अन्तर्दशा की घटनाओं का निर्णय
भुक्तिनाथ की स्थिति के द्वारा
गत अध्याय में हमने इस बात का अध्ययन किया कि कुण्डली के शुभ अथवा योगकारक ग्रहों का निश्चय एक ही श्रेणी की अधिक संख्या में विद्यमान लग्नों से किया जाना चाहिए। ऐसी लग्नों से निर्धारित किया हुआ शुभ अथवा योगकारक ग्रह, निस्सन्देह धनादि तथा राज्यादि विषयों के सम्बन्ध में शुभ फल का प्रदान करने वाला होता है, परन्तु इस विधि से निर्धारित किया हुआ शुभ ग्रह किस प्रकार दशानाथ का शत्रु होता हुआ अपनी शुभता में न्यून हो जाता है यह प्रस्तुत अध्याय का विषय है।
मान लीजिए कि विचाराधीन भुक्तिनाथ तटस्थ ग्रह है अर्थात् न शुभ है और न अशुभ। यदि ऐसा ग्रह महादशानाथ का शत्रु होगा तो वह तटस्थ न रहकर अशुभ हो जाएगा। दूसरे शब्दों में भुक्तिनाथ का महादशानाथ का शत्रु होना उसकी शुभता में से एक अंक (Point) को कम करता है।
इस सिद्धान्त का उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि किसी कुण्डली में महादशा तो मंगल की है और भुक्ति बुध की ऐसी स्थिति में बुध चाहे तो तीनों ही लग्नों से कितना भी शुभ फल करने वाला क्यों न हो, इस बात के कारण कि वह दशानाथ का शत्रु है, अपनी शुभता में से एक अंक (Point) खो बैठेगा।
अन्तिम परिणाम में चाहे फिर भी बुध शुभ फल करने वाला ही रह जावे; परन्तु यह एक बात तो उसके विरुद्ध ही जाएगी। इसी प्रकार दूसरी भुक्तियों का हाल भी समझ लेना चाहिए। जैसे सूर्य की महादशा में शनि की भुक्ति अथवा शनि की महादशा में सूर्य की भुक्ति अथवा गुरु में शनि या शुक्र में गुरु आदि की भुक्ति ।

उदाहरणार्थ निम्नलिखित कुण्डली संख्या 1 लीजिए । चन्द्र की महादशा में तथा शुक्र की भुक्ति में इस व्यक्ति को गुप्त शत्रुओं से पाला पड़ा। इस बात का ज्ञान हमें इस तथ्य से होता है कि चूँकि शुक्र (भुक्तिनाथ) चन्द्र का शत्रु है, इस कारण से यह शुक्र चतुर्थ भाव के लिए, जिसका कि वह स्वामी है और जहाँ पर उसकी मूल त्रिकोण राशि पड़ी हुई है, हानिकारक सिद्ध होगा। चतुर्थ भाव जनता का है, अतः जनता में से किसी से शत्रुता होनी उपयुक्त थी। शुक्र चन्द्र से अष्टम में स्थित है, इस बात का भी शत्रुत्व में हाथ है।
तो निष्कर्ष क्या निकला कि भुक्तिनाथ जब दशानाथ का शत्रु होकर दशानाथ से षष्ठ आदि अनिष्ट स्थानों में स्थित हो तो वह उस भाव के लिए हानिप्रद होगा जिसका कि वह स्वामी है।
भुक्तिनाथ जब दशानाथ का शत्रु हो तो उसके विरुद्ध एक अंक हो जाता है – यह हमने देखा। साथ ही हमने यह भी देखा कि जब भुक्तिनाथ दशानाथ से अनिष्ट स्थान में, विशेषतया छठे, आठवें या बारहवें में हो तो उसके विरुद्ध एक अन्य अंक हो जाता है। अर्थात् जिस भाव का स्वामी भुक्तिनाथ होता है उसे दो अंक से हानि पहुँचती है। यदि वह ग्रह जिसको इस प्रकार दो अंक हानि पहुँच रही है तीन से शुभ है तो भी अन्तिम परिणाम में यद्यपि वह शुभ फल करेगा, परन्तु आपने देखा कि उसकी शुभता कितनी कम हो गई।
सर्वार्थ चिन्तामणिकार का कहना है कि “जब भुक्तिनाथ दशानाथ से छठे अथवा आठवें हो तो जातक की प्रतिष्ठा गिर जाती है और वह अपमानित होता है”।
कुंडली संख्या 1 में हम देख चुके हैं कि मुक्तिनाथ शुक्र दशानाथ का न केवल शत्रु है अपितु उससे अष्टम में भी स्थित है। इस प्रकार शुक्र के विरुद्ध दो अंक हो गए परिणाम यह हुआ कि चतुर्थ भाव को जिसका कि स्वामी शुक्र है, हानि उठानी पड़े ।
इस प्रकार हमने देखा कि यदि भुक्तिनाथ दशानाथ का शत्रु भी हो और उससे षष्ठ अथवा अष्टम आदि स्थानों में भी स्थित हो, तो दो अंक उसके विरुद्ध हो जायेंगे और ग्रह यदि दो से अधिक अंकों से बली न हुआ तो शुभ स्थानों का स्वामी होता हुआ भी अनिष्ट फल अपनी दशा-अन्तर्दशा में देगा।
भुक्तिनाथ को किन दो प्रकार से हानि उठानी पड़ती है इसका अध्ययन हमने किया। एक और स्थिति भी स्थानात्मक है, जिसके कारण भुक्तिनाथ को हानि पहुँचती है। इस तथ्य को समझने के लिये शुभ-अशुभ भावों का अध्ययन कर लेना चाहिये।
कुण्डली में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम और एकादश भाव शुभ मान लीजिये और कुण्डली के तृतीय, षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भाव अशुभ मान लीजिये। यह शुभ-अशुभ वर्गीकरण न केवल लग्नों से ही देखना होता है, बल्कि ग्रहों की राशियों से भी देखना होता है।
उदाहरणार्थ – यदि कर्क लग्न की कुण्डली हो और बुध लग्न से पंचम त्रिकोण स्थान में स्थित हो तो बुध को बलवान् नहीं समझा जायेगा, यद्यपि यह एक नैसर्गिक शुभ ग्रह है और त्रिकोण स्थान (पंचम) में स्थित है। इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में बुध अपनी एक राशि मिथुन से तो छठे स्थान में होगा और दूसरी राशि कन्या से तृतीय में।
जैसा कि हम लिख चुके हैं तृतीय तथा षष्ठ स्थिति निर्बलतादायक है, अतः बुध दोनों भावों अर्थात् द्वादश तथा तृतीय के लिए हानिप्रद हो जायेगा। इसका फल यह होगा कि द्वादश तथा तृतीय भावों को निर्बलता मिलेगी और स्वयं बुध भी निर्बल समझा जायेगा, चाहे अन्तिम परिणाम बहुत शुभ ही क्यों न हो ।
इसके विपरीत कर्क लग्न में स्थित मंगल को लें। यह मंगल स्वयं भी बलवान् समझा जायेगा और उन भावों को भी बलवान् करेगा जिनका कि यह स्वामी है; क्योंकि अपनी एक राशि मेष से तो मंगल शुभ स्थान (चतुर्थ) में होगा ही। दूसरी राशि वृश्चिक से भी शुभ स्थान (नवम) में होगा। अतः मंगल नीच होता हुआ भी राजदरबार तथा बुद्धि आदि की उन्नति करने वाला होगा। अनुच्छेद संख्या चार में दी हुई कुण्डली में जब-जब भी मंगल की भुक्ति आई उसमें जातक को धन, पदवी तथा मान में वृद्धि मिली।

ग्रह अपने भावों से अनष्टि स्थान में स्थित होकर किस प्रकार उस भावों को हानि पहुँचाते हैं इस बात का उदाहरण कुण्डली संख्या 2 है। इस कुण्डली में बुध की स्थिति पर विचार कीजिये। बुध अपनी एक राशि मिथुन से छठे और दूसरी राशि कन्या से तृतीय स्थान में है। तृतीय और षष्ठ दोनों स्थितियाँ अशुभ हैं; अतः द्वादश तथा तृतीय भाव जिनका कि बुध स्वामी है और स्वयं बुध को निर्बलता और हानि पहुँचेगी।
चूँकि द्वादश तथा तृतीय दोनों स्थान अशभ हैं, अतः अशुभ स्थानों को हानि पहुँचेगी। अशुभता की हानि का अर्थ यही है कि शुभता मिलेगी। सारांश यह है कि अपनी राशियों से अनिष्ट स्थानों पर ग्रहों की स्थिति उन-उन राशियों से सम्बन्धित भावों को हानि पहुँचाती है।
फिर इस कुण्डली में तो उन भावों के स्वामी बुध पर और भी पाप प्रभाव विद्यमान है। जैसे-मंगल और राहु की दृष्टि और शनि सूर्य का मध्यत्व। इस कारण बुध और अधिक निर्बल और इसी कारण और अधिक शुभ बन गया है। बुध अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल दे रहा है।
उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि भुक्तिनाथ जब दशानाथ का शत्रु हो और उससे अनिष्ट स्थान में भी हो तो भुक्तिनाथ को हानि पहुँचती है। साथ ही यदि भुक्तिनाथ लग्न के स्वामी का भी शत्रु हो और लग्न से भी अनिष्ट स्थान में स्थित हो तो यह भुक्ति और अधिक हानि पहुँचाती है। इस तथ्य का उदाहरण निम्नलिखित है :-

इसमें धनु लग्न हैं। इस व्यक्ति को मंगल की महादशा में तथा शनि की भुक्ति में अपने बड़े अधिकारियों के हाथों बहुत परेशानी, शत्रुता तथा हानि उठानी पड़ी।
यहाँ आप देखेंगे कि भुक्तिनाथ दशानाथ का शत्रु भी है और उससे द्वादश स्थान में भी स्थित है। फिर वही शनि लग्नेश अर्थात् गुरु का भी मित्र नहीं और लग्न से द्वादश स्थान में स्थित है। ऐसी स्थिति में शत्रुत्व तथा बाधाओं की सृष्टि अनिवार्य तथा शास्त्र सम्मत ही थी।
आप यह भी देखेंगे कि शनि ग्रह सूर्य अधिष्ठित राशि का स्वामी होकर अनिष्ट स्थिति में है। यही कारण है कि विरोध राज्याधिकारयों की ओर से हुआ।
जब कोई ग्रह दशानाथ का शत्रु भी हो और उससे षष्ठ आदि अनिष्ट स्थान में भी हो और लग्न का भी शत्रु हो और लग्न तथा लग्नेश से भी षष्ठ आदि अनिष्ट भाव में हो और अपनी राशियों से भी अनिष्ट भावों में हो तो, आपने देखा कि वह अपनी शुभता को किसी बड़ी हद तक खो बैठता है।
अतः अब आप अवश्य यह समझ गये होंगे कि उक्त भुक्तिनाथ यदि कुण्डली मे राजयोगकारक ग्रह ही क्यों न हो, उक्त कारणों वश अपनी शुभता में कमी ले आता है। अतः सम्भव है कि कभी राजयोग कारक भी अशुभ फल दे जावे।
इसके विपरीत यह भी सम्भव है कि ग्रह आधिपत्य से तो पापी हो, जैसे-मिथुन लग्न वालों का मंगल; परंतु यदि वह दशानाथ का शत्रु होकर दशानाथ से छठे आठवें आदि अनिष्ट भाव में स्थित हो तथा और साथ ही अपनी राशियों से भी छठे आठवें आदि बुरी स्थिति में है लग्न लग्नेश से भी अनिष्ट भाव में हो तो अवश्य ही ग्रह निर्बल होकर अत्यन्त शुभ फल अर्थात् धनादि के देने वाला होगा।
पापी भुक्तिनाथ से प्रभावित अंगों द्वारा
पापी भुक्तिनाथ जब दो ऐसे अंगों पर अपना अनिष्ट प्रभाव डाल रहा हो जो दोनों एक ही तथ्य के द्योतक हों तो उस तथ्य सम्बन्धी अनिष्ट घटनाओं का के फलीभूत होना कहना चाहिये।
इस सिद्धान्त को इस प्रकार समझिये। इस व्यक्ति को (कुंडली संख्या 4) शुक्र की महादशा तथा शनि की भुक्ति में शत्रुओं से बहुत कष्ट उठाना पड़ा। यहाँ भुक्तिनाथ शनि एक नैसर्गिक पापी ग्रह होता हुआ दो ग्रहों-शुक्र तथा चन्द्र को अपनी पूर्ण तृतीय तथा दशम दृष्टि से क्रमशः पीड़ित कर रहा है।

अतः शुक्र और चन्द्र में जो बात साझी (Common) हो वह बात शनि की भुक्ति में घटित होगी। शुक्र और चन्द्र में क्या बात साझी है ? शुक्र चतुर्थ भाव का स्वामी है; इस कारण जनता का प्रतिनिधित्व करता है और चन्द्रमा जनता का कारक होते हुए अन्यत्व तथा शत्रुत्व सूचक छठे भाव का स्वामी है। अतः जनता से शत्रुत्व दोनों ग्रहों में साझी बात है। इसलिए शनि ने अपने क्रूर प्रभाव से उक्त सम्भावनाओं को मूर्तिमान् किया।

पापी भुक्तिनाथ की भुक्ति का एक अनिष्टकारी उदाहरण हम यहां दे रहे हैं। व्यक्ति की जन्मकुण्डली (कुंड्ली संख्या 5) मिथुन लग्न की है। बुध की महादशा तथा केतु की भुक्ति में जातक को लाखों की हानि हुई ।
यद्यपि केतु शनि के साथ है और शनि अधिकतर नवम भाव का फल करता है; इस कारण शुभ है; परन्तु केतु की दृष्टि लग्न पर, चन्द्र लग्न पर तथा सूर्य लग्न के स्वामी मंगल पर पूर्ण पड़ रही है और फिर भुक्तिनाथ केतु दशानाथ बुध को भी हानि पहुँचायेगा। अतः तीनों लग्नों के पीड़ित होने के कारण लाखों की हानि शास्त्र सम्मत थी।
पापाधिष्ठित राशि के स्वामी भुक्तिनाथ द्वारा
यद्यपि चन्द्र के बल की मुख्य कसौटी उसका पक्ष बल ही है, फिर भी जब चन्द्र चार पापी प्रभावों में हो तो पक्ष बल में बलवान् होता हुआ भी निर्बल समझा जावेगा और उस भाव को भी अपनी भुक्ति में हानि पहुंचावेगा जिस भाव का वह स्वामी है।

उदाहरण के लिए यह कुण्डली संख्या 6 लें। यहाँ द्वादश भाव में राहु और शनि नैसर्गिक पापी ग्रह स्थित हैं। ज्योतिष के मौलिक नियमों के अनुसार पापियों के साथ बुध भी पापी माना जावेगा। बुध इसलिये भी अधिक पापी है कि मंगल तथा सूर्य दो पापी ग्रहों द्वारा अधिष्ठित राशि का स्वामी है। अतः द्वादश भाव में वास्तव में चार पापी ग्रहों का प्रभाव है।
यह तो पाठकों को विदित है कि द्वादश स्थान आँख का है – द्वादशेश भी आँख का प्रतिनिधि होता है और यदि द्वादशेश चन्द्र हो तब तो विशेष रूप से ऐसा होगा। अतः यह द्वादशेश चन्द्र आँख का रूप होता हुआ राहु की दृष्टि द्वारा चार पापी प्रभावों में है।
निष्कर्ष यह है कि द्वादश भाव द्वादशेश और द्वादश (आँख) कारक सभी पाप प्रभाव में है। अतः आँख का चला जाना तो निश्चित है। अब प्रश्न है कब ? तब जब आँख का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी अंग पाप प्रभाव में हों। शनि की दशा में शनि विशेष रूप से द्वादश भाव को हानि पहुंचावेगा, क्योंकि शनि न केवल नैसर्गिक रोगकारक ग्रह है; बल्कि इस कुण्डली में रोग तथा क्षति अर्थात् छठे स्थान का स्वामी भी है।
इतना ही नहीं, शनि अपने अन्दर केतु का प्रभाव भी रखता है, क्योंकि इसकी राशि में केतु स्थित है। केतु मंगल की भाँति हानिकारक ग्रह है; अतः शनि की महादशा द्वादश भाव (आँख) को हानि पहुंचाने के लिये अतीव उपयुक्त है।
रह गई बात द्वादशेश तथा द्वादश भाव कारक चन्द्र की हानि उठाने की। वह उस समय हानि उठावेगा (आँख खो देगा) जबकि इसकी भुक्ति होगी, क्योंकि चार पापी ग्रहों के पाप प्रभाव में चन्द्र है।
निष्कर्ष यह है कि भुक्तिनाथ पर पापी दशानाथ की दृष्टि अथवा युति सम्बन्ध का होना आवश्यक नहीं, पापी प्रभावों का होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में भुक्तिनाथ जिस भाव का स्वामी है यदि उस भाव का कारक भी है तो पाप प्रभाव के कारण कारकत्व की हानि अवश्य होगी।
दशानाथ पर भुक्तिनाथ के प्रभाव द्वारा
गत पंक्तियों में हमने कुछ ऐसी स्थितियों का अध्ययन किया जिनमें कि भुक्तिनाथ का प्रभाव विविध अंगों पर पड़ता है। इस प्रकरण में हम भुक्तिनाथ के दशानाथ पर प्रभाव का कुछ अध्ययन करेंगे।
भुक्तिनाथ और दशानाथ के पारस्परिक सम्बन्ध के सन्दर्भ में यह बात भी स्मरण रखने योग्य है कि भुक्तिनाथ जन्म कुण्डली में चाहे कहीं भी पड़ा हो और महादशानाथ से युति अथवा दृष्टि द्वारा किसी प्रकार का सम्बन्ध अथवा सम्पर्क स्थापित किए हुए न भी हो तो भी वह अपनी भुक्ति में अपना प्रभाव महादशानाथ पर अवश्य डालेगा। भाव यह है कि भुक्तिनाथ का प्रभाव सदा सर्वदा दशानाथ पर पड़ता है यह सिद्धान्त रूप से समझ लेना चाहिए।
इस सिद्धान्त से यह बात तो और भी स्पष्ट हो जाती है कि जब भुक्तिनाथ अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा महादशानाथ पर अपना प्रभाव डाल रहा होगा तो यह प्रभाव अधिक मात्रा में फलीभूत होगा।

एक उदाहरण लीजिए। इस व्यक्ति की (कुंडली संख्या 7) नौकरी गुरु की महादशा तथा शुक्र की भुक्ति में जाती रही। यहाँ शुक्र गुरु के साथ है। शुक्र की भुक्ति का यह अर्थ है कि द्वादशेश अर्थात् पृथकताजनक ग्रह अपना कार्य कर रहा है। यह पृथकता का प्रभाव और भी सुस्पष्ट है जब हम देखते हैं कि शुक्र ग्रह शनि तथा केतु द्वारा अधिष्ठित राशि का स्वामी है और अपने में शनि तथा केतु का पृथकताजनक प्रभाव भी रखता है।
अतः अपने इस पृथकताजनक प्रभाव द्वारा शुक्र ने व्यक्ति को गुरु से पृथक् कर दिया। अर्थात् राज-सेवा (द्वितीय भाव) तथा राज्यकृपा (गुरु के राज्यकृपा कारक होने के नाते) से अलग कर दिया। इस उदाहरण से हमें शिक्षा मिलती है कि किस प्रकार नैसर्गिक शुभ ग्रह भी पापी बनकर काम कर डालता है।

एक और उपयुक्त उदाहरण निम्नलिखित कुण्डली संख्या 8 में देखिए। इस व्यक्ति को बुध की महादशा तथा राहु की भुक्ति के समय बीमारी में कई दिन तक अचेत रहना पड़ा। यहाँ नकारात्मक तथा अभावात्मक छाया ग्रह राहु की नवम दृष्टि बुध पर है; अतः राहु अपनी भुक्ति में अवश्य बुध पर अपना उक्त प्रकार का प्रभाव डालेगा।
बुध चूँकि चेतना और बुद्धि (Awareness and consciousness) का प्रतीक है और चेतना और बुद्धि स्थान में स्थित है, बल्कि भावात् भावम् के सिद्धान्तानुसार पञ्चमात् पञ्चम अर्थात् नवम का स्वामी होकर पञ्चम भाव ही का प्रतिनिधित्व कर रहा है। अतः राहु द्वारा पीड़ित होने को चेतना की हानि अथवा लोप के रूप में प्रकट कर रहा है।
चन्द्र की महादशा में जब राहु की भुक्ति आती है तो चन्द्र को अपने शत्रु द्वारा पीड़ा पहुँचती है, चाहे कुण्डली में राहु का किसी प्रकार का भी कोई प्रभाव चन्द्र पर न हो। इसका कारण भी जैसा कि हम लिख चुके हैं – यही सिद्धान्त है कि अन्तर्दशानाथ सदा सर्वदा महादशानाथ को प्रभावित करता है; चाहे भुक्तिनाथ दशानाथ को दृष्टि आदि से प्रभावित न भी कर रहा हो।
इससे यह भी स्पष्ट है कि जब कुण्डली में राहु युति अथवा दृष्टि द्वारा चन्द्र को प्रभावित कर रहा हो तब राहु की भुक्ति चन्द्र के लिए और भी अधिक कष्टप्रद होगी और फलतः मन में भय और व्यथा अधिक होंगे।
भुक्तिनाथ का प्रभाव सर्वदा दशानाथ पर रहता ही है, परन्तु जब कुण्डलो में दशानाथ न केवल भुक्तिनाथ से दृष्ट हो, बल्कि दशानाथ जिस राशि का स्वामी है उस राशि पर भी भुक्तिनाथ की दृष्टि हो तो फिर दशानाथ सम्बन्धी घटनाएँ और भी निश्चित रूप से घटित होंगीं।

इसकी परीक्षा आप निम्नांकित कुण्डली संख्या 9 में कीजिये इस व्यक्ति की माता की मृत्यु इस व्यक्ति की 11 वर्ष की आयु में, जबकि वह बुध की दशा तथा मंगल की भक्ति से गुजर रहा था, हुई।
अब यहाँ देखिये भुक्तिनाथ नैसर्गिक पापी मंगल न केवल चतुर्थ माता के भाव तथा माता के कारक चन्द्र को अपनी युति द्वारा पीड़ित कर रहा है, अपितु मंगल की दृष्टि दशानाथ बुध तथा उसकी राशि मिथुन पर भी है। दूसरे शब्दों में, बुध को बहुत कष्ट पहुँच रहा है। कुण्डली में बुध माता के स्थान का अष्टमाधिपति होने के कारण माता की आयु का प्रतिनिधि है।
अतः माता के आयु स्थान तथा उस स्थान के स्वामी पर मंगल की दृष्टि माता की आयु के लिये अतीव अनिष्टकारी है । स्मरण रहे कि मंगल एक प्रबल मारणात्मक ग्रह है और बुध का परम शत्रु भी है।
यहाँ पाठक प्रश्न कर सकता है कि जबकि परम शुभ ग्रह की दृष्टि न केवल माता के आयु स्थान पर, बल्कि उस स्थान के स्वामी बुध दोनों पर पड़ रही है। तो फिर क्या कारण है कि माता की मृत्यु जातक की अल्प आयु में ही हो गई ?
इसका उत्तर यह है कि यद्यपि गुरु की दृष्टि बुध पर तथा माता के आयु स्थान पर पड़ रही है, परन्तु गुरु को तो देखिये कि वह शनि दृष्ट तथा राहु अधिष्ठित राशि मीन का स्वामी है। अतः गुरु की इस दृष्टि में शुभता नहीं, बल्कि उल्टी राहु तथा शनि की अशुभता है।
अतः गुरु की दृष्टि को शुभ मानने से पहले यह देखना आवश्यक है कि कहीं गुरु पापाधिष्ठित राशि का स्वामी तो नहीं? यदि है तो इसकी दृष्टि भी अनिष्टकारी ही सिद्ध होगी ।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक भुक्तिनाथ जो नैसर्गिक शुभ ग्रह भी हो और लग्नेश का भी मित्र हो तो भी अपनी भुक्ति में रोग आदि दे देता है। ऐसी स्थिति में भुक्तिनाथ ऐसा अनिष्ट कार्य इसलिए करता है कि वह एक ऐसी राशि का स्वामी है जोकि पाप ग्रहों से अधिष्ठित होती है और भुक्तिनाथ उस पाप प्रभाव को लेकर दशानाथ तथा उसकी किसी प्रतिनिधित्व रखने वाली राशि पर डालता है जिसके फलस्वरूप उस राशि-प्रदिष्ट अंग में रोग आदि हो जाता है।

एक और उदाहरण कुंडली संख्या 10 लीजिए। यहाँ भुक्तिनाथ दशानाथ पर दृष्टि आदि से प्रभाव नहीं रखता तो भी उपरोक्त नियमानुसार वह दशानाथ को पीड़ित करके दशानाथ सम्बन्धित घटनाओं को घटित कराता है।
इस व्यक्ति की मृत्यु गंगाजी में डूबकर हुई। मृत्यु के दिन गुरु की महादशा में राहु का अन्तर चल रहा था। राहु लग्न को तो पूर्ण नवम दृष्टि से देख ही रहा है। पूर्वोक्त सिद्धांतानुसार राहु का प्रभाव दशानाथ गुरु पर भी है। दूसरे शब्दों में लग्न तथा लग्नाधिपति दोनों राहु से पीड़ित हैं और राहु के सम्बन्ध में ध्यान रहे कि वह इस कुण्डली में मंगल तथा चन्द्र, दो पापी ग्रहों से प्रभावित है।
अतः यह छाया ग्रह अपनी भुक्ति में यह पाप प्रभाव भी लग्न तथा उसके स्वामी पर डालेगा। यही नहीं, राहु की भुक्ति में यह पाप प्रभाव सूर्य तथा सूर्य लग्न के स्वामी और चन्द्र तथा चन्द्र लग्न के स्वामी शुक्र (जिससे राहु केन्द्र में है) पर भी पड़ेगा।
दूसरे शब्दों में तीनों की तीनों लग्नें तथा उनके स्वामी राहु द्वारा पाप प्रभाव में आ जाएंगी जिससे आयु-स्वास्थ्य का हानिग्रस्त होना सिद्ध होगा।
मृत्यु जल में डूबकर क्यों हुई ? इस बात का उत्तर यह है कि मरण विधि द्योतक अंगों पर जलीय ग्रहों का प्रभाव है। चतुर्थ स्थान (जलीय स्थान) में जलराशि मीन है और उसका स्वामी गुरु एक जलीय (द्वादश) स्थान में, एक जलीय (वृश्चिक) राशि में बैठकर अष्टम स्थान पर प्रभाव डाल रहा है, जहाँ पहले ही जलीय राशि में जलीय ग्रह उपस्थित है।
शुक्र चूँकि चन्द्र लग्न से अष्टमेश बनता है, अतः चन्द्र लग्न भी शुक्र पर उक्त जलीय प्रभाव के कारण मृत्यु को जलीय बना रहा है। सूर्य लग्न से अष्टम स्थान पर भी उसी जलीय गुरु का प्रभाव है। इस प्रकार तीनों लग्नों से जल के सम्बन्ध से मृत्यु को प्राप्त होना सिद्ध होता है।
दशाफल रहस्य
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