कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव

चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। वह पृथ्वी की परिक्रमा तो करता ही है, साथ ही पृथ्वी की भांति सूर्य की भी परिक्रमा करता है। चंद्रमा और पृथ्वी की कक्षाएं समांतर नहीं हैं। ये परस्पर 50° का कोण बनाती हैं। ये दोनों कक्षाएं दो बिंदुओं पर एक दूसरे को काटती हैं। ये दोनों बिंदु एक दूसरे से ठीक 180° की दूरी पर हैं। चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते समय इन्हीं में से एक बिंदु से गुजरकर पृथ्वी से ऊपर आता है। इस बिंदु को राहु का नाम दिया गया है। दूसरे बिंदु से गुजरकर चंद्रमा पृथ्वी से नीचे जाता है। इस बिंदु को केतु नाम दिया गया है। इस प्रकार राहु और केतु पृथ्वी और चंद्रमा की कक्षाओं के कटान बिंदु मात्र हैं ।

भारतीय सनातन ज्योतिष शास्त्र में इन्हीं बिंदुओं को छाया ग्रहों राहु और केतु के रूप में मान्यता दी गई है। वस्तुतः यही दोनों बिंदु पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के लिए जिम्मेदार होते हैं। चंद्र ग्रहण पड़ता है तो पृथ्वी का जीव जगत दैहिक रूप से पीड़ित होता है ।

संभवतः इसी कारण से इन दोनों (राहु-केतु) को छाया ग्रह के रूप में स्वीकार किया गया है और विभिन्न राशियों और भावों में इनकी स्थिति को विचार का विषय माना गया है। इस प्रकार राहु और केतु हमारे सौरमंडल और हमारे ब्रह्मांड में चक्कर लगाते हुए वास्तविक ग्रह पिंड नहीं हैं।

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की पुत्री सिंहिका का विवाह विप्रचित्त नामक एक दैत्य से हुआ था। राहु ने सिंहिका और विप्रचित्त की संतान के रूप में जन्म लिया था। देवासुर संग्राम जब पारस्परिक संधि के कारण रुका तो समुद्रमंथन करके उससे प्राप्त संपदा को आधा-आधा बांटने का निर्णय हुआ । देवताओं और दैत्यों ने परस्पर मिलकर समुद्रमंथन किया। इसी मंथन में समुद्र से अमृत निकला। अमृत पीकर अमर हो जाने की चाह में देवताओं और दैत्यों में फिर आपस में लड़ाई होने लगी।

इस विवाद को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और अमृत वितरण का काम अपने जिम्मे ले लिया। उन्होंने देवताओं में अमृत और दैत्यों में सुरा बांटना शुरू कर दिया। दैत्य सुरा पीकर मस्त होने लगे और देवता अमृत पीकर अमरत्व प्राप्त करने लगे। दैत्यों के एक सेनानायक के रूप में प्रतिष्ठित राहु ने विष्णु का छल ताड़ लिया और देवताओं का रूप धारण करके उनके पक्ष में बैठकर अमृतपान कर लिया और अमर हो गया। उसने यह काम विष्णु के छल का जवाब छल से देने के लिए किया था। पहले किसी देवता को उस पर शक नहीं हुआ लेकिन जब तक वह अमृत पीकर अपने पक्ष में जाने का उपक्रम कर रहा था उस समय चंद्रमा और सूर्य ने उसका छल ताड़ लिया और यह बात मोहिनी रूपी विष्णु को बता दी ।

विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाकर राहु का सिर काट लिया। राहु अमृत पीकर अमर हो चुका था इसलिए मरा नहीं और सिर व धड़ के अलग-अलग हिस्सों में जीवित रहा। सिर का नाम राहु और धड़ का नाम केतु पड़ा। राहु-केतु तभी से चंद्रमा और सूर्य से अपनी शत्रुता मानते हैं और मौका मिलते ही उन्हें ग्रास कर ग्रहण लगाते रहते हैं।

पहले-पहल भारतीय ज्योतिर्विद केवल सात मुख्य ग्रहों को ही मान्यता देते थे लेकिन बाद में इन बिंदुओं को भी ग्रह स्वीकार करके कुल नौ ग्रह मान लिए गए। इनमें दो प्रकाश स्रोत सूर्य और चंद्र, पांच तारा ग्रह मगंल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि तथा दो छाया ग्रह राहु और केतु माने गए। सूर्य और चंद्र कभी वक्री नहीं होते तथा सदैव मार्गी रहते हैं। इसके बिल्कुल विपरीत राहु और केतु सदैव वक्री रहते हैं और कभी मार्गी नहीं होते । शेष सभी ग्रह मार्गी और वक्री होते रहते हैं।

राहु-केतु को पहले-पहल किसी राशि का स्वामित्व नहीं सौंपा गया था लेकिन बाद के ज्योतिर्विदों ने विभिन्न राशियों में इनकी स्थिति का जीव-जगत पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करके इन्हें राशि का आवंटन ही नहीं वरन् नक्षत्रों का भी आवंटन कर दिया। इसके अतिरिक्त इन दोनों ग्रहों को अलग-अलग उनकी उच्च की राशि, नीच की राशि, मूल त्रिकोण राशि और मित्र की राशियों आदि का आवंटन कर दिया गया।

यद्यपि ज्योतिर्विद अभी तक यह विवाद चला रहे हैं कि राहु-केतु की अपनी राशि, मूल त्रिकोण राशि, उच्च की राशि और नीच की राशि कौन-कौन-सी हैं तथापि मानक ज्योतिष ग्रंथों ‘फल दीपिका’, ‘सर्वार्थ चिंतामणि’ और महर्षि पराशर ने राहु की उच्च की राशि वृष, नीच की राशि वृश्चिक तथा केतु की उच्च की राशि वृश्चिक और नीच की राशि वृष बताया है।

इस कारण से इन्हें ही राहु-केतु की उच्च व नीच की राशियों को मान लिया गया। इससे भिन्न विचार रखते विद्वान की राशि मिथुन के 15° तक राहु की उच्च की राशि तथा धनु के 15° तक केतु की उच्च की राशि मानते हैं। राहु और केतु की नीच की राशियां इससे एकदम सातवीं अर्थात् धनु और मिथुन, क्रमशः मानते हैं ।

कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव

जैमिनी सूत्राध्यायी में राहु को कन्या राशि का तथा केतु को मीन राशि का स्वामित्व भी सौंपा गया है । वर्तमान में ज्योतिर्विद राहु और केतु के राशि स्वामित्व, मूल त्रिकोण राशि, उच्च की राशि व नीच की राशि के शास्त्रार्थ में जिस व्यापक सहमति पर पहुंच पाए हैं, वह इस प्रकार हैं :

  • राहु : उच्च की राशि वृष, नीच की राशि वृश्चिक, मूल त्रिकोण राशि कुंभ और स्वराशि कन्या ।
  • केतु : उच्च की राशि वृश्चिक, नीच की राशि वृष, मूल त्रिकोण राशि धनु और स्वराशि मीन ।

राहु और केतु क्योंकि एक ही शरीर के दो अलग-अलग जीवित अंग माने गए हैं अतः उनकी शत्रुता और मैत्री साझा रहती है। राहु और केतु को सूर्य, चंद्र का शत्रु तथा शुक्र व शनि का परम मित्र बताया गया है। मंगल और बृहस्पति के साथ ये दोनों अपने संबंध सामान्य रखते हैं।

कुछ ज्योतिर्विदों का अनुभवसिद्ध मत है कि कई मौकों पर राहु का आचरण बृहस्पति अथवा शनि जैसा ही दार्शनिक होता है जबकि केतु का स्वभाव और प्रकृति काफी हद तक मंगल से मेल खाती है। इसीलिए प्राचीन ज्योतिष विद्वानों ने कई स्थानों में केतु की उपस्थिति मंगल जैसी ही अशुभ प्रभाव देने वाली मानते हैं ।

राहु और केतु का रूप, रंग, प्रकृति और स्वभाव

राहु : लम्बा, धुएं जैसे गहरे स्लेटी रंग का और मलिन ग्रह माना जाता है । उसकी प्रकृति कफ होती है। राहु धूर्त व कुटनी महिलाओं, भौतिकतावादी पुरुषों, निम्न वर्गीय मानसिकता और घर-देश से दूर परदेश यात्रा का शासक, संचालक और कारक माना जाता है। शरीर के अंगों और अवयवों में त्वचा और रक्त में उसका शासन और कारकत्व माना गया है। संबंधियों में यह नाना का और दिशाओं में दक्षिण-पश्चिम का प्रतिनिधित्व करता है।

राहु को भारतीय सनातन ज्योतिष में यवनों का और विजातीय तत्त्वों का प्रतिनिधि ग्रह भी माना गया है। वह शरीर में हैजा, चेचक, कुष्ठ रोग, मलेरिया, प्लेग आदि संक्रामक रोगों, मिर्गी, दाद, खून में जहर फैलना (मवाद) आदि का कारक माना जाता है।

केतु : राहु के समान ही इसे भी लम्बा, धुएं के धब्बों जैसे रंग वाला और मलिन ग्रह ही माना जाता है। कुछ विद्वान इसे पीली रंगत के धुएं जैसे रंग का बताते हैं । यह राहु का ही पूरक है अतः शरीर में संक्रामक महामारियों हैजा, चेचक आदि को फैलाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है। आग, लौ और खानों में भी इसका कारकतत्व चलता है। यह संबंधों में दादी का प्रतिनिधित्व करता है। अन्य सभी मामलों में इसका आचरण राहु के समान ही माना जाता है ।

राहु-केतु का नक्षत्र स्वामित्व

राहु को अरिद्रा (राशि मिथुन), स्वाति (राशि तुला) और शतभिषा (राशि कुंभ ) का स्वामी तथा केतु को अश्विनी (राशि मेष), मघा (राशि सिंह) और मूल (राशि धनु) का स्वामी माना जाता है। राहु के स्वामित्व वाले नक्षत्रों अरिद्रा की राशि मिथुन का स्वामी बुध बुद्धि का, स्वाति की राशि तुला का स्वामी शुक्र मनोरंजन और सुख विलास का तथा शतभिषा की राशि कुंभ का स्वामी शनि महत्त्वाकांक्षा, दुखों और चिंतन का प्रतिनिधि माना जाता है। राहु के गुणधर्मों और प्रकृति में इन ग्रहों के गुणों व प्रकृति का भी कुंडली में उसकी स्थिति के अनुसार प्रभाव रहता है। इसी प्रकार केतु को देखें तो उसके स्वामित्व वाले नक्षत्रों में अश्विनी मेष राशि में पड़ता है जिसका स्वामी मंगल साहस और विध्वंस का प्रतिनिधित्व करता है, मघा सिंह राशि में पड़ता है जिसका स्वामी सूर्य आत्मा का, प्राण ऊर्जा का प्रतिनिधि होता है और मूल धनु राशि का नक्षत्र है, जिसका स्वामी बृहस्पति ज्ञान का प्रतिनिधि होता है। इस प्रकार केतु के गुणधर्म, स्वभाव और प्रकृति में इन तीनों ग्रहों के गुणों की भी झलक कमोबेश दिखाई पड़ती है।

राहु और केतु दोनों को ही स्वभाव से क्रूर, अशुभ अथवा पाप ग्रह माना जाता है लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि भाव-राशि में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार ही यह दोनों शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं। राहु बुध की राशियों मिथुन व कन्या, शुक्र की राशियों वृष और तुला तथा शनि की राशियों मकर व कुंभ में बैठा हो तो भाव स्थिति भी अनुकूल होने पर वह स्वाभाविक शुभ ग्रहों से भी अधिक प्रभावशाली शुभ फल अपनी दशा और अंतरदशा के दौरान प्रदान करता है।

वास्तव में राहु-केतु का अपना कोई घर नहीं होता। वे जिस राशि में बैठे होते हैं उसी के स्वामी ग्रह के अनुकूल आचरण करते हैं अथवा जिस ग्रह के नक्षत्र में वे जन्म के समय संचरण कर रहे हो उसकी प्रकृति और स्वभाव अपना लेते हैं। इसके साथ ही उन ग्रहों का भी प्रभाव राहु-केतु के कामों पर पड़ता है जो उनके साथ बैठे हों अथवा उन पर दृष्टि रखते हों।

अश्विनी नक्षत्र मेष राशि में पड़ता है। मेष का स्वामी मंगल साहसिक ग्रह समझा जाता है। वह उद्दंड और विध्वंसक ग्रह भी माना जाता है। अश्विनी नक्षत्र का स्वामी होने के नाते केतु भी कई मामलों में मंगल की तरह ही व्यवहार करता है। विशेषकर वह मेष अथवा वृश्चिक राशि में हो तो पूरी तरह मंगल के समान ही फल देता है जिसका स्वामी सूर्य केतु का शत्रु है लेकिन केतु सिंह राशि का होकर कुंडली में बैठा हो तो सूर्य के स्वराशि में होने जैसा ही फल देता है। सूर्य आत्मा व प्राण-शक्ति का प्रतिनिधि माना जाता है। मूल नक्षत्र धनु राशि में पड़ता है और केतु यदि इसमें स्थित हो तो उसके स्वभाव में राशि स्वामी बृहस्पति की झलक आ जाती है। बृहस्पति की राशि मीन में भी वह बृहस्पति के समान ही आचरण करता है ।

विभिन्न भावों में राहु-केतु की स्थिति व गोचर के फल

पहला भाव : जन्म कुंडली में राहु लग्न अथवा चंद्र लग्न से पहले भाव में स्थित हो तो जातक दुष्ट प्रवृत्ति का, स्वार्थी, कामुक और अस्वस्थ होता है। वह निर्दयी और कुत्सित प्रवृत्ति का व्यक्ति होता है। उसके प्रति उसके रिश्तेदारों में गलतफहमियां रहती हैं। उसके परिवार में कलहपूर्ण वातावरण रहता है। उस जातक का और उसके परिवार में बच्चों और महिलाओं का स्वास्थ्य भी खराब रहता है। इस भाव में स्थित राहु अपनी दशा अथवा अंतरदशा के दौरान जातक या उसके परिवार के किसी सदस्य की गंभीर बीमारी अथवा मृत्यु का भी कारक बन सकता है । गोचर के दौरान राहु पहले भाव में संचरण के समय आने पर बीमारी, आग से भय, शत्रुता, घर से बाहर दूर की यात्रा, परिवार से अथवा सगे संबंधियों से अलगाव, जेल, कष्ट, संपदा की हानि, बच्चे की मृत्यु, पत्नी/पति की मृत्यु, कामों में रुकावट, प्रयासों में असफलता और खर्चे में बढ़ोत्तरी आदि देता है। अलबत्ता इस भाव में राहु जन्म से रखने वाला जातक अपने जीवनकाल में संपन्न तथा सफल उद्यमी बन जाता है।

केतु यदि लग्न या चंद्र लग्न से पहले भाव में बैठा हो तो जातक को उद्यमशील, लेकिन एक काम पर अधिक देर ध्यान न लगाने वाला और धनी कहा गया है। ऐसे जातक को अपनी चंचल व अस्थिर बुद्धि के कारण केतु की दशा-अंतरदशा के दौरान संपत्ति में हानि, नौकरी गंवाने या पदावनति, कष्टों और खराब स्वास्थ्य का सामना करना पड़ सकता है। गोचर भ्रमण के दौरान केतु लग्न या चंद्र लग्न में आने पर जातक को आग, जहर या हथियार से जान जाने के खतरे, धन की हानि, खांसी, थकावट, कमजोरी, फोड़े-फुंसियां, वरिष्ठजनों से मतभेद, रिश्तेदारों से अलगाव और कामों में रुकावट आदि की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव, kundli men rahu ketu ka prahav

दूसरा भाव : जिस जातक की जन्मकुंडली में राहु लग्न अथवा चंद्र लग्न से दूसरे भाव में बैठा हो तो जातक को देश छोड़कर परदेश चला जाने वाला, कटुभाषी, क्रोधी लेकिन बचत का शौकीन बनाता है। राहु की दशा अथवा अंतरदशा के आने पर ऐसे जातक को धन-संपदा की हानि, नौकरी गंवाने या पदावनति के कारण वित्तीय संकट और मानसिक तनाव का सामना करना पड़ सकता है। वह अस्वस्थ हो सकता है और परिवार के सदस्यों से उसका अलगाव भी हो सकता है।

गोचर भ्रमण के दौरान राहु लग्न/चंद्र लग्न से दूसरे भाव में आने पर जातक को खराब स्वास्थ्य, नौकरी छूटने, सम्पदा का हानि, खर्च बढ़ने से वित्तीय तनाव, शारीरिक कमजोरी, सुख-सुविधाओं से वंचित होने की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जातक को दूसरों से प्राप्त सम्पत्ति भी गंवानी पड़ सकती है। वह किसी दुष्ट की धोखेबाजी का शिकार हो सकता है। उसके परिवार में या संबंधियों में किसी की मौत भी इस दौरान हो सकती है।

केतु, जन्मकुंडली में इस भाव में बैठा हो तो जातक राजभय से त्रस्त रहता है। वह मुख के रोगों से भी ग्रस्त हो सकता है। वह जातक सम्पत्ति गंवा बैठता है । उसे दुर्भाग्य और गरीबी में कष्ट सहते हुए जीवन बिताना पड़ सकता है। उसके साथ व्यर्थ के विवाद और झगड़े भी हो सकते हैं। केतु की दशा और अंतरदशा के दौरान जातक के कष्ट बढ़ सकते हैं।

दूसरे भाव में संचरण के दौरान केतु, जातक को शत्रुओं और ठगों से भयभीत रखता है। जातक को वायु अथवा पित्त विकार इस दौरान परेशान रख सकते हैं। जातक का व्यवहार अनियंत्रित और भाषा कटु हो सकती है। धन की हानि उसी के जरिए हो सकती है। उसका खर्च भी बढ़ सकता है। झगड़ों या मुकदमों में फंसकर वह सरकार की नाराजगी भी मोल ले सकता है।

तीसरा भाव : राहु, लग्न या चंद्र लग्न से तीसरे भाव में बैठा हो तो जातक को योग-साधक, विद्वान, बलवान तथा अपना स्वयं का रोजगार चलाने वाला बनाता है। जातक को राहु की दशा या अंतरदशा के दौरान उसकी सम्पत्ति, आय, मान-सम्मान और प्रसिद्धि बढ़ती है। उसे उच्चपद और सुख-सुविधाएं भी इस दौरान बढ़ती हैं। लेकिन जातक के भाई-बहनों में से किसी को बीमारी या उसकी मृत्यु भी इस दौरान हो सकती है।

गोचर के दौरान राहु, जातक की कुंडली में लग्न/चंद्र लग्न से तीसरे भाव में आने पर उसे सम्पत्ति लाभ, सुख-सम्पन्नता, अच्छा स्वास्थ्य और कामों में सफलता प्रदान करता है। जातक के शत्रु परास्त होते हैं और उसकी प्रसन्नता, अधिकार, पद, सुख-सुविधा और प्रभाव बढ़ा देते हैं।

केतु यदि जन्मकुंडली में तीसरे भाव में बैठा हो तो जातक चंचल वृत्ति का, वायु विकार से ग्रस्त और बेकार के कामों में उलझा रहने वाला होता है लेकिन इस भाव में बैठा केतु तीसरे भाव में बैठे राहु के समान ही शुभफल भी देता है। उसे उद्यमों में सफलता मिलती है । शत्रु उससे परास्त होते हैं और केतु की दशा-अंतरदशा के दौरान उसकी आय और व्यापार बढ़ता है। उसकी प्रसिद्धि, सम्मान और अधिकार बढ़ते हैं। उसे अच्छा पद भी इस अवधि में प्राप्त हो सकता है

गोचर में केतु जब तीसरे भाव में आता है तो अच्छा स्वास्थ्य, अच्छा पद, मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि, संतान से सुख, धन-वृद्धि और सुविधाओं में वृद्धि के साथ-साथ उद्यम या व्यवसाय में सफलता देता है।

चौथा भाव : जन्मकुंडली में लग्न/चंद्र लग्न से चौथे भाव में बैठा राहु, जातक को असंतोषी, दुखी व कपटी बनाता है। ऐसा जातक बहुत कम बोलता है। वह जातक राहु दशा या राहु अंतरदशा की अवधि में पूर्वजों से प्राप्त संपत्ति गंवा बैठता है । उसे निम्नस्तरीय लोगों में उठने-बैठने का शौक होता है और उन्हीं के माध्यम से उसे कुछ आय भी हो जाती है। मित्रों से वह जातक झगड़ बैठता है। यदि वह शिक्षा प्राप्त कर रहा हो तो उसमें रुकावटें आती हैं और उसकी माता का स्वास्थ्य खराब रहता है।

गोचर में राहु चौथे भाव में आने पर संबद्ध जातक को मित्रों, सम्पत्ति और दाम्पत्य से वंचित कर सकता है। वह धूर्ततापूर्ण कार्यों में लिप्त रहता है और ठगों की संगति पसंद करता है। उसे कष्टसाध्य यात्राएं करनी पड़ती हैं। उसके संबंधियों में से किसी की मृत्यु हो सकती है और वह स्वयं भी बीमारी की आशंका से ग्रस्त रहता है। परिवार से अलगाव, मित्रों से अलगाव, कष्ट आदि का सामना उसे इस अवधि में करना पड़ सकता है।

लग्न या चंद्र लग्न से चौथे भाव में जन्म का केतु बैठा हो तो वह जातक को निठल्ला, अनुपयोगी और उत्साहहीन बनाता है। केतु की दशा या अंतरदशा आने पर उसकी माता बीमार हो सकती है या मर सकती है। विद्यार्थी हो तो इस दौरान वह परीक्षा में असफल हो सकता है। घरेलू कलह, विरासत में मिली सम्पत्ति की हानिँ तथा दूर स्थानों की कष्टपूर्ण यात्रा, कष्ट और दुख भी केतु उस जातक को अपनी दशा-अंतरदशा की अवधि में दे सकता है। उसके मित्र उसे धोखा दे जाते हैं ।

गोचर में केतु चौथे भाव (लग्न या चंद्र लग्न से) में आने पर जातक को बुखार, अपच, रक्तविकार, पेचिस, खूनी व पतले दस्त आदि बीमारियां घेर सकती हैं। घर में कलह, मित्रों द्वारा विश्वासघात, दुष्टबुद्धि व्यक्ति से बलात् संसर्ग से हानि, उत्साहहीनता, नाते-रिश्तेदारों से कष्ट और अपमान आदि से भी जातक, केतु की चौथे भाव में गोचर अवधि के दौरान पीड़ित हो सकता है।

पाचवां भाव : जातक के जन्म समय यदि राहु पांचवें भाव में बैठा हो तो जातक को उदर भाग में विकार और पीड़ा देता है। जातक धनहीन हो सकता है। लेकिन उसका कोई काम धन की वजह से नहीं रुकता। राहु अपनी दशा-अंतरदशा .के दौरान जातक को दुष्टतापूर्ण और अपराधी मनोवृत्ति की ओर ले जाता है। जातक में आवारा घूमने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है और वह कुंठित तथा कष्टसाध्य जीवन बिताता है। उसकी सम्पत्ति की हानि हो सकती है। जातक विवाहित हो तो उसकी संतान बीमार हो सकती है या मर सकती है। जातक स्त्री हो तो उसे गर्भपातों की पीड़ा सहन करनी पड़ सकती है।

गोचर में राहु पांचवें भाव में आने पर संतान और सम्पदा की हानि कराता है। जातक का खर्चा बढ़ जाता है। मानसिक रूप से वह उत्तेजित व परेशान रहता है। परिवार से अलगाव हो सकता है और जातक मुकद्दमेबाजी में भी फंस सकता है।

केतु, यदि जन्म समय लग्न/चंद्र लग्न से पाचवें भाव में बैठा हो तो जातक को कुबुद्धि, कपटी और वातरोगी बनाता है। ऐसा केतु अपनी दशा-अंतरदशा की अवधि में संतान के रोगी होने या मर जाने, गर्भपात होने, जातक को उदर भाग में बीमारियां होने और कष्ट आदि की स्थितियां बनाता है। गोचर में केतु यदि पाचवें भाव में आए तो उस दौरान जातक को दुश्मनों, बीमारियों, गुस्से और भय से कष्ट देता है। जातक शारीरिक कमजोरी का शिकार हो जाता है। उसके परिवार से उसका झगड़ा हो जाता है । पुत्र की मृत्यु हो सकती है। इसके अलावा केतु जातक को धनहानि, मानसिक उत्तेजना और परेशानियां, बुखार, जख्म, कुविचार और गुस्सैल व चिड़चिड़ापन देता है। इस दौरान जातक के घर में चोरी भी हो सकती है।

छठवां भाव : लग्न-चंद्र से छठवें भाव में बैठा राहु जातक को शत्रुओं पर, विजय पाने वाला, पराक्रमी और स्वस्थ बनाता है लेकिन जातक कमर के दर्द से परेशान रह सकता है। इस भाव में स्थित राहु अपनी दशा-अंतरदशा आने पर जातक को धन व संपत्ति का लाभ कराता है। जातक इस अवधि में भरपूर सुख व समृद्धि प्राप्त करता है। वह इस अवधि में अपने शत्रुओं को भी परास्त कर डालता है लेकिन जातक का स्वास्थ्य खराब रहता है और उसके शरीर में मुर्दनी-सी छा जाती है। राहु गोचर भ्रमण में जब छठवें भाव में आता है तो वह जातक को अच्छा स्वास्थ्य, शत्रुओं पर विजय, धन, संपन्नता में वृद्धि और पूर्ण समृद्धि दे है।

केतु, जन्म समय लग्न या चंद्र लग्न से छठवें भाव में बैठा हो तो जातक को बहुत कम खर्च करने वाला, झगड़ालू लेकिन सुखी बनाता है। ऐसा केतु अपन M दशा – अंतरदशा की अवधि में जातक को अधिक आय और अधिक धन देता है । उसे अपने कामों में सफलता मिलती है। उसकी प्रसिद्धि और जनप्रियता बढ़ती है। उसे भरपूर सुख व अधिकारों के साथ-साथ ऊंचा पद भी प्राप्त हो जाता है । केतु, गोचर भ्रमण करते समय छठवें भाव में आने पर जातक को अच्छा स्वास्थ्य, शत्रु पर विजय, बुराईयों पर विजय, मुकदमें में जीत, व्यवसाय में सफलता, लाभ, समृद्धि, सम्मान और आय में बढ़ोत्तरी के रूप में शुभ फल प्रदान करता है। इस अवधि में जातक ऐशोआराम के साधनों की खरीद करता है।

सातवां भाव : लग्न/चंद्र लग्न से सातवें भाव में बैठा राहु जातक को दुराचारी, अपराधी मानसिकता वाला, आवारा और पति-पत्नी का नाशक बनाता है। उस जातक का जीवनसाथी या तो गंभीर रूप से बीमार होता है या फिर उसकी मृत्यु हो जाती है। ऐसा जातक पुरुष हो तो विधवाओं और दुश्चरित्र महिलाओं के संसर्ग में आकर अपनी जायदाद लुटा देता है। यदि जातक स्त्री हो तो वह दुश्चरित्र और लम्पट पुरुषों के संसर्ग में आकर अपना घर बरबाद कर लेती है। परिवार से जातक का अलगाव हो जाता है और उसका जीवन दुख व रोग में बीतता है।

राहु यदि गोचर में इस भाव में आए तो कष्टदायक यात्रा, घर निकाला, बीमारी, शारीरिक कमजोरी, जीवन साथी और संतान की मृत्यु अथवा बीमारी अथवा अलगाव का या भागों के विकार आदि से जातक को पीड़ित करता है।

केतु यदि लग्न/चंद्र लग्न से इस भाव में बैठा हो तो जातक को डरपोक, कम अक्ल और सुखहीन बना देता है। उसके जीवनसाथी को या तो कोई गंभीर बीमारी लग जाती है या उसकी मृत्यु हो जाती है। वह जातक निम्नस्तर के दुश्चरित्र व्यक्तियों (स्त्री-पुरुष) से संपर्क बनाकर शारीरिक कमजोरी मोल ले लेता है और धन-संपदा गवां देता है। उसे कामांगों के रोग हो जाते हैं और वह सम्मानहीन और प्रताड़ित जीवन बिताता है ।

केतु यदि गोचर समय इस भाव में आए तो उस अवधि में जातक को नेत्र रोग, उदरशूल, अपच आदि रोगों से पीड़ित करता है। जातक घरेलू कलह, मित्रों से विवाद, मानसिक परेशानी आदि में अपना धन गवां देता है।

आठवां भाव : राहु यदि लग्न या आठवें भाव में स्थित हो तो जातक को उदररोगी, गुप्तरोगी, क्रोधी और व्यर्थभाषी बना देता है। ऐसा व्यक्ति दीर्घजीवी और कल्पनाशील-भावुक भी होता है लेकिन बहुधा उसका चरित्र ठीक नहीं होता । राहु यदि अकेला ही आठवें भाव में हो तो जातक कवि, प्रवाहमयी भाषा लिखने वाला कथाकार अथवा निबंध लेखक भी बन सकता है। इस भाव में राहु की उपस्थिति जातक के जीवनसाथी और संतानों की बीमारी या मृत्यु का कारण बन सकती है। जातक आपराधिक मुकद्दमों में फंसकर दंडित किया जा सकता है। उसके परिवार का वातावरण कलहपूर्ण होता है।

ऐसा जातक अपनी संपत्ति गवां बैठता है और असुखद जीवन बिता सकता है। उपरोक्त घटनाक्रम विशेषरूप से राहु दशा-अंतरदशा में प्रभावी रहता है। गोचर में राहु इस भाव में आने पर जीवनसाथी व संतान से अलगाव, ओछे काम, नुकसान, शोक, भूख, परेशानी, नाते-रिश्तेदारों और नौकरों से मनमुटाव, मुकदमेंबाजी, संतान की मृत्यु, जुआ खेलने की प्रवृत्ति, मक्कार व दुष्ट लोगों की संगति और गंभीर कष्ट व रोग देता है।

केतु, लग्न/चंद्र लग्न से आठवें भाव में हो तो जातक में जीवनशक्ति का अभाव देता है। जातक चालाक होता है लेकिन विपरीत लिंगियों के प्रति द्वेष भावना उसके मन में रहती है। केतु दशा-अंतरदशा काल में जातक का स्वास्थ्य खराब रहता है या उसकी मृत्यु हो जाती है। उस जातक का जीवनसाथी भी या तो बीमार रहता है या मर जाता है। ऐसा जातक गुप्त रोगी, निर्धन, दुखी और कष्टसाध्य जीवन इस काल में जीता है। उसकी संपत्ति नष्ट हो जाती है।

केतु के इस भाव में संचरण करते समय जातक बुखार, रक्त की कमी, रक्त में जहर फैल जाने, मानसिक परेशानी, गंभीर बीमारी और जख्मों के कारण या तो मर सकता है या फिर उसे बहुत कष्टसाध्य जीवन बिताना पड़ता है।

नौवां भाव : लग्न/चंद्र लग्न से नौवें भाव में स्थित राहु जातक को पाखंडी, वातरोगी, दुष्टबुद्धि बनाता है। ऐसा जातक अपने जन्मस्थान से दूर प्रवास करता है। राहु अपनी दशा-अंतरदशा में उस जातक को पितृद्रोही, पारिवारिक संपत्ति का विनाशक बनाता है। वह जातक अपनी स्वयं की कमाई से संपत्ति जुटा लेता है। वह अच्छे पद पर काम करने वाला और प्रसिद्ध लेकिन साथ ही मतलबपरस्त और तोताचश्म होता है। राजनीति में ऐसा जातक सफल रहता है। गोचर में राहु नौवें भाव में आने पर जातक को शत्रुओं से मुकदमा, सजा, बीमारी, कष्टपूर्ण यात्राएं और धन हानि देता है। से यह जातक का अलगाव करा सकता है। जातक को मित्रों किसी के निधन का समाचार इस अवधि में मिल सकता है। जातक को राहु के इस भाव में गोचर काल में; व्यवसाय में असफलता मिल सकती है।

केतु लग्न/चंद्र लग्न से इस भाव में बैठा हो तो जातक के पिता के लिए खतरा होता है। जातक निर्दयतापूर्ण और ओछे काम करता है । उसमें आपराधिक प्रवृत्ति होती है। केतु की दशा-अंतरदशा में जातक के अशुभ कार्यों में विशेष वृद्धि हो सकती है। केतु गोचर में इस भाव में आए तो जातक डरा-डरा रहता है। हथियार से उसके घायल हो जाने का खतरा रहता है। इस अवधि में जातक धन हानि, शारीरिक कमजोरी, पराजय, अपमान, हताशा और कष्टप्रद भटकाव का शिकार हो सकता है।

दसवां भाव : यदि जातक की जन्मकुंडली में राहु, लग्न या चंद्र लग्न या दोनों से दसवें भाव में स्थित हो तो जातक को आरामतलब, कर्म खर्च में गुजारा करने वाला, संतान, मित्रों, संबंधियों से झगड़ने वाला बना सकता है। लेकिन इस भाव राहु की स्थिति को शनि से भी अधिक चमत्कारिक ढंग से जातक को अकूत संपत्ति, प्रसिद्धि, सत्ता और व्यवसायिक सफलता देने वाला माना गया है।

गोचर में दसवें भाव में आने पर राहु नयी नौकरी, धन-हानि, घोटाले, मानहानि तो अवश्य देता है लेकिन साथ-ही-साथ नए सिरे से संपन्नता और कार्य-व्यवसायों के सफलता के द्वार भी खोल देता है। इस दौरान जातक को बस इतना ध्यान रखना होता है कि वह अधीर होकर पाप कार्यों की ओर उन्मुख न हो अन्यथा उसकी बचत भी जा सकती है। केतु यदि जन्म से दसवें भाव में बैठा हो तो जातक को पिता से जलने वाला और हठी बनाता है। ऐसा व्यक्ति अपने पिता से बदला लेने के लिए मूर्खतापूर्ण हरकतें भी कर सकता है। वह दूसरों के बहकावे में बहुत जल्दी आ जाता है। यदि वह सोच-समझकर कार्य करे और धूर्तता को नियंत्रण में रखे तो उसकी संपत्ति और सुख बढ़ते हैं। वह नया और ऊंचा पद पाकर काफी लोकप्रियता व सम्मान अर्जित कर सकता है।

केतु यदि गोचर में इस भाव में आए तो पहले-पहल जातक को अपने कार्यों में असफलता भी देता है। जातक चिड़चिड़ा और दुर्व्यवहारी हो सकता है। वह अस्वस्थ हो सकता है और इस दौरान उसे अपनी संपत्ति की हानि या चोरी का भय भी लगा रह सकता है। उसके दुश्मन इस काल में बढ़ जाते हैं। बाद में अर्थात् राशि की बाद की 15° डिग्रियों में संचरण करते हुए केतु शुभ फल देता है । जातक को नए सिरे से लाभ मिल सकता है और उसकी प्रसिद्धि व यश भी बढ़ते हैं।

ग्यारहवां भाव : यदि किसी जातक की कुंडली में राहु जन्मकाल से ही उसके ग्यारहवां भाव में (लग्न/चंद्र लग्न से) स्थित हो तो उसे परिश्रमी, सेवाभावी और जिम्मेदार व्यक्ति बनाता है लेकिन साथ ही ऐसा व्यक्ति कुमार्ग पर चलने के लिए बहकाया भी जा सकता है। यदि वह सोच-विचार कर चले तो ऐसा राहु उसे प्रसिद्धि, सम्मान, व्यवसाय में सफलता, सुख और संपन्नता भी देता है ।

गोचर में इस भाव में आने पर राहु जातक को संपत्ति और धन का लाभ देता है। विवाहयोग्य आयु हो तो इस दौरान जातक का विवाह हो सकता है और उसे पर्याप्त वैवाहिक सुख मिल सकते हैं। उसे स्थायी नौकरी या रोजगार भी इस काल में मिल सकता है। जातक का यश व प्रसिद्धि बढ़ती है और यदि वह निर्धन हो तो संपत्तिशाली बन सकता है। इस काल में जातक को धैर्यपूर्वक परिश्रम करने भर की ही आवश्यकता होती है।

केतु जन्म से ही लग्न/चंद्र लग्न से ग्यारहवें भाव में बैठा हो तो जातक को परिश्रमी तो बनाता है लेकिन साथ ही अभिमानी और बुद्धिहीन भी बना देता है। जातक सोच-समझकर चले तो केतु उसे जिस काम में वह हाथ डाले उसी में सफलता और लाभ भी दिलाता है। जातक की संपन्नता बढ़ती है लेकिन साथ-ही-साथ वह अपनी पुरानी रंजिशें निकालने की जुगत भी भिड़ाने लगता है। वह यदि अपने काम से ही काम रखे तो उसके दुश्मनों के हौसले वैसे ही पस्त हो जाते हैं। ऐसा केतु जातक को अपनी दशा-अंतरदशा के दौरान हर तरह से मालामाल, सुखी और प्रसिद्ध बना देता है। वह लोकप्रिय भी होता है।

केतु गोचर में इस भाव में आए तो जमीन-जायदाद दिलाता है। जातक का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। उसे धन लाभ व सम्मान मिलता है । वह ऐशोआराम व घरेलू सुख-सुविधाओं की चीजें खरीदता है। उसके घर में शुभ समारोह होते हैं। इस काल में उसे अच्छी संतान भी पैदा हो सकती है। उसका घरेलू वातावरण हंसी-खुशी से भरपूर रहता है।

बारहवां भाव : जन्मकुंडली में राहु लग्न/चंद्र लग्न से बारहवें भाव में बैठा हो तो जातक हर किसी के प्रति मन में शंका रखने वाला, कामी, लम्पट और विवेकहीन होता है। वह मौका मिलते ही किसी को भी चकमा दे सकता है। ऐसा जातक घर-परिवार से अलग होकर निरुद्देश्य भटकने का शौक पाल लेता है। उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। उसके जीवनसाथी और बच्चों का स्वास्थ्य भी दुष्प्रभावित रह सकता है। राहु की दशा-अंतरदशा में जातक की या उसके जीवनसाथी या बच्चों में से किसी को घातक बीमारी या मृत्यु भी हो सकती है। इस काल में उसका घरेलू वातावरण दुखपूर्ण रहता है और उसकी संपत्ति की भी हानि हो सकती है। गोचर में राहु इस भाव में आने पर जातक के जीवन को आपदाओं से भर देता है। एक-के-बाद एक मुसीबतें उस पर आती हैं। स्वास्थ्य खराब रहता है । सगे-संबंधियों में से किसी की मृत्यु से घर में शोक का माहौल रहता है। कष्टपूर्ण यात्राएं करनी पड़ती हैं। संपत्ति का क्षय होता है। बड़े-बुजुर्ग उस जातक से नाराज रहते हैं। इस दौरान वह चारित्रिक रूप से कमजोरी दिखाकर घर में कलह के बीज भी बो सकता है। उसका घर से अलगाव हो सकता है ।

केतु जन्मकुंडली में लग्न/चंद्र लग्न से इस भाव में बैठा हो तो जातक में अतिरिक्त धूर्तता भर देता है। वह न तो किसी के भरोसे लायक रहता है और न ही खुद किसी का विश्वास करता है। केतु अपनी दशा-अंतरदशा के दौरान जातक को दूर-दूर भटकाता है। वह दुखों व गरीबी में जीवन बिताने को मजबूर होता है और कहीं भी जाने पर दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ता। उसकी संपत्ति नष्ट हो जाती है वह आपराधिक कार्यों की ओर उन्मुख हो सकता है और उस पर मुकद्दमे भी इस दौरान चल सकते हैं। ऐसा केतु जातक को लम्पट पुरुषों व धूर्त महिलाओं के चंगुल में भी फंसा सकता है।

गोचर में केतु इस भाव में हो तो जातक को नेत्र रोग, पित्त विकार और मानसिक परेशानियां देता है। वह बहुत जल्दी और मामूली बातों पर उत्तेजित होने लगता है। पति-पत्नी से और मित्रों से अक्सर उसके झगड़े होने लगते हैं। वह लम्पट पुरुषों व दुश्चरित्र महिलाओं के चक्कर में पड़कर मुसीबतों को न्यौता दे सकता है। उस अवधि में जातक की मानहानि होती है और उसे कई प्रकार से भारी नुकसान भी उठाने पड़ सकते हैं।

इस प्रकार देखें तो राहु और केतु अपनी जन्मकुंडली में भाव स्थिति के अनुसार अपनी-अपनी दशाओं – अंतरदशाओं में विशेष असर दिखाते हैं। गोचर काल में जो कि प्रत्येक राशि-भाव में डेढ़-डेढ़ वर्ष का होता है, ये दोनों अपनी दशा-अंतरदशा के प्रभावों से भी अधिक प्रभावी असर दिखा सकते हैं।

उपचय भावों अर्थात् 3, 6, 10, 11 भावों में राहु-केतु की उपस्थिति अशुभ कम और मामूली तथा शुभ अत्यधिक और प्रभावी असर दिखाती है। राहु नौवें भाव में तथा आठवें भाव से भी आंशिक रूप से शुभ असर दिखा सकता है।

दसवें भाव में तो राहु शनि से भी अधिक असरदार हो सकता है और जातक को भौतिक-सुख संपदा से नवाज सकता है। इस भाव में वह आकस्मिक उपलब्धियां कराता है तो आकस्मिक पतन का कारक भी शनि की भांति बन सकता है। आठवें भाव में वह स्थित हो तो जातक को दीर्घजीवन और कल्पनाशीलता प्रदान करता है। विंशोत्तरी दशा पद्धति में राहु लगभग शनि के बराबर, 18 वर्ष की (शनि 19 वर्ष दशा) रखी गई है जबकि केतु की दशा मंगल की दशा के बराबर अर्थात् 7 वर्ष की रखी गई है। यह प्राचीन ज्योतिर्विदों ने राहु के शनि जैसे और केतु के मंगल की भांति आचरण को देखते हुए ही रखी है। विभिन्न भावों और विभिन्न राशियों में राहु-केतु की स्थिति के परिणामों पर उनका कुंडली में अन्य ग्रहों से संगति या दृष्टि से प्रभावित दुष्प्रभावित होने का भी पर्याप्त असर होता है। अतः सभी बातों को विचारने के बाद ही परिणामों के बारे में धारणा निश्चित करनी चाहिए।

बहुधा यह देखा गया है कि विभिन्न राशियों में स्थित होने पर राहु व केतु राशि स्वामी ग्रह के अधिक प्रभाव में आते हैं और ऐसे में वे भाव स्थिति का अधिक ख्याल नहीं करते । गोचर में इन दोनों ग्रहों द्वारा दिए जाने वाले परिणाम कुछ ही काल के लिए होते हैं और अस्थायी माने जा सकते हैं। गोचर काल में ये ग्रह, जन्मकुंडली के आधार पर घटने वाली घटनाओं का समय आगे-पीछे खिसकाने में अवश्य ही समर्थ होते हैं।

कुंडली की सामान्य मजबूती पर भी इन छाया ग्रहों की अच्छी-बुरी भूमिका काफी हद तक निर्भर करती है। उदाहरणस्वरूप राहु सूर्य का घोर शत्रु है और जन्मकुंडली में सूर्य की स्थिति वाली राशि में भ्रमण करते समय राहु को अत्यंत अशुभ फल देने चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है । यदि कुंडली सामान्य रूप से मजबूत है तथा सूर्य (आत्मा) भी उसमें मजबूत, होकर बैठा है तो राहु का उस पर से संचरण संबद्ध जातक को भीषण गरीबी के गर्त में पहुंचाकर दर-दर की भीख मांगने को भी विवश कर सकता है।

सामान्यतः राहु का जन्म के सूर्य पर संचरण संबंधित जातक के जीवन में नया मोड़ लाने वाला होता है। इस काल में जातक का व्यवसाय बदल सकता है, घर बदल सकता है और वह बिल्कुल नए परिवेश में जाकर नए सिरे से बस भी सकता है। यदि कुंडली में सूर्य मजबूत होकर अच्छी जगह बैठा हो तो जातक नए व्यवसाय, नए परिवेश में चमक सकता है और यदि सूर्य कमजोर हो तो राहु का इस पर संचरण उसे उजाड़ देता है और नए परिवेश, नए व्यवसाय में जातक को कोई ठौर-ठिकाना नहीं मिल पाता। इसके विपरीत उसके कैरियर में ठहराव भी आ सकता है और वह इस काम में कुंठा और हताशा का मारा मानसिक रोगी भी बन सकता है।

लग्न और चन्द्र लग्न पर राहु के संचरण के भी कमोवेश इसी प्रकार के प्रभाव होते हैं लेकिन इनका अधिक प्रभाव जातक के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। राहु का संचरण मजबूत और दुष्प्रभावों से मुक्त लग्न पर हो तो राहु उस जातक को बख्शे रखता है और अस्वास्थ्यकर अथवा मारक स्थितियां पैदा न करके उसकी आर्थिक व सामाजिक हैसियत मजबूत करने पर ध्यान लगाता है। दूसरी ओर लग्न कमजोर व दुष्प्रभावित हो तो राहु संबद्ध जातक को गंभीर बीमारी दे सकता है और मारक भी सिद्ध हो सकता है। चंद्र लग्न मजबूत और दुष्प्रभावों से मुक्त हो तो राहु का चंद्र पर संचरण उसे मामूली मानसिक अशांति देकर छोड़ सकता है लेकिन यदि चंद्र लग्न कमजोर हो तो राहु का संचरण संबद्ध जातक की दिमागी मौत का कारण बन सकता है।

केतु का मजबूत सूर्य पर संचरण शुभ फल देने में सहायक होता है जबकि कमजोर सूर्य पर उसका संचरण जातक को पांडु रोग (पीलिया) या कोई संक्रामक बीमारी लगा सकता है। कमजोर लग्न या चंद्र लग्न पर केतु, राहु की अपेक्षा अधिक घातक वार करता है। लेकिन लग्न मजबूत हो तो केतु स्वास्थ्य से अधिक छेड़-छाड़ नहीं करता। चंद्र लग्न मजबूत हो तो केतु जातक को रहस्यमयी शक्तियों का स्वामी अपने संचरण काल में बना सकता है जबकि चंद्र लग्न कमजोर होने पर जातक सनकी, झक्की, हर किसी पर अविश्वास करने वाला, अघोर शक्तियों का पुजारी आदि बन सकता है।

दुर्घटनाओं में राहु-केतु की भूमिका

दुर्घटनाओं के कारक चार ग्रहों मंगल, शनि, राहु और केतु में से राहु की भूमिका प्रमुख और अधिपत्यकारी होती है। चौथा भाव वाहन और आठवां भाव जीवन काल के विषय में प्रतिनिधि समझे जाते हैं। यदि किसी कुंडली में ये दोनों भाव कमजोर और दुष्प्रभावित हों तथा साथ-साथ चौथा और आठवां भाव परस्पर संबद्ध भी हों तो दुर्घटनाएं होने की और उनमें जान जाने की संभावनाएं बहुत अधिक होती हैं। यदि दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार समझे जाने वाले ग्रहों की इन भावों में स्थिति हो अथवा उन ग्रहों की राशियां इन भावों में हों और साथ ही राहु-केतु की स्थिति (विशेषकर चौथे भाव में) हो तो दुर्घटनाएं होने की संभावना सर्वाधिक रहती हैं।

यदि चौथे और आठवें भाव में वायवीय राशियां (मिथुन, तुला व कुंभ) हों तो विमान दुर्घटना, यदि जलीय राशियां (कर्क, वृश्चिक, मीन) हों तो जल यात्रा के दौरान अथवा नदी तालाब में नहाते वक्त या तैरते वक्त डूबने का खतरा, यदि आग्नेय राशियां (वृष, कन्या, मकर) इन भावों में हों तो आग से दुर्घटनाओं का खतरा अधिक होता है। दुर्घटनाओं के योग रखने वाले जातकों में दुर्घटनाओं का प्रबल खतरा राहु अथवा केतु की दशाओं- अंतरदशाओं में होता है।

राहु को आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा करने के लिए भी सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। इसके अलावा सर्पदंश से मृत्यु, इमारत से गिरना, पहाड़ पर चढ़ते समय फिसलकर गिरना, भूस्खलन या मलबे में दबकर मृत्यु, जेल की सजा, देश निकाला, मृत्युदंड और विदेश में भटकाव आदि के लिए भी राहु सर्वाधिक प्रभावशाली कारक समझा जाता है। अपनी दशाओं और अंतरदशाओं के काल में राहु-केतु अक्ष दुर्घटनाओं के प्रबल कारक बन सकते हैं। अन्य अवधियों में इनका असर मुख्य ग्रहों की भूमिका पर निर्भर करता है।

राहु-केतु, स्वास्थ्य और कालसर्प

राहु-केतु के बारे में मानव की जानकारी संभवतः उतनी ही पुरानी है जितनी कि सूर्य और चंद्रमा के बारे में है । इन्हीं छाया ग्रहों का टकराव जब सूर्य और चंद्र से क्रमशः होता है, वह समय सूर्य और चंद्र का ग्रहण माना जाता है। ग्रहण काल को पाचनशक्ति और गर्भ के लिए बुरे प्रभाव डालने वाला भी शुरू से ही माना जाता रहा है और इसी कारण गर्भवती महिला को ग्रहण देखने की मनाही थी और लोग ग्रहण काल में उपवास भी रखते थे ।

राहु-केतु का सूर्य, चंद्र से टकराव पेट पर कुप्रभाव डालता है। यह आज एक वैज्ञानिक तथ्य बन चुका है। आयुर्वेद का मूल मत यह है कि मानव के पेट से ही उसका स्वास्थ्य जुड़ा होता है। यदि पेट ही ठीक न रहे तो शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। प्राचीन ऋषि- मनीषियों ने शारीरिक बीमारियों के अतिरिक्त कई मानसिक बीमारियों और संक्रमणजनित बीमारियों से भी राहु-केतु अक्ष का संबंध जोड़ा है। उदाहरण के लिए राहु वहम, कंपन, कोढ़, ट्यूमर, गर्भ की कमजोरी, विषैले पदार्थों के सेवन से जनित रोग और मृत्यु, आदि के लिए भी जिम्मेदार होता है।

दूसरी ओर केतु को कम रक्तचाप, दुर्घटनाओं (राहु घातक दुर्घटनाओं का और केतु घायल कर देने वाली दुर्घटनाओं का कारक माना जाता है), वहम, पेट के कीड़े, शरीर के जख्मों में कीड़े पड़ना, सिर में जूं आदि पड़ना और संक्रामक रोगों के कीटाणु शरीर में फैलाने के लिए जिम्मेदार कहा गया है। विभिन्न भावों में राहु-केतु के स्वास्थ्य पर प्रभावों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्न प्रकार है :

1. राहु लग्न में, केतु सातवें में : हीनता का भय, उपेक्षा का भय, विकलांगता, कुंठा, पेप्टिक अल्सर, मेलनकोलिया, हताशा और यहां तक कि हिस्टीरिया से भी इस योग को कुंडली में रखने वाला जातक प्रभावित हो सकता है। वस्तुतः इनमें से अधिकांश बीमारियां काम भावनाओं का दमन करने के कारण होती हैं। इस योग वाले अधिकांश जातक साहसहीन होते हैं और बहुधा यौन – अतृप्त रहते हैं। यदि इन भावों में पूर्णकाल सर्प बनता हो अर्थात शेष सभी ग्रह राहु और केतु अक्ष में ही समाए हों अर्थात् 2 से 6 भावों में अथवा 8 से 12वें भावों के बीच हों तो ऐसे जातक को अपनी आयु के 7, 13, 18, 26, 38, 45 और 60वें वर्ष में भीषण कष्ट होता है और इसी कष्ट में उसकी मृत्यु हो सकती है।

2. दूसरा- आठवां भाव : राहु-केतु अक्ष को अपने दूसरे आठवें भाव में रखने वाला जातक दुर्घटनाओं के लिए आसान शिकार होता है और उसे लम्बे समय तक अस्पताल के बिस्तर पर पड़े रहना पड़ सकता है। वह बहुत जल्दी गुस्से में आता है और गुस्से और घबराहट में उसका शरीर हवा में हिलते पत्ते की तरह कांपता है। उसका शरीर जख्मों से भरा होता है और कम उम्र में ही उसे रक्तचाप की शिकायत हो सकती है। संक्रामक रोगों, हीनताजन्य रोग, यौन अक्षमता, शरीर के असामान्य रूप से ठंडा रहने और अक्सर दर्द के साथ उच्च ताप वाला ज्वर होने आदि की भी उसे शिकायत रहती है। सबसे ऊपर वह व्यक्ति अत्यंत अभद्र भाषा बोलता है। यदि राहु-केतु अक्ष पर बृहस्पति का संगति या दृष्टि प्रभाव हो तो यह योग निष्प्रभावी हो जाता है अन्यथा बुरे फल देता है। यदि सभी ग्रह 2-8 या 8-2 के बीच हों तो पूर्णकाल सर्प योग बनता है जातक की मृत्यु बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में 10, 15, 20, 23, 42, 53 या 59वें वर्ष में हो सकती है।

3. तीसरा-नौवां भाव : राहु तीसरे और केतु नौवें भाव में बैठा हो तो जातक अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह और तले हुए गरिष्ठ भोजन को पसंद करने वाला होता है। ऐसा जातक रक्तचाप का मरीज बन जाता है। उसके परिवार वाले और नाते-रिश्तेदार उसे पसंद नहीं करते और तनावजनित मानसिक बीमारी भी दे सकते हैं। ऐसे व्यक्ति को आवारगी का भी शौक होता है। वह अचानक ही बीमार पड़ता है और पूरा घर सिर पर उठा लेता है। वह शान-शौकत और दिखावे का शौकीन होता है। यदि इन भावों के बीच अन्य सभी ग्रहों के स्थित होने से ‘कालसर्प’ बनता है तो ऐसे व्यक्ति की आकस्मिक रूप से मृत्यु हो जाती है जैसे कोई मशीन चलते-चलते एकदम रुक जाएं। जातक के स्वास्थ्य के लिए 11 वां, 18 वां, 25 वां, 31 वां 40 वां, 47 वां, 50 वां और 60वां वर्ष संवेदनशील होता है।

4. चौथा-दसवां भाव : राहु चौथे भाव में और केतु दसवें भाव में हो तो जातक जल्दी आवेश में आने वाला और बाद में पछताने वाला होता है। वह घुमक्कड़ भी होता है। उसे खांसी, बुखार, ठंड से होने वाले अन्य रोग हो सकते हैं। वह मौका चूकने से भी पछताता है और इसका उस पर मानसिक असर पड़ता है। ऐसा जातक धूम्रपान व अन्य नशों का लती होता है। पूर्ण कालसर्प बनता हो तो जातक की घर से दूर दुर्दशापूर्ण मृत्यु हो सकती है। उस जातक के लिए तीसरा, दसवां, अठारहवां, इक्कीसवां, इकत्तीसवां, इकतालीसवां और उनसठवें वर्ष स्वास्थ्य और परिस्थितियों की दृष्टि से बहुत खराब रहते हैं ।

5. पांचवा ग्यारहवां भाव : राहु पांचवें भाव में और केतु ग्यारहवें भाव में हो तो जातक जल्दी आवेश में आने वाला और बाद में पछताने वाला होता है। वह अक्सर उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहता है। जातक अपने स्वास्थ्य के प्रति जरूरत से ज्यादा चिंतित और घबराया हुआ रहता है। उसे वहम, पेप्टिक अल्सर, अपच, अति अम्लीयता, गैस आदि की शिकायत होती है। पांचवें भाव में राहु गर्भपात करा सकता है। जातक के सिर के बाल कमजोर होते हैं और बीच से फट जाते हैं। ऐसा जातक संतानहीन भी रह सकता है। आमतौर पर ऐसे जातक शांति से मर जाते हैं। पूर्ण कालसर्प योग हो तो छह महीने की उम्र, डेढ़ वर्ष की उम्र, 18, 20, 30, 40 और 60 वर्ष की उम्र संवेदनशील मानी जा सकती है ।

6. छठवां-बारहवां भाव : राहु छठवें और केतु बारहवें भाव में हो तो जातक अपने स्वास्थ्य का अच्छा ख्याल रखता है। आहार पर खास ध्यान देने के कारण उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है। फिर भी उसे माइग्रेन, आंखों व कानों की बीमारियां आदि हो सकती हैं। यदि पूर्ण कालसर्प बने तो उसे कुण्ठ या त्वचा संबंधी रोग भी हो सकते हैं। ऐसे जातक के लिए आयु का 5वां, 10वां, 13वां, 20वां, 29वां, 35वां, 49 वां, 53वां और 60वां वर्ष संवेदनशील माना जा सकता है।

7. सातवां पहला भाव : राहु सातवें और केतु पहले भाव में हो तो जातक लापरवाह • और विद्रोही स्वभाव का होता है। वह आवारगी का शौकीन होता है। वह जल्दी ही बहकावे में आ जाता है और अपना-हित-अनहित भी नहीं देखता, फिर भी वह स्वास्थ्य के प्रति अधिक चिंतित रहता है, लेकिन अक्सर हादसों में अपनी हड्डियां तुड़वाता रहता है। पूर्ण कालसर्प योग कुंडली में हो तो जातक 1, 3, 8, 18, 25, 30, 37, 42, 49, 50 और 60वें वर्ष में घातक दुर्घटना का शिकार हो सकता है।

8. आठवां-दूसरा भाव : राहु आठवें भाव में और केतु दूसरे भाव में हो तो जातक उदर रोगी होता है। घरेलू कलह और धन का अभाव उसे अक्सर चिंतित रखता है। ऐसा जातक यौन रोगी भी हो सकता है क्योंकि अक्सर वह यौन तृप्ति के लिए विकल्पों की खोज में रहता है। यदि पूर्ण कालसर्प बनता हो तो जातक हृदय रोग या धमनी रोग से मर सकता है। जातक की उम्र का 12, 18, 24, 30, 36, 42, 51 व 58वां वर्ष संवेदनशील होता है।

9. नौवां-तीसरा भाव : राहु नौवें और केतु तीसरे भाव में हो तो जातक संक्रामक रोगों, उच्च रक्तचाप और लकवे से पीड़ित हो सकता है। यदि कुंडली में पूर्ण काल सर्प भी बनता हो तो 4, 10, 18, 22, 28, 32, 40, 48, 55 और 60वें वर्ष में जातक का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। उसका पूरा शरीर लकवे से ग्रस्त होकर बाकी जिंदगी अभिशाप की तरह गुजारनी पड़ सकती है।

10. दसवां-चौथा भाव : राहु दसवें और केतु चौथे भाव में हो तो जातक अपच का भीषण रोगी होता है और कभी भी अच्छे भोजन का आनंद नहीं ले पाता उसे मिरगी के दौरे भी पड़ सकते हैं। उसे चोट लगने से उसकी हड्डियां टूट सकती हैं। उसे कम रक्त दबाव की शिकायत भी रह सकती है। वह काम में बहुत जल्दी थक जाता है। जातक के लिए संवेदनशील वर्ष 1, 5, 13, 19, 35, 40 और 50वां होते हैं। पूर्ण कालसर्प योग हो तो जातक को दिल का दौरा भी पड़ सकता है।

11. ग्यारहवां-पांचवां भाव : राहु ग्यारहवें और केतु पांचवें भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति अपने शरीर की सफाई पर अधिक ध्यान नहीं देते। उन्हें फफूंदी (फंगस) से फैलने वाले त्वचा रोग जैसे दाद, एक्जीमा होने की संभावना अधिक रहती है। वे अक्सर सिर दर्द और अपच के शिकार भी होते रहते हैं। पेचिश और दस्त आदि रोग तो जैसे उनके शरीर में बस ही जाते हैं। पूर्ण कालसर्प योग कुंडली में हो तो उनकी मृत्यु जेल में हो सकती है। उनके जीवन का 2, 6, 10, 18, 24, 32, 38, 44, 50 व 58वां वर्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से संवेदनशील माना जा सकता है ।

12. बारहवां-छठवां भाव : राहु बारहवें भाव में और केतु छठवें भाव में हो तो जातक पुराना स्थान, माहौल, नाते-रिश्ते, व्यवसाय आदि सभी से उखड़कर नए माहौल की और नए व्यवसाय की तलाश में जुटता है। वह कई क्षेत्रों में चमक सकता है लेकिन अक्सर भरोसेमंद नहीं होता। आमतौर पर वह पुराना मरीज होता है और कीड़ों के काटने आदि से फैलने वाले रोगों जैसे मलेरिया, फाइलेरिया आदि से पीड़ित हो सकता है। वह शराब पीने का आदी होने के कारण अपना जिगर भी खराब कर लेता है। उसके लिए संवेदनशील वर्ष 3, 8, 13, 19, 33, 40, 58 और 62वें होते हैं।

राहु 3, 6, 10, 11 भावों में स्थान बली होने के कारण तथा वृष, मिथुन, कर्क, कन्या में राशि बली होने के कारण शुभ प्रभाव देता है। केतु भी 3, 6, 10, 11 भावों में होने पर शुभ फल देता है और वृश्चिक, धनु, मकर में होने पर अच्छे फल देता है। मीन में यद्यपि केतु अपनी स्थिति होने पर अच्छे फल देता है लेकिन मीन राशि लग्न में हो तो उसमें स्थित होने पर भी केतु अशुभ फल ही देता देखा गया है। मीन लग्न वाले जातकों को केतु अपनी दशा-अंतरदशा के दौरान बहुत ही बुरे फल देता है। ऐसा क्यों होता है, इस बारे में ज्योतिषविद् अभी तक किसी सर्वसम्मत नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं।

वस्तुतः राहु और केतु कुंडली में संदेशवाहक मात्र होते हैं और वे भिन्न-भिन्न भावों-राशियों और दशाओं-अंतरदशाओं से सौरमंडल के अन्य ग्रहों से प्राप्त संकेतों और संदेशों को ही पहुंचाते हैं और उन्हीं ग्रहों के आदेशों का पालन करते हैं ।

राहु-केतु के कुछ योग

1. अष्टम राहु : यदि राहु आठवें भाव में अकेला बैठा हो तो जातक को दीर्घ जीवी और कल्पनाशील बनाता है ।

2. चंद्र-राहु सैक्सटाइल : यदि राहु चंद्र से तीसरे भाव में हो तो राहु दशा में शुक्र का अंतर आने पर जातक को ऐशोआराम के साधन और आय देता है। जातक को उसकी कल्पना से भी अधिक समृद्धि प्राप्त होती है।

3. कालसर्प : यह दुर्योग कुंडली में सभी प्रमुख सातों ग्रहों के राहु और केतु के बींच के भावों में (उदर में) स्थित होने से बनता है। यह जातक को पानी में डूबने, विषैले जीव जंतु के काटने अथवा विषाक्त पदार्थ खाने से मृत्यु का संकेत देता है।

4. चंद्र-केतु : यह योग चंद्र व केतु के साथ कुंडली में स्थित होने पर बनता है । यह जातक को दूसरों के गूढ़ रहस्यों को जानने की अदभुत शक्ति देता है।

राहु अनिष्ट निवारण

राहु के अनिष्टकारी प्रभावों के निवारण के लिए गोमेद जड़ित अंगूठी पहनना लाभदायक रहता है। अंगूठी पंचधातु या लोहे से बनवाई जानी चाहिए जिसमें गोमेद वजन 4 रत्ती या उससे अधिक और धातु का वजन 7 रत्ती का होना चाहिए । इसे विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान कराकर आर्द्रा, शटिभिषा अथवा स्वाति नक्षत्रों के काल में धारण किया जाना चाहिए।

राहु का लघु मंत्र : ॐ रां राहुवे नमः (जप 18000)

तंत्रोक्त मंत्र: ॐ भ्रां भ्रौं सः राहुवे नमः (जप 18000)

गोमेद न मिले तो तुरसावा या साफी पत्थर जड़वा कर पहनें।

केतु अनिष्ट निवारण

केतु के अनिष्टकारी प्रभावों के निवारण के लिए लहसुनिया या उसके उपरत्न-फिरोजा, लसनवी, गोदंति, गोदंता आदि का कम-से-कम 4 रत्ती का नग 7 रत्ती धातु की पंचधातु अंगूठी में जड़वाकर अश्विनी, मघा या मूल नक्षत्रों के उदयकाल में विधिवत् पूजा व प्राण-प्रतिष्ठा कराकर पहनना चाहिए।

केतु का लघु मंत्र : ॐ कं केतुवे नमः (जप 17000)


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