अन्तर्दशा फल कहने के नियम
हमने विशद रूप से ग्रहों की महादशा का फल पिछले लेखो में लिख दिया है। जो फल ग्रह अपनी महादशा में करता है वही फल वह अपनी अन्तर्दशा में भी करता है। हां, इतना अवश्य है कि दशानाथ के बदलने से तथा ग्रह की निज की स्थिति बदलने के कारण अन्तर्दशा में अन्तर पड़ जाता है । इसलिए आवश्यक यह है कि हम समझ लें कि यह अन्तर कब-कब और कैसे पड़ता है ? प्रस्तुत लेख का यही विषय रहेगा।
1. यह मौलिक नियम है कि जो ग्रह लग्न का अर्थात् लग्न के स्वामी का मित्र होगा, वह शुभ फल करेगा और जो उसका शत्रु होगा वह अशुभ । इसलिए यदि आप किसी ग्रह की अन्तर्दशा का फल ज्ञात करना चाहते हैं तो सबसे पहले यह निश्चय कीजिए कि विचाराधीन भुक्तिनाथ अथवा अन्तर्दशानाथ (यह दोनों शब्द पयर्यायवाची हैं) लग्नेश का मित्र है, शत्रु है, सम है । जैसा इसका मित्रता आदि का सम्बन्ध हो उसके अनुसार शुभ, अशुभ, सम फल कहो ।
2. भुक्तिनाथ जो ग्रह है उसका फल न केवल इस बात पर निर्भर करता है कि वह लग्नेश का मित्र है अथवा शत्रु, बल्कि इस बात पर भी कि वह लग्न तथा लग्नेश से मित्र स्थानों में स्थित है अथवा शत्रु स्थानों में। यदि मित्र स्थानों में है तो भुक्तिनाथ शुभ फल करेगा और यदि शत्रु स्थानों में है तो अशुभ ।
3. यह बात भी समझ लीजिए कि जब हम कहते हैं कि भुक्तिनाथ शुभ फल करेगा तो हमारा तात्पर्य केवल इतना होता है कि वह उस भाव का शुभ फल करेगा जिसका कि वह स्वामी है और यदि वह भुक्तिनाथ दो घरों का स्वामी है तो उस भाव का जिसमें कि उसकी मूल त्रिकोण राशि स्थित है । अतः जब कोई ग्रह लग्न का मित्र होकर और लग्न लग्नेश से शुभ स्थानों पर स्थित हो तो वह जिस भाव का स्वामी है उसका शुभ फल करेगा ।
(4) इतना ही नहीं, भुक्तिनाथ का सम्बन्ध दशानाथ से भी अतीव घनिष्ठ रहता है। यदि कोई भुक्तिनाथ का दशानाथ मित्र है तो वह भुक्तिनाथ अपनी भक्ति में पुनः उस भाव का शुभ फल प्रदान करेगा जिसका कि वह स्वामी है ।
(5) यहां भी यदि भुक्तिनाथ दशानाथ से शुभ स्थानों में पड़ा है तो और अधिक शुभ फल करेगा। किसके लिए? उसी भाव की बातों के लिए जिसका कि वह स्वामी है ।
(6) इतना ही क्यों ? यदि भुक्तिनाथ जिस राशि का फल कर रहा है उससे भी शुभ स्थान पर पड़ा है तो और भी अधिक फल उस भाव सम्बन्धी करेगा जिसका कि वह स्वामी है।
परन्तु आप पूछेंगे कि शुभ और अशुभ भाव कौन-कौन हैं ? उत्तर : 3,6,8 तथा 12 भाव और ऐसी ही स्थितियां बुरी अथवा अशुभ हैं और 1,2,4,5,7,9,10,11 यह भाव और स्थितियां शुभ हैं ।
(7) तो आपने देखा कि एक भुक्तिनाथ की शुभता को बढ़ाने वाली बहुत-सी बातें हैं, अर्थात्-
- लग्न का मित्र होना ।
- लग्नेश से शुभ स्थान में बैठना ।
- लग्न से शुभ स्थान में बैठना ।
- दशानाथ का मित्र होना ।
- दशानाथ से शुभ स्थानों में बैठना ।
- निज राशियों से शुभ स्थानों में बैठना ।
इसके विरुद्ध यदि कोई ग्रह अशुभ फलकारी है तो वह भी 6 प्रकार से अपने उस भाव के लिए, जिसका कि वह स्वामी है, अशुभ
सिद्ध हो सकता है अर्थात् –
- लग्न का शत्रु होना ।
- लग्नेश से अशुभ स्थान में बैठना ।
- लग्न से अशुभ स्थान में बैठना ।
- दशानाथ का शत्रु होना ।
- दशानाथ से अशुभ स्थानों में बैठना ।
- निज स्थानों से अशुभ स्थान में बैठना ।
उपरोक्त ६ प्रकार की शुभता और अशुभता का उल्लेख इसलिए किया गया है कि हम इस बात को समझ जावें कि यदि कोई ग्रह अपने आधिपत्य से बहुत शुभ हो तो भी वह बहुत बुरा फल दे सकता है। यह सत्य है। इसके विपरीत यदि कोई आधिपत्य से अशुभ हो और उपरोक्त कारणों से उस अशुभ भाव का अशुभ फल करे तो बहुत शुभ सिद्ध हो सकता है।
हमारा विश्वास है कि आप यदि उपरोक्त विधि से चलेंगे तो दशा भुक्ति का फल कहीं अच्छा कह सकेंगे अपेक्षाकृत उस स्थिति के कि आप पुस्तक से पढ़ लें कि गुरु महादशा में शुक्र का क्या फल लिखा है ? ऐसा करना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि ग्रहों के फल को बदलने वाले अनेक कारण हैं जैसा कि आप देख ही चुके हैं । यही कारण है कि हमने यथापूर्व फल न कहकर फल कहने के ढंग पर प्रकाश डालना अधिक उपयोगी समझा ।
अन्तर्दशा में प्रत्यन्तर
अन्तर्दशा में प्रत्यन्तर का उल्लेख प्रत्येक ग्रह को लेकर लिखना न तो इस गोचर सम्बन्धित पुस्तक में सम्भव था और न ही उचित । प्रत्यन्तर दशा के फल कहने का नियम भी वही है जोकि अन्तर्दशा अथवा दशाफल कहने का है। यहां भी यह देखना पड़ता है कि जो फल दशानाथ तथा भुक्तिनाथ मिलकर दे रहे हैं, प्रत्यन्तर उसका अनुमोदन करता है अथवा उसके विरोध में जाता है । यदि अनुमोदन करता है तो प्रत्यन्तर में उसी भुक्तिनाथ के फल को कहना चाहिये और ज्यादा पक्के रूप में कहना चाहिये अन्यथा उस फल में कमी बतलानी चाहिये ।
विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम दो उदाहरण ऐतिहासिक महत्त्व वाले और विख्यात व्यक्तियों के लेंगे । एक निजाम आफ हैदराबाद का कि किस तरह उसके योगकारक ग्रहों ने उस को बुरा फल दिया और दूसरा श्रीमती इन्दिरा गांधी का कि किस प्रकार उसके सबसे बुरे ग्रह ने सबसे अच्छा फल उपरोक्त कारणों वश दिया।
उदाहरण 1: निजाम हैदराबाद की कुंड्ली चित्र में दी गई है। हैदराबाद पुलिस एक्शन (Police Action) के समय निजाम को गुरु की महादशा में गुरु की अन्तर्दशा चल रही थी। निजाम की आगे दी गई जन्मकुण्डली से आप देखेंगे कि अन्तर्दशा का स्वामी शुक्र लग्न का स्वामी है और एक योगकारक होने के नाते इसको चाहिए था कि निजाम की जीत करा देता । परन्तु हुई उसकी हार ।
तो देखिए शुक्र दशानाथ गुरु का शत्रु है और फिर गुरु से अनिष्ट स्थान अर्थात् छठे बैठा है और मंगल तथा राहु से पीड़ित भी है । ऐसी स्थिति में शुक्र ने बुरा फल दिया। किसके लिए ? लग्न के लिए जहां कि शुक्र की मूल त्रिकोण राशि तुला स्थित है। लग्न के लिए बुरे फल का तात्पर्य है पराजय, हानि और राज्य से उच्युत हो जाना ।
उदाहरण 2: अब आइए, प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की जन्मकुण्डली की ओर जो नीचे दी है इसमें 9-11-1970 से शनि की महादशा में शनि ही का अन्तर 12-11-73 तक रहा। शनि की भुक्ति ने क्यों उतना अच्छा फल दिया कि इन्दिरा जी की बहुत बड़े बहुमत से जीत हुई ? बंगला देश बना और उनको भारत रत्न की उपाधि प्राप्त हुई।
देखिए, शनि नैसर्गिक रूप से बहुत बुरा ग्रह है। दूसरे, यह सबसे बुरे घर अर्थात् आठवें का स्वामी है। तीसरे, यह उस घर से छठे है। चौथे, यह शत्रु राशि में स्थित है। यह चार कारण ही इस बात के लिए पर्याप्त हैं कि शनि अष्टम भाव के लिए अशुभ फल करे । अष्टम भाव पहले ही मंगल तथा केतु द्वारा दृष्ट है और इस पर कोई शुभ प्रभाव नहीं। तो अष्टम भाव जिसमें कि शनि की मूल त्रिकोण राशि कुम्भ स्थित है बुरी तरह पिटा है। इसका अर्थ यह है कि अष्टम जोकि पराजय का स्थान है उसने उल्टा फल अर्थात् सर्वत्र विजय दी और अष्टम जिसका अर्थ गरीबी है उसने राज्य दिया। इस प्रकार बुरे ग्रह अच्छा फल करते हैं ।
तो इस प्रकार ग्रहों का फल न केवल उनकी केन्द्र स्थिति अथवा मित्र राशि में स्थिति आदि से देखना चाहिए, बल्कि इस बात द्वारा भी कि उनका लग्न, लग्नेश तथा दशानाथ से कैसा सम्बन्ध और कैसी स्थिति है ?
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