तुला लग्न की कुंड्ली का फल

राशि गणना से यह सातवीं राशि है। कालपुरुष शरीर में इसका स्थान नाभि के नीचे का स्थान पेट (या पेडू) है, इसका स्वरूप तराजू हाथ में लिए हुए पुरुष के सदृश है।

इसका निवास स्थान व्यापार स्थल है तथा यह दीर्घाकार, पुरुष जाति, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, क्रूर स्वभाव तथा चर संज्ञक है। विद्वानों ने इसे शीर्षोदय तथा दिनबली माना है ।

यह चार राशि तथा लग्न में बली मानी गई है। धातु संज्ञक शूद्रवर्ण, प्रभात में बधिर, इस राशि का स्वामी शुक्र है । यह शुक्र की मूल त्रिकोण राशि, शनि की उच्च राशि तथा सूर्य की नीच राशि है ।

तुला लग्न की कुंड्ली के फलित बिन्दु

सूर्य – आयेश या लाभेश, अकारक पर मेरी राय में कारक ग्रह ।

चन्द्र – राज्येश, कारक ग्रह ।

मंगल – सप्तमेश – धनेश, तटस्थ, मारकेश पर मेरी राय में प्रबल मारकेश ।

बुध – भाग्येश, व्ययेश, अकारक ।

गुरु – त्रिषडायेश, प्रबल अकारक ।

शुक्र – लग्नेश- अष्टमेश, कारकेश ।

शनि – चतुर्थेश पंचमेश, कारक ग्रह ।

(1) मंगल छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो व्यक्ति यौवनावस्था में घोर कष्ट पाता है।

(2) मंगल की दशा मारक होती है तथा इस दशा में जातक विविध कष्ट भोगता है।

(3) सप्तम भाव में मंगल हो तो व्यक्ति की पत्नी दीर्घजीवी होती है ।

(4) गुरु यदि नवम भाव में हो तो व्यक्ति साधु-संन्यासियों में प्रीति रखने वाला होता है तथा तृतीयावस्था में वह वैराग्य धारण करता है ।

(5) गुरु जितना ही निर्बल होगा उतना ही शुभ फल देने वाला होगा ।

(6) शनि-सूर्य साथ में हों या शनि-मंगल साथ में हों तो व्यक्ति पुत्र की ओर से घोर कष्ट उठाता है।

(7) शनि चतुर्थ भाव में हों तो अतीव शुभ योगकारक एवं धनदायक बन जाता है।

(8) गुरु आठवें हो तो विशेष धनदायक माना गया है।

(9) शुक्र कमजोर, अस्त या पापाक्रान्त हो तो अल्पायु योग होता है।

(10) युद्ध-शुक्र साथ में होकर नवम भाव या लग्न में हों तो व्यक्ति धार्मिक कार्यों में रुचि रखने वाला तथा प्रतिष्ठित होता है।

(11) लग्न में सूर्य-चन्द्र हों तथा नवम भाव में राहु हो तो आकस्मिक रूप से श्रेष्ठ धनलाभ होता है।

(12) चतुर्थ भाव में चन्द्र हो तो व्यक्ति राजनीतिपटु एवं कहीं पर राजदूत होता है।

(13) सूर्य लग्न में हो तो व्यक्ति गजेटेड अधिकारी होता है।

(14) बारहवें भाव में बुध विशेष भाग्योदय कराने में समर्थ होता है ।

(15) शनि जहाँ कहीं भी होगा, उस भाव की वृद्धि ही करेगा, क्योंकि यह पूर्णतः योगकारक ग्रह है।

(16) गुरु और शुक्र चौथे या पांचवें भाव में हों तो गुरु महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा आने पर वर्णं रोग, त्वचा रोग होता है। तथा जातक घोर कष्ट पाता है ।

(17) सूर्य-शुक्रलग्न में हों तो जातक अपने जीवन में श्रेष्ठ धनलाभ करता है पर लग्न में शुक्र-सूर्य के साथ बुध होने पर यह योग अत्यन्त क्षीण हो जाता है ।

(18) द्वादश भाव में सूर्य-बुध-शनि हों या सूर्य-बुध हों तथा उस पर शनि की दृष्टि हो तो जातक का पिता प्रबल भाग्यशाली होता है ।

(19) सूर्य-बुध-मंगल तथा शनि ये चारों ग्रह कहीं पर भी एक साथ बैठे हों तो व्यक्ति धनाढ्य होता है ।

(20) सूर्य-बुध-शनि-चन्द्र की युति भी व्यक्ति को भाग्यशाली बनाती है, ऐसा मेरा अनुभव है ।

(21) गुरु आठवें भाव में, शनि नवें भाव में, तथा मंगल-बुध ग्यारहवें में हों तो व्यक्ति उच्चपदस्थ अधिकारी होता है।

(22) लग्न में शुक्र हो तो शुक्र की दशा मारक बन जाती है ।

(23) लग्न में शनि हो तथा दशम भाव में चन्द्र हो तो चन्द्र की दशा अत्यन्त श्रेष्ठ रहती है एवं व्यक्ति राज्य में उच्चपदासीन होता है ।

तुला लग्न कुंड्ली दशाफल

सूर्य महादशा

सूर्य – शुभ फलदायक, राज्योन्नति ।

चन्द्र – सर्वतोन्मुखी उन्नति ।

मंगल – कष्टदायक ।

राहु-पतन, कष्ट, बाधादि ।

गुरु – हानिदायक ।

शनि – उन्नति, शुभ फलदायक ।

बुध – धनलाभ

केतु – शुभ ।

शुक्र – हानि, मारक, मृत्युसम कष्ट ।

चन्द्र महादशा

चन्द्र अन्तर – सामान्य ।

मंगल – हानि, पतन ।

राहु – मानसिक चिन्ता, मातृ-मृत्यु ।

गुरु – विविध रोग, हृदय रोग ।

शनि – शुभ फलदायक ।

बुध – भाग्योदय ।

केतु – अनुकूल

शुक्र – सामान्य ।

सूर्य – धनदायक, व्यापारवृद्धि ।

मंगल महादशा

मंगल अन्तर – कष्टदायक, मारक ।

राहु – हानि, पतन ।

गुरु – विविध रोग, मारक ।

शनि – सामान्य ।

बुध – कष्टदायक ।

केतु – शुभ ।

शुक्र – धनदायक ।

सूर्य – सुखदायक ।

चन्द्र – हानि ।

राहु महादशा

राहु अन्तर – घोर आर्थिक कष्ट ।

गुरु – हानि ।

शनि – लाभपूर्ण, उन्नति ।

बुध – सामान्यतः शुभ ।

केतु – चिन्ता, पीड़ा ।

शुक्र – मारक ।

सूर्य – हानिदायक ।

चन्द्र – मनस्ताप ।

मंगल – कष्टपूर्ण ।

गुरु महादशा

गुरु – कष्टदायक ।

शनि – व्ययप्रधान, पर उन्नतिकारक ।

बुध – भाग्योदय ।

केतु – शुभ |

शुक्र – कष्ट, हानि, पतन ।

सूर्य – शुभ ।

चन्द्र – अनुकूल ।

मंगल – हानिकर ।

राहु – घोर कष्ट ।

शनि महादशा

शनि – उन्नतिदायक ।

बुध – शुभफलदायक, उन्नति ।

केतु – उन्नति, लाभ |

शुक्र – पतन, कष्टदायक ।

सूर्य – राज्योन्नति, शुभ ।

चन्द्र – शुभ, विवाह, ससुराल से लाभ ।

मंगल – अनुकूल ।

राहु – सामान्यतः शुभ ।

गुरु – तटस्थ, न शुभ न अशुभ ।

बुध महादशा

बुध – भाग्यवर्धक ।

केतु – अत्यन्त अनुकूल ।

शुक्र – व्ययप्रधान, कष्टकर ।

सूर्य – कुटम्ब सुख, भ्रातृ उन्नति ।

चन्द्र – विशेष धनदायक, राज्यवृद्धि, उन्नति ।

मंगल – लाभदायक ।

राहु – पतन, कष्ट ।

गुरु – सामान्य ।

शनि – विशेष शुभ फलदायक ।

केतु महादशा

केतु – सामान्यतः शुभ ।

शुक्र -अनुकूल, वाहनसुख ।

सूर्य – लाभदायक ।

चन्द्र – राज्योन्नति, तवादला ।

मंगल – धनहानि ।

राहु – घोर कष्ट ।

गुरु – व्याधि, पीड़ा ।

शनि – शुभ, अनुकूल, उन्नतिदायक ।

बुध – सामान्यतः शुभ ।

शुक्र महादशा

शुक्र – पूर्णोन्नति, लाभदायक ।

सूर्य – लाभदायक |

चन्द्र – राज्योन्नति, विशेष लाभ ।

मंगल – धनहानि, व्यापार बाधा ।

राहू – कष्टदायक ।

गुरु – पूवार्द्ध शुभ, उत्तरार्द्ध अशुभ ।

शनि – उत्तम ।

बुध – सामान्य ।

केतु – सामान्यतः शुभ ।

इसके अतिरिक्त ग्रह संयोग तथा स्थान देखकर फलादेश करना सत्यता के अधिक निकट होता है ।


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