दशाफल कहने के नियम
विंशोत्तरी दशा पद्धति में ग्रह कैसा शुभ तथा कैसा अशुभ फल करते हैं। यह इस अध्याय का विषय है। महर्षि पाराशर इस दशा पद्धति के दाता हैं । इस सर्वोत्तम पद्धति की विशेषता यह है कि यह नैसगिक है अर्थात् ग्रहों का रूप ऐसा पेश करती है जोकि संसार में मनुष्यों के रूपों से बिल्कुल मिलता है। संसार में कुछ ऐसे लोग हैं जो सदा सज्जनता का व्यवहार करते हैं । आप चाहे उनसे दुष्टता का व्यवहार करें । कम हैं ऐसे लोग, परन्तु हैं अवश्य, तो जन्मकुण्डली में त्रिकोण भाव के स्वामी ऐसे सज्जनों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
ज्योतिष का सिद्धान्त है कि त्रिकोण भावों के स्वामी नैसर्गिक पापी ही क्यों न हों वे सदा शुभ फल करते हैं, परन्तु इसके विरुद्ध कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सदा दुष्ट ही रहते हैं, चाहे आप उनसे कितना ही शिष्टता से पेश आओ। ऐसे दुर्जनों का प्रतिनिधित्व जन्मकुण्डली में तृतीय, षष्ठ, अष्टम और एकादश भाव के स्वामी करते हैं। इन भावों के स्वामियों को ज्योतिष पापी की संज्ञा देता है।
कुछ ऐसे भी संसार में पापी लोग हैं जिनको यदि उत्तरदायित्व दिया जावे तो वे पापी नहीं रहते, अपने पाप को छोड़कर धर्म करने को उद्यत हो जाते हैं। ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व जन्मकुण्डली में केन्द्र भावों अर्थात् प्रथम, चतुर्थं, सप्तम तथा दशम के स्वामी पापी ग्रह करते हैं ।
इसी प्रकार कुछ ऐसे भी नेक लोग हैं जिन्होंने पूर्व जीवन में सदाचार और नैतिकता का प्रमाण अपने जीवन से पेश किया, परन्तु अब जब उनको जिम्मेदारी का काम दिया गया तो अपनी नैतिकता और शुभता को छोड़ बैठे। इस प्रकार से बदल जाने वालों का प्रतिनिधित्व भी वही केन्द्रों के स्वामी शुभ ग्रह करते हैं ।
संसार में कुछ ऐसे लोग हैं जो अवसरवादी हैं। हवा का रुख देख कर बात करते हैं । यदि उनका वास्ता नेक आदमियों से पड़ा तो बे नेक हो जाते हैं और यदि दुष्ट आदमियों से मिलें तो दुष्ट । संसार के ऐसे व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व जन्मकुण्डली में दूसरे और बारहवें भाव के स्वामी करते हैं । संसार में ऐसा भी देखा गया है कि जो लोग अपने को बदल सकते हैं उनको यदि सज्जनों का संग मिल जावे तो बहुत सुखी सिद्ध रहते हैं । दूसरे शब्दों में केन्द्र और त्रिकोण घरों के स्वामियों का परस्पर मेल की शुभता, जिसे ज्योतिष राजयोग का नाम देता है, उत्पन्न करता है ।
उपरोक्त नियमों की रोशनी में पाराशर पद्धति के अनुसार विविध लग्नों के लिए अच्छे-बुरे तटस्थ ग्रह इस प्रकार होंगे। इनको समझ लेने पर दशा का फल कहना सरल हो जाता है ।
मेष लग्न –
- लग्नेश चूंकि केन्द्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होता है । अत: बहुत शुभ होता है। यहां मंगल की मूल त्रिकोण राशि भी लग्न ही में पड़ती है, अत: इस लग्न के लिए मंगल अष्टमेश होता हुआ भी शुभ फल (अपनी दशा भुक्ति में) करता है।
- शनि, बुध ये दो ग्रह पापी भावों के स्वामी होने से पापी कहलाते हैं।
- शुक्र द्वितीयेश होने के कारण अपनी दूसरी राशि तुला का फल करता है । तुला चूंकि केन्द्र में है, अतः नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होने में शुभता छोड़ देता है और पापी सा बन जाता है।
- गुरु नैसर्गिक शुभ ग्रह प्रमुख त्रिकोण का स्वामी होने से बहुत शुभ है।
- सूर्य त्रिकोणेश होने से शुभ है ।
- गुरु और शनि यदि इकट्ठे हों तो यह समझना चाहिए कि यह राजयोग है, क्योंकि गुरु तो शुभ है और शनि एकादशेश (बाधक स्थान का अधिपति) होने से बहुत पापी हो जाता है। द्वितीयेश और सप्तमेश होने से शुक्र पक्कामारक है, अर्थात् इस ग्रह की दशा में प्रायः मौत होती है। शनि भी इस लग्न वालों के लिए मारक प्रायः सिद्ध होता है ।
वृषभ लग्न –
- गुरु पापी घरों का स्वामी होने से पापी माना गया है,
- चन्द्र भी तृतीयेश होने से पापी है।
- शुक्र यद्यपि लग्नेश है, परन्तु इसकी मूल त्रिकोण (मुख्य) राशि के छठे भाव में पड़ती है । इसलिए यह ग्रह अधिकतर पापी ही है।
- शनि केन्द्र एवं त्रिकोण का एक साथ स्वामी होने से राजयोग कारक है।
- सूर्य पापी होकर केन्द्रेश होने के कारण शुभ है।
- बुध पंचम भाव का स्वामी के रूप में फल देता है इसलिए शुभ है ।
- इस लग्न के लिए गुरु दो अशुभ स्थानों का स्वामी होने से मारक सिद्ध हो सकता है।
- मंगल भी द्वादशेश सप्तमेश होने के कारण मारक सिद्ध हो सकता है।
मिथुन लग्न–
- मंगल और सूर्य अशुभ स्थानों के स्वामी होने से पापी हैं।
- गुरु केन्द्राधिपत्य के दोष के कारण पापी है।
- शुक्र पंचम भाव का फल करने के कारण बहुत शुभ है।
- यहां भी गुरु और शनि के योग से कोई यह न समझ ले कि यह राजयोग है क्योंकि गुरु केन्द्रेश है और शनि त्रिकोणेश । इसका कारण गुरु में पापत्व है।
- चन्द्र द्वितीयेश होने से मारक है ।
- लग्नेश होने के नाते बुध तो योग कारक ग्रह है ही ।
कर्क लग्न
- शुक्र और बुध पापी भावों के स्वामी होने के कारण पापी अर्थात् अशुभ हैं।
- मंगल केन्द्रेश और त्रिकोणेश होने से योग कारक (बहुत शुभ) है,
- चन्द्रमा भी इसी कारण से (लग्न केन्द्र भी है और त्रिकोण भी) योग कारक है।
- गुरु यद्यपि षष्ठेश है, परन्तु शुभ ग्रह है और नवमेश भी है, अतः कुछ शुभ है।
- शनि सप्तमेश, अष्टमेश होने से मारक है।
- सूर्य यदि शुभ ग्रहों आदि से योग करता है तो शुभ नहीं तो पापी है।
सिंह लग्न
- बुध, शुक्र और शनि अशुभ हैं।
- गुरु पांचवें भाव का मुख्य फल करने वाला शुभ है।
- शुक्र और गुरु के योग से कोई यह न समझ बैठे कि यह युति योग कारक है। चूंकि शुक्र केन्द्रेश है, और गुरु त्रिकोणेश । कारण है कि शुक्र तृतीयेश होने से बहुत पापी है । वह इस योग को नहीं बनने देता।
- शनि सप्तमेश होने के कारण मारक है ।
- चन्द्र यदि शुभ ग्रहों के साथ सम्बन्धित है तो शुभ अन्यथा अशुभ फल करता है।
- सूर्य तो लग्नेश (केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी) होने से योग कारक है ही।
कन्या लग्न
- इस लग्न के लिए मंगल और चन्द्र पापी घरों के स्वामी होने से अशुभ हैं।
- गुरु दो केन्द्रों का स्वामी होने से अशुभ है।
- बुध लग्नेश होने से योग कारक,
- शुक्र नत्रमेश होने से शुभ है। शुक्र द्वितीयेश होने से मारक है।
- सूर्य द्वादशेश होने से वैसा फल अच्छा या बुरा करेगा जो अच्छा या बुरा प्रभाव इस पर होगा ।
नोट – शनि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा, परन्तु शनि की मूल त्रिकोण राशि छठी पड़ती है, इसलिए इसने मुख्यतया उसी बुरे भाव का फल करना है। पंचमेश होने से वह बहुत कुछ सुधर जाता है। इसलिए शनि की शुभता बहुत कम है ।
तुला लग्न
- इस लग्न के लिए गुरु और सूर्य पापी स्थानों के स्वामी होने से पापी हैं ।
- मंगल को महर्षियों ने पापी माना है, परन्तु यह बहुत कम पापी है क्योंकि नैसर्गिक पापी होकर केन्द्रेश है।
- शनि केन्द्र त्रिकोण का स्वामी होने से योग कारक,
- बुध नवमेश होने से बहुत शुभ ।
- यदि चन्द्रमा और बुध परस्पर सम्बन्ध करें तो वे राजयोग का फल (दशा भुक्ति में) देंगे क्योंकि चन्द्रमा प्रमुख केन्द्र का स्वामी है और शुक्र प्रमुख त्रिकोण का ।
- मंगल द्वितीयेश तथा सप्तमेश होने के कारण मारक है ।
- गुरु आदि पापी ग्रह भी मारक सिद्ध हो सकते हैं ।
- शुक्र सम है । (लग्नेश होने से यह जितना शुभ है अष्टमेश होने से उतना पापी भी )
वृश्चिक लग्न
- बुध शनि पापी राशियों के स्वामी होने से पापी.. हैं।
- शुक्र नैसर्गिक शुभ होकर केन्द्र का स्वामी होने से पापी है ।
- गुरु पंचमेश होने से शुभ है ।
- चन्द्रमा नवमेश होने से शुभ है।
- यदि सूर्य (केन्द्रेश) और चन्द्र (त्रिकोणेश) का परस्पर युति आदि द्वारा सम्बन्ध हो तो ये ग्रह अपनी दशा भुक्ति में योग का अर्थात् बहुत शुभ फल देता है,
- मंगल की मूल त्रिकोण राशि अशुभ भाव में पड़ती है। इसलिए लग्नेश होता हुआ भी कोई विशेष अच्छा नहीं ।
- शुक्र सप्तमेश होने से मारक है।
धनु लग्न
- इस लग्न के व्यक्तियों के लिए पापी घरों का स्वामी होने से शुक्र अशुभ है।
- त्रिकोण के स्वामी होन से मंगल और सूर्य शुभ हैं।
- यदि सूर्य और बुध का परस्पर सम्बन्ध हो जाए तो ये योगकारक ( शुभ फल ) होते हैं क्योंकि बुध केन्द्रेश है और सूर्य त्रिकोणेश ।
- शनि द्वितीयेश तथा तृतीयेश होने से मारक है।
- गुरु को महर्षि ने कम फल वाला लिखा है। कारण यह प्रतीत होता है कि इसकी मूल त्रिकोण राशि सम भाव अर्थात् द्वितीय भाव में पड़ती है।
- शुक्र पापी भावों का स्वामी होने से मारक है ।
मकर लग्न
- पापी भावों के स्वामी होने से मंगल, गुरु अशुभ हैं।
- नैसर्गिक शुभ होकर केन्द्र का स्वामी होने से चन्द्रमा पापी है ।
- शुक्र केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी होने से योग कारक (बहुत शुभ) है ।
- बुध का मूल त्रिकोण राशि नवम में है, अतः बुध भी शुभ है।
- शनि द्वितीयेश होने से मारक है ।
- मंगल आदि पापी ग्रह भी मारक सिद्ध हो सकते हैं।
- सूर्य यद्यपि अष्टमेश है तो भी इसको अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता, इसलिए यह सम फल करता है ।
कुम्भ लग्न
- इस लग्न वालों के लिए गुरु, चन्द्र और मंगल पापी भावों के स्वामी होने से पापी हैं।
- शुक्र केन्द्रेश तथा त्रिकोणेश होने से बहुत शुभ,
- शनि भी लग्नेश होने से शुभ है ।
- गुरु द्वितीयेश होने से, ‘सूर्य सप्तमेश होने से और मंगल पापी पाप भाव का स्वामी होने से, मारक है।
- बुध मध्यम फल करता है क्योंकि इसकी एक राशि पंचम में पड़ती है। दूसरी अष्टम में (संभवतया बुध थोड़ा पापी अधिक है, अस्तु आखिर बुध ने दूसरे ग्रहों का फल करना है, इसलिए इसके लिए ‘सम’ शब्द ही उपयुक्त है) ।
मीन लग्न
- शनि, सूर्य, शुक्र और बुध अशुभ हैं क्योंकि ये पापी घरों के स्वामी हैं।
- मंगल नवमेश होने से शुभ है।
- चन्द्रमा पंचमेश होने से शुभ है ।
- गुरु लग्नेश होने से योग कारक है।
- मंगल और गुरु का सम्बन्ध योग कारक है (केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी होने से ), मंगल द्वितीयेश होता हुआ भी मारक नहीं क्योंकि यह शुभ हो जाता है ।
- शनि पापी भावों का स्वामी होने से तथा बुध केन्द्रों का शुभ होकर स्वामी होने से मारक है ।
बलानुसारेण यथा हि योगानुसारेण दशामुपेति
दशाफलः सर्व फलं नराणां वर्णानुसारेण यथा विभागः ॥
(जातक पारिजात)
अर्थात् ज्योतिष शास्त्र में जो चन्द्राधि आदि योगों का वर्णन है उनका फल उन योगों में हिस्सा लेने वाले ग्रहों के बलानुसार ही होता है । जितने वे ग्रह बलवान होते हैं उतना ही अधिक शुभ फल प्राप्त होता है।
इसी प्रकार किसी दशा भुक्ति का फल कैसा रहेगा इस बात का निर्णय दशा भुक्ति के ग्रहों के योग पर निर्भर करता है अर्थात् इस बात पर कि वे केन्द्र और त्रिकोण के एक ही समय में स्वामी होकर योग कारक हैं अथवा एक केन्द्र का और दूसरा त्रिकोण का (परन्तु बुरे घर का नहीं) स्वामी है आदि और दशा फल ही मनुष्य के लिए सब कुछ है क्योंकि यदि ग्रह बलवान भी हो और योग कारक भी परन्तु जीवन में उसकी दशा ही न आवे तो उससे पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता।
फिर इस बात का निर्णय भी मुख्यतया दशा अन्तर्दशा से ही होता है कि जन्मकुण्डली में जो शुभ अशुभ घटनाओं के होने की सूचना विद्यमान है वह कब फलीभूत होगी।
1. शुभ भावों का स्वामी जितना अधिक बलवान् होगा उतना ही अधिक शुभ फल होगा । ग्रह नीचे लिखे तरीकों से बलवान समझा जाता है-
- ग्रह अपनी उच्च राशि में हो अथवा उच्च राशि को प्राप्त करने वाला हो (जैसे मंगल धनु राशि में)
- स्वक्षेत्र में मित्र राशि में भाव मध्य में स्थित हो,
- अष्टक वर्ग में चार से अधिक बिन्दु प्राप्त कर चुका हो,
- दशम आदि केन्द्र स्थानों में स्थित हो,
- नवांश आदि में उच्च हो,
- षड्बल से युक्त हो,
- शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो वह ग्रह अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल करता है।
इसके विरुद्ध जो ग्रह अपनी नीच राशि में स्थित हो, नीच राशि को जाने वाला हो (जैसे मंगल मिथुन में) भाव सन्धि में हो, अष्टक वर्ग में चार से कम बिन्दु पाता हो, छठे, आठवें, बारहवें आदि अशुभ भावों में स्थित हो, नवांश आदि में नीच राशि का हो, षड्बल में हीन बली हो, अस्त हो, शत्रु राशि में हो अशुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो वह ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में अशुभ फल देता है।
2. (i)यदि कोई ग्रह लग्नेश का मित्र होकर लग्न से शुभ भावों में है और बुरे भावों (छठे, आठवें, बारहवें नहीं) ।
(ii) यदि कोई ग्रह लग्नेश का मित्र होकर दशानाथ से शुभ भावों में है (छठे, आठवें, बारहवें, नहीं) ।
(iii) यदि कोई ग्रह चन्द्र लग्न का मित्र होकर उससे शुभ स्थानों में है अर्थात् (बुरे स्थानों ६, ८, १२ में नहीं) ।
(iv) यदि कोई ग्रह अपनी राशियों से भी अच्छे भावों में है (छठे, आठवें, बारहवें नहीं) ।
(v) यदि कोई ग्रह नैसर्गिक शुभ ग्रहों से दृष्ट युक्त है और उन नैसर्गिक ग्रहों की राशियों में कोई पापग्रह नहीं ।
(vi) यदि कोई शुभ ग्रह पैरा 2 में उक्त रीतियों से बली है, तो यह सब शुभ फल करते हैं। यदि किसी ग्रह में 2(i) से लेकर (vi) तक गिनाए सभी गुण पाए जावें तो वह सर्वोत्तम सुख, धन-वैभव, राज्य-मान, भूमि वाहन सब सुख देता है।
जितना-जितना अधिक वह इन गुणों से युक्त होता चला जायेगा उतना उतना वह श्रेष्ठ फल करता चला जाएगा ।
3. यदि कोई ग्रह योग कारक भी क्यों न हो अर्थात् केन्द्र और त्रिकोण भावों का स्वामी ही क्यों न हो, यदि वह पाप युक्त और पाप दृष्ट है तो फिर ऐसा ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभ फल न दे सकेगा और मनुष्य आशा ही आशा लगाता रह जायेगा । यह बात अनुभव सिद्ध है । “ग्रहों का शुभ होना अर्थात् नैसर्गिक रूप से शुभ होना और आधिपत्य से शुभ होना ही काफी नहीं, उसका बलवान होना अत्यन्त आवश्यक है।”
(5) यदि कोई ग्रह अशुभ भावों छठे, आठवें, बारहवें का स्वामी है और लग्न का शत्रु है तो वह ग्रह अपनी दशा भुक्ति में धन आदि के लिए शुभ न होगा और यदि दशा और अन्तदशा दोनों ऐसे ग्रहों की हैं जो दोनों लग्न के स्वामी के शत्रु हैं तो फिर उनका समय अतीव भयावह, कष्टप्रद, धननाशक आदि सिद्ध होगा । जैसे कर्क लग्न हो और शुक्र की दशा में शनि की अन्तर्दशा हो तो मनुष्य बहुत दुखी बीमार-धनहीन अवस्था में से इस समय गुजरेगा ।
(6) परन्तु यदि कोई दशानाथ बुरे भावों का स्वामी होकर अपने भावों से बुरे स्थानों में पड़कर निर्बल हो तो बहुत अच्छा फल करेगा ।
उत्तर कालामृत की यही सम्मति है । भवार्थ रत्नाकर भी इससे सहमत प्रतीत होता है । भावार्थ रत्नाकर में एक स्थान पर आया है-
“धनु लग्ने तु जातस्य पंचमस्थ शनैर्दशा तु
शुभप्रदो योगदेति वदन्ति विभुदोत्तमाः ॥”
अर्थात् यदि धनु लग्न हो और शनि पंचम स्थान में हो तो शनि अपनी दशा भुक्ति में योग कारक होकर शुभ फल करेगा। यहां शनि नैसर्गिक पापी भी है और दूसरे और तीसरे भाव का स्वामी बनता है, इसलिए पाराशरीय नियमों के अनुसार यह एक पापी ग्रह है । अतः इसको शुभ फल नहीं करना चाहिए।
भावार्थ रत्नाकर के रचयिता कहते हैं कि यह बहुत शुभ फल करेगा । कारण इसमें यह है कि शनि अपनी शुभ स्थान (द्वितीय) की राशि मकर से शुभ स्थान चतुर्थ में पड़ेगा और अपनी मूल त्रिकोण और अशुभ (तृतीय भाव में होने के कारण) राशि कुम्भ से तृतीय (अशुभ) में पड़ेगा । सब अशुभ भाव के स्वामियों का निर्बल होना ही उनकी शुभता का कारण बन सकता है । इसी को विपरीत राजयोग कहते हैं ।
(7) जहां तक धन का सम्बन्ध है धनेश और एकादशेश का पारस्परिक सम्बन्ध सदा धनदायक है । अर्थात् ये ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में धन देंगे, चाहे वे एक-दूसरे के शत्रु ही क्यों न हों। देखिए भावार्थ रत्नाकर का वृषभ लग्न सम्बन्धी यह श्लोक-
वृषभलग्ने तु जातस्य गुरोस्सोमसुतस्य च ।
सम्बन्धी वीक्षणं’ वापि विद्यते धनयोगदः।।
अर्थात् यदि जन्म वृषभ लग्न का हो और गुरु और बुध में युति अथवा दृष्टि आदि द्वारा परस्पर सम्बन्ध हो तो यह योग धनदायक सूमझना चाहिए ।
(8) यदि कन्या लग्न हो और पंचम भाव पर गुरु की एकादश स्थान से दृष्टि हो और चन्द्रमा चतुर्थ स्थान में हो तो ऐसे व्यक्ति को पुत्र का सुख नहीं होता । कारण यह है कि ऐसी स्थिति में गुरु दो ऐसे भावों का स्वामी बनता है जोकि दोनों के दोनों स्त्री ग्रह हैं अर्थात् माता का और पत्नी का । अतः गुरु पुरुष न रहकर स्त्री का पार्ट खेलता है विशेषतया तब जब कि चतुर्थ तथा सप्तम भावों में स्त्री ग्रह चन्द्र शुक्र आदि भी विद्यमान हों। ऐसी स्थिति में पंचम भाव पर उच्च गुरु की दृष्टि स्त्री प्रजा अर्थात् लड़कियां देती हैं। देखिए ज्योतिष के पिता की सम्मति –
“दारेश लाभभावस्थे दारैर्थ समागमः ।
पुत्रादि सुखमल्पं च जनः कन्याप्रजो भवेत् ॥”
अर्थात् यदि सप्तम भाव का स्वामी लाभ भाव में हो तो स्त्रियों द्वारा धन की प्राप्ति होती है। पुत्रों की प्राप्ति बहुत कम होती है और जातक बहुत लड़कियों का बाप होता है।
(9) राहु केतु भी अपनी दशा अन्तर्दशा में बहुत उत्तम फल देते हैं । यदि कुछ एक शर्तें पूरी होती हों तो । महर्षि पराशर कहते हैं :
“यदि केन्द्रे त्रिकोण वा निवसेतां तमो ग्रहौ ।
नाथेनान्यतरेणाढ्यौ दृष्टौ वा योगकारकौ !!”
अर्थात् यदि राहू अथवा केतु केन्द्र में हों और कोई त्रिकोणपति (पांचवें अथवा नवें घर का स्वामी) अपना प्रभाव उन पर डाले या ये ग्रह त्रिकोण स्थान में स्थित हों और कोई केन्द्रपति इन पर अपना प्रभाव डाले तो यह ग्रह अपनी दशा अन्तर्दशा में योगप्रद अर्थात् धन, पदवी आदि देने वाले सिद्ध होते हैं ।
(10) यदि द्वादशेश होकर चन्द्रमा पाप प्रभाव में हो और द्वादश भाव पर भी पाप ग्रह की दृष्टि हो तो इन पापी ग्रहों की दशा अन्तदशा में आंख का नाश होता है। इस संदर्भ में जातक पारिजात अध्याय ६ का निम्नलिखित श्लोक ५८ देखिए :
“षष्ठे चन्द्रेऽष्टमे भानौ लग्नादन्यगतेऽर्कजे ।
वित्तस्थान गते भौमे शुक्रोऽपि अन्धो भवेद् ध्रुवम् ॥“
अर्थात् यदि चन्द्रमा छठे हो, सूर्य अष्टम, शनि द्वादश और द्वितीय स्थान में मंगल हो तो जातक चाहे इन्द्र ही क्यों न हो आंखों से ही अन्धा हो जावे । जब शनि द्वादश में होगा और उसकी दृष्टि छठे भाव में पड़े चन्द्रमा पर होगी तो स्पष्ट है कि शनि द्वारा बाईं आंख का भाव (द्वादश) और बाई आंख का कारक चन्द्रमा दोनों पीड़ित होंगे।
इसी प्रकार जब मंगल द्वितीय भाव में होगा और सूर्य अष्टम तो मंगल का क्रूर प्रभाव दाईं आंख के भाव (द्वितीय) और दाईं आंख के कारक सूर्य दोनों पर पड़ेगा, फल आंखों का नाश होगा। भाव यह कि आंखों का भाव, उस भाव का स्वामी और उस भाव का कारक पीड़ित होने चाहियें। इसीलिए यदि द्वादश स्थान भी पीड़ित हो और द्वादशेश चन्द्र भी तो आंख का जाना सिद्ध हो जाता है ।
(11) राहु और केतु छाया ग्रह हैं, इसलिए इनका अपना स्वतन्त्र फल नहीं होता । पैरा 9 में महर्षि पाराशर की सम्मति से आप इस बात को भली प्रकार समझ गये होंगे । अतः राहु और केतु की दशा अथवा अन्तर्दशा का फल कहते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि राहु और केतु पर कैसा प्रभाव है ? यदि राहु और केतु पर ऐसे ग्रहों का अधिकतर प्रभाव है जोकि लग्न के मित्र हैं तो निस्सन्देह राहु और केतु अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल करेंगे ।
(12) राहु, शनि और षष्ठेश ये सब अभाव सूचक हैं। यदि इन तीनों का प्रभाव किसी भाव पर पड़ता हो तो उस भाव से जातक को बहुत कम फल की प्राप्ति होगी।
मान लीजिए कि राहु किसी जन्म कुण्डली में छठे स्थान में स्थित है और षष्ठेश शनि अथवा अकेला शनि द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर दृष्टि डाल रहा है तो राहु की दशा और शनि की भक्ति अथवा शनि की दशा और राहु की भुक्ति में जातक को धन की बहुत कमी अनुभव होगी और उसे ऋण लेना पड़ जावेगा ।
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