावित करे तो जातक परस्त्रियों से भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करता है ।

शनि

(1) सूर्य के पुत्र शनि में सूर्य का ही एक दोष यह है कि सूर्य की भांति यह भी जिस भाव आदि पर अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव डालता भाव आदि से मनुष्य को पृथक कर देता है। उदाहरण के लिए सूर्य के आगे लिखे विवरण को देखें ।

(2) शनि यदि पष्ठेश अथवा एकादशेश होकर तथा राहु-अधिष्ठित राशि का स्वामी होकर किसी भाव तथा उसके स्वामी को अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा पीड़ित कर रहा हो तो शनि अपनी दशा तथा भुक्ति में उस भाव-प्रदर्शित अंग अथवा सम्बन्धी को रोगी करता है अथवा उससे पृथक करता है।

ग्रहों के गुण-दोष तथा कारक्त्व

ग्रह ‘महादशा’ तथा ‘अन्तर्दशा’ में जो फल देते हैं, वह अपने नैसर्गिक कारक गुणों आदि के अनुरूप ही देते हैं। अतः ‘महादशा’ तथा ‘अन्तर्दशा’ का फल ठीक-ठीक कहने के लिए यह आवश्यक है कि हम ग्रहों के गुणों तथा दोषों से भली प्रकार परिचित हो। इस लिए सबसे पहले ग्रहों के कारकत्व आदि का संक्षिप्त विवरण यहां दे रहे है। प्रत्येक ग्रह के साथ उसका कारकत्व अथवा उसके गुण-दोष दिए गए हैं।

1. सूर्य – आत्मा, निज (Sell) अन्तर्मन स्थान, मर्म स्थान, आधारभूत तथ्य, शक्ति, हृदय, हड्डी, पिता, राजा, पालक, महापुरुष, आँख (दायीं), उच्चवर्ग के लोग (Aristocrats), अग्नि, प्रकाश, ज्ञान, सूक्ष्म तथ्य खुली जगह, बड़प्पन, चौड़ाई, नारंगी रंग, माणिक्य, स्वर्ण, पूर्व दिशा, पुरुष वर्ग (Male sex ), लग्न की भाँति होना, पृथकता, कलह, छोड़ना, त्याग, प्रताप, वर्णमाला की आत्मा अर्थात् स्वर (अ, इ, उ, ए, ओ, औ) दीर्घ आकार, भ्रमण, वन स्थान, लकड़ी, ऊन, यश आदि।

2. चन्द्र – शीघ्रतम गति, मन, भावनायें, रक्त, बाल्य अवस्था, लग्न, रूप, शिशु अवस्था, फेफड़े, छाती माता, नानी, अभिलाषा, जनता, स्मृति, जल, श्वेत रंग, चाँदी, मोती, उत्तर-पश्चिम दिशा, बायीं आँख, निज (Self) वर्णमाला के य, र, ल, व, श, ष, स, ह अक्षर, मध्यम आकार, और उसका प्रकार, राज्य, तालाब, बावड़ी, नदी, समुद्र, दया, मृदुता।

3. मंगल – लाल रंग, रक्त, मांस, पट्टे (Muscles), हिंसा, आग, बारूद, तोप, बन्दूक, साहरा, कार्यक्षमता, बिजली, बिजली का सामान, छोटे सगे भाई, सरकार का रक्षा विभाग, अण्डकोष, चोरी, उहापोह शक्ति (Logic), अस्थिमज्जा (Bone marrow), हिंसात्मक वृत्ति, खतरा मोल लेने की आदत, हठप्रियता, झगड़ने की आदत, क्रोध, मूँगा, दक्षिण दिशा, पुरुष (Male), अत्याचार, क वर्ग अर्थात् क, ख, ग, घ, ङ, मध्यम आकार, भूमि, शल्य क्रिया, सिर।

4. बुध – बुद्धि, विद्या, बालक, बाल्यावस्था, क्रीड़ा, त्वचा, (Skin) व्यापार, सांस की नली, अन्तड़ियां, हरा रंग, मामा (माता का भाई), चेतना, स्मृति, कफ, वात, पित्त, मिश्रित वस्तुयें, बाहुल्य (Plurality), जोड़ों (Twins) आदि की उत्पत्ति, क्रीड़ास्थान, वाद्य संगीत, मूंग की दाल, नपुंसकता, ठण्डक, बंग धातु, लिखने का कार्य, मुंशी, एकाउन्टेन्ट, एजेन्ट, उत्तर दिशा, ट-वर्ग अर्थात् ट, ठ, ड, ढ, ण, दीर्घाकार, परोपकार, यज्ञ, लावण्य, बाजू ।

5. बृहस्पति – ज्ञान, विज्ञान, विशालता, महान् आकार, फैलाव, वृद्धि, प्रफुल्लता, पुत्र, पुरुष (Male), बड़े भाई, पति, चर्बी, जिगर, पाचन संस्थान, higestive system), पीला रंग, धन, पाँव, नितम्ब (Hips) राज्यकृप, उत्तर-पूर्वी दिशा, उच्च शिक्षा अध्यात्म, सात्विकता।

6. शुक्र – स्त्री (Female), पत्नी, वीर्य, मेथुन क्रिया, पौरुष, साहस, जलीय पदार्थ, सुसंस्कृत मन, सत्यप्रियता, विलास और विलास की सामग्री, सामाजिक सम्पर्क (Social contacts), भागीदारी, विवाह, हीरा, दक्षिण-पूर्व दिशा, च-वर्ग अर्थात् च, छ, ज, झ, ञ, मध्यम काया, वाहन, वाणी, आँख।

7. शनि – स्त्री (Female) (जब अकेला हो), ठण्डक, नपुंसकता, जड़ता, स्थिरता गतिरोध, दीर्घकालीनता, पत्थर, नौकर, शूद्र जाति, नीच, नीचता, अन्धेरा, श्रम, श्रमिक वर्ग, टाँग, घुटने (Knees), रोग, अड़चन, पृथकता, छोड़ना, हटना, त्याग, वैराग्य, विष, दीर्घकालीन परिणाम, धीमी गति, आयु, कर्कश वाणी, काला रंग, निर्बलता, फिलासफी, योग, वायु, वायु विकार, वायुयान यात्रा, स्नायु (Nerves), अभाव, न्यूनता, निर्धनता, लोहा, मशीनरी, पेट्रोल, चमड़ा (Leather), तेल, खेत, खानें (Mines) प-वर्ग अर्थात् प, फ, ब, भ, म, लम्बाकार, शरीर के वात।

8. राहु – शरीर के अंगों को छोड़कर राहु में प्रायः वे सब गुण-दोष हैं जो शनि में हैं। इसीलिए कहा है, “शनिवत् राहु”। अर्थात् राहु शनि की भांति है।

9. केतु – शरीर के अंगों को छोड़कर केतु में प्रायः वे सब गुण-दोष हैं जोकि मंगल में हैं। इसीलिए कहा है- “कुजवत् केतु”। अर्थात् केतु मंगल की भांति है। केतु को ‘मोक्ष’ का कारक भी माना गया है।

इन पंक्तियों से आपको मोटे रूप से यह ज्ञात हो ही गया होगा कि ज्योतिषशास्त्र में किस ग्रह से किस गुण-दोष का पता लगाया जाता है।

दशाफल रहस्य

  1. ज्योतिष के मौलिक नियम
  2. दशाफल देखने के लिये कुछ अनुभूत सूत्र
  3. लग्नों के शुभ अशुभ ग्रह
  4. दशाफल देखने के लिये सुदर्शन का प्रयोग
  5. अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय – 1
  6. अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय – 2
  7. दशाफल रहस्य
  8. दशा और गोचर

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