जन्मस्थ ग्रहों पर से गोचर ग्रहों का भ्रमण का फल
जन्मकुण्डली के ग्रहों पर से जब गोचर के ग्रह भ्रमण करते हैं तो स्थान और राशि के अनुसार विशेष शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। प्रस्तुत अध्याय में इसी भ्रमण से सम्बन्धित कुछ उपयोगी जानकारी दी जा रही है ।
रवि का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
सूर्य – पर से या उससे सातवें (जन्मकुण्डली) स्थान से गोचर में सूर्य का भ्रमण व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ होता रहता है, परन्तु किसी भी स्थिति में टिकता नहीं, खर्च हो जाता है । व्यवसाय ठीक नहीं रहता । पित्त, विकार- बुखार आदि होते हैं। नकसीर फूटती रहती है । कब्जी के कारण पाचन-क्रिया बिगड़ जाती है। पिता बीमार रहता है और यदि दशा अन्तर्दशा भी अशुभ हों तो उनकी मृत्यु भी हो सकती है । इस अवधि में जातक की अपने पिता से नहीं बनती ।
चन्द्रमा – पर से या चन्द्रमा से सप्तम स्थान से भ्रमण करते हुए सूर्य अपनी जन्मकालीन स्थिति अनुसार शुभाशुभ फल देता है। यदि सूर्य जन्मकुण्डली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो गोचर के समय मन को कष्ट होता है। धन खर्च होता है । व्यवसाय में भारी परिवर्तन या हानि होती है । इस अवधि में सर्दी, जुकाम की शिकायत बनी रहती है। यदि रवि शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। व्यापार और आमदनी में वृद्धि होती है तथा मन प्रसन्न रहता है।
मंगल – (जन्मकालीन) पर से या उससे सातवें स्थान पर से रवि का गोचर में भ्रमण प्रायः अशुभ फल ही देता है । झूठ बोलने से, झूठे व्यवहार से, मित्रों और सम्बन्धियों में गलत फहमी फैलाने से शारीरिक और मानसिक कष्ट होता है। राज्य के अधिकारी असंतुष्ट हो जाते हैं । कुछ दिन के लिए व्यवसाय बन्द भी रह सकता है। यदि जन्मकुण्डली के अनुसार मंगल बहुत ही शुभ हो तो व्यवसाय में उन्नति होने लगती है और अन्त में कार्य पूरा हो जाता है ।
बुध – (जन्मकालीन) पर से या उसके सातवें स्थान से रवि का गोचर में भ्रमण सामान्यतया शुभ है, इस दौरान बुद्धि तेज हो जाती है । अध्ययन में सफलता मिलती है। यदि परीक्षाओं का समय हो तो व्यक्ति सरलता से उत्तीर्ण हो जाता है । सब कार्यों में मन लगता है और काम जल्दी हो जाते हैं। सरलता से लेखन कार्य किया जा सकता है। परन्तु सम्बन्धियों से वैमनस्य की संभावना रहती है ।
बृहस्पति – ( जन्मकालीन) पर से या उसके सातवें स्थान पर जब सूर्य का भ्रमण हो तो वह शुभ नहीं होता। घर के सभी लोग प्राय: बीमार रहते हैं, धन हानि होती है, व्यापार ठीक नहीं चलता। नौकरी में कष्ट होता है, पदोन्नति की संभावना इस अवधि में बहुत कम रहती है
शुक्र – ( जन्मकालीन) पर से या उसके सातवें स्थान पर से सूर्य के भ्रमण के समय स्त्री सुख नहीं मिलता । स्त्री बीमार रहती है। कई प्रकार की बाधाएं पड़ती हैं। मनोरंजन, अनुचित विलास और अतिथियों पर धन व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है ।
शनि – (जन्मकालीन) से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर में सूर्य का भ्रमण हो तो वह समय कष्टपूर्ण होता है। यात्राओं में परेशानी तथा धन हानि होती है। आर्थिक अड़चनों तथा विभिन्न असफलताओं का सामना करना पड़ता है। नौकर आदि आज्ञा का पालन नहीं करते, व्यवसाय में हानि होती है। वृद्ध एवं बुजुर्ग लोगों से नहीं बनती। स्त्री वर्ग से हानि रहती है। टांग आदि में कष्ट की संभावना रहती है ।
चन्द्र का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
रवि – (जन्मकालीन) अथवा उससे सप्तम भाव पर गोचर में चन्द्र का भ्रमण, जन्मस्थ चन्द्र के शुभाशुभ होने पर निर्भर करता है। फिर भी प्रायः इस अवधि में विशेषतया जबकि जन्मकुण्डली में चन्द्रमा पक्ष बल में क्षीण हो और गोचर में सूर्य से युति करे तो ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य ढीला रहता है। धन की कमी रहती है, प्रयत्न करने पर भी कार्य सफल नहीं होते । राज्य से कुछ विरोध रहता है। आंखों में कष्ट रहता है ।
चन्द्र – (जन्मकालीन) से अथवा उसके सप्तम पर से गोचर जब चन्द्र आता है और जन्म में बलवान् और शुभ होता है तो उसकी अवधि के दो दिन आराम से बीतते हैं। खुशी के समाचार मिलते हैं। अपने ही पुरुषार्थ से धन में वृद्धि होती है। मान में वृद्धि होती है । यदि चन्द्रमा जन्मकुण्डली में क्षीण तथा अशुभ हो तो मानसिक चिन्ता में दिन गुजरते हैं और धन की कमी रहती है अथवा अनुभव होती है।
मंगल – ( जन्मकालीन) से अथवा उसके सप्तम स्थान से क्षीण तथा अशुभ चन्द्र का भ्रमण शत्रुओं से पराजय करवाता है। भूमि का नाश जतलाता है । शक्ति को कम करता है। शुभ चन्द्रमा का फल अन्यथा हो ।
बुध – ( जन्मकालीन) से अथवा उससे सप्तम स्थान में जब गोचर में चन्द्र आता है और यदि चन्द्र जन्म में क्षीण तथा अशुभ है तो लिखने पढ़ने का अवसर नहीं मिलता। अशुभ तथा आश्चर्यजनक समाचार मिलते हैं । व्यापार में कई प्रकार की परेशानियां बढ़ जाती है। किसी सम्बन्धी से तू-तू मैं-मैं हो जाती है। यदि चन्द्र बलवान् हो (जन्म में), तो इसके विरुद्ध शुभ फल मिलता है ।
बृहस्पति – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम पर से गोचर में चन्द्र का भ्रमण प्रायः अशुभ फल देता है, विशेषतया उस स्थिति में जबकि चन्द्रमा जन्मकुण्डली में क्षीण अशुभ हो। ऐसी स्थिति में काम नहीं बनते । धन प्राप्ति में बाधाएं आती हैं। शारीरिक कष्ट भी होता है। भाइयों आदि के प्रति तथा राज्य कर्मचारियों के प्रति जातक का व्यवहार अनुचित हो जाता है। सुख की हानि होती है, यदि चन्द्र शुभ तथा बलवान हो तो इसके विरुद्ध शुभ फल मिलता है।
शुक्र – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम स्थान में गोचर- वश जब चन्द्रमा आता है तो उन दिनों में स्त्री-सहवास का सुख मिलता है । सुन्दर महिलाओं से सम्पर्क स्थापित होता है। मनोरंजन और ऐशो- आराम के साधन स्वतः जुट जाते हैं। धन का भी लाभ होता है । परन्तु
यह सब कुछ तब जब जन्मकुण्डली में चन्द्रमा शुभ तथा बलवान हो अन्यथा इसके विरुद्ध फल होता है।
शनि – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम स्थान पर से गोचर में जब चन्द्र का भ्रमण होता है और जन्मकालीन चन्द्र बलवान तथा शुभ हो तो सामान्य धन की प्राप्ति होती रहती है। यदि चन्द्र पापी तथा निर्बल हो तो भृत्य वर्ग पर मनुष्य बरस पड़ता है और उनसे हानि उठाता है । व्यापार में भी कुछ हानि रहती है ।
मंगल का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
सूर्य – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचर में भ्रमण करता हुआ मंगल जब आता है तब उस अवधि में टाइफाइड, मलेरिया बुखार आदि पित्त जनित रोगों से कष्ट होता है। खर्च बहुत हो जाता है। व्यवसाय में अड़चन आती है। कार्या- लय के वरिष्ठ अधिकारी खुश नहीं रहते। आंखों में कष्ट तथा पेट में आपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट पहुंचता है। उसको चोट तक लग सकती है।
चन्द्र – (जन्मकालोन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचर वश जब मंगल आता है तो शरीर में चोट लगने की संभावना रहती है, मन में क्रोध अधिक रहता है। भाइयों द्वारा कष्ट उठाना पड़ता है। धन का नाश होता है। हां, यदि जन्मकुण्डली में मंगल बलवान् हो और राजयोग कारक अथवा शुभ हो तो धनादि का विशेष लाभ रहता है।
मंगल – ( जन्मकालीन) मंगल से युक्त अथवा उसके सप्तम, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश जब मंगल आता है तो यदि जन्म- कुण्डली में दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें अथवा बारहवें किसी स्थान में है और विशेष बलवान न हो तो धन की हानि, कर्ज, नौकरी आदि में हानि, बल में कमी, भाइयों से कष्ट, लड़ाई-झगड़े में क्षति देता है। इस अवधि में मंगल चेचक, खसरा, फोड़े, सूखा, रक्त- विकार आदि बीमारियां आयु अनुसार देता है।
बुध – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें गोचर में मंगल का भ्रमण सामान्यतया अशुभ फल करता है । बड़े व्यापारियों के दो नम्बर के खाते, शत्रुतावश उसी अवधि में पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षरों से सम्बन्धित मुकदमे चलते हैं। लोग निन्दा करते हैं । लेखकों का प्रकाशकों से वाद-विवाद होता है । उनकी पुस्तकों की सराहना नहीं होती । व्यापार में अचानक हानि हो जाती है, सम्बन्धियों का नाश होता है ।
बृहस्पति – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, छठे अथवा दसवें गोचर में जब मंगल भ्रमण करता है तो प्रायः शुभ फलदायी होता है। जातक का अधिकार बढ़ता है। उसकी उन्नति होती है । उसे लाभ होता है। धार्मिक कार्यों अथवा अध्यापन तथा वकालत के कार्यों से लाभ होता है, परन्तु सन्तान को कष्ट होता है ।
शुक्र – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, छठे अथवा दसवें भाव में गोचरवश जब मंगल आता है से तो विषय वासना तीव्र होती है। बुरी स्त्री के संग के कारण यौन (Venerial) रोग होने की भी संभावना रहती है। आंख में कष्ट की तथा स्त्री को कष्ट की भी संभावना रहती है ।
शनि – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, छठे अथवा दसवें जब गोचर में मंगल आता है तो यदि जन्मकुण्डली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो इस अवधि में दुःख और कष्ट बहुत होते हैं। भूमि (Lands) की हानि होती है। झगड़े मुकदमे बहुत खड़े हो जाते हैं । स्त्री वर्ग से हानि होती है । निम्न स्तर के लोगों, भृत्यों आदि से हानि उठानी पड़ती है । यदि जन्म कुण्डली में शनि और मंगल दोनों की स्थिति शुभ हो तो । शेष नुकसान नहीं होता । परन्तु मस्तिक में तनाव उत्पन्न होते रहते हैं ।
बुध का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
बुध के सम्बन्ध में यह मौलिक नियम है कि यह शुभ ग्रहों से युक्त दृष्ट हो तो शुभ और पापी ग्रहों से युक्त दृष्ट हो तो पापफल करता है । इसलिए यह ग्रह जब चन्द्र लग्न से गोचर में विविध राशियों में से घूमता है तो इसका फल उस ग्रह के भ्रमण के अनुरूप होता है. जिससे कि वह जन्म कुण्डली में सबसे अधिक प्रभावित है। यदि इस पर सूर्य, मंगल, शनि आदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव अन्य ग्रहों की अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर में दिये गए सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के भ्रमण जैसा फल करेगा। इसके विरुद्ध यदि जन्म कुण्डली में बुध पर अधिकतर प्रभाव प्रबल चन्द्र, गुरु अथवा शुक्र का है तो इन ग्रहों के से गोचरफल को यह भी देगा ।
बृहस्पति का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
सूर्य – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचर वश आया हुआ गुरु यदि चन्द्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो वह अपनी गोचर अवधि में राज्य, सम्मान, अधिकारी वर्ग से लाभ, स्वास्थ्य में वृद्धि, धन में वृद्धि, सुख सामग्री में वृद्धि देगा । यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल और यदि गुरु चन्द्र लग्न का शत्रु तथा शनि राहु आदि अधिष्ठित राशियों का स्वामी है तो इसका भ्रमण हृदय रोग, आंखों का कष्ट, राज्य से हानि, अधिकारी वर्ग का रोष, रोग, नौकरी से छूट जाने आदि सभी कुछ अनिष्ट फल दे सकता है ।
चन्द्र – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम में गोचरवश आया हुआ गुरु, अशुभ फल करता है। यदि जन्म कुण्डली में चन्द्रमा २, ३, ६, ७, १० और ११ राशि का हो और स्वामी हो। ऐसी स्थिति वियोग देता है । धन का गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का में इस अवधि में गुरु रोग देता है, माता से नाश देता है । व्यवसाय में हानि होती है । कर्ज के कारण बहुत मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है । प्रायः यह अवधि कष्टदायक और प्रवास में व्यतीत होती है ।
मंगल – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम में गोचरवश आया हुआ गुरु प्रायः शुभ फल करता है । इस अवधि में शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का बल बढ़ता है । नौकरी में पदोन्नति होती है । व्यापार बढ़ता है। वरिष्ठ अधिकारी उसके कार्यों से प्रसन्न रहते हैं । बुद्धि तथा ऊहापोह, शक्ति में सात्वि- कता तथा व्यापकता आती है। यदि जन्मकुण्डली में गुरु, राहु तथा शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो रक्त विकार, ‘दुर्घटना भाइयों से विवाद आदि अशुभ घटनाएं घटती हैं ।
बुध – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में आया हुआ गोचर का बृहस्पति ।
- यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो अपनी अवधि में विद्या में उन्नति सम्बन्धियों से लाभ, व्यापार का प्रसार, लेखन कला में वृद्धि, भाषण शक्ति में दक्षता तथा धन देता है ।
- यदि बुध पर उन ग्रहों का अधिक प्रभाव है जो गुरु के मित्र हैं तो गोचर में गुरु का जो फल होगा वह वही होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है। स्पष्ट है कि यह फल शुभ होगा ।
- यदि बुध पर उन ग्रहों का प्रभाव अधिक है जो गुरु के शत्रु हैं तो फिर गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस स्थिति से जबकि जन्मकुण्डली में गुरु, शनि तथा राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर ‘देवी’ श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो ।
- यदि बुध अधिकांश में उन ग्रहों से प्रभावित है जो कि आसुरी श्रेणी के हैं तो फिर यदि यह शनि तथा राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी है तो गोचर के फल में शुभता भी कुछ हद तक आ सकती है ।
बृहस्पति – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल देने में असमर्थ हो जाता है, यदि यह जन्मकुण्डली में ३-६-८ अथवा १२ भाव में शत्रु राशि में स्थित हो और पाप युक्त, पाप दृष्ट हो अथवा शनि तथा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह गोचर में उल्टा धन का नाश, राज्य-कृपा में हानि, पुत्त्रों से कष्ट, धन का नाश आदि अनिष्ट फलों को देता है । यदि जन्म लग्न में शुभ और बलवान हो तो फल इन्हीं बातों का शुभ फल होता है ।
शुक्र – ( जन्मकालीन) युक्त अथवा इसे सप्तम पंचम अथवा नवम गोचरवश जब बृहस्पति आता है तो शुक्र शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुण्डली में बलवान हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो, यदि शुक्र जन्मकुण्डली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पाप युक्त हो तो गोचर में गुरु शत्रुता उत्पन्न करता है, विद्वानों से अनबन उत्पन्न करता है, राज्य कर्मचारियों से वैमनस्य उत्पन्न करता है। सुख तथा सुख की सामग्री में कमी लाता है । पत्नी को कष्ट में डालता है, व्यवसाय में मन्दी लाता है ।
शनि – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभ फल करता है। यदि शनि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में जन्म कुण्डली में हो तो इस अवधि में डूबा हुआ धन पुनः मिलता है, भूमि (Lands) की प्राप्ति होती है। कुछ बरादरी आदि में मान मिलता है, सुख में वृद्धि होती है। यदि शनि अन्य राशियों में जन्म लग्न में हो और पाराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधि- पत्य भी रखता हो तो फिर गुरु का संचार उसे कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है। स्थिति बहुत साधारण रहती है, बल्कि हानिप्रद भी सिद्ध: हो सकती है।
शुक्र का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
सूर्य – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम स्थान में गोचरवश आया हुआ शुक्र प्रायः स्वास्थ्य के लिए शुभप्रद होता है। इस समय मनुष्य की अन्तरात्मा सत्य कर्मों की ओर प्रेरित होती है। यदि शुक्र का आधिपत्य बुरा हो तो व्यसनों में समय बीतता है ।
चन्द्र – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा इसमें सप्तम स्थान में गोचरवश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता को उत्पन्न करता है और भोगात्मक जीवन देता है। ऐसे समय में कार आदि वाहनों की प्राप्ति होती है, धन में वृद्धि होती है, स्त्री वर्ग से लाभ रहता है । चन्द्र यदि निर्बल हो तो धनादि पूर्ण मात्रा में नहीं मिलते ।
मंगल – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उसे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र बल की वृद्धि करता है, परन्तु काम-वासना में वृद्धि करता है, भाइयों के सुख को बढ़ाता है और भूमि आदि के सुख में वृद्धि करता है।
बुध – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या में उन्नति कराता है । इस अवधि में सगे सम्बन्धियों से खूब प्यार बढ़ता है तथा उनसे लाभ भी होता है । स्त्री वर्ग से भी लाभ रहता है, विद्या में उन्नति होती है, व्यापार में अधिक लाभ रहता है । यह सब फल तब है जब बुध अकेला हो । यदि बुध किसी ग्रह विशेष से अधिकतर प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के भ्रमण जैसा होता है ।
बृहस्पति – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है तो सज्जनों से सम्पर्क बढ़ता है, विद्या में उन्नति होती है, पुत्र से धन प्राप्त होता है; राज्य में उन्नति होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि तथा राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो फल इसके उलटा होता है।
शुक्र – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा उससे सप्तम स्थान में जब शुक्र आता है तो विलास की सामग्री को बढ़ाता है, स्त्रियों से सम्पर्क अधिक करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है, स्त्री से सुख को अधिक करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है । यदि जन्मकालीन शुक्र निर्बल हो तो यह फल अल्प होता है ।
शनि – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि में प्राप्ति स्त्री वर्ग से लाभ, भृत्य आदिकों की प्राप्ति, परिश्रम में कमी आदि शुभ फल होता है । यदि शुक्र निर्बल हो तो यह फल अल्प होता है ।
शनि का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
सूर्य – (जन्मकालीन) से युक्त होकर अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ में गोचरवश जब शनि भ्रमण करता है तब राज्य की ओर से परेशानी उठानी पड़ती है, नौकरी आदि छूटने का भय रहता है, पेट में रोग होता है, पिता को कष्ट पहुंचता है।
चन्द्र – ( जन्मकालीन) से युक्त होकर अथवा इससे सप्तम एकादश अथवा चतुर्थ स्थान में गोचरवश जब चन्द्र भ्रमण करता है तब धन की हानि, मन में उदासीनता तथा चिन्ता रहती है, मन को कष्ट मिलता है, छाती के रोगों की प्राप्ति होती हैं । जुकाम, न्यूमोनिया, खांसी आदि से पीड़ा होती है। यदि चन्द्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो (देखिए शुक्र का भ्रमण तो मिश्रित फल मिलता है। अर्थात् आर्थिक क्षेत्र में लाभ की संभावना भी रहती है ।
मंगल – ( जन्मकालीन) से युक्त अथवा इससे सप्तम भाव से गोचर वश यदि शनि भ्रमण करे तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है, भाइयों में अनबन रहती है। राज्य से परेशानी होती है। रक्त विकार से तथा पट्ठों के कष्ट से पीड़ा होती है। बवासीर आदि रोग होते हैं।
बुध – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में गोचरवश जब शनि भ्रमण करता है तो बुद्धि का नाश, विद्या में हानि, संबन्धियों से वियोग, व्यापार में मन्दी, मामा से अन- बन, अन्तड़ियों में रोग होते हैं, परन्तु यदि बुध आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो और जन्म लग्न तथा चन्द्र लग्न भी आसुरी श्रेणी के हों तो धन में विशेष वृद्धि होती है ।
गुरु – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में गोचर वश जब शनि भ्रमण करता है तब राज्य कर्म- चारियों की ओर से विरोध होता है, धन में कमी आती है, पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है, जिगर के रोग होते हैं तथा गुरुजनों से अनबन होती है ।
शुक्र – (जन्मकालीन) से ‘युक्त अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ स्थान में गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि अपनी अवधि में स्त्री से अनबन तथा यदि जन्मकुण्डली में शुक्र, राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक आदि दिलाता है। प्रायः धन और सुख में भी हास होता है, सिवाय उस स्थिति के जबकि जन्म लग्न आसुरी (देखिए शुक्र का भ्रमण ) श्रेणी की हो । आसुरी लग्न होने पर शनि गोचर में धन- दायक सिद्ध होता है।
शनि – (जन्मकालीन) से युक्त अथवा इससे सप्तम एकादश अथवा चतुर्थ भाव में गोचरवश जब भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि दिलवाता है, भूमि का नाश, टांगों आदि में दर्द तथा अन्य कई प्रकार के दुःख देता है। यदि लग्न तथा चन्द्र लग्न आसुरी श्रेणी के हों (देखिए शुक्र का भ्रमण) तो धन, पदवी आदि सभी बातों का सुख मिलता है
राहु तथा केतु का अन्य ग्रहों पर से भ्रमण
राहु और केतु छाया ग्रह हैं, अन्य ग्रहों की भांति इनका भौतिक अस्तित्व नहीं । यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया। तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति और सिद्धान्त है कि, “शनिवत् राहु कुजवत् केतु” अर्थात् राहु के गुण दोष शनि क्री, भांति और केतु के मंगल की भांति है, अतः हम यह कह सकते हैं कि गोचर में राहु शनि की भांति भ्रमण करता है और अन्य ग्रहों पर से गुजरता हुआ शनि जैसा फल देता है, वैसा ही राहु भी देता है। इसी प्रकार केतु अपने भ्रमण में वही फल करता है जोकि मंगल अपने भ्रमण में करता है ।
इतना और ध्यान रखना चाहिए कि राहु और केतु के भ्रमण का जहां तक शरीर और उसके स्वास्थ्य अथवा जीवन से सम्बन्ध है, अनिष्ट कारक ही होता है, विशेषतया उस स्थिति में जबकि जन्म- कुण्डली में भी राहु तथा केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि उन क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव डालते हैं जिनके द्वारा वे प्रभावित रहते हैं अर्थात् दृष्ट अथवा युक्त होते हैं।
राहु और केतु की दृष्टि पूर्ण रूप से नवम और पंचम भाव पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय पहले यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं ।
ऐसा भी नहीं कि सदा सर्वदा राहु तथा केतु का गोचर प्रभाव अनिष्टकारी ही होता हो । कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा अन्यथा भी अचानक बहुत धनप्रद सिद्ध हो सकता है । वह तब जब कुण्डली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योग कारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों।
उदाहरण के लिए यदि चन्द्रमा तुला लग्न में स्थित हो और जन्म कुण्डली में राहु पर शनि की युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव हो तो राहु यदि गोचर में बुध अथवा शुक्र अथवा शनि (जो सभी शनि की भांति आसुरी श्रेणी के ग्रह हैं) पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि से प्रभाव डाल रहा है तो राहु की अवधि में धन का विशेष लाभ होगा, यद्यपि राहु नैसर्गिक पान ग्रह है।
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