गोचर फलादेश के सिद्धान्त

(1) गोचर का फल यद्यपि सत्य है परन्तु हमको यह बात कदापि नहीं भूलनी चाहिये कि मनुष्य को मुख्यतः जन्मकालीन ग्रहों का ही अच्छा अथवा बुरा फल गोचर द्वारा मिलता है । इस विषय में मंतेश्वर ने ‘फल दीपिका’ में लिखा है :

“यद् भावगो गोचरतो विलग्नात् देशेश्वरः

सर्वोच्च सुहृदय गृहस्थः तद् भाव वृद्धि

कुरुते तदानों बलान्वितश्चेत् प्रजननेऽपितस्य”

अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्मकुण्डली में बल से युक्त हो और फिर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्रराशि में स्थित होकर दशा का भोग कर रहा हो तो जिस भाव में वह गोचर के समय स्थित होगा, लग्न से उसी भाव के फल की वृद्धि करेगा ।

इसी विषय को पुनः बुरे फल के विषय में भी फल दीपिकाकार इस प्रकार लिखते हैं :

‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथो मौढ्यं स्वनीचं रिपुमन्दिरं वा ।

प्राप्तश्च यद् भावमुपैति चारात् तद्भाव नाशंकुरुते तदानीम् ॥

अर्थात् यदि जन्मकुण्डली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रहा हो निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न से जिस भाव को देखेगा उसका नाश करेगा ।

(2) इसलिए यदि जन्मकुण्डली में कोई ग्रह अशुभ भवन का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह गोचर में शुभ स्थान पर आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्ण अशुभ फल न देकर कुछ कम अशुभ फल देगा ।

(3) यदि कोई ग्रह जन्मकुण्डली में शुभ हो, और गोचर में भी शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो और गोचर में बलवान भी हो तो उत्तम फल करता है।

(4) यदि कोई ग्रह जन्मकुण्डली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में हो, परन्तु गोचर में नीच आदि हो तो कम शुभ फल करता है।

(5) यदि कोई ग्रह जन्मकुण्डली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परन्तु नीच शत्रु आदि राशि में हो तो वह बहुत कम शुभ फल करेगा । अधिकांश अशुभ फल ही करेगा ।

(6) यदि कोई ग्रह जन्मकुण्डली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यन्त अशुभ फल करेगा ।

(7) जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुण्डली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल करता है ।

(8) गोचर में ग्रह मार्गी से जब वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है ।

(9) जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे ही की राशि का फल करता है ।

सूर्य और चन्द्र का गोचरफल

(10) जिसके जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चन्द्र ग्रहण पड़ता है तो वह उस व्यक्ति के स्वास्थ्य तथा आयु आदि के लिए बहुत अशुभ है । इस सम्बन्ध में ‘मुहूर्त्त चिन्तामणि’ का निम्नलिखित श्लोक देखिए-

“जन्मर्क्षे निधने ग्रहे जनिभतो घातः क्षतिः श्रीर्व्यथा, चिन्ता सौख्यकलदौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम् । लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभध्वस्त्यै जयः स्वर्ण, गोदानं शान्तिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहुवरे ॥

अर्थात् जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ता हो उसकी सूर्य अथवा चन्द्र के गोचर भ्रमण से जान जाती है । यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है । जन्म राशि से द्वितीय स्थान पर ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय पर पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, यदि जन्म राशि से चतुर्थ पर पड़े तो मानसिक व्यथा होती है, पांचवें पड़े तो चिन्ता, छठे पड़े तो सुख की उपलब्धि होती है, सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवम पड़े तो मानहानि, दशम पड़े तो कार्यों में सिद्धि, ग्यारहवें पड़े तो विविध प्रकार के लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है ।

 (11) यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, बृहस्पति और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम होता है ।

(12) यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है ।

शुभ फलों का गोचर में प्रतिवाद

(13) गोचर के सम्बन्ध में जो फल ग्रहों का चन्द्र राशि में विविध भावों में आने का कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘बेध’ भी होता है । जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचर वश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी है जहां उस ग्रह के अतिरिक्त यदि ग्रह स्थित है तो पहला ग्रह वेध में आ जाता है और उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता ।

जैसे सूर्य के गोचर से हम देखते हैं कि सूर्य चन्द्र लग्न से जब तीसरे भाव में जाता है तो वह शुभ फल करता है, परन्तु यदि गोचर में साथ ही साथ यदि चन्द्र लग्न से नवम भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य अपनी तृतीय स्थिति का शुभ फल न करेगा, क्योंकि तृतीय स्थिति में सूर्य के लिए नवम बेध स्थान है ।

इसी प्रकार चन्द्रमा जब गोचर में चन्द्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई भी ग्रह यदि चन्द्र लग्न से छठे गोचर में आ जावेगा तो चन्द्र को बेध हो जावेगा । इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी बेध का फल समझ लेना चाहिए ।

सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं, इसलिए इनमें परस्पर बेध नहीं होता । इसी प्रकार बुध चन्द्र पिता पुत्र है । अतः चन्द्र और बुध में भी परस्पर बेध नहीं होता ।

पाठकों की सुविधार्थं नीचे हम एक तालिका दे रहे हैं, जिनमें नौ ग्रहों के चन्द्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां बेध होता है, दर्शाया गया है । अंकों से इस तालिका में तात्पर्य भाव संख्या से है जोकि चन्द्र लग्न से गिनी जाती है ।

उदाहरण – जैसे सूर्य तृतीय भाव में हो तो नवम भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको बेध करेगा । यदि चतुर्थ भाव में हो तो तृतीय भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसका बेध करेगा। यदि पंचम भाव में हो तो छठे भाव में स्थित कोई भी ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको बेध करेगा इत्यादि ।

(14) वाम-बेध-मुहूर्त्तचिन्तामणि में आया है कि-

“दुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणे शुभदः सितेऽब्जः ॥ “

अर्थात् कोई ग्रह यदि गोचर में दुष्ट है अर्थात् जन्म लग्न से अशुभ स्थानों में स्थित होने के कारण अशुभ फलदाता है और फिर बेध में आ गया है तो वह शुभ फलदाता हो जाता है । दूसरे शब्दों में बेध का प्रभाव नाशात्मक है । यदि अशुभता का नाश होता है तो शुभता की प्राप्ति स्वतः सिद्ध होती है ।

(15) एक और बात जो गोचर में चल रहे ग्रहों के फल के तारतम्य के सिलसिले में याद रखना है, वह यह है कि फल बहुत अंशों में अष्टक वर्ग पर निर्भर करता है । जैसे कोई ग्रह गोचर में चन्द्र लग्न से अनिष्ट स्थानों पर चल रहा है, परन्तु अपने अष्टक वर्ग में उसे चार से अधिक बिन्दु प्राप्त होते हैं तो उस ग्रह की अशुभता बहुत हद तक दूर हो जाती है।

यदि उसे चार से कम बिन्दु मिलते हैं तो जितने जितने कम बिन्दु मिलते जावेंगे उतने उतने फल में अशुभता बढ़ती चली जावेगी । यदि उसे कोई बिन्दु प्राप्त नहीं तो फल बहुत बुरा निकलेगा । यदि गोचर में अच्छे ग्रह को चार से अधिक बिन्दु प्राप्त होते हैं तो स्पष्ट है कि जितने-जितने अधिक बिन्दु होंगे उतना- उतना फल उत्तम होता चला जावेगा ।

गोचर में ग्रह कब फल देते हैं

(16) ग्रहों की जातक में फल देने की जो विधि है वही गोचर में भी है । फलदीपिकाकार लिखते हैं-

क्षिति तनय पतङ्गो राशि पूर्व विभागे,

सुरपति गुरुशुक्रौ राशिमध्य त्रिभागे ।

तुहिनकिरण मन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजङ्गौ पाकदौ सार्वकालम् ॥

अर्थात् सूर्य और मंगल गोचरवश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल oo – 10o अंश तक में विशेष प्रभाव करते हैं । बृहस्पति और शुक्र राशि के मध्य भाग में अर्थात् 10 अंश से 20 अंश तक विशेष प्रभाव शुभ अथवा अशुभ दिखलाते हैं। चन्द्रमा और शनि राशि के अन्तिम तृतीयांश अर्थात् 21 से तीस अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध और राहु सारी राशि में अर्थात् o अंश से तीस अंश तक सर्वत्र एक-सा फल दिखाते हैं ।


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