कुंडली में मंगल का प्रभाव

अंगारक, कुज, वक्र और भौम आदि अनेक नामों से पुकार जाने वाला ग्रह मंगल सौरमंडल का सेनापति माना जाता है। यह ग्रह भार में पृथ्वी से मात्र दसवें हिस्से भार वाला तथा आकार में पृथ्वी से लगभग आधा है। इसका व्यास 4115 मील आंका जाता है। यह ग्रह सूर्य से दूर लेकिन पृथ्वी के निकट है। पृथ्वी से इसकी अधिकतम दूरी 6,25,00,000 मील और न्यूनतम दूरी 3,46,00,000 मील आंकी गई है।

यह ग्रह सूर्य की एक परिक्रमा करने में 687 दिन लगाता है और इसकी गति में परिवर्तन होता रहता है। अंतरिक्ष की अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ यह ग्रह जब सूर्य के निकट पहुंचता है तो उसकी गति तेज होती चली जाती है। जैसे-जैसे यह सूर्य से दूर जाता है उसकी गति भी मंद होती है। यह ग्रह किसी राशि में दो-तीन महीने का तो किसी में 41-42 दिन का ही संचरण काल रखता है ।

राशि व्यवस्था के अंतर्गत कुल बारह राशियों में से मंगल को दो राशियों मेष और वृश्चिक का स्वामित्व प्राप्त होता है। इसकी उच्च की राशि मकर तथा नीच की राशि कर्क होती है। मंगल की मूल त्रिकोण राशि मेष को ही माना जाता है।

मंगल के स्वामित्व वाली दोनों राशियों के पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत, स्वास्थ्य, सामान्य शक्ति, दीर्घायु और मृत्यु से किसी-न-किसी रूप में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जुड़े होने की बात अब ज्योतिष शास्त्री ही नहीं वरन् अन्य भी स्वीकार करने लगे हैं ।

विशेषकर स्वास्थ्य और दीर्घायु पर ज्योतिषीय विचार के समय मंगल की व्यक्तिगत कुंडली में स्थिति के साथ-साथ पहली और आठवीं राशि (मेष, वृश्चिक) की स्थिति और पहले व आठवें भाव में राशि स्थिति पर भी गौर किया जाता है। इसके अलावा चंद्र (मन) सूर्य (आत्मा) और शनि (दीर्घायु कारक) पर भी इस विषय में गौर किया जाता है।

मंगल को रक्त वर्ण का होने के कारण रुधिर, अंगारे के समान दिखने के कारण अंगारक, पुराणों में इसे भूमिपुत्र बताए जाने के कारण भौम और हमेशा अपनी भृकुटि ताने रखने के कारण ‘वक्र’ नामों से पुकारा जाता है। पश्चिम के कुछ ज्योतिषविदों ने इसे ‘सौर परिवार का शरारती बच्चा’ भी कहकर पुकारा है।

प्राचीन ज्योतिष मनीषी वराह मिहिर ने वृहत जातक में इसे भयानक आंखों वाला, लाल रक्तिम वर्ण वाला, गर्म मिजाज, आग्नेय युवक बताया है। अन्य ज्योतिष विज्ञानियों ने इसे चिरयुवा, क्रोधी, उन्मत्त, अस्थिर आकार वाला, निर्दयी, वासनाओं और कामनाओं से भरा ऐसा ग्रह बताया है कि जो रोमांस और युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहता है। पुराणों में इसलिए इसे युद्ध और रोमांस का देवता कहा गया है। वह उतावला, क्रोधी, हिंसक, आत्मविश्वास से भरपूर और दूसरों से अपनी आज्ञा का पालन कराने की क्षमता वाला भी कहकर पुकारा गया है।

मंगल धातुओं में स्वर्ण और ताम्र, रत्नों में मूंगा, दिशाओं में दक्षिण और स्वास्थ्य प्रकृति में पित्त का शासक, संचालक व नियंत्रक माना गया है।

कुंडली में मंगल का प्रभाव

मंगल कुंडली में तीसरे भाव (पराक्रम, बंधु-बांधव) और छठवें भाव (शत्रु, विवाद, कारावास एवं रोग) का कारक माना जाता है। वह रक्तविकार, ऊतक विनाश, ज्वर, जलने के घाव, मानसिक विकृति, जड़बुद्धि आदि के कारण अपनी अस्तावस्था (नीच) की राशि में स्थित होने पर अथवा कभी-कभी उसमें गोचर करने के दौरान भी बनता है । वह बेचैनी, घाव, फुंसियां, फोड़े, नकसीर, मिरगी और ट्यूमर आदि भी देता है ।

मंगल रक्त के माध्यम से अपना असर जातक पर डालता है। मंगल की लाल किरणें उसकी शक्ति की संवाहक होती हैं। वह मस्तिष्क (मेष) और कामांगों (वृश्चिक) का प्रतिनिधि व संचालक भी होता है अतः पाशविक वृत्तियों का नियंत्रक और प्रतिस्पर्द्धा भावनाओं का जो कि अंततः संघर्ष और झगड़े में बदल जाती हो, कारक होता है।

मंगल स्त्री जातक के लिए उसके विवाह, पति और यौन जीवन का कारक होता है। डिम्बाशय और गर्भाशय की प्रक्रियाओं के संचालन में वह चंद्र के साथ-साथ कारक होता है। वह स्त्री के यौनांगों का भी शासक व संचालक होता है। चंद्र और मंगल मिलकर किसी स्त्री में मासिकस्राव की प्रक्रिया के कारक और संचालक होते हैं। मंगल गर्भाशय में पुराने ऊतकों की परत का विखंडन करके रक्तप्रवाह की शुरुआत कराता है। रक्त प्रवाह की मात्रा और अवधि का नियंत्रण व संचालन चंद्र करता है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जब मंगल किसी महिला की जन्मकुंडली के लग्न या चंद्र लग्न पर अपने गोचर के दौरान संगतिकारक अथवा दृष्टिकारक प्रभाव डालता है, मासिकस्राव की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। जन्म समय के चंद्र पर मंगल की गोचर दृष्टिमात्र ही मासिकस्राव की शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। यह नियमित मासिकस्राव के मामले में माना जाता है जबकि लग्न पर मंगल की दृष्टि को स्त्री में पहले मासिकस्राव के लिए उत्तरदायी माना जाता है ।

मंगल का शुभ-अशुभ प्रभाव

मंगल को प्राकृतिक अशुभ व क्रूर ग्रह माना गया है। यदि कुंडली में मंगल शुभ स्थिति, शुभ संगति या दृष्टि में बली होकर बैठा हो तो वह जातक में साहस

भावना, शक्ति, शौर्य, आत्मविश्वास, आगे बढ़ने की प्रवृत्ति, तार्किकता, त्वरित बुद्धि, योजनाओं को व्यवहारिक रुप देने की क्षमता, स्वतंत्रता की भावना, दृढ़निश्चय, संगठन क्षमता, नेतृत्व क्षमता तथा सांसारिक व भौतिक गतिविधियों में सफलता के लिए आवश्यक प्रेरणा, उष्मा, अग्नि, सक्रियता और संरचना देता है। जातक निर्भय, महत्त्वाकांक्षी, साधन-संपन्न और कुशल होता है। वह आत्म-नियंत्रण करना भी भली-भांति जानता है ।

इस प्रकार शुभ फलकारक स्थितियों में बैठा मंगल निश्चय ही जातक के लिए एक वरदान की तरह काम करता है। इस प्रकार का मंगल अपनी कुंडली में रखने वाला जातक उक्त गुणों से युक्त होता है। उसका जीवन तनावों, संघर्षों और क्षतियों से मुक्त होता है। ऐसे जातक के जीवन में आत्म-नियंत्रण मार्ग-निर्देशक सिद्धांत के रूप में काम करता है। उन जातकों के लिए जीवन क्षेत्र का कोई भी शिखर दुर्गम और अजेय नहीं रहता ।

दूसरी ओर यदि मंगल कुंडली में अशुभ स्थिति, अशुभ संगति या दृष्टि से दुष्प्रभावित और कमजोर होकर बैठा हो तो वह जातक के जीवन के लिए भयंकर अभिशाप की तरह होता है। ऐसा मंगल अंधा उन्माद, अधीरता, निरंकुश भावनाएं, विरोध सहन न करने की प्रवृत्ति, अधिपत्यकारी प्रवृत्ति, विवाद, हिंसा, बगावती तेवर, गलत सोच, दुर्घटनाएं, दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं, व्यभिचारी प्रवृत्ति, घाव, शारीरिक वेदना, रक्त की हानि, कानूनी दंड, पाशविक शक्ति का इस्तेमाल, रुखापन, निर्दयता युद्ध, बेचैनी, ईर्ष्या भावना, अवज्ञा, असामाजिक प्रवृत्ति, क्रोध, धूर्तत्तापूर्ण हरकतें, विकृत मानसिकता, आवेश, विध्वंसक वृत्ति, आक्रामकता और आंतरिक उफान, संघर्ष और लड़ाइयां देता है ।

जिस व्यक्ति की कुंडली में मंगल अशुभ होकर बैठा हो तो उसमें उक्त अवगुणों में से अधिकांश पाए जाते हैं। उसका जीवन तनावों से भरपूर होता है। वह कष्ट उठाता है और संघर्षों और क्षति से जूझता रहता है। आत्म-नियंत्रण की कमी उसकी अधिकांश समस्याओं के मूल में होती है।

मंगल छोटे भाइयों और भू-संपदा का भी विशेष कारक होता है। इसकी मूल त्रिकोण राशि बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका जातक के जीवन में अदा करती है। देखा गया है कि मेष राशि में कई ग्रह ( दो या अधिक) रखने वाले जातक असामान्य रूप से प्रतिभाशाली होते हैं और जीवन के किसी-न-किसी क्षेत्र में उसे मान्यता और प्रतिष्ठा अवश्य ही मिलती है।

मेष राशि मंगल के धनात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती है। यह राशि दो प्रबल ग्रहों (सूर्य व शनि) की क्रमशः उच्च की ओर नीच की राशि होती है। ये दोनों ग्रह स्वास्थ्य और दीर्घायु का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार यह राशि मंगल की रचनात्मक और पौरुषेय ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है। यदि मेष राशि में लग्नेश, चंद्र और बुध स्थित हों तो जातक स्वतंत्र विचारक, साहसी, निर्णय क्षमता वाला, वैज्ञानिक विचारों वाला, उद्यमी, स्पष्टवादी और व्यवहारिक होता है। वह प्रतिबंधों के खिलाफ बगावती तेवर अपनाता है और महत्त्वाकांक्षी होता है ।

मंगल की दूसरी राशि वृश्चिक जलीय, स्थिर और स्त्रीलिंग होती है। यह राशि उत्सुकता, उत्तेजना, तर्क व कारण से बचने की कोशिश आदि का प्रतिनिधित्व करती है। यह मंगल की नकारात्मक सोच वाली राशि कही जाती है। यह चंद्र की नीच की राशि होती है और चंद्र भावनाओं और भावुक प्रतिक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार वृश्चिक राशि में चंद्र व बुध रखने वाला जातक कतई भावुक नहीं होता और उसे आसानी से कायल नहीं किया जा सकता ।

वृश्चिक राशि में कोई स्थित हो तो वह अपनी शुभ प्रवृत्ति से वंचित हो जाता है और जातक को कष्ट देता है। ज्योतिष शास्त्रियों के अनुसार राहु भी जब वृश्चिक राशि में हो तो वह अस्तावस्था में आ जाता है जबकि केतु उसमें स्थित होने पर खुशी महसूस करता है।

प्रत्येक ग्रह अपने तरीके से जातक को जहां लाभ देता है, वही उसके विपरीत कर्मों का दंड देता है। मंगल जातक को दंडित करने के लिए उसे हिंसा, लड़ाई-झगड़े और विवादों में उलझा देता है। वह जातक के दिमाग का संतुलन भी बिगाड़ देता है । वह गुस्से और तनाव को हवा देता है। मंगल जब जातक को शुभ फल देता है तो उसे साहस, आत्मानुशासन, भू-संपदा, बंधु-बांधव और वैज्ञानिक रुझान देता है ।

दग्ध और वक्री मंगल

यदि मंगल सूर्य के अति समीप होने से दग्ध हो तो उसे कमजोर माना जाता है। ऐसा मंगल जिस भाव राशि में स्थित होता है उसके कुछ शुभ प्रभावों को निष्क्रिय कर देता है। इसके साथ ही वह संबंधों में कटुता, घृणा लाता है, भू-संपदा संबंधी विवादों में जातक को फंसाता है और घाव तथा मुकद्दमे भी उसे देता है ।

मंगल जब सूर्य से 228° दूर होता है तो वक्री हो जाता है तथा जब तक 132° दूर नहीं रह जाता, वक्री बना रहता है। वह एक बार वक्री होने तक 80 दिन इसी अवस्था में रहता है। इसके अलावा वह वक्री और मार्गी होने की प्रक्रिया में लगभग 5 दिन तक अपनी गति रोककर स्थिर भी बना रहता है। यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में मंगल वक्री होकर स्थित हो तो वह जातक को एक पल भी चैन और खुशी से जीने देना नहीं चाहता। विशेषकर वक्री मंगल पूरी वक्रता विंशोत्तरी दशा — अंतरदशा की अवधि में दिखाता है। विंशोत्तरी पद्धति में मंगल को 7 वर्ष की महादशा आवंटित की गई है।

मंगल के मित्र, शत्रु ग्रह

पूरे सौरमंडल में मंगल का एक ही प्रबल शत्रु माना गया है—वह बुध है। शुक्र और शनि के साथ उसके संबंध न मित्र जैसे न शुत्र जैसे रहते हैं जबकि सूर्य, चंद्र और बृहस्पति को उसका मित्र समझा जाता है। इस विषय में विभिन्न ज्योतिष शास्त्री एक मत नहीं हैं। संस्कृत नाटक मृच्छकटिक में बृहस्पति को भी मंगल का शत्रु माना गया है। कुछ ज्योतिष शास्त्री शनि से भी उसके संबंध तनावपूर्ण ही मानते हैं। मंगल शनि से शत्रुता नहीं मानता लेकिन शनि मंगल के प्रति शत्रुभाव रखता है; यह मत ज्योतिष शास्त्र में मान्य किया गया है। बृहस्पत्ति व मंगल के संबंधों पर ‘उत्तर कालामृत’ में कहा गया है:-

अङ्गारक विरुद्धस्य प्रक्षीणस्य बृहस्पते । गृहोऽयमपरः पार्श्वे धूमकेतु रिवोत्यितः ।।

अर्थात् जिस प्रकार मंगल बृहस्पति से शत्रु भाव रखता है उसी प्रकार चारुदत्त के समक्ष शकार भी धूमकेतु बनकर खड़ा हो रहा है ।

ज्योतिष मनीषी यवनाचार्य ने भी पूरे सौरमंडल में मंगल का एक मात्र दुश्मन बृहस्पति को और मित्र बुध व शुक्र को बताया है। कुल मिलाकर मंगल से अन्य ग्रहों का संबंध ज्योतिष शास्त्रियों के लिए अपनी-अपनी प्रवृत्तियों के अनुसार ही दर्शाने का चलन अधिक व्यापक रहा है। व्यापक सहमति बृहस्पति को मंगल का मित्र और बुध को उसका शत्रु माने जाने पर ही है। ज्योतिर्विद यह भी मानते हैं कि कोई ग्रह मंगल से शत्रुता माने-न-माने मंगल किसी से अपनी शत्रुता नहीं मानता। दरअसल मंगल अपने मद में किसी को अपनी शत्रुता लायक ही नहीं समझता और अपने आप में ही मग्न रहता है ।

विभिन्न लग्नों में मंगल

मंगल को कर्क लग्न और सिंह लग्न वाले जातकों के लिए योगकारक माना गया है। इनमें भी विशेष महत्त्व कर्क लग्न वाले जातकों में मंगल की योगकारक स्थिति को दिया गया है। कर्क लग्न वाले जातकों में मंगल पांचवें भाव और दसवें भाव का स्वामी होता है। इन लग्न वालों के लिए मंगल विकल होकर भी अत्यधिक शुभ फल देने में समर्थ बताया गया है। कहा गया है कि प्राकृतिक रूप से अशुभ ग्रह होने के नाते मंगल कर्क लग्न की कुंडली में पांचवे और दसवें भाव का स्वामी होकर 10 वें भाव (केंद्र) में ही बैठा हो तो जातक असंभव को भी संभव बना देने की ताकत रखता है। इस भाव में मंगल कमजोर होकर भी शुभ फल देता है और उसे शिखर तक पहुंचाने की ताकत रखता है ।

‘जातक पारिजात’ में कहा गया है-यदि मंगल कुंडली में उच्च का होकर या स्वराशि में होकर सूर्य चंद्र और बृहस्पति की दृष्टि में या उनके साथ बैठा हो तो निम्न और निर्धन कुल में जन्म लेने वाला जातक भी पूरी पृथ्वी का रक्षक, सार्वभौम सम्राट बन सकता है।

कर्क के अतिरिक्त सिंह लग्न वाले जातकों के लिए भी मंगल चौथे और नौंवे भावों का स्वामी होने के नाते धन, मान-प्रतिष्ठा, संपदा और राजयोग का कारक होता है। इन दोनों लग्नों के अतिरिक्त मंगल धनु, कुंभ व मीन लग्न वाले जातकों के लिए भी तीसरे और दसवें भावों का स्वामी होने के कारण शुभ फल देता है। इन लग्न वाले जातकों में मंगल यदि तीसरे व दसवें भावों में बैठा हो तो बहुत ही शुभ परिणाम देता है जबकि 11वां भाव उसके लिए बाधक स्थान होने के कारण वहां उसके शुभ प्रभाव कुछ कम हो जाते हैं ।

तुला लग्न वाले जातकों के लिए यह अंशतः शुभ फलदायक माना जाता है। लेकिन कुछ स्थितियों में यह इस लग्न वाले जातकों में भीषण अशुभ परिणाम भी दर्शा सकता है। मेष लग्न वालों के लिए इसे शुभ व योगकारक तथा वृष लग्न वाले जातकों में इले मिश्रित फल देने वाला ग्रह माना गया है।

विभिन्न लग्न वाले जातकों के लिए शनि के शुभाशुभ प्रभाव निम्न प्रकार है—

लग्न              मंगल का प्रभाव

मेष               शुभ

वृष                शुभ व मारक

मिथुन             अत्यधिक अशुभ और मारक (छठें व 11वें भाव का स्वामी)

कर्क               शुभ और योगकारक

सिंह               शुभ और योगकारक

कन्या              अशुभ व मारक

तुला               आंशिक रूप से शुभ

वृश्चिक                  न शुभ, न अशुभ

धनु               शुभ

मकर              अत्यंत अशुभ और मारक

कुंभ               शुभ और मारक

मीन               शुभ

विभिन्न भावों में मंगल की स्थिति के फल

यदि मंगल किसी कुंडली में शुभ प्रभाव वाली स्थिति में बैठा हो, मजबूत और दुष्प्रभावों से मुक्त हो तो अपनी चौथी, सातवीं और आठवीं दृष्टि से कुंडली से संबद्ध जातक को शुभ परिणाम देता है। यदि कमजोर, दग्ध, वक्री या दुष्प्रभावित होकर कुंडली में बैठा हो तो जिन भावों या ग्रहों पर उसकी चौथी, सातवीं और आठवीं दृष्टि पड़ेगी उन भावों के कार्यों के संबंध में वह अशुभ परिणाम दर्शाएगा।

1. पहला भाव : कुंडली के लग्न भाव में बैठा मंगल जातक को आत्मविश्वासी, साहसी स्वतंत्र और गतिशील बनाता है। जातक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। जातक का वैवाहिक एवं घरेलू जीवन अशांत होता है। उसे सिर व चेहरे पर घाव लग सकते हैं। यदि मंगल इस भाव में दुष्प्रभावित, कमजोर अथवा दग्ध होकर बैठा हो या शत्रु की राशि में बैठा हो तो जातक को उतावलापन, खराब स्वास्थ्य, निर्दय प्रवृत्ति और धूर्तता भी देता है। दोनों ही स्थितियों में जातक घुमक्कड़ होता है और उसे शारीरिक चोट लग सकती हैं। जातक बहुधा गुप्त रोगों का शिकार और व्यापार में असफल पाया जाता है !

2. दूसरा भाव : इस भाव में मंगल यदि मजबूत और दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा हो तो जातक की आय के स्रोत बढ़ा देता है। ऐसा जातक धर्मपरायण और पशु पालक जीवों पर (मानवों को छोड़कर) दया दिखाने वाला होता है। यदि मंगल कमजोर, दग्ध या दुष्प्रभावित हो तो जातक अत्यंत कटु-भाषी, बेहद खर्चीला और शान-शौकत दिखाने वाला तथा अनैतिक मार्ग अपनाने वाला बन जाता है।

दोनों ही स्थितियों में जातक धूर्त लोगों की संगति में उठने-बैठने वाला, अपनी संपदा का नाशक, गुस्सैल और अनैतिक प्रवृत्ति रखने वाला होता है। उसका पारिबारिक जीवन भी अशांत रहता है। उसकी पत्नी या तो बीमार रहती है या मर जाती है। महिला जातक के मामले में पति बीमार रहता है या मर जाता है। जातक गुप्त रोगों का शिकार बन सकता है। उसकी आंखों व दांतों को चोट लगने का खतरा रहता है।

3. तीसरा भाव : जिस जातक की कुंडली के तीसरे भाव में मंगल बैठा हो, वह धैर्यवान, शूरवीर और साहसी होता है। वह अपने शत्रुओं को बुरी तरह परास्त करता है। उसके सभी कार्य, उसकी लगन और परिश्रम के कारण सफल रहते हैं। उसकी धन व संपत्ति बढ़ती है लेकिन इस भाव में बैठा मंगल जातक के भाइयों-बहनों पर भारी पड़ता है। वे बीमार हो सकते हैं अथवा उनके साथ दुर्घटनाएं घट सकती हैं।

ऐसे जातक को भी छोटी-छोटी यात्राओं के दौरान दुर्घटनाओं में चोट लगने का खतरा बना रहता है। वह उतावलेपन से काम लेता है। जीवन में वह बगावती तेवर अपनाता है और किसी भी सिद्धांत, मर्यादा या परंपरा को नहीं मानता। विजय और मात्र विजय ही उसका लक्ष्य होती है और इसके लिए वह कोई भी तरीका (उचित या अनुचित) अपना सकता है।

कुंडली में मंगल का प्रभाव, kundli men mangal ka prahav

4. चौथा भाव : जातक की जन्मकुंडली में चौथे भाव में बैठा मंगल उसकी माता पर बहुत भारी होता है। जातक मातृसुख से वंचित, घर से बाहर जाकर बसने वाला होता है। ऐसे जातक की माता या तो अक्सर बीमार रहती है या मर जाती है। उसके दोस्त व नाते रिश्तेदार भी उससे संबंध ठीक नहीं रखते। वह अपनी संपत्ति का विनाशक और दुखी व्यक्ति होता है।

यदि जातक के पास भू-संपदा होती है तो उस पर विवाद चलते रहते हैं। वह हृदय रोगी अथवा छाती के रोगों से भी परेशान बना रहता है। अक्सर उसकी मृत्यु दुर्घटनाओं में अप्राकृतिक रूप से होती है। उसमें संस्कारों का अभाव होता है और उसकी शिक्षा-दीक्षा ठीक से नहीं हो पाती।

5. पांचवां भाव : इस भाव में मंगल रखने वाला जातक यद्यपि बुद्धिमान होता है लेकिन साथ ही वह धूर्त और कपटी भी हो सकता है। उसका स्वास्थ्य खराब रहता है और उसकी लम्पट प्रवृत्तियों के कारण उसे गुप्त रोग लगने का भी प्रबल खतरा रहता है। ऐसा जातक काम सुख को बहुत महत्त्व देता है और उतावले पन में बिना सोचे विचारे प्रेम प्रसंग चलाता रहता है।

वह अक्सर उदर रोगी होता है। पेट में दर्द रहने की उसे मुख्य रूप से शिकायत रहती है। वह आपराधिक वृत्ति का होता है और घोटालों में लिप्त हो सकता है। उसे अपने व्यवसाय-व्यापार में कई बार आघात लग सकते हैं। उसके बच्चों का स्वास्थ्य भी खराब रहता है और अक्सर उसका पहला बच्चा जीवित नहीं रहता ।

6. छठवां भाव : दुःस्थानों में शत्रु और रोग भाव माने जाने वाले इस भाव में बैठा मंगल जातक को शक्तिशाली धैर्यवान बनाता है। उस जातक को शत्रुओं पर विजय मिलती है उसकी धन-समृद्धि और यश बढ़ता है और संपत्ति प्राप्त होती है। उस जातक के लिए शस्त्रास्त्रों से काम लेने वाला व्यवसाय जैसे सेना अथवा पुलिस की नौकरी अधिक उपयुक्त रहते हैं। वह सफल राजनेता या उच्चाधिकारी बन सकता है लेकिन कई स्थितियों में उसके व्यवसाय में व्यवधान भी आते है । उस जातक के मामाओं का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। जातक त्वचा संबंधी और उदर रोगों से परेशान रह सकता है ।

7. सातवां भाव : किसी जातक की कुंडली के सातवें भाव में बैठा मंगल उसे मूर्ख, निर्धन, कटु भाषी, धन व स्त्री का नाशक बनाता है। जातक महिलाओं से विवादों और दुर्जनों की संगति के कारण अपनी धन-संपत्ति गवां सकता है। उसका पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण होता है। उसका या तो पत्नी पति से अलगाव हो जाता है अथवा उसकी मृत्यु हो जाती है। साझा व्यापार के लिए भी मंगल की यह स्थिति शुभ फलकारक नहीं होती। जातक स्वयं भी अक्सर बीमार रहता है । वह चरित्रहीन होता है। उसके गुर्दे खराब हो सकते हैं। ऐसा जातक लम्बी-लम्बी यात्राएं करता है। वह टूरिंग व्यवसाय कर सकता है।

8. आठवां भाव : इस भाव में बैठा मंगल संबंधित जातक को दुश्चरित्र और कलहप्रिय बनाता है। वह कटुभाषी, रोगी और धन की चिंता में डूबा रहने वाला होता है। उसका घरेलू जीवन अत्यंत कलहपूर्ण होता है। उसकी जान को हमेशा खतरा बना रहता है। उसका जीवनसाथी भी या तो गंभीर बीमार रहता है अथवा विवाह के शीघ्र बाद ही उसका निधन हो जाता है।

अक्सर जातक रोगग्रस्त, अपमानित, कुंठित और निराश होकर कष्टपूर्ण जीवन बिताता है। उस जातक को दुर्घटनाओं, शल्य क्रिया अथवा संक्रामक बीमारी से जान जाने का प्रबल खतरा होता है। जातक नेत्र रोगों, मूत्र प्रणाली में संक्रमण, बवासीर आदि से पीड़ित हो सकता है।

9. नौवां भाव : अपनी जन्मकुंडली के नौवें भाव में मंगल रखने वाला जातक पितृद्रोही, आधुनिक, अभिमानी, निर्दयी और ईर्ष्यालू होता है। वह बहुत सख्त किस्म का शासक अथवा उच्चाधिकारी होता है। लोग उससे भय खाते हैं। सामने उसका विरोध नहीं करते लेकिन मन-ही-मन उससे नफरत करते हैं। धर्म में उसकी अधिक आस्था नहीं होती। वह धनी व संपन्न होता है। उसे उपस्थ भाग के और कूल्हों के रोग होने की अधिक संभावना रहती है।

10. दसवां भाव : अपनी जन्मकुंडली के दसवें भाव में मंगल रखने वाला जातक धनी-संपन्न उच्चाधिकार व उच्च पद प्राप्त, साहसी, अति महत्त्वाकांक्षी और स्वतंत्र प्रकृति का होता है। वह कर्मठ और न्यायप्रिय भी होता है लेकिन उसकी स्पष्टवादिता अक्सर लोगों के गले नहीं उतरती। वह अपने काम में कुशल, चौकन्ना होता है।

वह दूसरों पर हुक्म चलाने की जर्बदस्त प्रवृत्ति रखता है। वह अदम्य साहसी और शत्रुओं पर हर हाल में विजय पाने वाला होता है। अपने जीवनकाल में वह बहुत प्रसिद्ध हो जाता है। वह कुशल संगठनकर्ता और कुशल नेता भी होता है। सेना संबंधी व्यवसायों में यह जातक उच्च सफलता प्राप्त कर सकता है ।

11. ग्यारहवां भाव : इस भाव में बैठा मंगल जातक को कुलदीपक, स्वाभिमानी, संपन्न, यशस्वी और सुखी बनाता है। उसकी संपत्ति और कीर्ति उसके जीवन काल में तेजी से बढ़ती है। वह व्यापार अथवा खेती से बड़ा मुनाफा कमाता है। बड़े और प्रभावशाली लोगों से उसकी उठ-बैठ होती है और वह प्रभावशाली नेता भी बन सकता है। मित्रों से उसे दगाबाजी ही मिलती है। उसे पिंडलियों में और कुहनियों में रोग हो सकते हैं।

12. बारहवां भाव : इस भाव में मंगल बैठा हो तो जातक नेत्र विकार से पीड़ित, कर्जदार, खर्चीला, घुमक्कड़, मूर्ख और यौन-सुख से वंचित हो सकता है। उसे बीमारियों, गुप्त शत्रुओं द्वारा हिंसक हमले, कारावास आदि से कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। खर्चीलेपन के कारण उसकी धन संपत्ति का नाश हो सकता है। उसके पत्नी-पति की मृत्यु होने की संभावना रहती है।

ऐसा जातक अक्सर किसी न किसी नशे की लत डाल लेता है। उसके पैरों और बाईं आंख में रोग होने की प्रबल संभावना रहती है। उसकी प्रवृत्ति निर्दयी और संकीर्ण होती है। उसके कामों में बाधाएं आती हैं। वह जातक आपराधिक रुझान रखने वाला भी हो सकता है।

मंगल की विंशोत्तरी दशा का फल

विंशोत्तरी दशा पद्धति में मंगल की महादशा 7 वर्ष की होती है। इस महादशा के दौरान मंगल अपनी शुभ-अशुभ स्थिति के अनुसार प्रत्येक जातक को फल देता है ।

यदि मंगल जन्मकुंडली में मजबूत, शुभ और दुष्प्रभाव मुक्त होकर बैठा हो तो अपनी महादशा की अवधि में जातक को विवादों और मुकदमों में जीत, शत्रुओं की पराजय, भाई का जन्म या उनकी संपन्नता, भू-संपदा से लाभ, खनिजों के व्यापार में लाभ देता है । वह जातक को उच्च पद और पर्याप्त यश भी दिलाता है।

इसके विपरीत यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में मंगल अशुभ स्थिति में कमजोर, दग्ध, वक्री अथवा दुष्प्रभावित होकर बैठा हो तो वह अपनी महादशा के दौरान मुकदमों में पराजय, परिवार में कलह, भाइयों की बीमारी अथवा मृत्यु, संपत्ति का विनाश, हथियार अथवा जहर से घायल होने या जान जाने का खतरा, देता है। जातक यदि नौकरीपेशा है तो इस अवधि में उसके उच्चाधिकारी उससे नाराज हो जाते हैं।

जातक आपराधिक या धूर्ततापूर्ण कार्यों के कारण आपराधिक झमेलों में फंस सकता है। वह परिवार में कलह कराता है और आग या टूट-फूट से धन संपत्ति की हानि कराता है। अपनी महादशा काल में मंगल पित्ति विकार, रक्त विकार, बुखार, ज्यादा प्यास लगना, नेत्र रोग, अपेंडिसाइटिस, मिरगी, हड्डियों में फ्रेक्चर, मज्जा को क्षति, सोरिएसिस, टांसिल तथा गले की अन्य बीमारियां देता है।

गोचर में मंगल के फल

अपने गोचर में जब मंगल चंद्र 3, 6, 11 वें भावों में संचरण करता है तो शुभ फलदायक होता है जबकि अन्य भावों में उसका गोचर अशुभ फल देने वाला कहा जाता है।

1. मंगल चंद्र से पहले भाव में संचरण करते समय कामों में बाधाएं, आग, हथियार या जहर से खतरा, वरिष्ठ सहयोगियों की नाराजगी, धन-संपदा की हानि, नाते-रिश्तेदारों से अलगाव, थकावट, कमजोरी, रक्त व पित्त विकार, खांसी आदि देता है।

2. गोचर काल में चंद्र से दूसरे भाव में संचरण करता मंगल शत्रुओं और चोरों से आशंका पित्त और वायु विकार, क्रोधी स्वभाव, कटुवाणी, खर्च में वृद्धि, ठगी द्वारा धनहानि और मानहानि देने वाला होता है।.

3. चंद्र से तीसरे भाव में आने पर मंगल अच्छा स्वास्थ्य, ऊर्जा, वैभव, पद, आय, नए कपड़े, सम्मान, कार्यों में सफलता और संतान सुख प्रदान करता है।

4. चौथे भाव में गोचर का मंगल बुखार, अपच, खून बहना, नीच चरित्र, पदच्युति, पेचिश, दस्त, शोक समाचार, दुर्जनों की संगति से कुव्यसन, घरेलू कलह दुख और मित्रों के माध्यम से धोखा देता है।

5. पांचवे भाव में गोचर का मंगल शत्रुओं से कष्ट, बीमारी, गुस्सा, भय, संतान से विवाद, शारीरिक कमजोरी, मानसिक परेशानी, पाप की इच्छा, घर में चोरी तथा धनहानि आदि देता है। इस दौरान जातक को संतानशोक भी हो सकता है।

6. छठवें भाव में गोचर के दौरान मंगल अच्छा स्वास्थ्य, शत्रुओं पर जीत, पापेच्छा और विवादों का अंत, व्यवसाय में सफलता, लाभ-समृद्धि और सम्मान देता है। जातक की आय बढ़ती है और इस काल में वह ऐशोआराम के साधन खरीद सकता है।

7. सातवें भाव में मंगल का संचरण पत्नी से झगड़ा, नेत्र विकार, पेट में दर्द, अपच, घरेलू कलह, धनहानि, मित्रों से विवाद और मानसिक परेशानी देता है।

8. आठवें भाव में संचरण करता मंगल जातक को बुखार, घाव, रक्त की हानि, रक्त की कमी, विषाक्त रक्त, निराशा, कुंठा, शारीरिक कमजोरी, गंभीर बीमारी, संपत्ति की हानि और मृत्यु देता है।

9. नौवें भाव में मंगल का गोचर सामान्य कमजोरी, तेज हथियारों से घाव लगने का खतरा, दुर्व्यवहार, कष्टकारक यात्रा, परेशानी, अपमान, धनहानि, हार तथा मानसिक क्षोभ और चिंता देता है ।

10. दसवें भाव में मगल अपने गोचरकाल के दौरान भाव राशि की पहली 15° में असफलता, दुर्व्यवहार, खराब स्वास्थ्य, शत्रुता, चोरों का भय और धनहानि देता है लेकिन बाद की 15° में शुभ परिणामदायक होता है ।

11. ग्यारहवें भाव में संचरण करता मंगल शुभ प्रभाव देने वाला कहा जाता है। इस अवधि में जातक को भू-संपदा का लाभ, वित्तीय लाभ, अच्छा स्वास्थ्य, सम्मान, मनोरंजन, पुत्रलाभ होता है। उसका घरेलू वातावरण शांत और सुखद होता है और उसे कार्य-व्यवसाय में सफलता मिलती है ।

12. बारहवें भाव में मंगल का गोचर जातक को कलह, झगड़े, नेत्र रोग, पित्त रोग, मानसिक परेशानी, खर्च में बढ़ोत्तरी, महिलाओं की ओर से कष्ट, दोस्तों से विवाद, पत्नी से झगड़ा, मानहानि और धनहानि देता है । मंगल का गोचर जन्मकुंडली में चंद्र की स्थिति से गिना जाना चाहिए। लग्न से विभिन्न भावों में गोचर करता मंगल अधिक प्रभाव नहीं दर्शाता ।

मंगल दोष

जातक की जन्मकुंडली में लग्न चंद्र लग्न से 2, 4, 7, 8, 12 भावों में स्थित मंगल को दोषकारक माना जाता है। इसका कुप्रभाव जातक के वैवाहिक जीवन पर विशेष पड़ता है। कुछ विद्वान इसमें लग्न/चंद्र लग्न को भी शामिल मानते हैं। तो कुछ अन्य विद्वान इसमें पांचवें भाव में मंगल की स्थिति को भी शामिल किए जाने की वकालत करते हैं। ज्योतिष विज्ञान के आधुनिक ज्योति-स्तंभ माने जाने वाले डा० बी. वी. रमन तो उसमें शुक्र लग्न को भी शामिल करने के पक्षधर थे।

इस प्रकार देखें तो मंगल दोष लग्न-चंद्र लग्न-शुक्र से 1, 2, 4, 5, 7, 8, 12वें भाव में मंगल की स्थिति होने पर माना जाना चाहिए। मुश्किल से 10 प्रतिशत जातक ही इस प्रकार मंगल दोष के कुप्रभावों से बचे रह सकते हैं। वास्तव में ही इस स्थिति को स्वीकार करना कठिन और अव्यवहारिक है।

एक गंभीर ज्योतिष अनुसंधानकर्ता के रूप में मेरा मत है कि मंगल दोष को जातक की कुंडली में लग्न और चंद्र लग्न कमजोर हो तो उससे आंकलित किया जाना चाहिए। यही नहीं वरन् सातवें भाव से (यदि वह कमजोर हो) मंगल की स्थिति पर भी विचार कर लिया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि लग्न व चंद्र लग्न में जो भी कमजोर हो उससे 1, 2, 4, 7, 8, 12 वें भावों में बैठे मंगल का दोष विचार करना चाहिए। जिन जातकों की कुंडली में मंगल दोष होता है उन्हें मंगली कहकर पुकारा जाता है और उसके विवाह के लिए मंगली लड़की/लड़के को ही चुनने पर जोर दिया जाता है।

कहा जाता है कि जिस लड़की-लड़के में मंगल दोष होता है, उसका जीवनसाथी या तो मर जाता है या उससे संबंध-विच्छेद हो जाता है। जीवन साथी की मृत्यु के लिए ज्योतिष शास्त्रियों ने मंगल की दूसरे, सातवें और आठवें भावों में स्थिति जिम्मेदार मानी जाती है। जबकि दाम्पत्य विवाद और संबंध-विच्छेद के लिए लग्न भाव, चतुर्थ भाव, तथा 12वें भाव को जिम्मेदार कहा जाता है।

मंगल की स्थिति को ज्योतिषविदों ने सिर्फ 3, 6, 10 व 11वें भावों में ही शुभ माना है। चौथे भाव में मंगल को माता के लिए, पांचवें भाव में संतान के लिए और नौवें भाव में पिता के लिए भारी माना गया है। मेरा अपना विचार यह भी है कि कुंडली में मंगल दोष की विनाशक शक्ति का निर्धारण करने के लिए मंगल की स्थिति वाले भाव में स्थित राशि, उसके स्वामी की कुंडली में स्थिति और इन सब घटकों पर अन्य ग्रहों के शुभाशुभ प्रभावों की भी अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर लेनी चाहिए।

यदि मंगली जातक की कुंडली में मंगल शुभ ग्रहों के संगत या दृष्टि प्रभाव में हो तो मंगल अधिक उत्पात नहीं मचाएगा, लेकिन यदि वह अशुभ ग्रहों के दुष्प्रभाव में होगा तो भीषण परिणाम दर्शा सकता है।

किसी मंगली लड़की-लड़के का विवाह मंगली लड़के-लड़की से ही किए जाने की प्राचीन ज्योतिष मनीषियों की व्यवस्था से भी मैं सहमत नहीं हूं और मानता व अनुभव करता आया हूं कि इससे दोष निरस्त न होकर दो गुना हो जाता है।

विभिन्न ज्योतिष मनीषियों ने मंगल दोष का जितना अधिक भय जातकों को दिखाया है और फिर इस भय को निरस्त करने के लिए जितने अधिक उपाय सुझाए हैं, उन्हें देखते हुए यह सारा एक अव्यवहारिक-सा झमेला ही प्रतीत होता है। यदि जन्मकुंडली, चंद्रकुंडली और शुक्रकुंडली तीनों से ही मंगल दोष का विचार किया जाए तो अधिकांश जातक कुंडलियों में शायद ही कोई ऐसा भाव मिले जहां बैठा मंगल निरापद समझा जा सके। मंगल दोष को निरस्त करने वाली दशाओं और उपायों को यदि कारगर मानें तो फिर शायद ही यह दोष किसी कुंडली में मिले। ये दोनों ही स्थितियां अव्यवहारिक हैं।

मेरा अनुभव है कि यदि कुंडली में मंगल दोष है तो वह अपना कुप्रभाव अवश्य ही दिखाता है और किसी ‘कथित’ उपाय से निरस्त नहीं होता। वह कितना अधिक कुप्रभाव जातक के यौन एवं दाम्पत्य जीवन पर डालेगा यह उस विशेष कुंडली में उसकी भाव स्थिति, राशि स्थिति, उस राशि के स्वामी ग्रह की कुंडली में स्थिति और उस भाव और राशि पर अन्य शुभ-अशुभ ग्रहों का प्रभाव- कुप्रभाव आदि पर निर्भर करता है।

मेरे विचार में मंगल दोष है अथवा नहीं, इसका निर्धारण दूसरे, सातवें, आठवें भावों की स्थिति के बल, उनमें स्थित राशियां और उन राशियों के स्वामी ग्रहों की कुंडली में स्थिति को देखकर ही किया जाना चाहिए। इसके साथ ही यौन सुख और दाम्पत्य कारक शुक्र की कुंडली में स्थिति व अन्य शुभ-अशुभ ग्रहों के इन संबद्ध भावों पर प्रभाव- कुप्रभाव की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

रुचक योग

मंगल यदि केंद्र (1, 4, 7, 10वें भावों) में स्वराशि या अपनी उच्च की राशि में स्थित हो तो वह रुचक योग देता है। यह योग पंच महापुरुष योगों में से एक होता है और जातक को महान साहसी, यशस्वी, समृद्ध और दृढ़ इरादे वाला बनाता है। यदि केंद्रस्थ मंगल के बारे में विचार करें तो उसकी स्थिति 1, 4, 7वें भावों में मंगल दोषकारक मानी गई है। इस प्रकार दसवां भाव ही ऐसा बचता है जहां वह दिग्बली भी होता है और रुचक योगकारक हो तो जातक को हर प्रकार के सुखों और यश का भागी बनाता है।

मंगल द्वारा बनाए जाने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण योगों में चंद्र-मंगल, बृहस्पति-मंगल योग आदि को भी चमत्कारी माना जाता है। लेकिन बृहस्पति और मंगल के योग को यदि वह मकर राशि (मंगल की उच्च राशि में बने) तो जातक की संतानों पर दुष्प्रभाव डालने वाला माना गया है। मंगल-यूरेनस और मंगल-नेपच्यून योग शुभ या अशुभ प्रभाव वाले होंगे इसका निर्धारण संबद्ध ग्रहों की कुंडली में स्थिति से किया जाता है।

सूर्य मंगल योग को, यदि मंगल दग्ध हो तो जातक के जीवन के लिए खतरे अथवा किसी बड़ी बीमारी का संकेत माना जाता है। यदि यह दोनों ही परस्पर उचित दूरी पर हों अथवा इनके बीच दृष्टि का शुभ प्रभावकारी संबंध बनता हो तो जातक सूर्य और मंगल दोनों से ही संबद्ध क्षेत्रों में अपार ऊर्जा और सफलता प्राप्त करता है। लेकिन यह ऊर्जा व्यवहारिक की अपेक्षा बौद्धिक अधिक होती है। उसका मस्तिष्क बहुत सक्रिय रहता है। वह अद्भुत निर्णय क्षमता वाला होता है। वह अपने प्रति सदैव चौकस और विश्लेषणात्मक बना रहता है लेकिन उसका शरीर उसके मस्तिष्क का अधिक साथ नहीं देता। वह अच्छे कामों को करते हुए अथवा उनका पक्ष लेते हुए कभी-कभार भीषण संघर्षों का भी सामना करता है और उनसे बाल-बाल बच भी निकलता है।

इसके विपरीत यदि सूर्य और मंगल में अशुभकारी दृष्टि संबंध हों तो जातक को शारीरिक खतरों से गुजरना पड़ सकता है। वह अत्यधिक आक्रामक और आत्मकेंद्रित होता है। वह अक्सर खामख्वाह की लड़ाइयों और झगड़ों में उलझता रहता है और अपने व दूसरों के बारे में अक्सर कई प्रकार की गलतफहमियों में जीता है। सूर्य और मंगल के बीच दृष्टिकारक अथवा संगतिकारक संबंध राजनीति, सेना और अत्यधिक कठिन खेलों के क्षेत्रों में अधिक सफलताकारक माने गए हैं। मंगल अपनी स्थिति से चौथे, सातवें और आठवें भावों पर पूर्णदृष्टि रखता है। इन भावों में स्थित ग्रहों पर उसका पूर्ण प्रभाव रहता है ।

मंगलकृत पीड़ा का उपचार

यदि किसी जातक की कुंडली में मंगल क्षीण बल अथवा दग्ध होकर अशुभ फल दे रहा हो तो उसे कम-से-कम 6 रत्ती वजन के सोने की अंगूठी में 6 रत्ती वजन का मूंगा जड़वाकर उस मंगलवार को विधिवत पूजा और प्राण-प्रतिष्ठा कराकर पहनना चाहिए, जब चंद्र मेष राशि पर संचरण कर रहा हो। इसके अलावा मूंगा पहनना उस मंगलवार को भी शुभ रहता है, जब मंगल मकर राशि में विचरण कर रहा हो और चंद्र भी उसी राशि में हो अथवा चंद्र-मंगल योग बनाने वाली अन्य स्थितियों मे बैठा हो। मूंगा पीला व लाल वर्ण का होना चाहिए।

यदि मूंगा न पहन सकें तो लाल अकीक भी धारण किया जा सकता है। अंगूठी सोने की न बनवा सकें तो तांबें की अंगूठी में भी मूंगा अथवा उसका उपरत्न पहनना श्रेयस्कर रहता है। मूंगे के उपरत्नों में संगमूशी अथवा नाग जिह्वा (जड़ी) धारण किए जा सकते हैं।

मंत्रोच्चार

लघु मंत्र: ॐ भौं भौमाय नमः (जप संख्या 10,000)

तंत्रोक्त मंत्र : ॐ क्रां क्रीं कौं सः भौमाय नमः (जप संख्या 10,000)

मंगल संतान प्राप्ति में बाधक हो तो रुद्र पूजा लाभ देती है। मंगलवार का व्रत रखना और ‘रुद्रावतार’ की पूजा-अर्चना का भी विशेष महत्त्व है।

ग्रहों के प्रभाव

  1. कुंडली में सूर्य का प्रभाव
  2. कुंडली में चंद्र का प्रभाव
  3. कुंडली में मंगल का प्रभाव
  4. कुंडली में बुध का प्रभाव
  5. कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव
  6. कुंडली में शुक्र का प्रभाव
  7. कुंडली में शनि का प्रभाव
  8. कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव

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