कन्या लग्न की कुंड्ली का फल
राशि चक्र में यह छठी राशि है तथा इसका स्वामी बुध है। जिसकी यह दूसरी राशि है। कालपुरुष शरीर में इसका स्थान कमर में है तथा इसका आकार सुकुमार सुन्दर कन्या सा है, जिसके एक हाथ में धान की बाली तथा दूसरे हाथ में अग्नि-पात्र लिये हुए वह नोका पर स्थित है । इसका स्थान तृणों से आच्छादित हरी-भरी भूमि तथा स्त्री-पुरुष की रमण-स्थली है।
यह दीर्घाकार, स्त्री-संज्ञक, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, सौम्य स्वभाव तथा द्विस्वभाव वृत्ति की है, जो कि शीर्षोदय होने के साथ-साथ दिनबली मानी गई है ।
यह राशि जलाश्रयी है। इसका पूर्वार्द्ध बली है, लग्न में यह राशि, विशेष बली मानी गई है । यह वैश्य वर्ण, जीव-संज्ञक, मध्यान्हान्ध तथा विविध रंगों की स्वामिनी है ।
बुध की यह मूल त्रिकोण राशि एवं स्वराशि भी है। बुध की यह उच्चराशि एवं शुक्र की नीच राशि है ।
कन्या लग्न की कुंड्ली के फलित बिन्दु
सूर्य – व्ययेश, अकारक पर मेरी राय में कारक ।
चन्द्र – आयेश, सामान्यतः कारक ।
मंगल – अकारक, त्रिषडायेश, अष्टमेश ।
बुध – लग्नेश-राज्येश, कारकेश ।
गुरु – चतुर्थेश-सप्तमेश, अकारक ।
शुक्र – भाग्येश, धनेश, अकारक ।
शनि – पंचमेश, षष्ठेश, अकारक ।
सूर्य और चन्द्र को पाराशरादि ऋषियों ने कन्या लग्न में अकारक माना है, क्योंकि सूर्य जहाँ व्ययेश होता है, वहाँ चन्द्रमा त्रिषडायेश की ही एक राशि ग्यारहवें का स्वामी । इस प्रकार ये दोनों ही ग्रह अकारक सिद्ध होते है, परन्तु दूसरी ओर इन्हीं ऋषियों ने कहा है कि सूर्य-चन्द्र दोनों ही निर्मल ग्रह होते हैं, अतः यदि ये अष्टमेश भी हों, फिर भी इन्हें अष्टमत्व दोप नहीं लगता । जब इन्हें अष्टमत्व दोष नहीं व्यापता तो फिर व्ययेश-आयेश होने से इनका भी दोष इन्हें नहीं व्यापेगा और से अकारक नहीं हो सकते ।
मेरे अनुभव में भी कन्या लग्न की कई कुण्डलियाँ आई हैं, जिनके जीवन में सूर्य-चन्द्र दशाओं ने श्रेष्ठ फल दिया है, अतः ये दोनों ही ग्रह कन्या लग्न में अकारक न होकर कारक ग्रह ही सिद्ध होते हैं ।
(1) केतु-शुक्र दूसरे भाव में हों तो व्यक्ति धनाढ्य होता है । तथा उसे जीवन में कई बार आकस्मिक रूप से द्रव्व प्राप्ति होती है।
(2) बलवान मंगल धनयोग को क्षीण करता है तथा यौवनावस्था में मद्यप एवं ऐय्याश भी बना देता है, अतः कन्या लग्न की कुण्डलियों में मंगल जितना ही कमजोर होगा, उतना ही शुभ फलदायक होगा ।
(3) गुरु दो भावों का स्वामी होने से अकारक ही माना गया है, साथ ही इसे केन्द्राधिपत्य दोष भी लगता है। फिर भी कुण्डली में गुरु-चौथे स्थान की अपेक्षा सप्तम भाव में विशेष शुभ फलदायक हो जाता है तथा अपनी दशा में धन, वाहन, ऐश्वर्य, एवं सुख प्रदान करने में समर्थ होता है । कमजोर तथा अष्टमस्थ गुरु मातृ-सुख में न्यूनता लाता है।
(4) पंचम या एकादश भाव में शनि हो तो व्यक्ति के लड़कियों की बहुतायत रहती है तथा पुत्र सुख में बाधा आती है ।
(5) छठे भाव में राहु हो तो व्यक्ति प्रायः बीमार बन रहता है। यदि बुध अष्टम भाव में हो तथा राहु छठे भाव में हो तो उसे अपनी प्रेमिका से तिरस्कार मिलता है तथा वह स्त्रियों द्वारा अपमानित भी होता है ।
(6) यदि गुरु छठे, दूसरे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो व्यक्ति का गार्हस्थ जीवन दुःखमय ही देखा गया है ।
(7) अष्टमस्थ बली मंगल दीर्घायु योग प्रदान करता है।
(8) कुण्डली में कहीं पर भी सूर्य-शुक्र या सूर्य-चन्द्र साथ में हों तो सूर्य की दशा में विशेष धनलाभ, सम्मान एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
(9) नवम तथ्य में यह स्पष्ट है कि सूर्य-शुक्र साथ में हों तो सूर्य की दशा में विशेष धनलाभ होगा पर शुक्र की दशा व्यक्ति को दिवालिया भी बना देती है । सम्भवत: इसका कारण धनेश-भाग्येश का सूर्य में अस्त हो जाना है ।
इस सम्बन्ध में मेरी यह सम्मति है कि यह दिवालिया योग तभी घटित होता है, जबकि सूर्य से शुक्र की दूरी आठ अंशों से ज्यादा न हो तथा शुक्र सूर्य से पीछे हो ।
(10) चन्द्र-शुक्र सप्तम भाव में हों, गुरु ग्यारहवें भाव में तथा सूर्य अष्टम भाव में हो तो व्यक्ति को श्रेष्ठतम ससुराल, ससुराल से पूर्ण धनलाभ तथा सुन्दर एवं सुयोग्य पत्नी प्राप्त होती है पर मेरी राय में इतना होते हुए भी उस व्यक्ति का सम्बन्ध पत्नी के अतिरिक्त अन्य कई स्त्रियों से जीवन भर बना रहता है। तथा उनसे द्रव्य लाभ भी होता रहता है।
(11) गुरु-शुक्र दोनों चौथे भाव में हों तो गुरु-शुक्र की दिशाएँ उत्थानदायक होती हैं ।
(12) दूसरे भाव में शनि हो तो शनि की दशा श्रेष्ठ धनलाभ कराने में समर्थ होती है ।
(13) बुध-चन्द्र-शुक्र की स्थिति लग्न भाव में श्रेष्ठतम रहती है ।
(14) यदि राहु नवम भाव में हो तो व्यक्ति जीवन में कई बार तोर्थ यात्राएँ करता है। कन्या लग्न में राहु नवभ या दूसरे भाव में ही योगकारक रह सकता है और ये दो स्थान ही इसके लिए विशेष शुभ हैं ।
कन्या लग्न कुंड्ली दशाफल
सूर्य महादशा
सूर्य अन्तर – कष्टदायक, व्ययप्रधान ।
चन्द्र – आकस्मिक व्यय, मानसिक चिन्ता
मंगल – कष्टदायक |
राहु – नाना बाधाएँ, चिन्ता, मृत्यु ।
गुरु – परेशानियाँ |
शनि – पूर्वार्द्ध शुभ, उत्तरा कष्टपूर्ण ।
बुध – पदवृद्धि, धनलाभ ।
केतु – शुभ ।
शुक्र – भाग्योन्नति, धनवर्द्धक ।
चंद्र महदशा
चन्द्र अन्तर – श्रेष्ठ, सुखदायक।
मंगल – राज्योन्नति, शुभ ।
राहु – कष्टदायक ।
गुरु – बाधा, कष्ट ।
शनि – रोग प्रधान ।
बुध – शुभ फलदायक ।
केतु – पूर्णतः अनुकूल ।
शुक्र – भाग्योन्नति ।
सूर्य – धनदायक ।
मंगल महादशा
मंगल अन्तर – मृत्युसम कष्ट ।
राहु – पतन, अपमान, हानि ।
गुरु – पूर्वार्द्ध शुभ, उत्तरार्द्ध व्यय प्रधान ।
शनि – पूर्वार्द्ध शुभ, उत्तरार्द्ध व्यय प्रधान ।
बुध – अत्यन्त अनुकूल ।
केतु – शुभ ।
शुक्र – धनदायक ।
सूर्य – सन्तान सुखवर्धक ।
चन्द्र – वाहनदायक ।
राहू महादशा
राहु अन्तर – परेशानियां ।
गुरु – हानि, अशुभ।
शनि – बाधाएं ।
बुध – शुभ, अनुकूल
केतु – शुभ |
शुक्र – भाग्योन्नति, सुखदायक ।
सूर्य – बाधापूर्णं ।
चन्द्र – मानसिक अशांति
मंगल – कष्टदायक, मारकेश ।
गुरु महादशा
गुरु अन्तर – अनुकूल, विवाह, धनलाभ ।
शनि – धनलाभ |
बुध – सर्वतोमुखी उन्नति ।
केतु – शुभ ।
शुक्र – भाग्योदय, धनलाभ ।
सूर्य – भाग्यवर्धक ।
चन्द्र – मृत्युसम कष्ट ।
मंगल – हानि, बाधापूर्ण ।
राहु – हानि ।
शनि महादशा
शनि अन्तर – विविध रोग, मातुल मृत्यु
बुध – शुभ फलदायक ।
केतु – अनुकूल ।
शुक्र – वाहन सुख, उन्नति ।
सूर्य – मृत्युसम कष्ट ।
चन्द्र – ससुराल सुख, विवाह ।
मंगल – कष्टं ।
राहु – दुःखद ।
गुरु – व्ययाधिक्य, हानि ।
बुध महादशा
बुध अन्तर – श्रेष्ठ, भाग्यवर्धक, यश, सम्मान ।
केतु – अनुकुल ।
शुक्र – धनलाभ, भाग्योदय ।
सूर्य – कुटुम्ब सुख, मांगलिक कार्यं ।
चन्द्र – धनलाभ ।
मंगल – हानि, पतन, पदावनति ।
राहु – घोर कष्ट ।
गुरु – सामान्य ।
शनि – मृत्युसम कष्ट ।
केतु महादशा
केतु अन्तर – उन्नति, शुभ ।
शुक्र – भाग्यवर्धक, धनलाभ ।
सूर्य – व्ययप्रधान पर शुभ ।
चन्द्र – शुभ
मंगल – पदावनति, हानि ।
राहु – कष्टदायक, व्याधि ।
गुरु – सामान्य ।
शनि – परेशानीपूर्ण ।
बुध – अनुकूल, उन्नतिदायक ।
शुक्र महादशा
शुक्र अन्तर – धनलाभ, भाग्योदय ।
सूर्य – वाहन सुख ।
चन्द्र – कुटुम्ब सुख, सन्तान विवाह ।
मगल – हानि, घाटा, कष्ट ।
राहु – पतन ।
गुरु – मृत्युसम कष्ट ।
शनि – शुभ, उन्नतिदायक ।
बुध – श्रेष्ठ ।
केतु – उन्नतिदायक ।
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