कुंडली में शनि का प्रभाव

सौरमंडल का सबसे खूबसूरत और श्रृंगार सज्जित ग्रह शनि पृथ्वी से 89,00,00,000 मील की दूरी पर स्थित है। यह अपने दस चंद्रमाओं, तीन वलय कंगनों और नील वर्ण से सुशोभित होकर अत्यंत मंदगति से आकाशीय कक्षा में चलता हुआ लगभग 29.46 वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करता है। इसका व्यास 71,500 मील माना जाता है और भार में यह पृथ्वी से लगभग 95 गुना भारी है। जैसे-जैसे यह ग्रह सूर्य के समीप पहुंचता जाता है इसकी चाल 60 मील प्रति घंटा हो जाती है। यह एक-एक राशि का संचरण लगभग 30-30 महीने में पूरा करते हुए लगभग 29.46 वर्ष में सभी बारह राशियों में संचरण का एक चक्र पूरा कर लेता है ।

ज्योतिष शास्त्र में शनि को प्राकृतिक अशुभ या क्रूर ग्रह मानकर इसकी टेढ़ी-मेढ़ी सीधी चालों से भय माना जाता रहा है। लेकिन कई लग्नों वाले जातकों पर इसका चमत्कारिक रूप से शुभ प्रभाव भी पड़ता है।

शनि को सौर परिवार का ही नहीं वरन् आकाशीय परिवार का एक दास या नौकर समझा जाता है। इस ग्रह की कल्पना एक स्त्री वेशधारी हिजड़े के रूप में की गई है जिसके बड़े-बड़े अंग, सख्त बाल व गहरा रंग बताया गया है। शनि, वायु, पर्वतमालाओं, पहाड़ियों, वन प्रदेशों और अस्वच्छ स्थानों का शासक, संचालक व नियंत्रक ग्रह माना जाता है। उसकी प्रवृत्ति कफ और वात की होती है । वह पश्चिम दिशा का स्वामी माना जाता है ।

शनि का साम्राज्य श्मशानों, कब्रिस्तानों और कारागार स्थानों, लौह धातु, नीलम रत्न, काला चना, राई, जौ, भूसा और अत्यधिक गंध देने वाले तेल आदि उपभोक्ता वस्तुओं पर स्थापित बताया जाता है। शनि का शासन जिन शारीरिक अंगों व क्रियाओं पर चलता है उनमें मूत्राशय, मलत्याग प्रणाली, दांतों, मांसपेशियों, कलाई और पंजे आदि शामिल हैं। शनि मानव शरीर में जिन व्याधियों का कारक बन सकता है उनमें मोच, मांसपेशियों में ऐंठन, दांत दर्द, दमा, क्षय रोग, मिरगी, उन्मादी दौरे, जोड़ों में दर्द और उदर भाग में अल्सर शामिल हैं।

मानव के प्रारब्ध कर्मों से जितना अधिक शनि का जुड़ाव रहता आया है, उतना किसी अन्य ग्रह का कभी नहीं रहा है। शनि को विगत कर्मों का फल देने वाला सर्वाधिक न्यायप्रिय, किसी प्रकार के दबाव में न आने वाला और निष्पक्ष निर्णय देने वाला ग्रह माना जाता है। वह सौरमंडल के सुदूरवर्ती छोर से पृथ्वी के प्राणियों की गतिविधियों पर नजर रखता है और उचित समय आने पर अपने फैसले केवल सुनाता ही नहीं, उन्हें लागू भी कर देता है। ईश्वर ने इस ग्रह देवता को जो कार्य सौंपे हैं, उन्हीं से मानव जीवन में इसकी अतुलनीय भूमिका और विशिष्ट महत्त्व स्पष्ट हो जाता है ।

शनि एक प्राकृतिक अशुभ ग्रह के रूप में होते हुए भी जब कुंडली में अनुकूल स्थान पर बली व बिना दुष्प्रभावित हुए बैठा हो तो दीर्घ जीवन, न्याय, लोकतांत्रिक आदर्श, मानवीयता, सहानुभूति, दार्शनिक सत्य, संपूर्ण संपन्नता, अच्छी हैसियत व पद, संयत वाणी, ईश्वर के प्रति श्रद्धा, अनुशासन, भक्ति भावना, सादगी, धैर्य, आत्म-नियंत्रण, अर्थव्यवस्था, उद्योग, कूटनीति, सत्य, ध्यान-केंद्रण और स्वास्थ्य आदि विषयों के लिए कारक और शुभ फल देने वाला होता है ।

इसके विपरीत यदि शनि कुंडली में बलहीन, दुष्प्रभावित और प्रतिकूल भाव में बैठा हो तो वह मृत्यु, निर्धनता, दुःख, ओछापन, विलम्ब, इंकार, निर्दयता, भय की भावना, जड़बुद्धि, मानसिक कुंठा, दूसरों के मामलों में बिना कारण टांग अड़ाने की प्रवृत्ति, निम्नस्तरीय प्रवृत्तियां आदि का कारक होता है। इसके साथ ही वह लम्बी और बढ़ती बीमारी, कर्ज, पाप कर्म, चोरी, झूठापन, अपमान, असंयत वाणी, प्रतिबंध, अनुचित व्यवहार, ठगी, संपदा की हानि, मूर्खता और असफलताओं आदि को देने वाला भी होता है ।

कुंडली में शनि का प्रभाव

वस्तुतः शनि के विषय में बुजुर्गों का यह कथन सही है कि जिन लोगों के लिए शनि प्रतिकूल हो उनकी किस्मत फूटी होती है। ऐसे व्यक्तियों में उपरोक्त अवगुणों में से अधिकांश पाए जाते हैं जो उनकी जिंदगी को तनावों, रोगों और हानियों से भरकर नरक के समान बना देते हैं।

प्राकृतिक कुंडली की बारह राशियों में से दो (मकर और कुंभ) का स्वामी शनि होता है। इसकी उच्च की राशि तुला होती है जिसका स्वामी शुक्र शनि का प्रगाढ़ मित्र माना जाता है। अपने प्रबल शत्रु मंगल की स्वामित्व वाली मेष राशि उसकी नीच की राशि मानी जाती है। सूर्य से 15° आगे या पीछे रहने तक यह उसके प्रचंड ताप में दग्ध होकर बलहीन हो जाता है। दार्शनिक व चिंतक स्वभाव देने वाली राशि कुंभ को शनि की मूल त्रिकोण राशि कहा जाता है।

कुंडली के तीन भाव (6, 8, 12) दुःस्थान माने जाते हैं। छठा भाव शत्रु भाव, आठवां भाव मृत्यु तथा बारहवां भाव व्यय और भटकाव के साथ-साथ पूर्वजन्म के कर्मों का फल देने वाला भाव भी माना जाता है। इन तीनों भावों का कारकत्व अकेले शनि को सौंपा गया है। इसी से भारतीय ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के विशिष्ट महत्त्व को जाना जा सकता है।

शनि जब सूर्य से 25° दूरी पर होता है तो वक्री हो जाता है और सूर्य से 109° अंश दूर रह जाने तक वक्री ही रहता है। यह अवधि लगभग 140 दिन की होती है। वक्री और मार्गी होने से पहले, दोनों ही दशाओं में शनि पांच-पांच दिन तक अपनी चाल बिल्कुल ही रोक देता है। भारी-भरकम होने के कारण इसे अपनी मंद चाल की भी दिशा बदलने के लिए पलटने से पहले रुकना पड़ता है। शनि की वक्रता हमेशा ही जातकों के लिए कष्टकर होती है। विशेषकर उन जातकों को तो शनि के वक्री होने से पहले अत्यधिक कष्ट होता है जिन पर उस समय शनि की महादशा अथवा अंतरदशा चल रही हो। दरअसल विकल होकर पलटा हुआ शनि जातक को भी उसी तरह घुमा देता है जिस तरह कोई कुंभकार अपने चाक को घुमाता है।

विभिन्न भावों और राशियों में शनि की स्थिति के फल

अन्य ग्रहों की भांति विभिन्न राशियों और भावों में शनि भी अपनी स्थिति के अनुसार फल प्रदान करता है। विभिन्न भावों में शनि की स्थिति के सामान्य प्रभाव निम्न प्रकार हैं :-

पहला भाव : किसी जातक की कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो उसे घुमक्कड़ प्रवृत्ति (आवारागर्दी), संपदा विनाश, संबंधों में अड़चनें, गरीबी, दुःखों व कष्टों के झटके, पत्नी व बच्चों की मृत्यु अथवा बीमारी, परिवार से अलगाव आदि के कुफल देता है।

दूसरा भाव : शनि कुंडली के दूसरे भाव में हो तो जातक को अपराधी मानसिकता वाला और बुराइयों से भरपूर बना देता है। ऐसा जातक अपनी संपदा का नाश करके गरीबी और कष्टों में जीवन गुजारता है। वह निरुद्देश्य भटकता भी रहता है।

तीसरा भाव : यदि किसी जातक की कुंडली में शनि, लग्न से तीसरे भाव में बैठा हो तो उसके भाइयों-बहनों पर भारी पड़ता है। वह भाई-बहन की मृत्यु अथवा उसके रोगग्रस्त रहने का संकेत देता है। लेकिन अन्य मामलों में जातक के लिए शनि की यह स्थिति लाभजनक परिणाम देती है। ऐसा जातक प्रसिद्ध और धर्मार्थ कार्य करने वाला होता है। उसे भरपूर और नियमित आय प्राप्त होती है । शत्रुओं पर वह विजय पाता है और समृद्ध जीवन गुजारता है।

चौथा भाव : इस भाव में बैठा शनि संबद्ध जातक की माता के लिए भारी होता है। उसकी माता की या तो मृत्यु हो जाती है अथवा उसे रोग लग जाता है। जातक विरासत में मिली संपत्ति खो बैठता है। उसका मेलजोल धूर्त और नीच प्रवृत्ति के लोगों से ही अधिक होता है। उसकी शिक्षा-दीक्षा में कई बार रुकावटें और असफलताएं आती हैं। वह विभिन्न प्रकार के घोटालों में भी लिप्त हो सकता है ।

पांचवां भाव : किसी जातक की कुंडली में शनि यदि पांचवें भाव में बैठा हो तो उस जातक के बच्चों की या तो मृत्यु हो जाती है अथवा उनका स्वास्थ्य खराब रहता है। ऐसा शनि गर्भपातों की समस्या भी देता है। जातक अपराधी मानसिकता का होता है और मक्कारी-भरे कार्य कर सकता है। उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है और वह गरीबी, दुखों और कष्टों के बीच कुंठित जीवन बिताता है। जातक में निरुद्देश्य इधर-उधर भटकने की प्रवृत्ति भी होती है ।

छठवां भाव : शनि कुंडली के इस भाव में हो तो संबद्ध जातक को सम्पत्ति लाभ कराता है। उसके अधिकारों और हैसियत में वृद्धि होती है और वह अपने प्रतिद्वंदियों को पराजित करके सुखी और लोकप्रिय होकर जीवन गुजारता है ।

सातवां भाव : कुंडली के सातवें भाव में बैठा शनि जातक को अनैतिकता के मार्ग पर चलने वाला निर्धन, दुखी, सम्पत्ति का विनाश करके कष्टों में जीवन बिताने वाला बना देता है। उस जातक की पत्नी/पति अस्वस्थ जीवन बिताने वाला होता है अथवा उसकी मृत्यु हो जाती है। जातक क्रोधी स्वभाव वाला तथा भोग-विलास का शौकीन भी होता है।

कुंडली में शनि का प्रभाव, kundli men shani ka prahav

आठवां भाव : इस भाव में बैठा शनि जातक को अपराधी वृत्ति वाला, धूर्त, कपटी, निर्दय, झगड़ालू और यौन रोगी बनाता है। ऐसे जातक को कुष्ठ होने की भी प्रबल संभावना होती है। वह भीतर से भयभीत और आशंकित रहता है लेकिन बाहर से कठोर और निडर दिखने का प्रयास करता रहता है। ऐसा जातक विवादों में घिरा रहता है और न्यायालय से दंड भी पा सकता है।

नौवां भाव : किसी जातक की कुंडली में नौवें भाव में बैठा शनि उस जातक की धर्मात्मा और साहसी तो बनाता है लेकिन वह हतभागी, वात रोगी और निरुद्देश्य भटकने की प्रवृत्ति भी उसे देता है। उस जातक के पिता की मृत्यु हो सकती है। अथवा उसे रोग कष्ट सहन करने पड़ते हैं। उस जातक के भाई भी अक्सर बीमार रहते हैं और घरेलू वातावरण अशांतिपूर्ण रहता है ।

दसवां भाव : जिस व्यक्ति की कुंडली में शनि जन्म के समय दसवें भाव में बैठा हो उसमें अद्भुत नेतृत्व क्षमता होती है। वह जातक चमत्कारिक नेता, कठोर, न्याय को पसंद करने वाला, विद्वान, चतुर और परिश्रमी होता है। नेता नहीं तो वह प्रयास करने पर उच्चाधिकारी के पद पर तो अवश्य ही पहुंच सकता है। उसे अपने कार्यों और उद्यमों में सफलता मिलती है और वह व्यावसायिक रूप से सफल, प्रसिद्ध और लोकप्रिय होता है।

ग्यारहवां भाव : शनि कुंडली के लाभ स्थान में हो तो आय और सम्पत्ति के साथ-ही-साथ जातक का प्रभाव और सम्मान बढ़ाता है। उसे उद्यमों और कार्यों में सफलता मिलती है और वह सुखी और सम्पन्न जीवन बिताता है। उस व्यक्ति को उच्च पद भी प्राप्त होता है। वह दीर्घायु, नीतिवान, शिल्पी और चंचल होता है। उसे घुमक्कड़ी का भरपूर शौक होता है।

बारहवां भाव : शनि व्यय स्थान कहलाने वाले द्वादश भाव में हो तो सम्पदा की हानि, बच्चे की मृत्यु और बीमारी, ऊर्जा शक्ति की हानि, परिवार से अलगाव, कष्ट देता है। जातक कटुभाषी, मानसिक रोगी होता है। परिवार के बड़े-बुजुर्ग उससे नाखुश होते हैं और उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चलने की भी बड़ी भारी संभावना होती है। ऐसा व्यक्ति किसी का भी विश्वास नहीं करता ।

विभिन्न राशियों में शनि की स्थिति के फल

मेष : यह राशि शनि की निम्न की राशि होने के कारण शनि इसमें क्षीण बल होता है और अपनी अशुभ कारक प्रवृत्तियों को उसे भूलकर उदासीन रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है। सम्बद्ध जातक अपने जीवन को बहुत ही गंभीरता से लेता है। वह आत्मानुशासन का पालन करते हुए कड़ा परिश्रम करता है। उसके प्रयास सफल तो रहते हैं लेकिन जी-तोड़ मेहनत के कारण वह अपने जीवन का आनंद नहीं ले पाता। मनोरंजन आदि के लिए उसके पास कोई वक्त नहीं रहता। ऐसे जातक के पास दूसरों की बातें सुनने और उन पर विचार करने का भी कोई वक्त नहीं रहता। वह बस अपनी ही सुनता है और अपनी मर्जी की ही करता है। अक्सर उस पर निराशा और हताशा के भी दौरे पड़ते हैं। वैसे उसे आदमी की और दुनियावी मामलों की गहरी समझ होती है। वह दोस्ती की भावना का सम्मान करता है और अपने मित्रों से कभी विश्वासघात नहीं करता ।

वृष : यह राशि शनि के प्रगाढ़ मित्र शुक्र की राशि है। मेष में संचरण करके इस राशि में आने पर शनि पर्याप्त राहत महसूस करता है। जिस जातक की कुंडली में वृष राशि में शनि बैठा हो, उस जातक के लिए अपनी सुरक्षा की भावना सर्वोपरि महत्त्व रखती है। वह जमीन, जायदाद, बचत और निवेश आदि सभी वित्तीय मामलों में अपनी सुरक्षा और आश्वासन को ही सर्वोपरि रखता है। वह परिश्रमी होता है और व्यापार वृत्ति उसमें स्वाभाविक तौर पर आती है। उसकी आदतों से उसके परिवार को कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा व्यक्ति व्यापार में बहुत धन कमा सकता है।

मिथुन : जन्म समय मिथुन राशि में बैठा शनि संबंधित जातक को असाधारण दिमाग देता है। उसकी स्मृति बहुत तेज होती है और वह कुशल संगठनकर्ता होता है। उसके विचार व्यवस्थित, यथार्थवादी और बहुधा पारम्परिक होते हैं। पढ़ना, लिखना और नई-नई बातें, काम आदि सीखना और नई-नई खोज करना उसके शौक होते हैं।

ऐसा जातक बातचीत में बहुत ही चौकन्ना रहता है और बहुत सोच-समझकर ही कोई शब्द मुंह से निकालता है। वह अपने जीवन को और दिनचर्या को बहुत ही व्यवस्थित बनाकर चलता है और अक्सर अपना टाइम-टेबल तैयार रखता है।

जीवन के पूर्वार्द्ध में ऐसे जातक को कठोर जीवन संघर्षों से जूझना पड़ता है जो कि उसके चेहरे से हंसी हमेशा के लिए गायब कर सकते हैं। वह अपनी शिक्षा का भरपूर उपयोग करता है

कर्क : जन्मकुंडली में यदि शनि कर्क राशि में बैठा हो तो जातक के लिए उसका घर और परिवार ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वह घर को जैसा है, वैसा ही देखना पसंद करता है और यहां तक कि उसकी साज-सज्जा में भी परिवर्तन नहीं चाहता। उसे पुरानी चीजों से लगाव होता है और उनमें जरा भी तब्दीली उसे अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित करने लगती है। इसके साथ ही जातक पर यदि घर-परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ लाद दिया जाए तो वह अपने-आपको बंधनों में बंधा हुआ भी महसूस करने लगता है। उस जातक का घरेलू वातावरण अक्सर उसी के कारण अशांत रहता है। ऐसा व्यक्ति वास्तविक सम्पदा, जीवन बीमा, सलाहकार के रूप में कार्य आदि क्षेत्रों में सफल रह सकता है।

सिंह : यदि किसी जात की जन्मकुंडली में शनि घोर शत्रु सूर्य की राशि सिंह में बैठा हो तो जातक बहुत ही गंभीर प्रकृति का होता है और किसी भी प्रकार का मनोरंजन, मजाक अथवा हल्की-फुल्की बातें उससे बर्दाशत नहीं होती। वह ठंडा और भावनाशून्य होता है और किसी अत्यंत जटिल स्थिति में ही उसके भीतर किसी प्रकार की भावना जाग सकती है। वह बेहद सफाई पसंद और कठोर अनुशासनप्रिय होता है। रोमांस आदि के लिए उसके पास कोई वक्त नहीं होता । अपने बच्चों पर भी वह कड़ा अनुशासन लागू रखता है। वस्तुतः वह बच्चों को अधिक पसंद भी नहीं करता और निःसंतान रहना अधिक बेहतर समझता है। अक्सर ऐसे जातक को या तो संतान प्राप्ति होती ही नहीं है या फिर विलम्ब से होती है।

कन्या : शनि यदि जन्मकुंडली में कन्या राशि में बैठा हो तो जातक में जिम्मेदारी और कड़ी मेहनत की भावनाएं जगाता है। ऐसा जातक अपनी ही नहीं वरन् दूसरों की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर उठा लेता है। वह अपना काम पूरी कुशलता और मेहनत से करता है और सहयोगियों के काम में भी हाथ बंटा लेता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य पर कभी अपने काम का बोझ नहीं लादता। उसके सहयोगी और वरिष्ठ अधिकारी उसकी सराहना करते हैं और उसे पूरा सम्मान देते हैं ।

तुला : यह शनि की उच्च की राशि है और प्रगाढ़ मित्र शुक्र की राशि होने के कारण शनि यहां अपनी पूरी शक्ति पा लेता है। इस राशि में वह उदार भी होता है और जातक में साझेदारी और जिम्मेदारी की भावना भरता है। वह संबद्ध जातक को भरोसेमंद व्यक्ति बनाता है। ऐसा जातक विवाह संबंध और मैत्री संबंधों को पूर्ण पवित्र मानता है और उन्हें सर्वाधिक सम्मान देते हुए खुशी-खुशी निभाहता है। उसका जीवनसाथी भले ही उसे कितनी भी अशांति दे वह उससे अलगाव की कभी भी नहीं सोचता। वह न्यायप्रिय होता है और ईमानदारीपूर्ण व्यवहार का कायल होता है। वह अत्यधिक आदर्शवादी और परम्परावादी भी होता है और स्पष्टवादी होने के कारण कभी-कभी दूसरों का कट्टर आलोचक भी बन सकता है। इस राशि में वह प्रथम श्रेणी का राजयोग भी देता है और जातक को अत्यंत उच्च पद आसीन करा सकता है।

वृश्चिक : अपने शत्रु ग्रह मंगल की राशि वृश्चिक में शनि की स्थिति, संबंधित जातक को धन व भावनाओं दोनों की ही तंगी का शिकार बनाती है। ऐसा व्यक्ति बहुत कंजूस होता है। वह कहीं भी निवेश करने से पहले सौ बार सोचकर भी कई बार पैसा लगाता है लेकिन जितनी हिफाजत वह अपने धन व सम्पत्ति की करता है उससे कम परवाह उसे दूसरों की धन-सम्पत्ति की भी नहीं रहती। बह प्रेम और विवाह के संबंध में भी बहुत चौकन्ना होता है और जीवन का वास्तविक आनंद नहीं ले पाता। वह अपने जीवन के प्रति सदैव आशंकित रहता है और मौत से बहुत खौफ खाता है। वह आध्यात्मिक कार्यों में अत्यधिक रुचि भी लेता है और मौत का भय उसे घोर ईश्वरवादी बनाए रखता है।

धनु : जन्म समय यदि शनि धनु राशि में हो तो जातक को ज्ञान-पिपासु बना देता है। ऐसा जातक अत्यधिक उच्च शिक्षा ग्रहण करता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए वह दूर-दूर की यात्रा करता है और नई-नई जगह देखने का शौकीन होता है। वह हर विषय की हर संभव जानकारी लेना चाहता है। वह धार्मिक और अनुदार होता है और अपने कर्तव्यों का पूरा-पूरा पालन करता है, लेकिन कभी-कभी वह धर्म व दर्शन पर दूसरों के विचारों के प्रति असहिष्णुता भी दर्शाता है। व्यक्तिगत जीवन में वह कठोर अनुशासनप्रिय होता है। वह जीवन में बहुत तरक्की करता है और अपनी सफलताओं के लिए सम्मान भी प्राप्त करता है।

मकर : यह राशि शनि की अपनी राशि होने के साथ-ही-साथ प्राकृतिक कुंडली का केंद्रीय भाव भी होती है। शनि की इस राशि में स्थिति संबद्ध जातक को महत्त्वाकांक्षी और कठोर परिश्रमी भी बनाती है। अक्सर उस जातक को मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता। जातक को अपने सम्मान और दर्जे की बहुत चिंता रहती है और वह अपने समूह में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लेता है। अक्सर उस जातक की महत्त्वाकांक्षाएं पूरी नहीं होती और वह कुंठाग्रस्त हो सकता है। यदि जातक लापरवाही वृत्तिका हो तो लोग उसे नापसंद करने लगते हैं। वह घोटालों में भी फंस सकता है।

कुंभ : यह राशि भी शनि की अपनी ही राशि है अलबत्ता यह मकर की तरह स्वार्थी और लोलुप स्वभाव की न होकर दार्शनिक व बौद्धिक राशि मानी जाती है। जन्म समय यदि शनि इस राशि में बैठा हो तो वह जातक को दार्शनिक, एकान्तप्रिय और मननशील बना देता है। सामाजिक जीवन से उस जातक को बोरियत होती है और अक्सर वह अपनी ही विचार तंद्रा में खोया रहता है। उसे बहुत कम लोग ही पसंद करते हैं। ऐसा जातक अपनी योजनाओं और लक्ष्यों को पूरी सजगता और स्पष्टता से निर्धारित करता है और उन्हें पूरा करने का भरसक प्रयास भी करता है। छोटी-छोटी उपलब्धियों से वह संतुष्ट नहीं होता और बड़ी व दीर्घावधि तक लाभ देने वाली उपलब्धियों को ही पसंद करता है। प्रशासनिक और संगठनात्मक कामों में वह जातक गहरी दिलचस्पी रखता है और या तो उच्च पद प्राप्त करता है अथवा अपना स्वयं का संस्थान खोलता है। वह दीर्घजीवी और सम्मानित होता है ।

मीन : प्राकृतिक कुंडली की इस बारहवीं राशि में बैठा शनि जातक को अपने ही आरक्षित व्यवहार में सिमटे रहने की प्रवृत्ति देता हूं। ऐसा व्यक्ति बहुत कम बोलता है और अधिक लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करता। वह शांतिपूर्ण वातावरण में रहना और काम करना अधिक पसंद करता है। काम ही उसके लिए सब कुछ होता है लेकन उस काम को लोगों की मान्यता अक्सर नहीं मिल पाती । इससे जातक निराश और कुंठित भी रहता है और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो सकता है। अक्सर वह अपनी किस्मत को ही कोसता है ।

विभिन्न लग्नों पर शनि का प्रभाव

मेष, कर्क, सिंह, धनु और मीन लग्न की कुंडलियों में शनि अशुभ फल देने में पूर्ण समर्थ होता है अतः यदि इन लग्न वाले जातकों में शनि वक्री होकर, बलहीन होकर अथवा दुष्प्रभावित होकर बैठा हो तो जातक के जीवन को समस्याओं से भर देता है। मेष लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में शनि दसवें और ग्यारहवें भावों का स्वामी होता है। इनमें दसवां भाव कर्मस्थान और ग्यारहवां भाव लाभ स्थान माना जाता है। शनि यदि मेष लग्न के जातक की कुंडली में अशुभ, बलहीन, दग्ध अथवा अशुभ ग्रहों की संगति या दृष्टि से दुष्प्रभावित होगा तो वह जातक के व्यवसाय और आय के लिए अभिशाप की तरह होगा लेकिन इसके विपरीत यदि शनि स्वराशि में केंद्र में स्थित हो या स्वराशि में 11वें भाव में स्थित हो, बली हो और अशुभ ग्रहों के दुष्प्रभावों से मुक्त हो तो वह बाधकाधिपति होने के बावजूद जातक को व्यवसाय और आय के मामलों में मदद करता है।

कर्क लग्न में शनि सातवें और आठवें भावों का स्वामी, सिंह लग्न की कुंडली में छठवें और सातवें भावों का स्वामी, धनु लग्न की कुंडली में शनि दूसरे और तीसरे भाव का स्वामी और मीन लग्न की कुंडली में 11वें और 12वें भाव का स्वामी होकर दुःस्थानों या मारक स्थानों का स्वामी बन जाने से घातक प्रभाव दिखा सकता है। ऐसे में शनि यदि बृहस्पति के शुभ प्रभाव में हो उसकी अशुभ प्रकृति पर काफी कुछ अंकुश लग जाता है। इन लग्नों की कुंडलियों में शनि 3, 6, 8. 11 भावों में स्थित हो अथवा दसवें भाव से जुड़ा हो तो शुभ व योगकारक भी हो सकता है लेकिन इसके लिए भी शनि का कुंडली में बली होकर तथा दुष्प्रभावों से मुक्त होना आवश्यक होता है। यदि ऐसी स्थिति में शनि पर शुभ ग्रहों बृहस्पति या शुक्र का भी प्रभाव हो तो वह सम्बद्ध जातक को कहीं से कहीं तक भी पहुंचाने में समर्थ हो जाता है ।

कन्या लग्न के लिए शनि पांचवें और छठवें भाव का स्वामी होकर शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के परिणाम देने में समर्थ होता है। मकर लग्न की कुंडली में शनि लग्नेश और धनेश होने के कारण जातक को दीर्घायु और धन प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुंभ लग्न वाले जातकों में शनि मिश्रित फल प्रदान करता है। मिथुन लग्न वालों में शनि आठवें और नौवें भावों का स्वामी होता है। नौवें भाव में शनि की राशि कुंभ होने से वह जातक को वैरागी और घुमक्कड़ बन सकता है।

यदि शनि के प्रगाढ़ मित्र शुक्र की राशि वृष या तुला लग्न भाव में पड़ती हो तो शनि वास्तव में राजयोग कारक और सुख-समृद्धिदायक सिद्ध हो सकता है। वृष लग्न वालों की कुंडली में शनि नवम और दशम भावों का स्वामी होने से राजयोग कारक बन जाता है। ऐसी स्थिति में दसवें भाग में उसकी स्थिर राशि कुंभ की स्थिति होने के कारण वह बाधकाधिपति भी होता है, फिर भी जातक के व्यवसाय के लिए लाभदायक स्थितियां ही पैदा करता है।

तुला लग्न की कुंडली में वह चौथे (केंद्र भाव) और पांचवें भाव का स्वामी होकर न केवल प्रथम श्रेणी का राजयोग कारक ही होता है, साथ ही यदि उसकी स्थिति लग्न भाव (तुला शनि की उच्च की राशि होती है) में ही हो तो वह जातक को बहुत ही ऊंचा उठाकर ‘राजा’ जैसी हैसियत में ला सकता है।

वृश्चिक और मिथुन लग्न वाले जातकों में शनि की मूल त्रिकोण राशि कुंभ केंद्र व त्रिकोण भाव में होने से वह अच्छे फल देता है।

मेष लग्न की कुंडली में शनि दसवें और ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर यदि बृहस्पति या शुक्र जैसे शुभ ग्रहों की संगति में हो तथा शांति दसवें भाव में ही बैठा हो तो जातक अच्छे और सामाजिक कार्यों के माध्यम से ही धन कमाता है ।

यदि कुंडली में शनि पर मंगल का प्रभाव हो अथवा वह सूर्य की सीधी दृष्टि से दुष्प्रभावित हो और साथ ही उस पर बृहस्पति जैसे शुभ ग्रहों का कोई असर न हो तो जातक नीच संस्कारों वाले लोगों के संपर्क में आता है और गलत रास्ते अपनाकर धन कमाता है।

शनि की नवांश व दशम भाव स्थिति

यदि शनि का दसवें भाव से किसी प्रकार संबंध जुड़ता हो तो जातक मिलनसार व दुनियादारी निभाने वाला होता है लेकिन यदि दसवें भाव से शनि का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोई संबंध न जुड़े तो जातक अंतर्मुखी हो जाता है और अकेलापन पसंद करते हुए सबसे कटकर रहने लगता है। यह प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़े तो जातक बैरागी, साधु अथवा संन्यासी भी बन जाता है।

शनि यदि दसवें भाव में स्थित हो तो जातक के व्यवसायिक जीवन में कई बार आकस्मिक रूप से उत्थान-पतन होता है । व्यवसाय की प्रकृति का निर्धारण दसवें भाव के स्वामी की नवांश कुंडली में स्थिति को देखकर किया जाता है। यदि मेष या वृष लग्न वाले जातकों की नवांश कुंडलियों में शनि यदि सूर्य या मंगल या चंद्र के नवांशों में से किसी में भी हो तो भी वह योगकारक होता है क्योंकि मेष लग्न के जातकों की जन्मकुंडलियों में शनि के ये शत्रु ग्रह मंगल, चंद्र और सूर्य क्रमशः 1, 4 व 5 भावों के स्वामी होते हैं।

यदि सूर्य कुंडली में मजबूत हो तथा शनि उसके नवांश में बैठा हो तो जातक को शासन का सरंक्षण मिलता है। यदि शनि चंद्र के नवांश में हो और चंद्र जन्मकुंडली में किसी भू-राशि में बैठा हो तो जातक जमींदार, किसान, ठेकेदार अथवा भू-संपत्ति का क्रय-विक्रय करने वाला बन सकता है। यदि मगंल के नवांश में हो तो जातक पुलिस या सेनाधिकारी या न्यायाधीश जैसे ऊंचे पद पर भी पहुंच सकता है। यदि शनि बुध के नवांश में हो और बुध मजबूत होकर सूर्य की संगति में जन्मकुंडली में बैठा हो तो जातक विचारक बन जाता है लेकिन यदि शनि बृहस्पति के नवांश में हो तो वह किसी प्रकार की योग कारक स्थिति पैदा नहीं करता ।

शनि एक सुधारक

शनि एक मंद गति से चलने वाला ग्रह है। जब यह अशुभ ग्रह की तरह कार्य करता है तो संबद्ध जातक के जीवन पर इसका बहुत धीरे-धीरे लेकिन स्थिर प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव इतना अधिक पीड़ादायक होता है कि इसके कारण लोग शनि से बहुत ही घबराते हैं और इसे अत्यंत क्रूर ग्रह समझते हैं। शनि भले ही लोगों को अग्नि-परीक्षा से गुजारता हो लेकिन वस्तुतः यह शुद्धिकरण करने वाला ग्रह होता है। जैसे सोना आग में तपकर कुंदन बन जाता है उसी प्रकार शनि लोगों को तपाकर उन्हें कुंदन समान खरा बना देता है। ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि वह एक दार्शनिक ग्रह है। राशियों में धनु से लेकर मीन तक की चार राशियां दार्शनिक राशियां समझी जाती हैं। इनमें से दो, धनु और मीन का स्वामी बृहस्पति और दो मकर व कुंभ का स्वामी बृहस्पति होता है। बृहस्पति भी दार्शनिक ग्रह है और लोगों को सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। शनि भी दार्शनिक ग्रह है लेकिन उसकी कार्यशैली बृहस्पति से अलग रहती है । शनि दो प्रकार से दो कालावधियों में लोगों को सुधारने का काम करता है ।

1. अपनी साढ़े साती और ढय्याओं (ढाई-ढाई वर्ष की) की अवधि में

2. अपनी विंशोत्तरी महादशा अथवा अंतरदशाओं व प्रत्यंतर दशाओं की अवधि में ।

साढ़े साती : शनि लगभग ढाई वर्ष में एक राशि का संचरण पूरा करता है। जब गोचर भ्रमण के दौरान शनि किसी जातक की जन्मकुंडली में चंद्र की स्थित वाली राशि अर्थात् चंद्र लग्न से बारहवीं राशि में आता है तो साढ़े साती की शुरुआत मानी जाती है। जब वह चंद्र लग्न राशि में संचरण करता है तो साढ़े साती का मध्य कहा जाता है और जब वह चंद्र लग्न से दूसरे भाव में होता है तो शनि की साढ़े साती का अंतिम चरण होता है। इस प्रकार शनि चंद्र से बारहवीं, पहली और दूसरी राशि में जब ढाई-ढाई वर्ष का संचरण करते हुए गुजरता है तो उस कुल साढ़े सात वर्ष की अवधि को शनि की साढ़े साती कहा जाता है।

ढय्या : शनि अपनी स्थिति से चौथे और आठवें भाग पर अपनी वक्र (अशुभ) दृष्टि डालता है। अतः शनि गोचर काल में जिस राशि में स्थित हो उससे चौथी और आठवीं राशि के लग्न अथवा चंद्र लग्न वाले जातकों पर वह ढाई वर्ष भारी होते हैं। यही अवधि शनि की ढय्या कहलाती है।

यदि शनि जन्मकुंडली में चंद्र की स्थिति से बारहवें, पहले अथवा दूसरे भाव में ही स्थित हो तो ऐसी कुंडली वाले जातक पर जन्म से ही साढ़े साती का कुप्रभाव होता है। इस प्रकार की साढ़ेसाती को उदरस्थ साढ़े साती कहा जाता है। जिन कुंडलियों में चंद्र और शनि किसी भाव राशि में इकट्ठे होकर बैठे हों तो उस पर शनि का अशुभ प्रभाव स्थायी रूप से जीवन भर माना जाता है।

प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में इसे पूर्वजन्म की किसी ‘करतूत’ का फल बताया गया है। नाड़ी ग्रंथों के अनुसार चंद्र व शनि के किसी जातक की कुंडली में साथ-साथ स्थित होने की कथा इस प्रकार कही गई है। जिस जातक की कुंडली में यह दुर्योग हो उसने अपने पूर्वजन्म में किसी महिला को बहुत सताया अथवा उत्पीड़ित किया था। यह पीड़ा उस महिला के लिए इतनी असहनीय थी कि बदला लेने के विचार से उस महिला ने वर्तमान जन्म में उसी जातक को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया । यह कथा इस प्रकार भी हो सकती है कि किसी महिला ने पूर्वजन्म में किसी पुरुष को सताया और वह बदला लेने की गर्ज से उस महिला का बेटा बनकर इस जन्म में धरती पर आया। इस माता-पुत्र कथा में चंद्र को माता और शनि को पुत्र माना गया है ।

चंद्र-शनि योग जिस किसी जातक की कुंडली में हो उसकी माता से उस जातक का संबंध ठीक नहीं रहता। वह निर्धन होता है और कष्टकारक जीवन बिताता है। यदि कुंडली में शनि, चंद्र से मजबूत हो तो पुत्र का शत्रुभाव माता के प्रति अधिक होता है। ऐसे जातक की माता या तो उसे जन्म देते ही मर जाती है अथवा संतान के हाथों कष्ट भोगने के लिए लंबे समय तक जीवित रहती है। इसके विपरीत यदि चंद्र मजबूत हो तो माता उस जातक पर भारी पड़ती है और वह जातक या तो जन्म लेने के कुछ दिन बाद ही मर जाता है अथवा कष्ट भोगकर और पाप व अपराधों से भरा जीवन बिताकर बाद में वैरागी होकर भटकता है। उदरस्थ साढ़े साती जातक पर अत्यंत अशुभ प्रभाव डालती है। वह जीवन-भर परेशान हाल रहता है। कम-से-कम वास्तविक खुशी तो उसे कभी भी मिल ही नहीं पाती। वह कष्टों से भरा जीवन बिताता है। गोचर भ्रमण के दौरान जातक जिस काल में शनि की साढ़े साती से गुजरता है, वह काल दरअसल उस जातक को उसके तब तक के जीवन से, व्यवसाय से, निवास आदि सभी कुछ से काटकर रख देता है। यह परिवर्तन का संक्रमण काल होता है। इस अवधि में जातक का ध्यान सांसारिकता से बिल्कुल हट जाता है और उसमें अध्यात्म के प्रति रुझान उत्पन्न हो जाता है। शनि उसे कष्ट देता है और वह खुशियों और शान-शौकत की सांसारिक प्रवृत्ति से विमुख होकर वैराग्य की ओर चल पड़ता है। लेकिन क्या वास्तव में ही साढ़े-साती इतनी बुरी होती है कि उससे भय खाया जाए ?

प्रत्येक तीस वर्ष में साढ़े सात वर्ष का यह कठिन समय प्रत्येक जातक के जीवन में आता है। इस अवधि में जातक के जीवन में उथल-पुथल मचाने वाली घटनाओं की भरमार हो जाती है। दरअसल यह शनि का इशारा होता है कि अब तक जो कुछ तुम करते रहे हो उसमें बदलाव लाकर नई गतिविधियों, नए संबंधों और नए परिवेश में जाने का समय आ गया है। अब तक आलसी रहे हो तो अब आलस्य छोड़कर कर्म में जुट जाओ और अब तक कोल्हू का बैल बने रहे हो तो अब थोड़ा आराम भी कर लो। शनि की साढ़े साती एक ‘स्पीड ब्रेकर’ के रूप में काम करती है ।

इस अवधि में निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं घटती हैं जो संबद्ध जातक में आमूल परिवर्तन लाने वाली और दूरगामी परिणामों वाली होती है। इस दौरान जो घटनाएं जातकों के जीवन में घटती हैं वे निम्न प्रकार हो सकती हैं:-

1. प्रेम अथवा पारम्परिक विवाह काफी अड़ंगेबाजियों और विघ्नबाधाओं के बाद संपन्न हों और वैवाहिक संबंधों की शुरुआत में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की बाधाएं आएं।

2. रोजगार मिले या छुटे या तबादला हो या उन्नति/अवनति मिले।

3. अचानक पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़े।

4. दीर्घकाल से चली आ रही दोस्ती या नाते-रिश्ते टूट जाएं और नई दोस्ती नाते-रिश्ते जुड़ें।

5. निवास स्थान बदले या देश छोड़कर परदेस जाना पड़े ।

6. सेवा निवृत्ति हो जाए और उसके बाद जीवनशैली बदलकर नई अपनानी पड़े ।

7. परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए और क्षतिपूर्ति के लिए किसी संतान का जन्म भी हो ।

इस प्रकार देखें तो साढ़ेसाती के दौरान घटने वाली सभी घटनाएं बुरी नहीं होती। शनि यदि कष्ट देता है तो सहलाता भी है और हानि करता है तो उसकी पूर्ति की राह भी खोल देता है। साथ ही साथ साढ़े साती का प्रभाव जातकों पर उनकी जन्मकुंडलियों की मजबूती व कमजोरी आदि के अनुसार ही होता है। इसमें निम्न बातों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

1. जन्मकुंडली में जिन-जिन संभावनाओं और क्षमताओं का संकेत मिलता हो, उससे अलग साढ़े साती का शनि भी कुछ नहीं कर सकता। मान लीजिए आपकी कुंडली में किसी दुर्घटना के उस काल में होने की संभावना नहीं दिखती तो भले ही साढ़े साती दुर्घटना का संकेत दे, वह आपके साथ नहीं घटेगी। अतः किसी कुंडली का अच्छी तरह अध्ययन करके ही इस विषय में राय बनानी चाहिए।

2. विंशोत्तरी महादशा व्यवस्था द्वारा जो संकेत जातक को मिलते हो शनि की साढ़े साती भी उनके विरुद्ध नहीं जा सकती ।

विभिन्न चंद्र राशियों के लिए शनि की साढ़े साती के दौरान केवल निम्नलिखित काल ही भारी पड़ता है और शेष समय शनि उन जातकों को कोई कष्ट नहीं देता ।

  1. मेष—बीच के ढाई साल
  2. वृष – पहले ढाई साल
  3. मिथुन — अंतिम ढाई साल
  4. कर्क—बीच के ढाई साल
  5. सिंह — पहले ढाई साल
  6. कन्या —— पहले ढाई साल
  7. तुला — अंतिम ढाई साल
  8. वृश्चिक — बाद के पांच साल
  9. धनु—पहले पांच साल
  10. मकर—पहले ढाई साल
  11. कुंभ- – अंतिम ढाई साल
  12. मीन—बाद के पांच साल

निश्चित तौर पर शनि पूरी साढ़े साती के दौरान किसी भी चंद्र राशि के जातक पर भारी नहीं होता। वह वृश्चिक, धनु और मीन राशि के जातकों को अपनी साढ़े-साती के दौरान पांच वर्ष तक ही तंग करता है। शेष पहले या अंतिम ढाई साल की अवधि में वह न अच्छा प्रभाव देता है और न ही बुरा । शेष सभी राशियों में शनि साढ़े-सात में से केवल ढाई वर्ष तक ही अशुभ प्रभावकारक रहता है। उत्तर भारत के ज्योतिर्विदों का यह मत भी है कि यदि जन्म के समय शनि कुंडली में चंद्र की स्थिति से सातवें भाव में बैठा हो तो वह अपनी साढ़े साती के दौरान भी नर्म व्यवहार उस राशि के जातकों से करता है और उन्हें अधिक कष्ट नहीं पहुंचाता।।

ज्योतिष के कुछ ग्रंथों में शनि की साढ़े साती को ‘वृहद कल्याणी’ भी कहा गया है। इनके अनुसार शनि अपनी साढ़े साती के दौरान जातक को अपने तब तक के जीवन पर विचार करने, अपने गुणावगुणों को जानने और विश्लेषित करने का भी अवसर देता है। वह जातक को उसके अपने-पराये की अच्छी तरह पहचान करा देता है। मतलबपरस्त दोस्तों से उसका पीछा छुड़ा देता है और साथ ही जातक के भीतर छिपकर फैल रहे रोगों को भी उखाड़कर उसे अपने स्वास्थ्य के प्रति भविष्य में अधिक सजग रहने की चेतावनी भी दे देता है ।

शनि खतरों और जोखिमों से बचने वाले जातकों को खतरों और जोखिमों का सामना करना भी सिखाता है और वे जीवन में आगे आने वाली किसी भी कठिनाई का सामना करने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

उत्तरी ज्योतिर्विदों के अनुसार शनि केवल जातकों को उनके पहले किए गए दुष्कर्मों का दंड ही साढ़े साती के दौरान देता है। जब साढ़े साती उतरती है तो शनि बड़ी तेजी से जातक को वह सब कुछ लौटाकर जाने का प्रयास करता है जो कुछ शनि ने साढ़े साती के दौरान उनसे लिया होता है। यहां तक भी देखा गया है कि यदि साढ़ेसाती की अवधि में जातक ने कोई संतान खो दी हो अथवा परिवार में किसी बुजुर्ग का साया जातक पर से उठ गया हो तो साढ़े साती समाप्त होते-होते ही क्षतिपूर्ति के तौर पर उस जातक के परिवार में नई संतान जन्म ले लेती है।

शनि अपनी साढ़े साती के प्रारंभ में जातक के सिर भाग से चढ़ता है और मध्य भाग में धड़ में रहते हुए अंतिम भाग समाप्त होते-होते पैरों की ओर से उतरकर चला जाता है।

1. जब शनि चंद्र से 12वीं राशि में होता है तो संबद्ध जातक को नेत्रों और सिर के कष्ट व रोगों के कारण परेशानी व दुख उठाने होते हैं।

2. चंद्र राशि में शनि का गोचर (साढ़े साती का मध्य भाग) काल सम्बद्ध जातक के हृदय पर भारी रहता है। इस दौरान जातक मृत्यु के भय तथा अन्य विभिन्न प्रकार की परेशानियों से त्रस्त रहता है ।

3. चंद्र राशि से दूसरे भाव में शनि का संचरणकाल (साढ़ेसाती का अंतिम भाग) संबद्ध जातक के पैरों पर भारी रहता है। इस काल में जातक के पैर एक जगह नहीं टिकते, वह इधर से उधर भागता रहता है। यह समय जातक के लिए अपने उखड़ गए जीवन को फिर से जमाने का होता है अतः जातक एक जगह टिककर नहीं बैठ पाता। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में एक पुरानी कहावत इस दशा के लिए प्रचलित है— जो व्यक्ति बेचैन रहकर इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है और उस समय तक उसके पास कोई काम नहीं होता तो कहा जाता है कि इसके पैरों में शनि का चक्कर चल रहा है।

सूर्य- शनि संबंध

चंद्र – शनि संबंधों की तरह ही सूर्य-शनि संबंधों में भी मानव जातकों के जीवन में भारी उथल-पुथल मचा देने की पूरी-पूरी क्षमता होती है। मेरा अनुभव कहता है कि चंद्र-शनि संबंधों की पड़ताल से जातक की मानसिक सोच और व्यक्तिगत प्रवृत्तियों आदि के बारे में अधिक गहराई से जाना जा सकता है क्योंकि चंद्र के साथ योग (दुर्योग) बनाने वाला शनि मन के माध्यम से ही उस जातक के जीवन को दुष्प्रभावित करता है।

सूर्य को भौतिक शरीर का प्रतिनिधि संचालक और नियंता बताया गया है अतः उसके साथ शनि का संबंध जातक को शारीरिक रूप से दुष्प्रभावित करता है और सूर्य-शनि संबंधों की पड़ताल से किसी जातक के स्वास्थ्य, शारीरिक क्रिया-कलापों के बारे में बारीकी से जाना जा सकता है।

शनि को सूर्य पुत्र कहा जाता है। लेकिन दोनों ही ग्रह रूप-रंग, प्रकृति और स्वभाव से ही नहीं वरन् कार्यों से भी एक दूसरे से बिल्कुल मेल नहीं खाते। सूर्य पूर्व दिशा का प्रतिनिधि है तो शनि पश्चिम दिशा का; सूर्य मेष राशि में दीप्त (उच्च अवस्था में) होता है तो शनि इस राशि में अस्तावस्था (निम्न की राशि में) होता है। सूर्य तुला में अस्तावस्था में (निम्न की राशि में) आता है तो शनि के लिए तुला उसकी उच्च की राशि होती है। सूर्य गर्म और चमकीला ग्रह माना जाता है तो शनि ठंडा और अंधेरा ग्रह कहलाता है ।

इतना ही नहीं वरन् सूर्य जहां जीवन, ऊर्जा, संपन्नता, विस्तार, अनुशासन और सद्गुणों का प्रतिनिधि व दाता माना जाता है, वहां शनि को इसके सर्वथा विपरीत मृत्यु, कष्टों, बाधाओं, दुखों, रोगों, हानि, निराशा, अस्वीकृति, विलम्ब, ऋण, अपमान, असफलता, चकमेबाजी, उदंडता, धूर्तता और विरुपता का प्रतिनिधि, कारक व दाता समझा जाता है।

पिता-पुत्र होते हुए भी सूर्य और शनि में परस्पर कट्टर शत्रु भाव होता है यदि ये दोनों कट्टर शत्रु एक ही भाव राशि में बैठे हों (अर्थात् परस्पर 30° की सीमा में स्थित हों तो परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। जिस जातक की कुंडली में ये दोनों ग्रह किसी एक भाव राशि में इकट्ठे बैठे हों, उस भाव और राशि के अंतर्गत आने वाले कार्यों पर विनाशक दुष्प्रभाव डालने वाले कहे जाते हैं।

सूर्य और शनि का न केवल एक राशि में स्थित होना, वरन् एक दूसरे से सातवें स्थान पर होना भी संबद्ध जातक के लिए विपरीत परिणाम ही दर्शाने वाला होता है।

पुराणों के अनुसार पुत्र और पिता के बीच इस कट्टर शत्रु भाव का कारण शनि के जन्म की कथा में ही छिपा है। शनि का जन्म सूर्य की उपपत्नी छाया से हुआ माना जाता है। वस्तुतः छाया को सूर्य की दासी बताया गया है जिसे सूर्य ने अपनी दूसरी पत्नी का दर्जा दे दिया था। छाया ने सूर्य से गर्भधारण किया और जैसे ही शनि गर्भ में आया, वह सूर्य के प्रचंड ताप को सहन नहीं कर पाया और काला और कुरुप होकर पैदा हुआ। शनि को जैसे ही अपनी माता से अपनी कुरूपता का असली कारण पता चला तो वह अपने पिता सूर्य से शत्रु भाव रखने लगा । यहां यह उल्लेखनीय है कि शनि ही सूर्य के प्रति शत्रुभाव रखता है, जबकि सूर्य पिता होने के कारण उससे शत्रु भाव नहीं रखता ।

सूर्य और शनि का एक भाव में होना सबसे बुरा प्रभाव विवाह के मामले में डालता है। जिस जातक की कुंडली में यह योग होता है, उसका या तो विवाह विलम्ब से होता है अथवा बिल्कुल नहीं होता ।

यह योग पिता-पुत्र संबंधों में भी कड़वाहट लाता है। पुराणों में इस शत्रु भाव के बारे में भी एक रोचक कथा कही गई है। यदि पिता या पुत्र की जन्मकुंडली में बारहवें भाव में यह योग हो तो उस जातक के पूर्वजन्म में झांकना होता है । बारहवां भाव पूर्वजन्म का संकेत देता है। कहा जाता है कि जिस जातक की कुंडली में सूर्य व शनि इकट्ठे बैठे हों और शनि प्रबल हो तो समझो कि पूर्वजन्म में उस जातक के साथ किसी व्यक्ति ने बुरा सलूक किया था, उसे ठगा था, पीटा था, अपमानित और परेशान किया था। इस जन्म में वह जातक बदला लेने के लिए उस व्यक्ति के पुत्र के रूप में पैदा हुआ है। यदि सूर्य प्रबल हो तो समझा जाना चाहिए अपमानित और परेशान होने वाला व्यक्ति इस जन्म में उस जातक का पिता बना है।

पिता-पुत्र का संबंध बहुत नजदीक का और प्यार, स्नेह और आदर से ओत-प्रोत होता है लेकिन सूर्य-शनि का इकट्ठा होना संकेत देता है कि पिता व पुत्र में से कोई एक दूसरे से अपना पूर्वजन्म का बदला लेगा। ऐसी स्थिति में या तो पुत्र के पैदा होते ही पिता को कष्ट उठाने पड़ते हैं अथवा पुत्र अपने जीवन में कभी संपन्न नहीं हो पाता और अच्छी किस्मत पिता के ही हिस्से में आती है। ऐसा होने पर पुत्र के जन्म के बाद पिता संपन्न होता है और वह संपन्नता बढ़ती चली जाती है।

इस प्रकार सूर्य-शनि का एक ही राशि में इकट्ठा होना या तो पिता की आय और स्वास्थ्य पर या फिर पुत्र की आय और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है। सूर्य-शनि योग गरीबी, बेरोजगारी, दुख, कर्ज, अपमान, मुकद्दमेबाजी, जेल, भूख और यहां तक कि मृत्यु का भी, पिता अथवा पुत्र के लिए कारक बनता है ।

जिस जातक की कुंडली में यह योग हो यदि उसका पिता कष्ट पा रहा हो तो पुत्र स्मृद्ध, संपंन और खुशहाल रहेगा और यदि पुत्र कष्ट पा रहा हो तो पिता अपने व्यवसाय में सफल, समृद्ध और खुशहाल रहेगा ।

सूर्य और शनि योग यदि किसी कन्या जातक की कुंडली में हो तो भी उक्त ही परिणाम माने जाने चाहिए। वस्तुतः इसमें पुत्र से आशय संतान से है। वह पुत्र या पुत्री कोई भी हो सकती है।

सूर्य और शनि का योग किस-किस प्रकार के प्रभाव पिता अथवा उसकी संतान पर डाल सकता है इसका अनुमान निम्न बातों से लग सकता है।

  • संतान के गर्भ में आने या पैदा होने के 10 वर्ष के भीतर पिता की मृत्यु
  • जोड़ी गई धन-संपदा की हानि अथवा चोरी
  • बड़ा घाटा या दिवालिया होना
  • नौकरी से निलम्बन या जबरदस्ती सेवा निवृत्ति
  • मानसिक व शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहना
  • गंभीर मानसिक तनाव, संत्रास और कुंठा
  • आत्महत्या के प्रयास
  • आय घटने और काम छुटने के कारण अपमान व उपेक्षा
  • व्यापार या व्यवसाय में हानि या बदलाव
  • झूठे आरोपों में फंसकर मुकद्दमेबाजी और बेइज्जती
  • निरुद्देश्य भटकाव आदि ।

यदि सूर्य-शनि योग पिता पर भारी हो तो संतान को जन्म देने के बाद उसकी नौकरी या व्यवसाय छुट सकता है। इसके विपरीत यदि यह योग संतान पर भारी हो तो निम्न प्रकार के परिणाम उससे निकल सकते हैं। :-

  • बाल्यावस्था में ही मृत्यु
  • घर से भागकर माता-पिता के प्यार से वंचित होना
  • किसी अन्य द्वारा गोद लिया जाना
  • जटिल रोगों से कष्ट
  • कठिन परिश्रम और मन लगाकर काम करने के बावजूद व्यापार में अधिक सफलता का न मिल पाना
  • मिर्गी या अन्य कोई मानसिक बीमारी
  • मूर्ख समझा जाना और उपेक्षापूर्ण व अपमानपूर्ण व्यवहार किया जाना ।

यह योग प्रत्येक भाव अथवा प्रत्येक राशि के लिए ही बुरा हो, ऐसी बात नहीं है। यदि यह योग किसी ऐसी राशि या भाव में पड़े जहां इनमें से कोई ग्रह दीप्त हो, यह अच्छे परिणाम भी दे सकता है। उदाहरण के लिए सूर्य-शनि योग यदि तुला राशि में चौथे भाव अथवा दसवें भाव अथवा ग्यारहवें भाव में पड़े तो संतान के लिए लाभदायक होगा। सूर्य-शनि योग यदि मेष राशि में और दसवें या ग्यारहवें भाव में पड़े साथ ही लग्न व नौवां भाव मजबूत भी हो तो अच्छे फल देता है।

यदि किसी स्त्री जातक की कुंडली में सूर्य-शनि एक साथ हों और विशेषकर यह योग विवाह संबंधी भावों में पड़ें तो जातक के विवाह में विलम्ब होता है अथवा उसे वैवाहिक सुख मिल पाने में बाधाएं आती हैं। ऐसी स्त्री जातक अपने पिता की अच्छी संगत का लाभ नहीं उठा पाती और उसे संतान भी उद्दंड, असभ्य अथवा अस्वस्थ मिल सकती है। ऐसी स्त्री जातक किसी न किसी कारणवश अपनी संतान से किसी प्रकार का सुख नहीं ले पाती और संतान के हाथों अपमानित, कुंठित और कष्टसाध्य जीवन गुजारने को बाध्य हो सकती है ।

शनि-मंगल संबंध

शनि और मंगल भी एक दूसरे के कट्टर शत्रु ग्रह माने जाते हैं लेकिन मंगल गतिशील, दुःसाहसी और आक्रामक ग्रह होने के कारण शनि से बाजी मार लेता है। शनि यदि पूरे ग्रहमंडल में किसी ग्रह से थोड़ा डरता है तो वह मंगल ही होता है। शनि मंगल की राशि मेष में अस्तावस्था में आ जाता है। यहां उसका बल क्षीणतम होता है जबकि मेष अपने शत्रु शनि की राशि मकर में दीप्तावस्ता में अर्थात् सर्वाधिक बली हो जाता है।

प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में शनि और मंगल के एक ही राशि में होने के अत्यंत अशुभ परिणाम बताए हैं। यह योग केवल जातकों को ही नहीं वरन् पूरी दुनिया और उसके विभिन्न काम-व्यापार और गतिविधियों को अत्यधिक दुष्प्रभावित करता है। ज्योतिष ग्रंथों में कहा गया है कि शनि-मंगल योग यदि ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ और श्रावण, इन लगातार पांच नक्षत्रों में पड़े तो फसलों की पैदावार घट जाती है। दुनिया में दुर्घटनाओं, हिंसा आदि में मानव जीवन की बहुत हानि होती है और आर्थिक अराजकता फैलने की पूरी संभावना बन जाती है।

जातकों के जीवन में शनि-मंगल योग रक्तपात, घोर कष्ट अथवा अप्राकृतिक मृत्यु का संकेत देता है। यदि गोचर में अथवा जन्म समय मंगल व शनि एक दूसरे से सातवें स्थान पर भी स्थित हों तो भी जातक के जीवन में उत्पात मचाने से बाज नहीं आते। इनका एक दूसरे से सातवां होना आत्महत्या की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। वास्तव में देखा जाए तो मंगल शनि दुर्योग से अधिक घातक कोई और दुर्योग नहीं होता। यहां तक कि शनि-राहु योग भी उसके समान घातक प्रभाव जातक के जीवन पर डालने की सामर्थ्य नहीं रखता ।

शनि और राहु

कुंडली में एक साथ हों तो जातक को पूरी तरह तामसी वृत्ति का बना देते हैं। यदि इस योग पर बृहस्पति जैसे शुभ ग्रह का असर पड़े तो जातक प्रयास करने पर अपने जीवन में संतुलन भी ला सकता है। शनि का राहु-केतु पक्ष से संबंध जातक को अस्वस्थ बनाता है और कोई घातक बीमारी भी प्रदान कर सकता है। ऐसा जातक उचित-अनुचित में कोई फर्क नहीं कर पाता और अक्सर असामाजिक जीवन की ओर मुड़ जाता है। वह नशे का भयंकर आदी हो जाता है।

शनि-शुक्र संबंध

अपने प्रगाढ़ मित्र की संगति या दृष्टि प्रभाव में होने पर शनि बहुत खुश रहता है और खुशी के आलम में अपनी क्रूरता काफी हद तक भुला देता है। शुक्र-शनि योग व्यवसाय अथवा आय के भाव में पड़े तो जातक को कहीं से कहीं पहुंचा सकता है। शुक्र और शनि यदि किसी कुंडली में एक दूसरे से 1, 4, 7, 10वें भाव अर्थात् केंद्र में बैठे हों तो यह योग प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में राजसी सुख वैभव प्रदान करने वाले ‘गज-केसरी’ योग से भी अधिक प्रभावशाली माना गया है। महिलाओं की कुंडली में यह योग हो तो उनके व्यक्तिगत जीवन के लिए अच्छा नहीं माना जाता। कई सिने तारिकाओं की कुंडलियों में यह योग देखा जा सकता है।

शनि-बृहस्पति संबंध

शनि और बृहस्पति दोनों ही दार्शनिक ग्रह माने जाते हैं। ये दोनों एक दूसरे की संगति में बैठे हों अथवा एक दूसरे की सीधी दृष्टि में हों तो परस्पर स्वभाव और गुणधर्म बदलते देखे गए हैं। यदि इस योग में बृहस्पति अधिक बलशाली हो तो वह शनि को अपने असर में ले लेता है। इसके विपरीत स्थिति हो तो शनि बृहस्पति को कायल कर लेता है। इन संबंधों का विस्तार से वर्णन बृहस्पति वाले अध्याय में किया गया है।

विंशोत्तरी दशा-अंतरदशा

कोई भी ग्रह अपनी महादशा में अपना पूर्ण प्रभाव नहीं दर्शाता । वह इस अवधि में मात्र जातक के सामान्य गुणधर्मों पर ही असर डालता है लेकिन अपनी अंतरदशा के दौरान वह अपना पूर्ण प्रभाव दिखाता है और महादशा का स्वामी ग्रह उसकी भूमिका में उसे सहयोग और समर्थन देता है (यदि वह ग्रह कुंडली में महादशा स्वामी ग्रह से अनुकूल स्थिति में बैठा हो तो) अन्यथा वह तटस्थ रहता है और अंतरदशा स्वामी ग्रह को अकेले ही अपना काम करने देता है।

1. यदि जातक की कुंडली में शनि तुला राशि में (उच्च का होकर) अथवा स्वराशि में, केंद्र या त्रिकोण में बैठा हो अथवा 3 या 11वें भाव में बैठा हो या शुभ ग्रहों की संगति में बैठा हो तो जातक के लिए उसकी अंतरदशा का काल शुभ रहता है। इस दौरान उसकी आर्थिक, शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी, मानसिक और सामाजिक हालत में काफी सुधार आता है। उस जातक को वरिष्ठजनों, परिवार के बुजुर्गों, सम्मानितजनों आदि के माध्यम से अथवा विरासत से आर्थिक लाभ मिलता है। इस अवधि में वह सम्मानित और सुखी-समृद्ध जीवन बिताता है। यदि शनि अपनी उच्च की राशि  से पहले भाव के अंशों में आसपास हो तो भी कमोवेश उच्च की राशि में स्थिति के समान ही फल अपनी अंतरदशा के दौरान प्रदान करता है। इस अवधि में जातक विवाह, संतान सुख भी प्राप्त कर सकता है। यदि जातक विद्यार्थी हो तो उसे इस दौरान शिक्षा के क्षेत्र में चमत्कारिक उपलब्धियां मिल सकती हैं। यदि व्यापारी हो तो व्यापार में काफी लाभ इस दौरान कमा लेता है। वह नए उद्यम खोल सकता है और विशेषकर खान, कोयला, चमड़ा, पेट्रोल, वास्तविक संपदा, शिल्प अथवा कला आदि क्षेत्रों में व्यवसाय से भी पर्याप्त लाभ उठा सकता है।

2. यदि शनि अपनी नीच की राशि मेष में स्थित हो अथवा 6, 8, 12वें भाव में बैठा हो और साथ ही इन भावों के स्वामी ग्रहों का संगतिकारक या दृष्टि प्रभाव उस पर हो अथवा वह अशुभ ग्रहों की संगति या दृष्टि में बैठा हो तो ऐसा शनि अपनी अंतरदशा के दौरान बुरा असर संबंधित जातक के जीवन पर डालता है। उसे व्यापार में हानि होती है। वह नौकरी करता हो तो उसके वरिष्ठ अधिकारी उससे नाराज हो जाते हैं । कार्यालय में भी उसे कामकाज में भिन्न-भिन्न प्रकार की दिक्कतों, अपमान व प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।

उसकी धन-संपदा की हानि, चोरी, विवाद, मुकद्दमेबाजी अथवा बीमारी के कारण होती है। वह सम्मानितजनों की कृपा से वंचित हो जाता है। उसके साथ झगड़े होते हैं और उस पर तरह-तरह के लांछन लगते हैं। उसके परिवार में कोई अथवा वह स्वयं गंभीर बीमार पड़ सकता है अथवा उसकी मृत्यु हो सकती है। उसका काम-धंधा या नौकरी छूट सकती है। संक्षेप में कहें तो किसी भी सीमा तक दुर्भाग्य उसे अपना शिकार बना सकता है।

शनि अपनी अंतरदशाओं के दौरान जातक के जीवन पर कैसा असर डालेगा, यह उस जातक की जन्मकुंडली/चंद्रकुंडली में शनि की भाव और राशि स्थिति पर निर्भर करेगा ।

शनि और रोग

शनि को रोगों का प्रमुख कारक ग्रह माना जाता है। कुंडली में वह दुःस्थान कहलाने वाले तीनों भावों 6, 8 और 12 का एकमात्र कारक ग्रह होता है। ये तीनों भाव भी अल्पवधि और दीर्घावधि बीमारियों तथा मृत्यु आदि से जुड़े रहते हैं। शनि ‘वात’ प्रकृति का प्रतिनिधि और एक ठंडा ग्रह होने के कारण ठंड और वायु प्रकोप से होने वाले रोग देता है। सूर्य का प्रबल विरोधी होने के कारण वह शरीर में कमजोरी और हृदय संबंधी रोग का कारण बन सकता है। वह चंद्र से भी अपने संबंध मधुर नहीं रखता अतः कई मामलों में मानसिक रोगों का और गर्भाशय, डिम्बाशय आदि के रोगों का भी कारण बन सकता है। शनि शरीर से अपव्यय पदार्थ आदि के रोगों का भी कारण बन सकता है । शनि शरीर से अपव्यय पदार्थ (मल आदि) के निष्कासन की प्रणाली का कामकाज भी बाधित करता है। इस नाते वह उदर भाग में भी रोग दे सकता है ।

शनि जिन प्रमुख रोगों का कारक शरीर में बन सकता है, उनमें से कुछ प्रमुख रोग और व्याधियां निम्न प्रकार हैं।

राजक्षय, दमा, सांस के रोग, मूर्च्छा, नकसीर, मिर्गी, रीढ़ की हड्डी के रोग, दंतक्षय, वायु विकार, उदर रोग, हृदय रोग, पेट में दर्द व कब्ज कमजोरी लकवा आदि, मानसिक तनाव, कुंठाजनित रोग आदि देने में वह कुंडली में स्थिति के अनुसार आचरण करता है। यह कहा जा सकता है कि जातक को दुख, कष्ट और रोग देने वाले योग (दुर्योग) जब भी उपस्थित होते हैं, उनमें शनि की कोई न कोई भूमिका जरूर रहती है। उदाहरणस्वरुप, यदि किसी जातक की कुंडली में शनि पांचवें भाव, इसके स्वामी ग्रह और इस भाव के कारक बृहस्पति को दुष्प्रभावित करता हो तो निश्चित मानें कि वह जातक पेट की बीमारियों से ग्रस्त होगा। इसमें जिगर की कमजोरी अथवा उसमें गड़बड़ी, मधुमेह, पथरी और मूत्रमार्ग में रुकावट संबंधी अन्य रोग भी शामिल हैं।

शनि शरीर के जिन अंगों का प्रतिनिधि और कार्य संचालक माना जाता है। उनमें—बायां कान, शरीर के जोड़, टखने, दांत, पैरों का नीचे वाला भाग, कोहनी, हड्डियां, बाल, नाखून, आंतें आदि शामिल हैं। वह मानव शरीर के अवशिष्ट पदार्थों जैसे मूत्र, मल, बलगम आदि का भी प्रतिनिधित्व करता है।

‘यदि कुंडली में शनि कमजोर हो और सूर्य, मंगल, राहु और केतु आदि ग्रहों से दुष्प्रभावित हो तो लगभग तय माने कि जातक को उक्त अंगों में से किसी न किसी में रोग होने की प्रबल संभावना होती है।

हमारी धार्मिक पुस्तकों में रुष्ट शनि को मनाने के लिए शिवाराधना का प्रावधान किया गया है। महामृत्युंजय मंत्र का नित्य प्रति विधिपूर्वक पाठ, क्रोधित शनि को शांत करने में असरकारक हो सकता है। इसके अतिरिक्त शनि को उसका स्तुतिगान करके भी मनाया जा सकता है। इसके लिए निम्न मंत्रों का उच्चारण लाभदायक सिद्ध हो सकता है ।

लघुमंत्र : ॐ रां शनैश्चराय नमः

इस मंत्र का पाठ 23,000 बार और पूर्ण शुद्ध उच्चारण के साथ करना असरकारक बताया जाता है।

तंत्रोक्त मंत्र : ॐ प्रां प्रीं प्रौं शनये नमः

अथवा ॐ प्रां प्रीं प्रौं स शनैश्चराय नमः

उक्त मंत्र का भी 23000 बार जप करने का प्रावधान है।

चतुर्भुजो भानचापा खङ्गहस्तो वरप्रदाः ।

गुरुड़ाहारा बाहनोगातो नित्यम शंकरोक्षु शनैश्चराः ।।

उपरोक्त मंत्र का पाठ शनि की साढ़े साती के दौरान अथवा शनि की अंतरदशा की अवधि में नित्य प्रति नियम और श्रद्धापूर्वक 8 बार अवश्य ही किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त निम्न मंत्र का भी स्नान-दान आदि करते समय जप करना, शनि के प्रकोप को शांत करने में मदद देने वाला बताया जाता है।

नीलांचन समामसं रवि पुत्र यभाग्रमजम् ।

छाया मार्तन्ड सम्भूतम् तम् नमामि शनैश्चरम् ।।

नीलम अथवा उसके उपरत्न धारण करना : शनि के प्रकोप को शांत करने के लिए नीलम (कम से कम 4 रत्ती का) अथवा उसका उपरत्न जमुनिया अथवा मीली भी धारण किया जा सकता है। उपरत्न नीलम जितने प्रभावशाली तो नहीं होते लेकिन सस्ते मिल जाने के कारण नीलम की खरीद सामर्थ्य न होने पर पहने जा सकते हैं। नीलम को काले रंग के कपड़े में बांधकर गले में अथवा बांह पर धारण कर सकते हैं अथवा कम से कम 8 रत्ती वजन की सोने की अंगूठी में जड़वाकर उसे धारण किया जा सकता है। यथासंभव अंगूठी शनिवार के दिन उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्रपद, चित्रा, स्वाति अथवा विशाखा नक्षत्र पड़ने पर विधिवत् पूजा-अनुष्ठान कराकर ही पहननी चाहिए।

अन्य उपाय निम्न प्रकार हैं

1. गरीबों और दलितों को शनिवार के दिन नमकीन भोजन और सलेटी रंग के वस्त्र दान दें।

2. अपने घरेलू नौकरों, अधीनस्थ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों और सफाईकर्मी आदि के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाएं।


0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *