कुंडली के आठवें भाव का महत्व
आयु कितनी ? मृत्यु कब और कैसे ? विपरीत राजयोग से महाधन विदेश यात्रा का योग, कर्कशा स्त्री, गम्भीर अन्वेषण आदि
1. आयु का निर्णय – आयु के सम्बन्ध में हमारा विचार है कि जितना अष्टमेश बलवान् होगा उतनी ही आयु अधिक होगी।
हम फलदीपिका के इस श्लोकार्थ से सहमत नहीं हैं कि अष्टमेश यदि लग्नेश की अपेक्षा निर्बल हो और केन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान में स्थित हो तो मनुष्य को दीर्घ आयु मिलती है।
केन्द्रादन्यत्र रन्ध्रेशे लग्नेशाद् दुर्बलः सति । नाधिर्न विघ्नो न क्लेशो नृणां आयुश्चिरं भवेत् ।।
हमारा निवेदन है कि द्वितीय तथा सप्तम स्थान के मारक होने का निश्चय ही इस आधार पर किया गया है कि तृतीय और अष्टम स्थान जिनसे कि द्वितीय और अष्टम द्वादश स्थान बनते हैं, आयु स्थान हैं। अतः आयु का दुर्बल होना दीर्घायु कैसे दे सकता है ?
2. आयु कितनी होगी – यह देखने के लिए निम्नलिखित अंगों को देखना आवश्यक है:-
- लग्न, लग्नाधिपति का बल,
- अष्टम, अष्टगाधिपति का बल,
- आयुष्कारक शनि का बल,
- अष्टमात् अष्टम अर्थात् तृतीय भाव तथा उसके स्वामी का बल ।
- यदि दो अंग बलवान् हों तो आयु का खण्ड अल्प अर्थात् 32 वर्ष तक होता है।
- यदि तीन अंग बलवान हों तो आयु का खण्ड मध्यम अर्थात् 64 तक और
- यदि चारों अंग बलवान् हों तो आयु का खण्ड दीर्घ अर्थात् 64 से ऊपर की आयु होती है।
परन्तु आयु के विचार में इतना ध्यान कर लेना चाहिए कि चन्द्र तथा बुध अतीव निर्बल न हों, क्योंकि यदि ये दो ग्रह निर्बल हों तो बचपन में ही अरिष्ट हो जाता है और मनुष्य की मृत्यु की सम्भावना रहती है चाहे लग्नेश शनि आदि अंग बलवान् ही क्यों न हों।
जिस खण्ड में आयु पड़ती हो उस खण्ड में ग्रहों की मारकेश दशा का विचार करके आयु के वर्षों का अन्तिम निर्णय करना चाहिए।

यह कुण्डली विश्व विख्यात नाटक लेखक जार्ज बर्नार्ड शा की है जिसको 90 वर्ष के लगभग आयु प्राप्त हुई । यहां लग्नाधिपति चन्द्र लग्नाधिपति, सूर्य लग्नाधिपति तथा आयुष्य कारक शनि सभी इकट्ठे हैं और सब पर गुरु की केन्द्रीय दृष्टि का प्रभाव है ।
6. मरण विधि, आत्मघात आदि – आयु का जो स्थान होता है वही मृत्यु का भी स्थान माना गया है। इसलिए लग्न, लग्नेश पर जिस प्रकार के ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो उसी प्रकार की मृत्यु मनुष्य की होती है।
- यदि लग्नाधिपति, तृतीयाधिपति एकादशाधिपति तथा सूर्य आदि निज (Self) द्योतक ग्रहों का प्रभाव अष्टम भाव तथा उसके स्वामी पर पड़ रहा हो तो मनुष्य आत्मघात (Suicide) कर लेता है।
- यदि षष्ठेश, एकादशेश तथा मंगल का प्रभाव अष्टम भाव तथा अष्टमाधिपति पर हो तो चोट अथवा प्रहार द्वारा मृत्यु होती है।
4. मारकेश ग्रह – अष्टमेश निर्बल होकर छठे, बारहवें सातवें अथवा दूसरे स्थान में पड़ा हो तो अपनी दशा, अन्तर्दशा में महान् कष्ट देता है और यदि मृत्यु का खण्ड आ चुका हो तो मृत्यु भी दे देता है ।
यहां हम उन मारकेशों अर्थात् मृत्यु देने वाले ग्रहों का क्रमानुसार उल्लेख करते हैं जिनका निर्णय पराशर महर्षि के सिद्धांतानुसार किया जाता है । प्रथम संख्या का ग्रह सबसे अधिक मारक है, ग्यारहवां सबसे कम । मृत्यु के खण्ड में ये सभी मृत्यु फल देते हैं, अन्यथा केवल शारीरिक कष्ट देते हैं। ये निम्नलिखित हैं:-
- द्वितीय भाव के स्वामी से युक्त पाप ग्रह (पाप ग्रह से तात्पर्य पाराशरीय पद्धति से निर्धारित पाप ग्रह जैसे एकादशेश आदि)
- सप्तमेश से युक्त पाप ग्रह,
- द्वितीय भाव में स्थित पाप ग्रह
- सप्तम भाव में स्थित पाप ग्रह
- द्वितीयेश
- सप्तमेश,
- द्वादशेश,
- द्वादशेश के साथ स्थित पाप ग्रह
- तृतीयेश, अष्टमेश
- षष्ठेश, एकादशेश,
- पापी ग्रह |
5. विपरीत राजयोग तथा प्रचुर धन – यदि अष्टमेश तृतीय, द्वादश तथा षष्ठ स्थानों में पड़कर षष्ठ, द्वादश आदि भावों के पापी स्वामियों द्वारा युक्त अथवा दृष्ट हो और उस पर अन्य शुभ घरों के स्वामियों का किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ रहा हो तो अष्टमेश अपनी दशा अन्तर्दशा में विपरीत राजयोग के फल को करता है। अर्थात् बहुत धन, सुख आदि देता है।
6. अष्टम में सूर्य तथा अन्य ग्रह – यदि सूर्य निर्बल होकर अष्टम भाव में स्थित हो और मंगल आदि द्वारा दृष्ट हो तो पिता की आंख के लिए बहुत हानिकारक हो जाता है। क्योंकि अष्टम स्थान एक तो वैसे ही अनिष्टकारक है, पुनः नवम से द्वादश अर्थात् पिता की आंख का स्थान भी बनता है।
8. कर्कशा स्त्री – अष्टम स्थान स्त्री की वाणी का स्थान है। स्त्री की वाणी का विचार इस भाव से करना चाहिए। यदि इस भाव का स्वामी शुभ ग्रह सूर्य आदि हो तथा शुभ दृष्ट हो तो स्त्री मधुर भाषिणी होती है। यदि इस भाव का स्वामी शनि हो, शुभ दृष्ट न हो तो स्त्री कर्कश बोलने वाली होती है।

9. विदेश यात्रा – अष्टम स्थान “समुद्र” का है। समुद्र पार यात्रा विदेश यात्रा समझी गई है। जब अष्टम भाव तथा अष्टमाधिपति पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो तब विदेश यात्रा का योग बनता है।
सूर्य की अष्टम स्थिति के सम्बन्ध में सारावलीकार का कहना है कि “एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करवाता है” जिससे पता चलता है कि विदेशों का भाव “अष्टम” है ।
10. गम्भीर अन्वेषण – अष्टम स्थान गम्भीर अन्वेषण तथा जान जोखिम में डालने वाला स्थान है। इस भाव का स्वामी तथा तृतीय भाव का स्वामी शुभ ग्रह होकर जब लग्न अथवा पंचम भाव में स्थित हो तो मनुष्य गम्भीर चिन्तक (Philosopher) होता है, खेज और अन्वेषण (Research) करने वाला होता है, क्योंकि बुद्धि स्थान का सम्बन्ध गम्भीर अन्वेषण (अष्टम स्थान) से होता है।
आविष्कारकों का गणित का ज्ञान प्रायः पर्याप्त होता है। गणित एक गम्भीर तथा जटिल विषय है। संभवतया यही कारण है कि शनि जैसे गम्भीर ग्रह का अष्टम भाव से योग मनुष्य को गणितज्ञ बनाता है।
11. अष्टम, अष्टमेश और नाश – अष्टम भाव का नाश स्थान है। इसे निधन स्थान भी कह सकते हैं। जिस भाव का स्वामी इस भाव में आ जाता है उसके जीवन को हानि पहुंचती है। जैसे पंचमेश अष्टम में हो तो पुत्र उत्पन्न होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। इसी प्रकार एकादशेश गुरु अष्टम में हो और बड़ा भाई उत्पन्न हो तो वह मृत्यु को प्राप्त होता है ।
अष्टमेश भी जिस भाव में जाकर स्थित होता है उस भाव के जीवन को हानि पहुंचाता है। जैसे पंचम में हो तो पुत्र को और एकादश में हो तो बड़े भाई के जीवन को हानि पहुंचती है।
अष्टम भाव की कल्पना भी नाश की भावना से खाली नहीं है। जिस भाव का स्वामी अपने स्थान से अष्टम में स्थित होता है उस भाव के जीवन को हानि पहुंचती है।
जैसे कुम्भ लग्न हो और मंगल दशम स्थान में वृश्चिक राशि का होकर स्थित हो तो मंगल के प्रमुख केन्द्र स्थान में स्थित होने के कारण छोटे भाई का जन्म तो अवश्य होता है; परन्तु चूंकि दशम स्थान तृतीय स्थान से अष्टम है, अतः वह छोटा भाई दीर्घजीवी नहीं होता ।
अष्टम भाव में राशियां
1. मेष – मंगल अष्टमाधिपति तथा तृतीयाधिपति बनता है। दोनों आयु के स्थान हैं, अतः यदि मंगल बलवान् हो तो आयु दीर्घ होती है; मंगल पर तथा अष्टम भाव पर पड़ा हुआ प्रभाव मृत्यु के कारणों को बतलाता है। मंगल दशम भाव में हो तो व्यसन कार्य, विशेषतया यौवन काल में करता है।
2. वृषभ – शुक्र अष्टमाधिपति लग्नाधिपति होता है; अतः यदि बलवान् हो तो दीर्घायु देता है; यदि निर्बल हो तो अल्प आयु होती है; शुक्र तथा अष्टम भाव पर पड़ा हुआ प्रभाव मृत्यु के कारण को बतलाने वाला होता है। शुक्र की भक्ति बुरा फल नहीं करती क्योंकि शुक्र लग्नाधिपति भी होता है ।
3. मिथुन – बुध यदि बहुत निर्बल हो तो कुमार अवस्था अथवा इससे पूर्वी मृत्यु कर देता है, क्योंकि बुध शीघ्र फल देता है। निर्बल बुध शीघ्र ही प्रदेश यात्रा दिलवाता है।
मेष का बुध षष्ठ स्थान में पापदृष्ट, पापयुक्त हो और किसी शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट न हो तो बहुत रोग तथा कष्ट देता है । परन्तु यही योग विपरीत राजयोग भी बनाता है जिससे मनुष्य लाखों रुपयों का स्वामी बनता है।
4. कर्क – चन्द्र अष्टमाधिपति बन जाता है। चन्द्र को अष्टमाधिपति होने का दोष नहीं लगता । अर्थात् चन्द्र यदि बलवान् हो तो अपनी भुक्ति में धन मान आदि का देने वाला होता है। यदि चन्द्र अतीव क्षीण तथा पापयुक्त या पापदृष्ट हो तो शिशु अवस्था में महान् अरिष्ट कारक होता है।
5. सिंह – सूर्य अष्टमाधिपति बन जाता है। सूर्य को अष्टम का स्वामी होने का दोष नहीं लगता । अर्थात् सूर्य अपनी भुक्ति में धनादि तथा मानि शुभ का दाता होता है। सूर्य तथा अष्टम भाव पर लाए गए प्रभाव से मृत्यु के कारणों का पता लगाना चाहिए ।
6. कन्या – बुध अष्टमेश-पंचमेश होता है; कम शुभ होता है, क्योंकि अष्टमेश भी होता है। बुध यदि निर्बल हो तो चेतना का नाश होने का रोग होता है। पुत्र द्वारा हानि तथा अपमान होता है। कुमार अवस्था में अरिष्ट होता है, शीघ्र विदेश जाना पड़ता है।
7. तुला – शुक्र अष्टमेश तथा तृतीयेश बनता है। यदि बलवान् हो तो बहुत आयु देता है; क्योंकि दोनों आयु के स्थान हैं, जिनका कि यह स्वामी बनता है। शुक्र तथा अष्टम भाव पर पड़ा प्रभाव मृत्यु के कारण का पता बतलाता है। निर्बल शुक्र मित्रों द्वारा अपमानित कराता है।
8. वृश्चिक – मंगल अष्टम भाव का तथा अष्टम राशि का स्वामी बनता है। यदि मंगल पर और अष्टम भाव पर भी पाप प्रभाव हो तो पुरुष को अण्डकोषों में रोग होता है। मंगल बलवान हो तो दीर्घ आयु देता है, क्योंकि लग्न तथा अष्टम दोनों आयु स्थान हैं।
यदि शनि की दृष्टि मंगल पर हो तथा लग्न पर हो तो मनुष्य से हत्या हो सकती है।
9. धनु – गुरु अष्टमेश तथा लाभेश बनता है । यदि गुरु बलवान् हो परन्तु अष्टम भाव पर पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो विदेश द्वारा लाभ होता है। गुरु बलवान् हो तो आयु दीर्घ होती है। गुरु की भुक्ति ज्यादा धन देने वाली नहीं होती ।
10. मकर – शनि अष्टमेश तथा नवमेश होता है। अष्टमेश होने के कारण अपनी भुक्ति में शनि अति उत्तम फल नहीं देता, यद्यपि फल अच्छा ही होता है; क्योंकि अधिकतर फल नवम भाव का होता है जहां पर शनि की मूल त्रिकोण राशि पड़ती है।
शनि यदि बलवान् हो तो दीर्घ आयु देता है; क्योंकि शनि का बलवान् होना जहां आयु स्थानाधिपति का बलवान् होना है वहां आयुष्य कारक का भी बलवान् होना है।
11. कुम्भ – शनि सप्तमेश तथा अष्टमेश बनता है। शनि यदि बलवान् हो तो दीर्घायु देता है, क्योंकि आयु स्थान का स्वामी तथा आयुष्य कारक दोनों होता है। स्त्री की वाणी कर्कश होती है। स्त्री द्वारा अपमानित भी हो सकता है। यदि शनि निर्बल हो तो शनि अपनी दशा अन्तर्दशा में धन सम्बन्धी बुरा फल करता है, विशेषतया शुक्र की दशा अन्तर्दशा में क्योंकि शनि तथा शुक्र दोनों ही कर्क लग्न के शत्रु हैं।
12. मीन – गुरु पंचमेश तथा अष्टमेश बनता है। यदि गुरु बलवान् हो तो पुत्र से सुख पाता है। यदि निर्बल हो तो पुत्र से अपमानित होता है । गुरु बलवान् हो तो दीर्घायु होता है, यदि निर्बल हो तो अल्पायु हो है। निर्बल गुरु तथा पापयुक्त पापदृष्ट अष्टम भाव विदेश यात्राएं देता है।
फलित सूत्र
- ज्योतिष के कुछ विशेष नियम
- ग्रह परिचय
- कुंडली के पहले भाव का महत्व
- कुंडली के दूसरे भाव का महत्व
- कुंडली के तीसरे भाव का महत्व
- कुंडली के चौथे भाव का महत्व
- कुंडली के पॉचवें भाव का महत्व
- कुंडली के छठे भाव का महत्व
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