महादशा फल
जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं ग्रहों का शुभ फल उनके शुभ होने और बलवान होने पर निर्भर करता है । ग्रह केन्द्रादि स्थिति से किन-किन सूरतों में बलवान समझे जाते हैं इस बात का भी उल्लेख वहीं हो चुका है, प्रस्तुत अध्याय में ग्रह शुभ अथवा अशुभ होकर तथा बलवान और निर्बल होकर कैसा फल देते हैं, इस विषय का उल्लेख होगा ।
सूर्य महादशा फल
सूर्य ग्रहों का राजा है, इसलिए “यत्पिण्डे तदे ब्रह्माण्डे” के सिद्धान्तानुसार संसार में भी जो वस्तुएं प्रमुख हैं, ऊंची हैं, बड़ी हैं महत्त्वपूर्ण हैं, मार्मिक हैं, आधारभूत हैं, पालक रूप हैं, प्रतापशाली हैं उन सबका प्रतिनिधित्व सूर्य करता है । उदाहरणार्थ सूर्य यदि लग्नेश हो और बलवान भी तो मनुष्य के स्तर को बहुत ऊंचा ले जाता है और अपनी दशा भुक्ति में राज्य तथा ऊंचा पद दिलवा देता है जैसा कि हम शिवाजी आदि नेताओं की कुण्डलियों में देखते हैं ।
यदि सूर्य लग्नेश होकर निर्बल हो तो उलटा फल करेगा और मनुष्य को घटिया दरजे का, सामाजिक हैसियत से कम महत्त्व वाला बना देगा ।
2. यदि सूर्य द्वितीय भाव का स्वामी हो और बलवान हो तो मनुष्य की दूसरे भाव (धन, परिवार) सम्बन्धी सब बातें ऊंचे दरजे की होंगी, ऐसा व्यक्ति प्रभावशाली आंखों वाला होगा। उसकी शिक्षा भी ऊंचे दरजे की होगी और आत्मा की तरह सूक्ष्म तथा गम्भीर होगी। उसकी आवाज में से प्रभाव टपकता होगा। उसके कुटुम्ब का कोई न कोई व्यक्ति ऊंचे पद पर आसीन अथवा बहुत धन का स्वामी होगा । वह धन भी अच्छा कमाएगा और उसका एकत्रित धन (Bank Balance) भी अधिक होगा । उसकी माता के बड़े भाई आमतौर पर ऊंची हैसियत के मालिक होंगे। उसके किसी बच्चे को राज्य में अधिकारपूर्ण पद की प्राप्ति होगी।
परन्तु सूर्य निर्बल हुआ तो उसको धन की हानि और कमी रहेगी। यदि सूर्य और द्वितीय भाव दोनों बहुत पीड़ित हुए तो ऐसा व्यक्ति आंख खो बैठेगा और उसकी माता के बड़े भाई को कष्ट होगा। यदि द्वितीय भाव और सूर्य पर राहु, शनि और षष्ठेश का प्रभाव हुआ तो ऐसा व्यक्ति धन की बचत न कर सकेगा। धन उसके पास आवेगा तो सारा व्यय हो जावेगा। ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे कुटुम्ब में जा सकता है अर्थात् उसको कोई अपना मुतबन्ना बना लेगा। हां, इतना कहना है कि राहु शनि के प्रभाव से ऐसा व्यक्ति डाक्टरी विद्या (Medical Education) प्राप्त करेगा। परन्तु साधारणतया व्यक्ति होस्टल में रहकर विद्या ग्रहण करेगा या फिर घर से भाग जाने की आदत रखता होगा । यदि चतुर्थ, चतुर्थाधिपति तथा द्वादश द्वादशाधिपति पर भी राहु तथा शनि का प्रभाव हुआ तो ऐसा व्यक्ति संन्यासी हो जाएगा । यदि द्वितीयेश सूर्य के साथ बुध भी हुआ और दोनों पर राहु और शनि तथा षष्ठेश की युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव हुआ तो ऐसे व्यक्ति की जुबान में कोई त्रुटि होगी अर्थात् वह हकलाता होगा ।
(3) यदि सूर्य तीसरे भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो वह अपनी दशा अन्तर्दशा में मनुष्य को बहुत प्रभावशाली और सक्षम बना देगा । उसके छोटे भाई प्रायः ऊंचे स्तर को प्राप्त होंगे। उसके मित्र ऊंचे-ऊंचे राज्याधिकारी होंगे। उसके पास खूब बाहु बल होगा। उसकी आयु लम्बी होगी। उसके नीचे काम करने वाले भी ऊंचे-ऊंचे स्तर के मालिक होंगे। ऐसा व्यक्ति उस मनुष्य का जान-बूझकर विरोध करता है जिसके त्रिक भाव में सूर्य स्थित होता है। ऐसे व्यक्ति का ससुर प्रायः उच्च पदस्थ अथवा बहुत प्रभावशाली होता है, ऐसे व्यक्ति के बड़े भाई का बेटा भी जीवन में ऊंचा जाता है। जातक स्वयं विजयशाली होता है ।
यद्रि सूर्य तीसरे भाव का स्वामी हो और निर्बल हो तो व्यक्ति इसकी दशा अन्तर्दशा में कायरता का परिचय देता है। उसके छोटे भाइयों को कष्ट होता है । वह मित्रों से धोखा खाता है, वह निर्बल और दीन हो जाता है । उसको अचानक भयानक कष्ट होता है जो मृत्यु सम होता है। उसके नौकर आदि उससे प्रायः विरोध करते हैं। ऐसे व्यक्ति की सुसराल साधारण घराने की होती है ऐसा व्यक्ति प्रायः पराजय को प्राप्त होता है, परन्तु सूर्य की दशा में उसको धन की कमी नहीं होती ।
(4) यदि सूर्य चतुर्थ भाव का स्वामी हो और बलवान हो तो मनुष्य में धैर्य की मात्रा अधिक होती है । वह खुले रोशनी और हवादार मकान में निवास करता है। उसको माता का अच्छा सुख मिलता है । यदि शुक्र का योग सूर्य से हो तो अच्छे वाहन की प्राप्ति होती है । ऐसे व्यक्ति के पास प्रायः एक से अधिक मकान होते हैं। ऐसे व्यक्ति को पैतृक सम्पत्ति भी प्राप्त होती है। ऐसे व्यक्ति को उसके सम्बन्धी सहायक होते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी महान् नेता का सम्पर्क प्राप्त करता है। उसके पास घरेलू सुख की सामग्री पर्याप्त मात्रा में रहती है।
यदि सूर्य निर्बल हो तो जातक को उसकी दशा भुक्ति में बहुत दुःख उठाना पड़ता है, उसकी माता तथा उसके पिता दोनों को कष्ट रहता है। ऐसी स्थिति में उसको सम्बन्धियों से भी अच्छा व्यवहार प्राप्त नहीं होता। यदि सूर्य पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो तो ऐसा व्यक्ति इस समय में अपनी मातृभूमि अथवा निवास-स्थान छोड़कर अन्यत्र जा बसता है और उसको अपना मकान बनाने में बहुत कष्ट और विलम्ब होता है। उसको अपनी पैतृक सम्पत्ति का भाग प्राप्त नहीं होता। इस अवधि में जनसाधारण जातक का विरोध करता है और उसे वाहन की हानि होती है अथवा जायदाद हाथ से निकल जाती है ।
(5) यदि सूर्य पंचमेश हो और बलवान हो और उस पर गुरु की कृपा दृष्टि हो तो बहुत पुत्रों को प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति में गम्भीर चिन्तन की पर्याप्त शक्ति रहती है। उसका पुत्र प्रायः जीवन में ऊंचा स्तर प्राप्त करता है । वह इस अवधि में अच्छे धन की प्राप्ति करता है। यदि सूर्य पर अधिक शुभ प्रभाव हो तो उसे सट्टे, लाटरी आदि से भी इस अवधि में लाभ हो सकता है। यह अवधि उसके सात्विक आमोद-प्रमोद की होती है। इसमें वह व्यक्ति भागवान् विष्णु की भक्ति प्राप्त करता है अथवा वेदान्त शास्त्र प्रतिपादित नियमों के पालन की ओर अग्रसर होता है । उसमें दूर की सोचने की शक्ति रहती है । यदि सूर्य बहुत शुभ प्रभाव में हो तो इस अवधि में जातक भविष्य वक्ता बन जाता है और उसको अपनी स्त्री के बड़े भाइयों से लाभ रहता है और आमतौर पर भी उसके भाग्य में वृद्धि होती है। उसकी बड़ी बहिन के पति की भी इस अवधि में वृद्धि होती है। ऐसा व्यक्ति इस अवधि में अपने महकमे की परीक्षाओं को पास करने में सफल हो जाता है ।
यदि पंचमेश सूर्य निर्बल हो और शनि तथा बुध के प्रभाव में वह भी और पंचम भाव भी हो तो इस अवधि में मनुष्य को अनपाचे (Dyspepsia) का रोग हो जाता है और उसकी स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है । यदि पाप प्रभाव अधिक हो तो पेट में अलसर आदि असाध्य रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। राहु और शनि के प्रभाव में पंचम पंचमेश बार-बार गर्भपात करवाता है । ऐसे व्यक्ति को लाटरी, सट्टे आदि से सर्वदा हानि ही रहती है। उसकी स्त्री के बड़े भाई उसके विरोध में उस दशा अवधि में चलते हैं ।
(6) यदि सूर्य छठे भाव का स्वामी हो और बलवान हो तो मनुष्य रोग रहित रहता है । यदि छठे भाव और सूर्य दोनों पर शुभ प्रभाव ही हों तो उस अवधि में ऐसे व्यक्ति का कोई शत्रु नहीं होता । उसकी माता के छोटे भाई ऊंची पदवी को प्राप्त करते हैं। उसके लघु भाइयों के सुख में वृद्धि होती है। इस अवधि में जातक को प्रायः कुछ न कुछ आर्थिक कठनाई ऋण आदि उठाने पड़ते हैं ।
यदि छठे भाव और सूर्य पर पाप प्रभाव हो तो मनुष्य इस अवधि में शत्रुओं के हाथों पीड़ित होता है। इसको बहुत ऊंचे स्तर के शत्रुओं का सामना करना पड़ता है । यदि सूर्य के साथ लग्नेश भी हो और दोनों पीड़ित हों तो पित्त के रोगों तथा पेट के रोगों में ग्रस्त होना पड़ता है । मामा आदि को कष्ट होता है और निज का उनसे कुछ प्राप्त नहीं होता। बड़े भाई को बहुत शारीरिक कष्ट रहता है । पुत्र के धन का भी नाश इस अवधि में होता है।
(7) सूर्य यदि सप्तमेश हो और विशेष बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में शाही घराने तक से विवाह करवा सकता है। तात्पर्य यह है कि विवाह अपने से कहीं अधिक ऊंचे घराने में होता है। इस अवधि में मनुष्य को ऊंचे दरजे के व्यापार से लाभ रहता है और यदि जातक राज्य सेवक (Govt. Servant) है तो उसे पदोन्नति प्राप्त होती है। यदि स्त्री की कुण्डली हो तो इस अवधि में उसका पति अपने स्तर को ऊंचा करता है । इस अवधि में सुख सामग्री की भी वृद्धि होती है। पिता का बड़ा भाई भी ऊंचा जाता है। अपने बड़े भाई का भाग्य भी ऊंचाई पकड़ता है ।
यदि सूर्य निर्बल हो और राहु तथा शनि द्वारा सप्तम भाव सहित पीड़ित हो तो इस अवधि में स्त्री से अनबन हो जाती है और यदि यह प्रभाव बहुत पापी हो तो तलाक अथवा पृथक्ता तक नौबत आ जाती है । व्यापार में हानि होती है। राज्य से विरोध खड़ा हो जाता है, सुख सामग्री में कमी आ जाती है। पिता के बड़े भाई को कष्ट होता है। अपने बड़े भाई के भाग्य में हानि होती है । मामा के धन का नाश होता है । स्त्री का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है ।
(8) यदि सूर्य अष्टमेश होकर बलवान हो तो आरोग्य को बढ़ता है, पुराने खातों की रकमें वापिस दिलाता है । अनुसन्धान कार्यों में (अपनी दशा भुक्ति में) रुचि उत्पन्न करता है । पुत्र के सुख में भी वृद्धि करता है। पिता का व्यय शुभ कार्यों में होता है । बड़े भाई को मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है । यदि सूर्य और अष्टम स्थान निर्बल और पीड़ित हों तो इस अवधि में मनुष्य को विदेश जाना पड़ता है, विशेषतया ऐसी स्थिति में जब कि सूर्य और अन्य कोई पापी ग्रह चन्द्र लग्न से अष्टम भाव और उसके स्वामी को भी पोड़ित कर रहा हो। इस अवधि में ‘मनुष्य पर भारी रोग का आक्रमण भी संभव है। पिता का व्यय बहुत होता है । निज को बहुत मानसिक क्लेश रहता है। सुसराल वालों का धननाश होता है । बड़े भाई को मान हानि का डर रहता है।.
(9) सूर्य यदि नवमेश होकर बलवान हो तो अवश्य राज्य की कृपा प्राप्त होती है और उसकी दशा भुक्ति में अधिकार मिलता है। भाग्य में ऊंचे दरजे की वृद्धि होती है, स्त्री का छोटा भाई तरक्की पाता है, छोटी बहिन के पति का मान तथा व्यापार भी बढ़ता है। धार्मिक ‘कार्यों में रुचि इस अवधि में विशेष रूप से बढ़ जाती है। पिता के मान और धन में भी नव वृद्धि होती है। पौत्र के जन्म की संभावना रहती है। सट्टे आदि कार्यों में भी प्राप्ति होती है।
सूर्य यदि निर्बल हो तो भाग्य में हानि होती है। राज्य की ओर से विरोध होता है, नौकरी आदि छूट जाती है । व्यापार में हानि उठानी पड़ती है । स्त्री के छोटे भाई को कष्ट होता है । धार्मिक कार्यों में रुचि कम रहती है, पिता को शारीरिक कष्ट रहता है। सट्टे आदि में हानि रहती है।
(10) सूर्य यदि दशम भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में राजसत्ता किसी न किसी रूप में देता है। मान में विशेष वृद्धि होती है। शुभ यज्ञीय कार्य इस अवधि में मनुष्य अपने हाथ से करता है । पिता के धन की वृद्धि होती है। इस अवधि में कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। धन में भी वृद्धि होती है। किसी बड़े काम धन्धे का श्रीगणेश होता है । यदि शुक्र का सूर्य से योग हो तो पति को वाहनादि की प्राप्ति होती है।
यदि सूर्य निर्बल तथा पापी ग्रहों से पीड़ित है तो राज्य से तथा अधिकार से हटा देता है। अच्छे यज्ञीय कार्यों से दूर रखता है, पिता को इस अवधि में आर्थिक हानि होती है और जातक का अपना अपमान होता है। छोटे भाई को कष्ट होता है। अपने कार्यों में जातक को असफलता रहती है । सास को शारीरिक कष्ट रहता है। सुसर को भी इस अवधि में कष्ट रहता है। छोटे भाइयों का स्वास्थ्य भी बिगड़ जाता है ।
(11) सूर्य यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो बहुत अच्छा धन का लाभ इसकी दशा भुक्ति में होता है, बड़े भाई मान और धन प्राप्त करते हैं । जातक की सात्विक प्रवृत्तियां कार्यान्वित होती हैं । पुत्री के विवाह की संभावना रहती है और यदि वह विवाहित हो तो उसके पति के मान और धन में वृद्धि होती है। छोटे भाइयों का भाग्य चमकता है।
यदि सूर्य निर्बल और पाप प्रभाव में हो तो लाभ में कमी, बड़े भाई को कष्ट, पुत्री के पति को कष्ट, माता को कष्ट होता है। यदि जातक कोई बहुत बड़ा राज्याधिकारी जैसे प्रधान मन्त्री अथवा सेना का अधिकारी हुआ तो इस अवधि में लड़ाई द्वारा जनता को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है। जातक की सात्त्विक प्रवृत्तियों में कमी आ जाती है । पुत्री के विवाह में अड़चनें उत्पन्न होती हैं और यदि वह विवाहित है तो उसके पति को कष्ट रहता है। जातक का अपने बड़े भाइयों से विरोध रहता है। माता को बहुत कष्ट पहुंचता है
(12) यदि सूर्य द्वादशेश होकर बलवान हो और किसी अच्छे भाव में स्थित हो तो उस भावानुसार शुभ फल धनादि अपनी दशा भुक्ति में दिलवाता है। राज्य के रक्षा विभाग के बड़े आफिसरों से सम्पर्क स्थापित करता है । भोगों में वृद्धि करता है । व्यय शुभ दिशा में होता है । पूजा के स्थानों का तथा समुद्र आदि का दर्शन होता है।
सूर्य यदि निर्बल और पाप दृष्ट है तो अपनी दशा भुक्ति में अनुचित व्यय करवा देगा । इस अवधि में आंख में कष्ट रहेगा। राज्य के सेना विभाग के अधिकारियों से अनबन रहेगी । जातक को उस भाव सम्बन्धित बातों से हानि रहेगी जिसमें कि सूर्य स्थित हो । यदि शुक्र सहित सूर्य पर राहु, शनि का प्रभाव हो तो उस अवधि में जातक को निद्रा के अभाव की शिकायत (Insomnia) हो जावेगी । पुत्र को विशेष कष्ट होगा । पिता के सुख में हानि होगी ।
चन्द्र महादशा फल
(1) चन्द्रमा यदि पहले भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में बहुत धन देता है, मान में वृद्धि करता है, प्रसन्नता को बढ़ाता है, स्त्री वर्ग से लाभ करवाता है। तरल पदार्थों से लाभ दिलवाता है । स्वास्थ्य सुन्दर रहता है, मन में दया के भावों को उत्पन्न करता है । जिस भाव में चन्द्र स्थित हो जातक की इस अवधि में उससे विशेष प्रीति रहती है ।
यदि चन्द्रमा निर्बल हो और पीड़ित हो तो मनुष्य रोगी रहता है । धन का नाश और मान-हानि भी इस अवधि में होती हैं । यदि बुध के साथ होकर पाप प्रभाव में हो तो इस समय मस्तिष्क के रोग से पीड़ित रहता है। उसको खांसी, निमोनिया आदि छाती के रोगों का कष्ट भी होता है। माता के छोटे भाई के लिए यह समय कष्टप्रद रहता है । चन्द्रमा क्षीण बली होकर जिस भाव में जाकर स्थित हो उसको मनुष्य जान-बूझकर हानि पहुंचाने का प्रयत्न करता है ।
(2) चन्द्रमा यदि द्वितीय भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो धन में विशेष वृद्धि अपनी दशा भुक्ति में देता है, कोष में वृद्धि करता है । कुटुम्बियों से सुख देता है। इस अवधि में विवाह की भी संभावना रहती है । विद्या में उन्नति होती है । भाषण शक्ति तेज होती है। आंखों की ज्योति स्वस्थ रहती है। माता की बड़ी बहिनों की उन्नति होती है, पुत्र को सम्मान प्राप्त होता है, भाई के सुख में वृद्धि होती है। खाने-पीने की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में और अच्छी प्राप्त होती हैं ।
चन्द्रमा यदि क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो मनुष्य के धन का नाश उसकी दशा अन्तर्दशा में होता है, कुटुम्बियों से अनबन हो जाती है। आंख में कष्ट रहता है । विद्या में हानि हो जाती है, विशेषतया जब चन्द्रमा राहु तथा शनि से पीड़ित हो, ऐसा पीड़ित चन्द्रमा जिह्वा का कोई दोष ला खड़ा करता है । स्त्री को महान् कष्ट होता है, भाइयों का व्यय होता है, माता की बड़ी बहिन को कष्ट रहता है । अप्रिय भोजन और कभी-कभी विष भक्षण तक की नौबत आ जाती है ।
(3) चन्द्रमा यदि तृतीय भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो उसकी दशा भुक्ति में धन की थोड़ी प्राप्ति होती है, परन्तु छोटे भाइयों के धन और मान में वृद्धि होती है। छोटी बहिनों की विशेष वृद्धि होती है । इस अवधि में अच्छे मित्रों की प्राप्ति होती है और मनुष्य अपने बाहुबल का खूब परिचय देता है। उसको विजय प्राप्त होती है और नौकरों-चाकरों का सुख मिलता है । लेखन शक्ति में वृद्धि होती है ।
यदि चन्द्रमा निर्बल हो तो व्यक्ति को धन की अच्छी आय रहती है । परन्तु उसे मित्रों तथा बहिन भाइयों से अच्छा व्यवहार नहीं मिलता । भृत्यगण बात मानने से इन्कार कर देते हैं। पराजय का मुँह देखना पड़ता है । चन्द्रमा जिस भाव में जाकर स्थित हो उसको मनुष्य जान बूझकर हानि पहुंचाने का यत्न करता है। माता की आंख में कष्ट रहता है।
(4) चन्द्रमा यदि चतुर्थ भाव का स्वामी हो और बलवान हो तो मन में विशेष उल्लास, प्रसन्नता, उत्साह और शान्ति अपनी दशा भुक्ति देता है। इस अवधि में व्यक्ति को जनसाधारण के सम्पर्क में आने का अधिक अवसर प्राप्त होता है। मामा की ओर से इन दिनों उसे खूब प्यार मिलता है, उसके सुख में वृद्धि होती है, यदि चन्द्र और शुक्र का सम्बन्ध हो तो जातक को वाहन आदि का सुख प्राप्त होता है । जलीय स्थानों में उसका भ्रमण होता है, मकान आदि की प्राप्ति की सम्भावना रहती है। मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर रहता है । इस अवधि में मनुष्य भावुकता के आवेश में आकर कई शुभ कार्य करता है । इस अवधि में जातक के छोटे बहिन, भाइयों के धन में वृद्धि होती है तथा ससुर का धन बढ़ता है।
यदि चन्द्रमा क्षीण और पापी प्रभाव में हो तो यह अपनी दशा भुक्ति में मन में क्रोध, उदासीनता, वैराग्य आदि कई प्रकार को वृत्तियों को जन्म देता है, यदि चन्द्रमा बुध से तथा सूर्य और मंगल से मिलकर राहु, शनि द्वारा पीड़ित हो तो मस्तिष्क के रोगों से मनुष्य बहुत पीड़ित रहता है और अधिक पाप प्रभाव होने पर पागल तक हो जाता है। यदि चन्द्रमा और चतुर्थ भाव पर केवल राहु का प्रभाव हो तो मनुष्य इस अवधि में रक्तचाप (Blood Pressure) से पीड़ित रहता है । उस अवधि में उसे मानसिक क्लेश बहुत प्राप्त होते हैं, माता रोगी रहती है । स्वयं जातक भी छाती के रोगों से पीड़ित रहता है। पीड़ित चन्द्रमा की दशा में मनुष्य धन का बहुत नाश देखता है । इस अवधि में उसके पिता को महान् शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है । यदि स्त्री की कुण्डली है तो उसके पति को कुछ अपमानित होना पड़ता है। घर से प्रायः बाहर रहना पड़ता है । जनता के हाथों दुःख उठाना पड़ता है । यदि राहु से प्रभावित चन्द्र सप्तम में हो तो व्यभिचार की प्रवृत्ति देता है।
(5) चन्द्रमा यदि पंचमेश होकर बलवान हो तो उसकी दशा भुक्ति में जातक को प्रखर बुद्धि की प्राप्ति होती है । उसमें मन्त्रणाशक्ति आ जाती है जिससे वह अच्छी नेक सलाह दे सकता है। मनुष्य की अपने इष्टदेव में निष्ठा दृढ़ हो उठती है । उसको सट्टे आदि से भी कुछ प्राप्ति होती है। धन में उसके विशेष वृद्धि होती है । किसी पुत्री की प्राप्ति की सम्भावन भी रहती है । उसका मन आमोद-प्रमोद की ओर विशेष रूप से इस अवधि में आकर्षित होता है।
यदि चन्द्रमा क्षीण और पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति के धन का बहुत नाश होता है । उसके भाग्य की सख्त हानि होती है । उसके पुत्रों आदि को कष्ट की प्राप्ति होती है । उसकी स्मरण शक्ति में ह्रास आ जाता है, विशेषतया जबकि चन्द्र पर तथा पंचम भाव पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो । जातक की योजनाएं (Schemes ) पूरी नहीं हो पातीं। उसको सट्टे आदि में हानि होती है। यदि बुध, चन्द्र और गुरु इकट्ठे अथवा अलग-अलग राहु तथा शनि के प्रभाव में हों तो मनुष्य को मस्तिष्क के रोगों का शिकार होना पड़ता है। और बहुत पाप प्रभाव होने की दशा में पागल तक हो जाने का भय रहता है । पिता के भाग्य में भी हानि आती है। स्त्री के बड़े बहिन, भाइयों अथवा पति के बड़े बहिन, भाइयों के लिए यह समय कष्ट और हानिप्रद रहता है। सट्टे आदि से जातक को हानि रहती है।
(6) चन्द्रमा षष्ठेश होकर बलवान हो तो धन का मध्यम सुख देता है। माता के छोटे भाइयों की वृद्धि करता है । शत्रुओं को कम करता है । स्वास्थ्य को सुन्दर रखता है। इसके अतिरिक्त अपनी दशा भक्ति में चन्द्रमा अधिक परिश्रम करवाता है । यदि लग्नेश के साथ हो तो बहुत धन देता है। इस अवधि में पुत्र की भी वृद्धि होती है ।
यदि चन्द्रमा षष्ठेश होकर निर्बल और पीड़ित हो तो धन की वृद्धि करता है । मामा को कष्ट पहुंचाता है । यदि लग्नेश को साथ लेकर पीड़ित हो तो रक्त दोष से कष्ट देता है । बड़े भाई को महान् कष्ट का सामना करना पड़ता है। इस अवधि में शत्रुओं की खूब उत्पत्ति होती है और पुत्र के धन का नाश होता है । यदि चन्द्रमा पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो तो पुत्र विद्या में असफल रहता है ।
(7) चन्द्रमा यदि सप्तमेश होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में विवाह का सुख देता है । काम-वासना की वृद्धि करता है । व्यापार को बढ़ाता है । राज्य की ओर से लाभ देता है । मान में तथा धन में वृद्धि करता है । भूमि, जायदाद, वाहन आदि का सुख भी देता है । विशेषतया जबकि चतुर्थेश और शुक्र आदि से सम्बन्धित हो। इस अवधि में पिता के बड़े बहिन, भाइयों की भाग्य वृद्धि होती है ।
यदि चन्द्रमा क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो जातक को अपनी दशा भुक्ति में रोगी रखता है । व्यापार में हानि देता है । राज्य की ओर से परेशानी देता है । भूमि, जायदाद, वाहन आदि सुख से वंचित रखता है। पिता के बड़े भाई, बहिनों को इस अवधि में कष्ट होता है। धन में हानि देता है और स्त्री को रोगी करता है ।
(8) चन्द्रमा अष्टमेश होकर यदि बलवान हो तो भी धन के विषय में बुरा फल नहीं देता । जातक का मन किसी विज्ञान आदि की समस्या के अनुसन्धान में रत रहता है। मनुष्य का स्वास्थ्य साधारण रहता है । यह इसकी दशा भुक्ति का फल है ।
यदि चन्द्रमा अष्टमेश होकर क्षीण और पाप प्रभाव में हो तो अचानक व्यक्ति को महान् शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है। धन की कमी रहती है । अनुसन्धान कार्यों में जातक को सफलता प्राप्त नहीं होती । यदि अष्टम भाव और चन्द्रमा दोनों पीड़ित हों और साथ ही चन्द्र लग्न से अष्टम अष्टमेश हो तो इस अवधि में मनुष्य विदेश यात्रा (Foreign Travel) करता है। यदि ऐसी स्थिति में चन्द्र का सम्बन्ध द्वितीय भाव और उसके स्वामी से रहे तो मनुष्य की यह विदेश यात्रा विद्या सम्बन्धी होती है ।
(9) चन्द्रमा यदि नवमेश होकर बलवान हो तो वह अपनी दशा भुक्ति में मनुष्य को धर्मप्रिय बनाता है। उसके विचार इस अवधि में बहुत ऊंचे रहते हैं । उसके भाग्य तथा धन में विशेष वृद्धि होती है। उसके पिता का धन, मान भी बढ़ता है। उसकी स्त्री के छोटे भाइयों के भाग्य में तथा मान में वृद्धि होती है। जातक की छोटी बहन के पति की भी वृद्धि होती है । मनुष्य को पौत्री की प्राप्ति होती है। सट्टे आदि व्यापार से लाभ रहता है। राज्य की ओर से कृपा दृष्टि बनी रहती है। पुत्र भी उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है ।
यदि चन्द्र नवमेश होकर क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो अपनी दशा भक्ति में धन का नाश करता है। जातक को व्यापार अथवा नौकरी में भारी हानि उठानी पड़ती है। उसका मन धार्मिक कार्यों से उचाट रहता है। उसके पिता को आर्थिक हानि और शारी- रिक कष्ट रहता है। जातक की स्त्री के छोटे वहिन-भाइयों के भाग्य को भी हानि पहुंचती है। जातक की छोटी बहिन के पति के स्वास्थ्य तथा धन को भी हानि पहुंचती है। सट्टे आदि व्यापार में घाटा उठाना पड़ता है । पुत्र को भी आर्थिक हानि का समय होता है ।
(10) यदि चन्द्र दशमेश होकर बलवान हो तो राज्य सत्ता तथा अधिकार की प्राप्ति इसकी दशा भुक्ति में होती है । जातक को मान और यश मिलता है। उसके धन में भी वृद्धि होती है। इस अवधि में उसे सास से धन मिलने की सम्भावना रहती है। जातक का मन यज्ञीय और परोपकार की भावनाओं से भरपूर रहता है । उसके मन में महत्त्वाकांक्षा रहती है और उसको कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। यदि चन्द्र सप्तम में हो तो प्रायः प्रेम विवाह (Love Marriage) होती है ।
यदि चन्द्रमा दशमेश होकर क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो राज्य के अधिकारियों की ओर से परेशानी रहती है। मनुष्य को अधिकार से हाथ धोने पड़ते हैं विशेषतया जबकि दशम भाव और चन्द्र पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो। ऐसी स्थिति में उसे सर्वत्र विफल होना पड़ता है, उसके मान और यश में कमी आती है । जातक के धन में बहुत कमी आ जाती है। जातक धर्म कार्यों में प्रवृत नहीं होता ।
(11) यदि चन्द्रमा ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो उसको विशेष धन की प्राप्ति होती है । स्त्री वर्ग से उसे लाभ इसा की दशा भुक्ति में रहता है । जातक का मन शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त रहता है । उसको बड़े भाइयों-बहनों तथा मित्रों से इस अवधि में सहायता मिलती है। छोटे भाई के भाग्य में वृद्धि होती है । पुत्री को पति प्राप्त होता है अथवा उसके पति की उन्नति होती है । यदि चन्द्रमा शुक्र से युक्त हो तो बहुत धन इस अवधि में आता है।
चन्द्रमा यदि एकादशेश होता हुआ क्षीण हो और उस पर पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो धन की आय कम हो जाती है । स्त्री वर्ग से जातक को इस चन्द्रमा की दशा भुक्ति में हानि उठानी पड़ती है । मन में दुःख की अनुभूति होती है । जिस भाव में चन्द्रमा की स्थिति हो उसका विरोध जातक जान-बूझकर करता है। अतः इस दशा में उस भाव से हानि उठानी पड़ती है । यह समय माता के स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से हानिप्रद है । पुत्रों को इस समय रोग रहता है।
(12) चन्द्रमा यदि द्वादशेश होता हुआ बलवान है और शुभ प्रभाव में है तो धन में वृद्धि करवाकर अपनी दशा भुक्ति में बहुत अच्छा धन और सुख देता है। जातक को नींद आदि पलंग के सुख खूब मिलते रहते हैं । व्यय भी साथ-साथ बढ़ जाता है, परन्तु शुभ दिशा में होता है। मनुष्य का मन भ्रमण में बहुत रहता है ।
यदि चन्द्रमा द्वादशेश होता हुआ क्षीण हो और पापयुक्त पापदृष्ट हो और साथ ही द्वादश भाव पर भी ऐसा ही पाप प्रभाक हो तो चन्द्रमा की दशा अथवा भुक्ति में जातक आंख से हीन हो जाता है, विशेषतया उसकी बाईं आंख को कष्ट पहुंचता है। उसका व्यय अनुचित होता है। यदि चन्द्र पर तथा द्वादश भाव पर राहु का प्रभाव है और लग्नेश पर भी, तो कारागार में व्यक्ति पहुंच जाता है।
इस अवधि में पिता को विशेष मानसिक कष्ट होता है। छोटे भाई की मान-हानि होती है और पुत्र की तो मृत्यु तक की सम्भावना रहती है।
मंगल की महादशा फल
(1) मंगल जब पहले भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन, मान के अतिरिक्त प्रभावशाली व्यक्तित्व भी देता है । इस अवधि में जातक में उत्साह, उमंग, पुरुषार्थ, वीरता और सब कार्यों में आगे रहने की प्रवृत्ति जागरूक रहती है । यदि मंगल लग्नस्थ अपनी राशि को अथवा अन्यत्र स्थित राशि को पूर्ण दृष्टि से देखता हो और साथ ही मंगल पर अथवा मंगल की किसी भी राशि पर यदि गुरु आदि का शुभ प्रभाव हो तो जातक का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है, वह मंगल की दशा में धन और मान दोनों की ख्याति पाता है । मंगल और शनि यदि किसी भाव और उस के कारक को अथवा भावेश और कारक को देखेंगे तो जातक इस दशा भुक्ति में जान-बूझकर उस भाव सम्बन्धित व्यक्ति को कष्ट देने पर उतारू हो जाता है।
मंगल यदि लग्नेश होकर निर्बल और पीड़ित हो तो धन की चिन्ता देता है । शरीर में पित्त के तथा बवासीर आदि के रोग उत्पन्न करता है। मंगल की दशा भुक्ति में शारीरिक तथा आर्थिक कष्ट के अतिरिक्त मान-हानि भी पाता है । उसको शत्रुओं से पीड़ा रहती है और वह स्वयं किसी दुर्व्यसन में फंस जाता है ।
(2) मंगल द्वितीयाधिपति तथा नवमाधिपति होकर जब बलवान होता है तो अपनी दशा भुक्ति में पिता से धन दिलवाता है। तर्क शास्त्र में मनुष्य इस अवधि में प्रवीण होता है। वह सख्त परन्तु युक्तियुक्त वाणी का प्रयोग करता है। इस अवधि में उसका भाग्य बढ़ता है और रुपये, पैसे को वह धर्मानुकूल तरीकों से कमाता है । रुपया कमाने में ऐसे व्यक्ति को उसका साला भी सहायता करता है। इस अवधि में यह व्यक्ति विद्या में उत्तीर्ण हो जाता है।
यदि उपरोक्त मंगल निर्बल और पाप ग्रहों से पीड़ित हो तो मनुष्य को इसकी दशा भुक्ति में धन का नाश होता है। उसकी स्त्री के लिए शारीरिक तौर पर यह समय बहुत कष्टप्रद होता है। जातक को उसके साले के हाथों आर्थिक हानि उठानी पड़ती है । विद्या में असफलता मिलती है। ऐसी अवधि में जातक के धन की हानि का कारण बहुधा उसका पिता होता है।
(3) मंगल तृतीयेश होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में अपने राजकीय सम्बन्धों के कारण विजय प्राप्त करता है । उसको इस अवधि में मान मिलता है जिसका मूल कारण उसका भाई अथवा मित्र होता है । बन्धु वर्ग तथा मित्रों से उसे सहायता और सफलता दोनों प्राप्त होती हैं। उसके भाइयों की उन्नति होती है। धन प्राप्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता ।
मंगल तृतीयेश होकर निर्बल और पीड़ित हो तो छोटे भाइयों को इसकी दशा भुक्ति में कष्ट मिलता है। इस अवधि में जातक की पराजय होती है और राज्य की ओर से उसे पराजित अथवा अपमानित होना पड़ता है । इस अवधि में जातक को धन की अच्छी प्राप्ति होती है।
(4) यदि मंगल चतुर्थेश होकर बलवान हो और लग्न से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करता हो तो इसकी दशा अथवा भक्ति ‘मनुष्य को भूमि अथवा मकान की प्राप्ति होती है। उसके मकान के किरायों से आय में वृद्धि हो जाती है । उसको पैतृक सम्पत्ति इसी अवधि में प्राप्त होती है। उसको इस अवधि में पिता की ओर से सहायता मिलती है । उसको भाग्यवश कोई ऐसी वस्तु मिलती है जो इसको जनता प्रदान करती है। इस अवधि में सुख में वृद्धि होती है ।
यदि मंगल चतुर्थेश होकर निर्बल और पीड़ित हो तो मनुष्य को जनता के किसी व्यक्ति के धोखे के कारण इसकी दशा भुक्ति में आर्थिक हानि होती है। उसकी भूमि का नाश होता है और उसमें उसके बड़े भाई का हाथ रहता है। यदि लग्न सिंह हो तो यह भूमि नाश मूलतः पिता के कारण होता है अथवा राज्य की किसी विरोधात्मक कार्यवाही के कारण । इस अवधि में व्यक्ति के सुख का नाश होता है, बेचैनी रहती हैं। यदि राहु, शनि तथा सूर्य में से किन्हीं दो द्वारा मंगल और चतुर्थ भाव पीड़ित हों तो इस अवधि में उसे घर छोड़ना पड़ जाता है और उसे कहीं दूसरी जगह जाकर निवास करना पड़ता है। पिता को अशान्ति रहती है । मातृ पक्ष को भी ऐसा रहता है ।
(5) यदि मंगल पंचमेश होकर बलवान हो और विशेषतया गुरु ‘दृष्ट हो और गुरु भी स्त्री राशियों में स्थित न हो तो जातक को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । उसकी मन्त्रणा शक्ति इस अवधि में खब प्रभाव दिखलाती है और फलस्वरूप उसे बहुत राज्य और मान की प्राप्ति होती है। उसके मान का कारण उसकी सूझ-बूझ होती है। इसी अवधि में उसके अधिकार प्राप्त करने के कारण उसका भाग्य भी चमकता है।
यदि मंगल पंचमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो तो अपनी दशा भुक्ति में बुद्धि का नाश करता है। ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में राज्य के कारण भाग्य में तथा धन में काफी नुकसान उठाना पड़ता है । उसकी किसी भूल से राज्य सत्ता उसके विरुद्ध कार्रवाई करती है, जिससे उसे बहुत हानि होती है । धनु लग्न वालों को ऐसी स्थिति में पुत्र पर बहुत व्यय करना पड़ता है। इस अवधि में जातक के पुत्र शत्रुअ से हानि होती है ।
(6) यदि मंगल छठे भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो शत्रुओं के अभाव को दर्शाता है, ऐसी दशा भुक्ति में मनुष्य अजात शत्रु होता है, बल्कि उसको इस अवधि में शत्रु, चोरों, ठगों आदि से भी कुछ प्राप्ति हो जाती है । उसका शरीर स्वस्थ रहता है । इस अवधि में उसके मामा की वृद्धि होती है। इस समय व्यक्ति किसी परिश्रम के कार्य जाता है और उसमें सफलता के कारण नाम पाता है । इस अवधि धन की वृद्धि ही होती है ।
यदि मंगल छठे भाव का स्वामी होकर निर्बल हो तो वह मामा के कष्ट का परिचायक है, यह स्थिति स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली है । आर्थिक दृष्टि से भी यह स्थिति अच्छी नहीं है ।
(7) यदि मंगल सातवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो मनुष्य में पुरुषार्थ की क्रिया इस दशा भुक्ति में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है। उसे लाल वस्तुओं के व्यापार आदि से काफी धन की प्राप्ति होती है। धन कमाने में उसके भागीदार उसकी बहुत सहायता करते हैं। सुसराल से भी धन की प्राप्ति होती है। पिता का बड़ा भाई भी आर्थिक सहायता करता है ।
यदि मंगल सप्तमेश होकर निर्बल और पाप ग्रहों द्वारा पीड़ित हो और तुला लग्न हो तो स्त्री की जान पर आ बनती है। स्त्री के कारण धन में काफी व्यय आदि होता है। व्यापार में धन आदि की हानि होती है। भागीदारों से मतभेद आदि के कारण धन का नाश होता है । जातक को इस दशा अथवा भक्ति में स्वयं के शरीर में कष्ट रहता है भूमि आदि का भी नाश होता है और भाइयों से मतभेद रहता है ।
(8) यदि मंगल अष्टमेश होकर बलवान हो और कन्या लग्न हो तो मनुष्य इस ग्रह की दशा भुक्ति में दरिद्रता को देखता है। यद्यपि ऐसे व्यक्ति के पास कई आविष्कार होते हैं, पर वह दरिद्र रहता है। ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में जुए आदि का व्यसन लग जाता है । यदि किसी व्यक्ति का अष्टमेश मंगल दशम भाव में मिथुन राशि में पाप दृष्ट हो तो उसकी दरिद्रता काफी हद तक कट जाती है क्योंकि मंगल बुरे भावों का स्वामी होकर अपनी दोनों राशियों से बुरे स्थानों (तृतीय और अष्टम) में होता है । अतः शुभ फल करता है । ऐसे केन्द्रस्थ मंगल को बलवान नहीं समझना चाहिए।
यदि मंगल अष्टमेश होता हुआ निर्बल और पाप दृष्ट पाप युक्त हो तो अपनी दशा भुक्ति में बहुत धन देता है। जातक अपने कुछ एक कार्यों के कारण अपयश प्राप्त करता है। मित्रों के कारण भी उसे इस अवधि में अपयश मिलता है । मेष लग्न वाले इस अवधि में अपनी मृत्यु को स्वयं बुलाते हैं।
(9) मंगल यदि नवमेश होता हुआ बलवान हो तो मनुष्य इस की दशा भुक्ति में पिता से सुख पाता है और भूमि प्राप्त करता है । जन-प्रियता के कारण उसके भाग्य में वृद्धि होती है। यदि मीन लग्न हो तो इस दशा में जातक को पिता से धन की प्राप्ति होती है । जातक की स्त्री के छोटे भाई के कारण भी मीन लग्न वाले व्यक्ति को उस दशा में आर्थिक सहायता मिलती है ।
मंगल यदि नवमेश होकर निर्वल और पीड़ित हो तो सिंह लग्न वालों और मीन लग्न वालों दोनों को अपनो उन्नति की आशा रहती है, पर यह आशा पूरी नहीं होती। इस अवधि में उनको विफलता का ही मुंह देखना पड़ता है । उनके भाग्य चक्र में भूमि की हानि आ जाती है या यदि मीन लग्न हुई तो राज्य के कारण तथा पिता की भूल के कारण धन का नाश उठाना पड़ता है।
(10) मंगल यदि दशमेश होकर बलवान हो और लग्न कर्क हो तो इसकी दशा भुक्ति में मनुष्य की पदोन्नति होती है और उसे मान और धन की प्राप्ति होती है और यदि लग्न कुम्भ हो तो उसे आर्थिक कठिनाई देखनी पड़ती है । परन्तु मित्रों के कारण ऐसे व्यक्ति को इस समय प्रतिष्ठा मान होता है।
मंगल यदि दशमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कर्क हो तो राज्य में हानि, पुत्रों की हानि हो, परन्तु लग्न में पड़े नीच मंगल को बुरा नहीं समझना चाहिए। ऐसा मंगल भी अपनी दशा भक्ति में बहुत शुभ फल करता है। कारण कि मंगल अपनी दोनों राशियों से शुभ स्थान में होगा, (मेष से चतुर्थ और वृश्चिक से नवम) । यदि लग्न कुम्भ हो तो मंगल की ऐसी दशा भुक्ति में जातक को भाइयों · के कारण अपमान सहना पड़ेगा और उसके निज के कार्यों में क्रूरता और पाप आ जायेंगे
(11) मंगल यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर बलवान है तथा मिथुन लग्न है तो मंगल की दशा भुक्ति में उस व्यक्ति को चोट आदि लगेगी। लाभ फिर भी अच्छा रहेगा और यदि लग्न मकर है तो ऐसे व्यक्ति को यह अवधि भूमि, मकान आदि संपत्ति दिलावेगी। ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में किराये आदि से भी आमदनी होती है।
मंगल यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पाप ग्रहों द्वारा पीड़ित है तथा लग्न मिथुन है तो ऐसा व्यक्ति मंगल की दशा भक्ति में आर्थिक हानि उठावेगा । इसको मामा के कारण हानि रहेगी। यदि मकर लग्न हो तो स्वयम् जान-बूझकर भूमि की हानि कर बैठेगा। इसकी इस समय की बेचैनी का कारण इसका बड़ा भाई होगा ।
(12) मंगल यदि बारहवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो और वृषभ लग्न हो तो धन में वृद्धि होगी । व्यापार से धन मंगल की दशा भुक्ति में ही आवेगा । स्त्री पक्ष से भी इस समय धन की प्राप्ति होगी । लग्न यदि धनु है तो भाग्य में वृद्धि रहेगी । पुत्र उन्नति पावेगा ।
मंगल यदि बारहवें भाव का स्वामी है, निर्बल है और पीड़ित है तथा वृषभ लग्न है तो व्यापार में हानि, स्त्री पक्ष से हानि इस दशा भुक्ति में रहेगी और यदि धनु लग्न है तो पुत्र के कारण बहुत व्यय होगा और इसी समय उसके भाग्य में हानि होगी ।
बुध की महादशा
(1) बुध यदि लग्न में हो, लग्न मिथुन हो और वह बलवान हो, पर किसी ग्रह से प्रभावित न हो तो अपनी दशा भुक्ति में जातक को मान तथा धन देता है । वह इस अवधि में जातक को शास्त्रों का अध्ययन करवाता है और इसकी बुद्धि को तीव्र रखता है। यदि बुध नवमेश आदि शुभ होकर लग्न में पड़ा हो तो जातक को इस अवधि में धर्म के कार्यों में और परोपकार में रत रखता है और धन तथा मान दिलाता है । इस अवधि में जातक मानसिक शान्ति का अनुभव करता है और उसकी रुचि गाने-बजाने आदि में रहती है। यदि लग्न कन्या हो तो इस अवधि में जातक अधिक मान को प्राप्त करता है, विशेषतया तब जबकि बुध सूर्य से युक्त होकर बलवान हो और शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो ।
बुध यदि लग्नेश होकर निर्बल और पाप दृष्ट हो तो बुद्धि की हानि करता और अपनी दशा भुक्ति में जातक को मस्तिष्क के रोगों जैसे (Meningitis) पागलपन इत्यादि में ग्रस्त किये रखता है। इस अवधि में जातक के मान को हानि होती है और उसके धन का नाश भी होता है। इस समय जातक को किसी चर्म रोग का शिकार भी होना पड़ता है । यदि लग्न मिथुन हो तो उसके हाथों में अथवा सांस की नली में इस अवधि में कष्ट रहता है और यदि कन्या हो तो अन्तड़ियों में कष्ट रहता है।
(2) बुध यदि दूसरे भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न वृषभ हो तो अपनी दशा भुक्ति में जातक को भाषण शक्ति तथा व्यापार से अच्छा धन दिलवाता है। इस समय उसे पुत्र से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है ।
इस अवधि में उसे लिखने आदि से विशेष धन की प्राप्ति रहती है। और उसे विद्या की प्राप्ति होती है । यदि लग्न सिंह हो तो बुध अपनी दशा भुक्ति में आय को विशेष रूप से बढ़ाता है। जातक को बैंक आदि की नौकरी से अथवा सूद से पर्याप्त धन मिलता है । उसको इस अवधि में बड़े भाई से भी सहायता प्राप्त होती है ।
बुध यदि द्वितीय भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो लग्न वृषभ हो तो उसकी दशा भुक्ति में जातक को धन की हानि उठानी पड़ती है । पुत्र द्वारा भी उसके धन का नाश होता है। विद्या में उसे असफलता प्राप्त होती है । उसको इस अवधि में जिह्वा का कोई बिगाड़ रहता है और वह अपशब्द आदि का प्रयोग करता है। इस समय उसे लेखन कला तथा व्यापार में हानि रहती है। लग्न यदि सिंह
हो तो बुध की दशा भुक्ति में मनुष्य को अपने बड़े भाई-बहनों के कारण धन की हानि होती है अथवा यह हानि उसको दामाद के कारण सहनी पड़ती है । विनियोग अथवा ब्याज आदि की आय में भी कमी रहती है ।
(3) बुध यदि तृतीय भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मेष हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन की कमी देता है। उसे मित्रों से कुछ सहायता मिलती है और इस अवधि में उसे बहुत परिश्रम करना पड़ता है। यदि लग्न कर्क हो तो इस समय व्यय अधिक रहता है। भाइयों तथा मित्रों पर धन व्यय होता है ।
बुध यदि तृतीयेश होकर निर्बल हो लग्न मेष हो तो मनुष्य को बाहु आदि में चोट लगने की संभावना रहती है। भाई-बन्धुओं से वैमनस्य इस समय में रहता है। शत्रुओं से दबकर रहना पड़ता है । अकस्मात् कोई शारीरिक कष्ट ऐसा आ जाता है जिससे जान पर ही बन जाती है । यदि लग्न कर्क हो तो भाइयों पर अधिक व्यय करना पड़ता है। इस अवधि में मित्रों से हानि उठानी पड़ती है, यात्राएं असफल रहती हैं और उनमें व्यर्थ समय और धन व्यय होता है ।
(4) बुध यदि चतुर्येश होकर बलवान हो, लग्न मीन हो, तो सुख की विशेष प्राप्ति होती है, भूमि तथा वाहन मिलता है, यदि क्रमशः बुध पर मंगल तथा शुक्र का प्रभाव हो । माता की ओर से इस समय अधिक प्यार मिलता है और मन आमोद-प्रमोद में लगा रहता है। लग्न यदि मिथुन हो तो भी वही फल होता है और विद्या तथा शास्त्राध्ययन में समय व्यतीत होता है । व्यापार तथा लिखने-पढ़ने आदि से धन की प्राप्ति होती है ।
बुध यदि चतुर्थेश होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न मीन हो तो व्यक्ति बुध की दशा भुक्ति में दुःख पाता है । उसको मान- सिक रोगों का शिकार होना पड़ता है। अक्मात् शारीरिक कष्ट आ खड़ा होता है । सम्बन्धियों से इस समय हानि ही रहती है। यदि लग्न मिथुन हो तो भी यही फल रहता है।
(5) बुध यदि पंचमेश होकर बलवान हो, लग्न कुम्भ हो तो सट्टे आदि से धन की प्राप्ति होती है, भाग्य में वृद्धि रहती है । अनुसन्धान कार्यों से उसकी प्रतिभा निखरती है । यदि लग्न वृषम हो तो पुत्रों से धन प्राप्त होता है । इस अवधि में विद्या में उन्नति होती है । भाग्य में वृद्धि और पुत्रों को मानादि की प्राप्ति होती है।
यदि बुध पंचमेश होकर निर्बल हो और लग्न कुम्भ हो तो पुत्रों से कष्ट मिलता है । अनुसंधान योजनाएं विफल रहती हैं। इस बुध की दशा भुक्ति में मनुष्य की बुद्धि तथा धन का ह्रास रहता है। यदि लग्न वृषभ हो तो पुत्रों द्वारा धन की हानि रहती है। बुद्धि के बिगड़ जाने से भी धन का नाश रहता है। विद्या में असफलता रहती है।
(6) बुध यदि षष्ठेश होकर बलवान अथवा निर्बल हो तो जैसा फल क्रम संख्या 3 में लिखा है ।
(7) बुध यदि सप्तमेश हो तो जो फल पैरा 4 में लिखा है, होता है।
(8) बुध यदि अष्टमेश हो बलवान हो और लग्न कुम्भ हो तो. पैरा 5 का फल होता है। बुध यदि अष्टमेश हो और लग्न वृश्चिक हो तो बुध की दशा भुक्ति में बहुत अच्छी मात्रा में धन की प्राप्ति होती है । दूर-दूर के व्यापार से धन मिलता है । बड़े भाइयों से भी लाभ रहता है । यज्ञीय कार्यों में प्रवृत्ति की भी अधिक संभावना रहती है। बुध यदि निर्बल और पीड़ित हो तो धन की आय में कमी . रहती है। बड़े बहिन-भाइयों से हानि रहती है। अचानक ही विदेश यात्रा का संयोग बन जाता है। शरीर में कष्ट रहता है ।
(9) बुध यदि नवमेश हो और बलवान हो लग्न मकर हो तो वह अपनी दशा भुक्ति में भाग्य की वृद्धि करता है। राज्य की ओर से सहायता रहती है । पिता के धन और मान में वृद्धि होती है। धार्मिक कृत्यों में मन लगता है । मामा से धन की प्राप्ति होती है।
बुध यदि निर्बल और पीड़ित हो तो वह नवमेश अपनी दशा भुक्ति में शत्रुओं द्वारा बहुत चिरस्थायी हानि दिलवाता है। इस अवधि में पिता के मान की हानि होती है । मामा से भी आर्थिक हानि ही की संभावना रहती है। दूर की यात्रा से भी बहुत कष्ट होता है ।
(10) बुध यदि दशमेश होकर बलवान हो लग्न धनु हो तो यह जातक को अपनी दशा भुक्ति में मान दिलवाता है। अधिकार की प्राप्ति भी होती है । व्यापार में नाम मिलता है । राज्य की ओर से भी कृपा बनी रहती है ।
बुध यदि दशमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न धनु हो तो राज्य की ओर से प्रकोप होता है । नौकरी जाती रहती है । उस समय अर्थात् बुध की दशा भुक्ति में व्यापार से हानि होती है। स्त्री के कारण अपयश की संभावना रहती है ।
(11) बुध यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी हो, बलवान हो और लग्न वृश्चिक हो तो फल वही होता है जो पैरा 8 में लिखा है ।
(12) बुध यदि बारहवें भाव का स्वामी हो लग्न तुला हो तो भाग्य में उन्नति का समय बुध की दशा भुक्ति देती है। पिता से भी लाभ रहता है । धर्म कार्यों में शुभ व्यय होता है। दूर की यात्राओं से भी लाभ रहता है ।
(12) बुध यदि बारहवें भाव का स्वामी हो, लग्न तुला हो और बुध निर्बल और पीड़ित हो तो बहुत धन पिता पर व्यय होता है। भाग्य में बुध की दशा भुक्ति में हानि रहती है। इस अवधि में दूर-दूर की यात्राओं पर व्यय होता है ।
गुरु की महादशा
(1) गुरु यदि धनु लग्न का स्वामी होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में विशेष सुख देता है । मन स्थिर और शान्त रहता है । माता, वाहन, जमीन, जायदाद के सुख की संभावना रहती है। सर्वसाधारण से सम्पर्क द्वारा लाभ रहता है और धन और मान में वृद्धि होती है।
गुरु यदि धनु लग्न का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो मनुष्य को अपनी दशा भुक्ति में बहुत दुःख दिलवाता है। जातक को माता, वाहन, जमीन जायदाद, सभी के कारण दुःख उठाना पड़ता है । मानसिक रोग की भी संभावना रहती है । सम्बन्धियों से कलह रहती है और सर्वसाधारण भी व्यक्ति का विरोध उस समय करता है ।
(2) गुरु यदि द्वितीयेश हो, लग्न वृश्चिक हो तो बलवान गुरु अपनी दशा भुक्ति में आशातीत धन देता है। इस समय पुत्रों से भी धन मिलता है । बुद्धि धन कमाने में सफल रहती है। योजनाएं सभी सुफल देती हैं। विद्या में उन्नति होती है, विवाह का सुख होता है तथा शुभ कार्यों में व्यय होता है।
गुरु यदि द्वितीयेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न वृश्चिक हो तो धन की बहुत हानि होती है, पुत्र द्वारा धन का नाश होता है। सट्टे आदि से धन का नाश होता है, विद्या में हानि होती है । कुटुम्ब वालों से कलह रहती है, मनुष्य उस समय बहुत गलतियां करता है जिसके फलस्वरूप उसे उस समय बहुत हानि उठानी पड़ती है ।
(3) गुरु यदि तृतीयेश होकर बलवान हो, लग्न तुला हो तो मित्रों और शत्रुओं दोनों से आंशिक लाभ रहता है। परन्तु आर्थिक स्तर में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता । व्यक्ति के धन और मान में वृद्धि होती है। व्यक्ति की मनोकामना शीघ्र ही फलीभूत होती है तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होती है ।
गुरु यदि तृतीयेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न तुला हो तो गुरु की दशा भुक्ति में जातक को मित्रों, मामा और शत्रुओं से नुकसान उठाना पड़ता है। यदि गुरु और शुक्र इकट्ठे हों और पीड़ित हों तो पेट और जिगर के रोगों से उस समय पीड़ित होना पड़ता है. इस अवधि में मित्रों तथा भाइयों से वैमनस्य रहता है ।
(4) गुरु यदि चतुर्थेश होकर बलवान हो लग्न कन्या हो तो गुरु की दशा भुक्ति में सुख की मात्रा असाधारण रूप में प्राप्त होती है । वाहन का सुख रहता है विशेषतया जब गुरु के साथ शुक्र हो । व्यापार में वृद्धि रहती है । यदि स्त्री की जन्मकुण्डली हो तो इस अवधि में उसके पति को विशेष मान की प्राप्ति होती है । इस अवधि में सम्बन्धी विशेष रूप से ‘सहायक होते हैं ।
गुरु यदि चतुर्थेश होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कन्या हों तो वह अपनी दशा भुक्ति में सुख का नाश करता है । उस अवधि में जातक को घर के सुख से दूर रहना पड़ता है । सम्बन्धियों से उनकी कलह चलती है । जनता में से कोई शत्रु उत्पन्न हो जाता है । जमीन, जायदाद खरीदी नहीं जा सकती ।
(5) गुरु यदि पंचमेश होकर बलवान हो, लग्न सिंह तो तो गुरु अपनी दशा भुक्ति में भाग्य में वृद्धि करता है । पुत्र को धन और सुख से सम्पन्न करता है। योजनाओं को सफल करता है । अनुसन्धान की योजनाओं में विशेष सफलता मिलती है। धार्मिक कार्यों में रुचि बढ़ती है।
गुरु यदि पंचमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न सिंह हो तो गुरु अपनी दशा भुक्ति में धन की हानि देता है । इस अवधि में पुत्र के धन और सुख का नाश होता है। विदेश यात्रा की सम्भावना रहती है । पुत्रों से परेशानी रहती है। योजनाएं असफल होती हैं ।
(6) गुरु यदि षष्ठेश होकर बलवान हो, लग्न कर्क हो तो गुरु अपनी दशा भुक्ति में महान् शत्रुओं का सामना कराता है। आय साधारण रहती है।
गुरु यदि षष्ठेश होकर निर्बल हो, लग्न कर्क हो तो गुरु अपनी दशा भुक्ति में शत्रुओं द्वारा जीवन को तहस-नहस करवा देता है। धन की बहुत हानि होती है। राज्य कर्मचारी विरोधी रहते हैं । पिता के धन तथा मान में कमी आती है। जातक रोगी रहता है।
(7) गुरु यदि सातवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो और कुण्डली स्त्री की हो, लग्न मिथुन हो तो इससे बढ़कर अच्छी स्थिति स्त्री के लिए नहीं हो सकती। उसको दीर्घजीवी, चरित्रवान्, धनी पति मिलता है । इस अवधि में पुरुष जातक को राज्य और व्यापार दोनों में लाभ रहता है ।
गुरु यदि सातवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो राज्य की ओर से बहुत दुःख मिलता है। नौकरी तक छोड़नी पड़ जाती है । मान हानि और धन हानि इस अवधि में होती हैं । इस गुरु की दशा भुक्ति में शारीरिक कष्ट विशेष रहता है।
(8) गुरु यदि आठवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न वृषभ हो तो धन की विशेष आय नहीं होती । यद्यपि कमी भी नहीं रहती । बड़े भाई से कुछ लाभ रहता है। स्वास्थ्य ठीक रहता है ।
गुरु यदि आठवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न वृषभ हो तो गुरु की दशा भुक्ति में मनुष्य पर खूब धन आता है, परन्तु बड़े भाई से विरोध रहता है। कर (Tax) के कारण बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। इस समय विदेश यात्रा की भी संभावना रहती है।
(9) गुरु यदि नवम भाव का स्वामी होकर बलवान हो और मेष लग्न हो तो गुरु की दशा भुक्ति में खूब भाग्य चमकता है । राज्यं से हर प्रकार की सहायता मिलती है। गुरुजनों की कृपा रहती है। पिता के धन और सुख में वृद्धि होती है ।
गुरु यदि नवम भाव का स्वामी होकर निर्बल हो, पीड़ित हो और लग्न मेष हो तो भाग्य में कड़ी हानि होती है। पिता को दुःख मिलता है । जातक को इस अवधि में राज्य से परेशानी रहती है । गुरु पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो तो मनुष्य को नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं ।
(10) गुरु यदि दशम भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मीन हो तो इसकी दशा भुक्ति में विशेष मान-सम्मान होता है। राज्य की ओर से बहुत कृपा रहती है। जातक शुभ यज्ञीय कार्यों में प्रवृत्त रहता है और उसे खूब धन की प्राप्ति होती है।
गुरु यदि दशम भाव का स्वामी होकर निर्बल और पाप ग्रहों से पीड़ित हो तो जातक को राज्य की ओर से दुःख उठाना पड़ता है । उसको कार्यों में असफलता मिलती है। धन और मान दोनों का नाश होता है और उसके कार्यों में अधार्मिकता आ जाती है।
(11) गुरु यदि एकादश भाव का स्वामी होकर बलवान हो और लग्न कुम्भ हो तो जातक को विशेष रूप से धन मिलता है और अनायास पैसा आता है। उसे सूद से, बैंक से, कैश सर्टिफिकेट्स (Cash- Certificates) आदि से बहुत आय होती है । उसको इस अवधि में बड़े भाई से भी आय प्राप्त होती है।
गुरु यदि एकादश भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कुम्भ हो तो आय में बहुत कमी आ जाती है। जातक रोगी रहता है । उसे इस अवधि में बड़े भाई द्वारा भी आर्थिक हानि पहुंचती है। उसकी स्त्री को भी कष्ट रहता है।
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(12) गुरु यदि द्वादश भाव का स्वामी होकर बलवान हो और लग्न मकर हो तो इसकी दशा भुक्ति में मनुष्य को विशेष धन की प्राप्ति नहीं होती। इस अवधि में जातक की बहिन-भाइयों पर शुभ व्यय रहता है। राज्य की ओर से भी कुछ परेशानी रहती है ।
गुरु यदि द्वादश भाव का स्वामी हो और निर्बल तथा पीड़ित हो तो व्यय अधिक होता है। भाइयों से कष्ट की प्राप्ति होती है, परन्तु आय अच्छी रहती है ।
शुक्र की महादशा
(1) शुक्र यदि लग्न का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न तुला हो तो ‘मनुष्य को शुक्र की दशा भुक्ति में धन तथा मान की प्राप्ति होती है । इस अवधि में उसको विलास की सामग्री खूब प्राप्त होती है । स्त्रियों से सम्पर्क रहता है ओर स्त्री वर्ग से तथा विलास की सामग्री से लाभ रहता है ।
शुक्र यदि लग्न का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न तुला हो तो मनुष्य को शुक्र की दशा भुक्ति भारी शारीरिक कष्ट देती है । उसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। इस अवधि में उसकी विदेश यात्रा की संभावना रहती है । स्त्री से वैमनस्य रहता है । स्त्री वर्ग से तथा विलास सामग्री से हानि रहती है।
(2) शुक्र यदि दूसरे भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न कन्या हो तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में खूब धन देता है, भाग्य बढ़ाता है । परन्तु यह अवधि इस लग्न वाले को रोगी भी रखती है। ऐसे व्यक्ति को कुटुम्ब की सहायता से पांव पर खड़ा होने का यह समय होता है।
शुक्र यदि दूसरे भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कन्या हो तो इस दशा भुक्ति में धन का नाश होता है । भाग्य को धक्का लगता है। स्त्री को कष्ट रहता है । कुटुम्ब वालों से अनबन रहती है । विद्या में असफलता मिलती है ।
(3) शुक्र यदि तीसरे भाव का स्वामी होकर बलवान हो, सिंह लग्न हो दो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में मित्रों से सहायता दिलाता है। छोटे भाइयों की उन्नति देता है। मित्रों की वृद्धि देता है। इस अवधि में मनुष्य अपने पराक्रम का परिचय देता है, परन्तु धन साधारण रहता है ।
शुक्र यदि तीसरे भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और सिंह लग्न हो तो मित्रों तथा भाइयों से कोई सहायता प्राप्त नहीं होती । परन्तु धन की आय बहुत अच्छी रहती है। मित्रों के कारण कार्यों में असफलता रहती है ।
(4) शुक्र यदि चतुर्थेश होकर बलवान हो, लग्न कर्क हो तो वाहन सुख की प्राप्ति होती है। सुन्दर मकान की प्राप्ति भी शुक्र की दशा भुक्ति में होती है । सम्बन्धियों से सहयोग रहता है। माता का सुख मिलता है ।
शुक्र यदि चतुर्थेश होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कर्क हो तो किसी सम्बन्धी से कोई सहायता नहीं मिलती । घर में रहना नहीं मिलता। नौकरी पेशा वालों की तबदीलियां बहुत होती हैं और माता का सुख कम मिलता है । यह शुक्र की दशा भुक्ति का फल कहा है ।
(5) शुक्र यदि पंचमेश होकर वलवान हो और लग्न मिथुन हो तो शुक्र की दशा भुक्ति में खूब धन की प्राप्ति होती है । पुत्र की ओर से भी सहायता मिलती है । परन्तु कुछ व्यक्तियों की दूसरी स्त्रियों से प्रेमवार्ता इस अवधि में चलती है ।
शुक्र यदि पंचमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न मिथुन हो तो इसकी दशा भुक्ति में धन का नाश होता है । बुद्धि प्रखर नहीं रहती । पुत्र से कष्ट मिलता है। सट्टे आदि व्यापार में घाटा रहता है।
(6) शुक्र यदि छठे भाव का स्वामी होकर बलवान हो और लग्न वृषभ हो तो धन की प्राप्ति होती है। मित्रों तथा शत्रुओं दोनों से धन मिलता है। अपने परिश्रम के कारण मान और धन में वृद्धि होती है | मामा से सहायता मिलती है ।
शुक्र यदि छठे भाव का स्वामी हो और दुर्बल तथा पीड़ित हो और लग्न वृषभ हो तो इसकी दशा भुक्ति में एक ओर पदोन्नति आदि का सुख मिलता है तो दूसरी ओर रोग भी काफी भुगतना पड़ता है । शत्रुओं के गुप्त व्यवहार के कारण पदोन्नति में बाधा आ जाती है ।
(7) शुक्र यदि सातवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो और मेष लग्न हो तो इसकी दशा भुक्ति में स्त्री की प्राप्ति होती है, व्यापार- वृद्धि होती है । धन बढ़ता है । स्त्री वर्ग से तथा सुसराल से कुछ लाभ होता है और पुरुषार्थ में वृद्धि होती है।
शुक्र यदि सातवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो इसकी दशा भुक्ति में स्त्री बहुत रोगी रहती है । धन का नाश होता है । व्यापार में हानि होती है। राज्य से भी परेशानी रहती है ।
(8) शुक्र यदि आठवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मीन हो तो इसकी दशा भुक्ति में मित्रों से लाभ रहता है । आमोद- प्रमोद के लिए छोटी यात्राएं होती हैं। धन की आय साधारण स्तर की रहती है।
शुक्र यदि आठवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो इसकी दशा भुक्ति में जीवन का भय रहता है। मित्रों से हानि होती है। इस अवधि में जातक के विदेश भ्रमण की भी संभावना रहती है। धन की आय अच्छी मात्रा में रहती है।
(9) शुक्र यदि नवम भाव का स्वामी होकर बलवान हो और लग्न कुम्भ हो तो शुक्र की दशा भुक्ति में जातक को विशेष धन और सुख की प्राप्ति होती है । इस अवधि में जातक को वाहन की प्राप्ति का अवसर रहता है और पिता से विशेष सुख सामग्री मिलती है।
शुक्र यदि नवम भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कुम्भ हो तो पिता के कारण मनुष्य को काफी दुःख उठाना पड़ता है। पिता के कारण उसको भूमि आदि की प्राप्ति भी नहीं होती । ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में सुख और धन दोनों की कमी रहती है और राज्य कर्मचारियों की ओर से परेशानी उठानी पड़ती है ।
(10) शुक्र यदि दसवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में विशेष धन देता है । इस अवधि में मनुष्य सन्तान के कारण मान पाता है । इसकी मन्त्रणा शक्ति सार्थक होती है और वह उसके द्वारा भी यश को प्राप्त होता है । इस अवधि में जातक धर्म तथा परोपकार के कार्यों में विशेष रुचि का परिचय देता है ।
शुक्र यदि दसवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो मनुष्य को धन की हानि उठानी पड़ती है और उसकी सन्तान की किसी क्रिया के फलस्वरूप उसके मान की हानि होती है । उसका मन विलास तथा लम्पटता की ओर अधिक प्रवृत्त रहता है।
(11) शुक्र यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी हो और बलवान हो लग्न धनु हो तो शुक्र की दशा भुक्ति में जातक को चोट लगने का भय रहता है । वैसे धन के दृष्टिकोण से यह समय अच्छा रहता है । बड़े वहिन-भाइयों की सहायता भी इस अवधि में प्राप्त होती है। शत्रु इस अवधि में नगण्य रहते हैं ।
शुक्र वारहवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न वृश्चिक हो तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में स्त्री को रोग देता है जिसके कारण बहुत व्यय करना पड़ता है। यदि शुक्र पर राहु-शनि, राहु-सूर्य अथवा सूर्य-शनि का प्रभाव हो तो इस अवधि में स्त्री से पृथक्ता तक की नौबत आ सकती है।
शनि महादशा
(1) शनि यदि प्रथम भाव का स्वामी होकर बलवान हो, कुम्भ लग्न हो तो यह ग्रह अपनी दशा भुक्ति में अच्छा मान और धन दिलाता है । निम्न स्तर के लोगों से इस अवधि में सम्पर्क अधिक रहता है और ऐसे लोगों से अधिक लाभ रहता है ।
शनि यदि प्रथम भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो और लग्न कुम्भ हो तो इसकी दशा भुक्ति में धन की हानि, मान की हानि, राज्य की ओर से परेशानी और दूसरे कई प्रकार के कष्ट रहते हैं। टांगों में कष्ट रहता है और नौकर-चाकरों से हानि उठानी पड़ती है।
(2) शनि यदि द्वितीय भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मकर हो तो शनि अपनी दशा भुक्ति में विशेष धन देता है और मान भी बढ़ाता है। अपने ही पुरुषार्थ और परिश्रम से अधिकतर इस समय में धन की प्राप्ति होती है । निम्न वर्ग के लोगों से इस अवधि में सहायता मिलती है ।
शनि यदि द्वितीय भाव का स्वामी होकर निर्बल तथा पीड़ित हो, लग्न मकर हो तो धन तथा मान की बहुत हानि होती है । घुटनों में कष्ट रहता है । स्त्री को भी वायु रोग की शिकायत की संभावना रहती है । जातक स्वयं भी रोगी रहता है।
(3) शनि यदि तृतीय भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न धनु हो तो मित्रों से तथा भृत्य वर्ग से धन का लाभ रहता है। विद्या में उन्नति होती है । कुटुम्ब से भी कुछ सहायता मिलती है।
शनि यदि तृतीय भाव का स्वामी होकर निर्बल हो और लग्न धनु हो तो यह ग्रह अपनी दशा भुक्ति में मित्रों से हानि दिलाता है, परन्तु धन में अच्छी वृद्धि करता है । बहिन-भाइयों की ओर से व्यवहार अच्छा नहीं मिलता ।
(4) शनि यदि चतुर्थ भाव का स्वामी होकर बलवान हो; लग्न वृश्चिक हो तो अपनी दशा भुक्ति में भूमि आदि दिलाता है। इस अवधि ‘सुख की वृद्धि होती है। धन विशेष नहीं बढ़ता। निम्न वर्ग के लोगों से सम्पर्क अधिक रहता है ।
शनि यदि चतुर्थ भाव का स्वामी होकर निर्बल तथा पीड़ित हो तो अपनी दशा भुक्ति में सुख का नाश करता है, मन में चिन्ता लाता है, भाइयों से कष्ट पाता है। जमीन, जायदाद की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित होते हैं, जनता की ओर से विरोध का सामना करना पड़ता है ।
(5) शनि यदि पंचमेश होकर बलवान हो, लग्न तुला हो तो शनि अपनी दशा भुक्ति में भूमि धन देता है। इस अवधि में पुत्रों से सुख मिलता है। भूमि सुख की प्राप्ति होती है। जनप्रियता प्राप्त होती है और सुख में वृद्धि होती है
शनि यदि पंचमेश होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न तुला हो तो मनुष्य शनि की दशा भुक्ति में बहुत दुःख पाता है । पुत्रों को कष्ट होता है। उनके कारण भूमि आदि की हानि होती है।
(6) शनि यदि छठे भाव का स्वामी होकर बलवान हो, कन्या हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन देता है, परन्तु थोड़ा । शत्रु इस अवधि में नहीं होते। इस समय परिश्रम अधिक रहता है।
शनि यदि छठे भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न कन्या हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शनि दीर्घकालीन रोग देता है । सन्तान की ओर से शत्रुता का व्यवहार होता है, परन्तु धन की आय अच्छी रहती है ।
(7) शनि यदि सातवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न सिंह हो तो इसकी दशा भुक्ति में मनुष्य को स्थिर सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। व्यापार से, विशेषतया लोहे आदि से, लाभ रहता है। अच्छी स्त्रो की प्राप्ति की संभावना रहती है।
शनि यदि सातवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न सिंह हो तो इसकी दशा भुक्ति में जातक को स्त्री के रोगी रहने का कष्ट होता है, व्यापार में हानि होती है । इस अवधि में स्त्री का व्यवहार शत्रुतापूर्ण रहता है ।
(8) शनि यदि आठवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न कर्क हो तो साधारण धन की प्राप्ति होती है। राज्य से कुछ धन मिलता है । स्वास्थ्य ठीक रहता है और भृत्य वर्ग से थोड़ा लाभ होता है ।
शनि यदि आठवें भाव का स्वामी होकर निर्बल हो, लग्न कर्क हो तो विदेश यात्रा की सम्भावना शनि की दशा भुक्ति में रहती हैं, परन्तु निज को रोगग्रस्त होने की सम्भावना रहती है। धन की आय अच्छी रहती है ।
(9) शनि यदि नवम भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मिथुन हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन की साधारण वृद्धि करता है । पिता को इस अवधि में अच्छा लाभ रहता है। विदेश से भी धन की प्राप्ति होने की सम्भावना रहती है।
शनि यदि नवम भाव का स्वामी होकर निर्बल तथा पीड़ित हो, लग्न मिथुन हो तो अपनी दशा भुक्ति में भाग्य की हानि करता है । इस अवधि में राज्य की ओर से परेशानी रहती है। पिता का व्यय अधिक रहता है ।
(10) शनि यदि दशम भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न वृषभ हो तो उसकी दशा भुक्ति में जातक को अच्छी मात्रा में धन की प्राप्ति होती है। इस अवधि में पिता से भी लाभ रहता है और राज्य की ओर से भी ।
शनि यदि दशम भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो तो जातक शनि की दशा भुक्ति में दुष्ट कर्मों में प्रवृत्त होता है । उसको धन और भाग्य की हानि होती है और उसके पिता को भी बहुत आर्थिक हानि रहती है।
(11) शनि यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मेष हो तो जातक शनि की दशा भुक्ति में धन की अच्छी प्राप्ति करता है । उसे राज्य की ओर से भी सामान्य लाभ रहता है और भूमि आदि की प्राप्ति भी होती है।
शनि यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर निर्बल हो, लग्न मेष हो तो टांगों में कष्ट रहता है। आय कम रहती है। बड़े भाई को अथवा बहिन को कष्ट रहता है। राज्य के कारण आर्थिक हानि होती है।
(12) शनि यदि बारहवें का स्वामी होकर बलवान हो, लग्न मीन हो तो उसकी दशा भुक्ति में अच्छी आय रहती है; परन्तु व्यय भी खूब रहता है। बड़े बहिन-भाइयों से सहायता मिलती है। पुरुषार्थ अथवा काम अधिक करना पड़ता है। भूमि आदि की प्राप्ति होती है।
शनि यदि सातवें भाव का स्वामी होकर निर्बल और पीड़ित हो, लग्न मीन हो तो जातक को शनि की दशा भुक्ति में अर्थ की हानि रहती है। उसे यात्राओं से कोई लाभ नहीं होता। बहिन-भाइयों से इस समय कोई सहायता प्राप्त नहीं होती ।
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