सिंह लग्न की कुंड्ली का फल
राशि चक्र की पांचवीं एवं अत्यन्त समर्थ राशि है, जिसका स्वामी ग्रहराज सूर्य है । कालपुरुष शरीर में इसका स्थान उदर (पेट) में है। इसकी आकृति वनराज शेर के समान है तथा निवास स्थान सघन पहाड़, गुफा एवं वनस्थान है ।
यह दीर्घाकार, पुरुषाकृति, पूर्व दिशा की स्वामिनी, क्रूर स्वभाव एवं स्थिर राशि है, जो कि शीर्षोदय होने के साथ-साथ दिनबली है । यह राशि भूतल प्रधान है ।
यह राशि चतुष्पद होने के साथ-साथ नवम् भाव में पूर्ण बली है । मूल संज्ञक यह राशि क्षत्रिय वर्ण, अर्धरात्रि में अन्धसदृश, श्वेतरंग प्रिय तथा त्वचा बली है।
यह राशि सूर्य की मूलत्रिकोण एवं स्वराशि है तथा अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण प्रबल मानी जाती है ।
सिंह लग्न की कुंड्ली के फलित बिन्दु
सूर्य – पूर्ण कारक ग्रह, लग्नेश ।
चन्द्र – व्ययेश, अकारक ।
मंगल – पूर्ण कारक ग्रह, सुखेश-भाग्येश ।
बुध – अकारक, आयेश धनेश । सामान्य कारकेश ।
गुरु – अकारक, पंचमेश, अष्टमेश ।
शुक्र – अकारक, त्रिषडायेश, राज्येश ।
शनि – अकारक, षष्ठेश, सप्तमेश
(1) सिंह लग्न हो और सूर्य लग्न में ही स्थित हो तो व्यक्ति अहंकारी, गर्वभावना से युक्त, प्रशासन में दक्ष तथा राज्य में उच्च पदारूढ़ होता है।
(2) सूर्य-मंगल-बुध कहीं पर भी एक साथ बैठे हों तो ये तीनों ग्रह मिलकर योग कारक बन जाते हैं तथा वह व्यक्ति प्रबल धनाढ्य होता है ।
(3) सूर्य-बुध-गुरु का संयोग भी कुण्डली में एक स्थान पर हो जाए तो व्यक्ति श्रेष्ठ, धनवान एवं कीर्तिवान होता है । इसका कारण यह है कि सूर्य लग्नेश है और बुध लाभेश क धनेश । बृहस्पति त्रिकोणेश है, अतः इसकी युति योगकारक होकर अर्थिक क्षेत्र में श्रेष्ठतम बनती है।
(4) बुध की श्रेष्ठ स्थिति पंचम भाव में, एकादश भाव में बथवा दूसरे भाव में है। इन तीनों में से किसी भी एक स्थान पर बुध हो तो वह व्यक्ति धनाढ्य होता है, उसे आकस्मिक द्रव्य लाभ होता है तथा वह ब्याज (Interest) से धनलाभ प्राप्त करता है।
(5) शुक्र का बलवान होना इस लग्न के लिए घातक है, अत: निर्बल, वक्री या सूर्य से अस्त शुक्र ही योगकारक बन सकता है राज्योन्नति में सहायक हो सकता है । प्रबल शुक्र राज्यापमान, राज्यावनति तथा कई बार तबादले कराने में सहायक होता है ।
(6) मंगल निर्बल होता है तो पिता अल्पायु होते हैं अथवा उसके जीवन में पितृ-सुख की न्यूनता रहती है । प्रबल मंगल भूमि से विशेष लाभ कराने में समर्थ होता है। शनि-मंगल की युति या राहु-मंगल की युति हो तो उसके पिता के अण्डकोषों में रोग या अण्डकोष वृद्धि होती है ।
(7) गुरु-राहु एकादश भाव में हों या राहु-शनि एकादश भाव में हों तो पुत्र-सुख में कमी रहती है। मेरे अनुभव में यह आया है कि पूर्णबली गुरु ही पुत्रसुख देता है । पापाक्रान्त या पाप प्रभाव में गुरु होने से पुत्र-सुख में बाधा आ जाती है।
गुरुपाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति की बड़ी बहन का दाम्पत्य सुख भी अत्यल्प या अस्तव्यस्त सा ही होता है।
(8) शनि यदि दूसरे या आठवें भाव में हो तो निर्धन जीवन. व्यतीत करने को बाध्य होना पड़ता है तथा उसे ननिहाल का सुख नहीं के बराबर मिलता है ।
(9) शनि-गुरु सम्बन्ध हो तो स्त्री कर्कशा सामान्य परिवार वाली होती है । शुक्र की महादशा में शनि की अन्तर्दशा पत्नी के लिए घातक रहती है।
(10) यदि गुरु अस्त, निर्बल या पाप प्रभावयुक्त हों तो जीवन में विदेश यात्रा होती है ।
मेरा अनुभव यह है कि गुरु-चन्द्र तीसरे, छठे, आठवें या ग्यारहवें भाव में हों तो विदेश यात्रा होती है, अन्यथा जन्मभूमि से इतर स्थान को आजीविका के लिए चुनना पड़ता है।
(11) बुध पंचम या नवम भाव में हो तथा शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तथा राहु या केतु दूसरे या ग्यारहवें भाव में हों तो अकस्मात धन प्राप्ति या लॉटरी मिलने का योग बनता है ।
(12) सूर्य-बुध कहीं पर भी एक साथ बैठकर सामान्य धनयोग बनाने में समर्थ होते हैं ।
(13) शुक्र-गुरु कहीं पर भी एक साथ बैठ जाएँ तो लखपति होने पर भी उसे कंगाल बनाने का प्रयत्न करते हैं। यदि शुक्र-गुरु और बुध तीनों एक साथ बैठें तो कुबेर को भी कंगाल होकर दर-दर भटकना पड़ता है ।
(14) दशमस्थ शुक्र अपनी दशा में जातक को ऊँचा उठायेगा नव श्री सम्पन्न करेगा, जबकि तृतीय शुक्र अपनी दशा में मानहानि एवं पदावनति करेगा ।
(15) सिंह लग्न में मंगल शुक्र का सम्बन्ध त्रिकोणेश-केन्द्रेश का सम्बन्ध होगा, जो कि शुभ फलप्रद होना चाहिए पर मेरा स्वयं यही अनुभव रहा है कि मंगल शुक्र सम्बन्ध सामान्य ही है, यदि वह नवम-दशम भावों के अतिरिक्त किसी भाव में हो।
(16) लग्न में सूर्य-मंगल और बुध हों तो बुध की दशा जातक का (Cream-period) होता है। जबकि श्रेष्ठतम धनलाभ, श्री, यश, मान एवं प्रतिष्ठा होती है।
(17) बारहवें भाव में शनि तथा मंगल हों तो शनि की दशा उत्थानकारक एवं योगकारक देखी गई है ।
सिंह लग्न कुंड्ली दशाफल
महादशा
सूर्य अन्तर – श्रेष्ठतम, राज्योन्नति, उच्चपद प्राप्ति ।
चन्द्र – व्ययप्रधान, मांगलिक कार्य, सुख-सुविधाएँ।
मंगल – शुभ, भाग्योदय, धनलाभ
राहु – सामान्य |
गुरु – दुखदायक ।
शनि – मानसिक परेशानियां, व्यथा ।
बुध – धनलाभ, व्यापारवृद्धि ।
केतु – शुभ |
शुक्र – धनहानि ।
चन्द्र महादशा
चन्द्र अन्तर – मानसिक कष्ट, बाधाएं ।
मंगल – श्रेष्ठ, भाग्यवर्धक
राहु – घोर कष्ट, कठिनाई ।
गुरु – सामान्य ।
शनि – गार्हस्थ्य बाधा ।
बुध – लाभदायक |
केतु – अनुकूल, शुभफलप्रद ।
शुक्र – बाधापूर्ण ।
सूर्य – श्रेष्ठ, धनलाभ |
मंगल महादशा
मंगल – पूर्ण भाग्यवर्धक ।
राहु – श्रेष्ठ ।
गुरु – सन्तान बाधा ।
शनि – कष्टकर, ससुराल से लड़ाई।
बुध – शुभ, श्रेष्ठ, व्यापारवृद्धि ।
केतु – धनलाभ ।
शुक्र – सामान्य शुभ ।
सूर्य – अनुकूल, प्रतिष्ठा, यश-सम्मान वृद्धि ।
चन्द्र – शुभ फलदायक ।
राहू महादशा
राहु अन्तर – घोर कष्ट, बाधा, अपमान ।
शनि – लाभदायक ।
बुध – सामान्यतः शुभ फलदायक ।
केतु – परेशानी, अपमान ।
शुक्र – सामान्य ।
सूर्य – कष्ट, व्याधि, पीड़ा ।
चन्द्र – मानसिक असन्तोष ।
मंगल – धनलाभ |
गुरु महादशा
गुरु अन्तर – पूर्वार्द्ध शुभ, उत्तरार्द्ध दुखदायक ।
शनि – मृत्युसम कष्ट ।
बुध – धनलाभ ।
केतु – शुभ फलदायक ।
शुक्र – सामान्यतः अनुकूल ।
सूर्य – लाभदायक, व्यापारवृद्धि ।
चन्द्र – बाधापूर्ण ।
मंगल – यश सम्मानवृद्धि ।
राहु – कष्टदायक ।
शनि महादशा
शनि अन्तर – कष्टदायक ।
बुध – लाभ, व्यापारवृद्धि ।
केतु – पूर्णतः शुभ ।
शुक्र – सुखदायक।
सूर्य – शुभ ।
चन्द्र – सामान्यतः अनुकूल ।
मंगल – श्रेष्ठ, धनलाभ ।
राहु – कष्ट, यंत्रणा, बाधा ।
गुरु – शुभ फलदायक ।
बुध महादशा
बुध अन्तर – श्रेष्ठ धनलाभ ।
केतु – सौम्य, धनवर्धक ।
शुक्र – अनुकूल ।
सूर्य – श्रेष्ठ, राजवृद्धि, पदवृद्धि ।
चन्द्र – मांगलिक कार्य, शुभ ।
मंगल – पूर्णतः अनुकूल, सुखद ।
राहु – कष्टदायक
गुरु – कष्टदायक, अशुभ, बाधापूर्ण ।
शनि – उत्तरार्द्ध अनुकूल ।
केतु महादशा
केतु अन्तर – अनुकूल
शुक्र – राज्यवृद्धि ।
सूर्य – प्रतिष्ठा, सम्मान, पदवृद्धि ।
चन्द्र – कुटुम्बसुख ।
मंगल – पूर्ण फलदायक ।
राहु – घोर यंत्रणा, बाधा कष्ट ।
गुरु – परेशानीपूर्ण ।
शनि – हानिदायक |
बुध – धनलाभ, उन्नति, व्यापारवृद्धि ।
शुक्र महादशा
शुक्र अन्तर – बाधा, कष्ट ।
सूर्य – उन्नतिदायक |
चन्द्र – अनुकूल |
मंगल – लाभदायक, पदवृद्धि ।
राहु – कष्टपूर्ण ।
गुरु – चिन्ताजनक, मृत्युसम कष्ट ।
शनि – हानि, पतन ।
बुध – लाभदायक ।
केतु – सुख-सौभाग्यवर्धक ।
0 Comments