कुंडली में चंद्र का प्रभाव
भारतीय सनातन ज्योतिष मूल रूप में चंद्र आधारित है। सौरमंडल के सभी ग्रहों की अपेक्षा चंद्र का आकार बहुत छोटा है। यह ग्रह (उपग्रह) सौरमंडल में पृथ्वी के सबसे निकट (केवल 2,37,84,000 मील की दूरी) स्थित है। चंद्रमा सूर्य की परिक्रमा के साथ-साथ पृथ्वी की भी परिक्रमा करता है। पृथ्वी के विभिन्न संरचना तत्त्वों और उसकी जीवित- अजीवित वस्तुओं-पदार्थों पर इसका प्रभाव सर्वाधिक पड़ता है। संभवतः इसी कारण भारतीय ज्योतिष विज्ञान को चंद्र आधारित बनाया गया है।
सूर्य एक वर्ष में जितना मार्ग अपने संचरण में तय करता है, उसे चंद्रमा मात्र 27.32 दिन (28 दिन लगभग) में तय कर लेता है। यह औसतन 2180 मील प्रति घंटे की गति से राशियों में संचरण करते हुए 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट 11 सेकड में पूरे सौरमंडल की परिक्रमा कर लेता है। इस प्रकार चंद्रमा एक राशि (30°) की दूरी मात्र 2 दिन (लगभग) में तय कर लेता है।
चंद्रमा जब सूर्य से 180° की दूरी पर होता है तो पृथ्वी के आकाश में पूर्ण चंद्रमा उदित होता है। इस दिन को पूर्णिमा कहा जाता है। इसके विपरीत जब चंद्र उसी राशि में संचरण करता है जिसमें सूर्य भी संचरण कर रहा हो तो उस दिन पृथ्वी के आकाश में चंद्रमा उदित ही नहीं होता। इस दिन को अमावस्या कहा जाता है। प्रत्येक महीने में इस प्रकार बारी-बारी से अमावस्या और पूर्णिमा आती रहती हैं।
अमावस्या वाले पखवाड़े में चंद्रमा दिन पर दिन घटता चला जाता है और ठीक अमावस्या वाले दिन पूरी तरह ओझल हो जाता है। इस पखवाड़े को कृष्ण पक्ष अर्थात् घटते चंद्रमा का पखवाड़ा कहा जाता है। कृष्ण पक्षीय चंद्र को अशुभ या पाप ग्रह माना जाता है। पूर्णिमा वाले पखवाड़े में चंद्र का आकार दिन-पर-दिन बढ़ता चला जाता है और ठीक पूर्णिमा वाले दिन वह अपने पूर्ण गोलाकार में पृथ्वी के आकाश पर अपनी शीतलता प्रदान करने वाली चांदनी छिटकाता हुआ नजर आता है। बढ़ते चंद्र को भारतीय ज्योतिष विज्ञान में शुभ अथवा पुण्य ग्रह के रूप में मान्यता दी गई है।
ज्योतिष विज्ञान में चंद्र को इतनी अधिक मान्यता दी गई है कि जातक के जन्म के समय चंद्र जिस राशि में संचरण कर रहा हो, उसी को जातक का लग्न मानकर फल-कथन किया जाता रहा है। इस लग्न को चंद्र लग्न या राशि लग्न भी कहा जाता है।
मानव का जीवनचक्र मुख्यतः चंद्र द्वारा ही संचालित होता है। जन्म के समय चंद्र जिस राशि में जितने अंशों, कलाओं, विकलाओं पर होता है, उसी के अनुसार जातक की शारीरिक व मानसिक संरचना और उनके स्वास्थ्य का निर्धारण होता है। चंद्र के रेखांशों के आधार पर ही जातक का जन्म नक्षत्र और उसके जीवन में दशा-मुक्ति की अवधियों और क्रम को भी तय किया जाता है। इन्हीं दशा-मुक्तियों के अनुसार ही जातक के जीवन में घटने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं और उनकी समयावधियों को जाना जा सकता है। चंद्र जिस राशि में जन्म के समय होता है, उसी राशि के लिए नियत अक्षरों को जातक के नाम का पहला अक्षर बनाने की परम्परा भारत में रही है ।
भारतीय ज्योर्तिविज्ञान में चंद्र की महत्ता निम्न श्लोक से जानी जा सकती है। इसमें चंद्र की स्तुति की गई है।
दधि शङ्ख तुषाराभम् क्षीरार्णव समुद्भवम् ।
नमामि शशिनम् सोमम् शंभोर्मुकुट भूषणम् ।।
चंद्र को जलीय ग्रह माना जाता है। जल की तरह ही यह अच्छा और बुरा दोनों प्रकार के परिणाम देने में अति सक्षम होता है। यह कर्क राशि का स्वामी है जो कि चर (गतिशील) और जलीय राशि होती है। कर्क लग्न या कर्क राशि में जन्म लेने वाले जातक चंद्र की प्रकृति, स्वभाव और गुणावगुणों से ओत-प्रोत होते हैं। ऐसे जातक स्थिर मूड के नहीं होते और उनके मूड की तरह ही उनका भाग्य भी उतार-चढ़ावों से भरपूर रहता है। यह बिल्कुल चंद्रमा की तरह ही घटता-बढ़ता रहता है। चंद्र की उच्च राशि वृष और नीच की राशि वृश्चिक (जलीय) मानी जाती है। चंद्र की मूल त्रिकोण राशि भी वृष को ही माना जाता है।
चंद्र हमारी दिनचर्या, हमारी चित्तवृत्ति, व्यवहार और प्रकृत्ति का नियंत्रक व मुख्य संचालक होता है। चंद्रमा बच्चों में जीवन की अवधि, महिलाओं में मासिकस्राव चक्र आदि का मुख्य नियंता और नियंत्रक होता है।
विवाह, महत्त्वपूर्ण उद्यमों की शुरुआत, लम्बी यात्राएं, त्यौहार व पर्व, व्रत, धार्मिक अनुष्ठानों आदि सभी का निर्धारण चंद्र के शुभ नक्षत्रों में संचरण की अवधि के अनुसार ही किया जाता है । चंद्र के पृथ्वी पर पड़ने वाले महत्त्वपूर्ण प्रभावों के प्रमाणों के रूप में निम्न उदाहरणों का कोई भी अवलोकन और विश्लेषण कर सकता है :
1. समुद्र में ज्वार-भाटा चंद्र के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव उतार-चढ़ाव से प्रत्यक्ष रूप में जुड़कर चलता है।
2. मछलियां शुक्ल पक्ष (बढ़ते चंद्र का पखवाड़ा) में ही अंडे देती हैं।
3. पेड़-पौधे कृष्ण पक्ष की अपेक्षा शुक्ल पक्ष में तेजी से बढ़ते हैं। इसी कारण किसान बीजों की बुआई से पहले पंडित से सुझवाकर उचित मुहुर्त का निर्धारण करते रहे हैं और करते हैं।
4.शुक्ल पक्ष (बढ़ते चंद्र का पखवाड़ा) में पुरुषों की दाढ़ी के बाल, कृष्ण पक्ष की अपेक्षा डेढ़ गुना तेजी से बढ़ते हैं।
कुंडली में चंद्र का प्रभाव
चंद्रमा को मानव मन और मातृत्व भावना का भी नियंता और संचालक माना जाता है। माता सभी स्त्रियोचित गुणों का प्रतीक मानी जाती है। वह वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है। उसी प्रकार चंद्र भी सभी से माता के समान वात्सल्यपूर्ण व्यवहार ही करता है। वह किसी के भी प्रति शत्रुभाव नहीं रखता।
जिन जातकों की जन्मकुंडलियों में चंद्रमा शुभ, दुष्प्रभावों से मुक्त और बली होकर बैठा होता है, उनमें दिमाग से अधिक दिल से काम लेने की प्रवृत्ति स्पष्ट झलकती है। वे सरल, विनम्र, निष्छल होते हैं। वे दिमाग के बजाए आत्मा की आवाज ही अधिक सुनते हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत गहरा ध्यान लगा सकता है।
चंद्र इच्छाओं और भावनाओं का संचालक व नियंत्रक भी होता है अतः जिस जातक की जन्मकुंडली में चंद्र जिस भाव में तथा जिस राशि में स्थित होता है, उसी के अनुसार वह जातक की मनोवृत्ति और भावनाओं को ढाल देता है ।
उदाहरण के लिए यदि चंद्र किसी जातक की कुंडली में जन्म लग्न (प्रथम भाव) में स्थित हो तो वह अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक सचेत रहता है। दूसरे भाव में चंद्रमा हो तो जातक का लगाव उसके अपने परिवार, अपने संबंधियों से बड़ा गहरा – और भावनात्मक रहता है। ऐसा जातक धन की बचत के लिए भी असामान्य रुप से चिंतित रहता है।
चंद्र का शासन व कारकत्व
भारतीय ज्योतिर्विज्ञान में चंद्र को स्त्री माना गया है। इसे जन्म लग्न कुंडली के चौथे भाव का कारकत्व सौंपा गया है। चंद्र व्यक्ति के मन पर राज करता है। यह शीतल प्रकृति का ग्रह जल तत्त्व का प्रतिनिधि माना जाता है ।
यह कुंडली के जिस भाव में स्थित होता है, उससे सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। यह ग्रह वृषभ राशि में 3° तक उच्च का होकर तथा 4° से 30° तक मूल त्रिकोण का होकर रहता है। वृश्चिक राशि के प्रारंभिक 3° तक चंद्रमा की स्थिति नीच की राशि में (अस्त स्थिति में) मानी जाती है। कर्क राशि उसकी स्वराशि होती है।
सूर्य और बुध को चंद्र का मित्र ग्रह माना जाता है जबकि वास्तविक ग्रहों में उसका शत्रु कोई नहीं होता। चंद्र के प्रति तटस्थ भाव रखने वाले ग्रहों में मंगल, शुक्र, बृहस्पति व शनि को माना जाता है। छाया ग्रहों की श्रेणी में रखा जाता है। कुछ विद्वान बृहस्पति व शनि को चंद्र का शत्रु भी मानते हैं
पेचिश, श्वास रोग, दमा, खांसी, लकवा, त्वचा संबंधी रोग आदि को होने से रोकता है। वह गर्भधारण और संतानोत्पत्ति के समय होने वाली प्रसव पीडा को सुगम व सहन करने योग्य भी बनाता है।
इसके विपरीत यदि चंद्र अशुभ (कृष्ण पक्षीय घटता चंद्र), दुष्प्रभावित और क्षीण बल का होकर कुंडली मे बैठा हो तो उपरोक्त सभी व्याधियों और रोगों की उत्पत्ति में अपनी भाव स्थिति के अनुसार सहायक हो सकता है। अशुभ और दुष्प्रभावित चंद्र गर्भधारण और प्रसव दोनों ही के लिए विकट समस्याएं भी खड़ी कर सकता है।
‘जातक पारिजात’ के अनुसार चंद्र वात और कफ दोनों ही प्रकृतियों का स्वामी होता है। चंद्र छरहरा, मधुरवाणी वाला, सुंदर आंखों वाला और चंचल वृत्ति वाला ग्रह है। चंद्र मातृशक्ति पार्वती का उपासक है।
चंद्र को शरीर के जिन अंगों अथवा अवयवों और शारीरिक क्रियाओं का नियंत्रक, कारक व संचालक माना जाता है, उनमें धमनियां, स्नायुतंत्र, मन (मस्तिष्क का एक भाग जहां से वृत्तियों का संचालन होता है), उदर, गर्भाशय, मूत्राशय, स्तन, डिम्बाशय तथा संतानोत्पत्ति सहायक अंग व क्रियाएं और वसा (चर्बी) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त चंद्र बुद्धि, हृदय, शारीरिक ऊर्जा क्षमता, हृदय और उसके कार्य-कलाप, रक्त की सांद्रता (गाढ़ापन) आदि का भी कारक, नियंत्रक व संचालक होता है।
चंद्र सफेद रंग और जलीय पदार्थों का भी प्रतिनिधित्व और संचालन, नियंत्रण व शासन करता है। इनमें वर्षा जल, झील, समुद्र, दूध व उसके उत्पाद, कपास व सूती वस्त्र, जल तत्त्व की प्रचुर मात्रा वाली शाक-भाजियां, चावल, गेहूं, जौ, गन्ना, मीठे स्वाद वाले खाद्य पदार्थ, औषधियां औषधीय रस व मृदु अम्ल, अल्कोहल आदि तथा अन्य उपभोक्ता धातु व रत्न जैसे मोती, चांदी आदि शामिल हैं
वह युवा महिलाओं, ख्याति व सम्मान प्राप्त व्यक्तियों तथा कृषि शास्त्रियों व बीजारोपण के बाद फसल के अंकुरण व पोषण का भी नियंत्रक, कारक व संचालक होता है। दिशाओं में चंद्र उत्तर-पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है ।
राशियों और भावों में चंद्र की स्थिति
विभिन्न राशियों और विभिन्न भावों में चंद्र अपनी स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न फल प्रदान करता है। इन फलों को सामान्य कथन ही माना जाता है और प्रत्येक राशि और प्रत्येक भाव में चंद्र के बल, कुंडली में उसकी अथवा अशुभ ग्रह (शुक्ल पक्षीय चंद्र शुभ फल देने वाला तथा कृष्ण पक्षीय चंद्र अशुभ फल देने वाला ग्रह माना जाता है) के रूप में स्थिति, उस पर पड़ने वाले विभिन्न ग्रहों के शुभाशुभ प्रभावों का आंकलन करके इन फलों को संशोधित किया जाता है। इसके साथ-ही-साथ गोचर प्रभावों और विभिन्न ग्रहों की दशा भुक्तियों के अनुसार भी इन फल-कथनों को संशोधित किया जाता है।
विभिन्न तत्त्वप्रधान राशियों में चंद्र की स्थिति
आग्नेय राशियों मेष, सिंह व धनु में चंद्र की स्थिति हो तो जातक सक्रिय, ऊर्जावान सतत प्रयत्नशील, धुनी और आदर्शवादी विचारों वाला होता है ।
स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक व कुंभ में चंद्र बैठा हो तो वह जातक को दृढ़ विचारों वाला, ध्यान लगाकर काम करने वाला तथा चीजों को संभालकर हिफाजत से रखने व मितव्ययता के गुण से भरपूर बना देता है ।
वायवीय राशियों मिथुन, तुला व कुंभ में चंद्रमा की स्थिति जातक को बुद्धिमान बनाती है। वह पटरी बैठाकर चलने वाला, युक्तिपूर्वक काम निकालने वाला और सोच-समझकर चलने वाला व्यक्ति होता है ।
स्वराशि और जलीय राशि कर्क तथा मीन में चंद्रमा की स्थिति मानक ज्योतिष ग्रंथों में राजयोग कारक तथा भाग्य वृद्धि कारक बताई गई है। इसी प्रकार कन्या राशि में चंद्र की स्थिति यद्यपि स्वास्थ्य के प्रति चिंतित करती है तथापि अनुकूल योगों में चंद्र इस राशि में हो तो जातक को धनी बना सकता है। मकर राशि में चंद्र की उपस्थिति अशुभ मानी गई है।
प्रत्येक राशि में चंद्र की स्थिति कुछ विशिष्ट अंशों पर विभिन्न शारीरिक व मानसिक व्याधियां उत्पन्न करने वाली कही गई है। चंद्र की स्थिति के लिए संवेदनशील राशि अंश निम्न प्रकार हैं :
मेष – 26° वृष– 12°
कर्क 25° मिथुन- 13°
सिंह – 24° तुला – 26°
धनु– 13° कुंभ – 5°
कन्या – 11° वृश्चिक– 14°
मकर – 25° मीन- 12°
बारह भावों में चंद्र की स्थिति के फल
प्रथम भाव : यह भाव लग्न भाव भी कहलाता है। यदि किसी जातक की कुंडली में शुक्ल पक्षीय चंद्रमा स्थित हो तो वह अपने बल, राशि स्थिति और अन्य ग्रहों के उस पर पड़ने वाले संगत या दृष्टिकारक प्रभाव के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जातक को निम्नानुसार फल प्रदान करता हैं।
घर-परिवार में प्रसन्नता व सुख का वातावरण बना रहता है। शुभ समारोहों का आयोजन होता है। धन-संपदा जुटाने में चंद्र जातक को भरपूर मदद करता है। जातक अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहता है। ऐसा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को सुदर्शन व हंसमुख बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। वह अध्यवसायी और स्फूर्तिवान होता है ।
इसके विपरीत यदि कृष्ण पक्षीय घटना चंद्र लग्न भाव में स्थित हो तो जातक की घरेलू सुख-शांति में बाधा आ सकती है। ऐसा जातक मानसिक रूप से चिंतित व दुखी रहता है। उसका स्वास्थ्य भी खराब रहता है और उसे मूत्र मार्ग में रुकावट, नेत्र विकार आदि होने की संभावना रहती है। धन संपदा के मामले में भी जातक को यदा-कदा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
दूसरा भाव : यदि शुक्ल पक्षीय चंद्र जातक की कुंडली के दूसरे भाव में हो तो वह सुंदर व्यक्तित्व का स्वामी और सभी प्रकार के सांसारिक सुखों का भोग करने वाला होता है। वह परिवारजनों (विशेषकर माता-पिता) का प्यारा-दुलारा होता
है और उनसे गहरा लगाव रखता है। ऐसा जातक प्रयत्नपूर्वक अपनी आय बढ़ाता है और बचत करके धन व संपदा जोड़ने की फिराक में लगा रहता है। वह प्रतिष्ठित व सज्जन लोगों में ही मेलजोल व उठना-बैठना पसंद करता है। वह ज्ञानपिपासु होता है और हर नई चीज के बारे में जानकारी प्राप्त करने को सदैव उत्सुक रहता है । वह विपरीत लिंगियों में लोकप्रिय होता है।
इसके विपरीत यदि घटता हुआ (कृष्ण पक्षीय) चंद्रमा किसी जातक की कुंडली में दूसरे भाव में हो तो जातक के सुंदर चेहरे पर झाइयां व दाग आ सकते हैं। ऐसा चंद्र जातक के काम-सुखों में भी यथासंभव अड़चनें डालता है। जातक की वाणी की मधुरता कम हो जाती है। नाते रिश्तेदारों में भी उससे अधिक लगाव नहीं रहता और जातक की आय के साधन भी या तो कम हो सकते हैं या फिर उसका खर्च बढ़ सकता है।
तीसरा भाव : यदि इस भाव में चंद्र शुभ, बली और दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा हो तो जातक अपने भाइयों से अधिक लगाव रखता है। वह प्रसन्नचित्त, आस्तिक (ईश्वर में आस्था रखने वाला) अध्ययन व मननशील और मधुरभाषी होता है। वह अपनी बहनों का भी पूरा-पूरा ख्याल रखता है। ऐसा चंद्र अपनी कुंडली में रखने वाला जातक अधिकांशतः अपने परिवार में अकेली संतान नहीं होता और उसे बहन या भाई जरूर मिलते हैं। वह नाते-रिश्तेदारों में दुलारा भी होता है। इसके विपरीत यदि चंद्र अशुभ होकर बलहीन व दुष्प्रभावित होकर कुंडली के इस भाव में बैठा हो तो वह उपरोक्त परिणामों में अपने दुष्प्रभावों के अनुसार अड़चनें पैदा करता है।
चौथा भाव : यदि जातक की कुंडली के चौथे भाव में चंद्र शुभ, बली और दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा हो तो वह जातक को प्रसिद्धि, सम्मान व लोकप्रियता प्रदान करता है। वह सद्गुणों से भरपूर व्यक्ति होता है और अच्छा कार्य करता है। वह अच्छे घर और अच्छे वाहनों का मालिक होता है। वह उदार, सुखी, दानी-मानी व्यक्ति होता है और बहुधा रोग रहित स्वस्थ जीवन गुजारता है। वह अपनी माता का दुलारा होता है और स्वयं भी माता से गहरा लगाव रखता है। लेकिन एक कमी उस जातक में यह पायी जाती हैं कि वह अत्यधिक कामुक और रसिक व्यक्ति होता है और कामक्रीड़ाओं के प्रति अत्यधिक रुझान रखता है।
यदि कृष्ण पक्षीय घटता चंद्र बलहीन और दुष्प्रभावित होकर स्थित हो तो वह जातक की मनोवृत्ति पर गहरा असर डालता है। ऐसा जातक अपनी माता के स्नेह से किसी हद तक वंचित रह सकता है और निरंकुश व लम्पट होकर अपनी जमीन जायदाद आदि विपरीत लिंगियों पर लुटा भी सकता है और ऐसी स्त्री जातक अनैतिक मार्ग व व्यवसाय भी अपना सकती है।
पांचवां भाव : शुक्ल पक्षीय बढ़ता चंद्र बली व दुष्प्रभाव मुक्त होकर इस घर में बैठा हो तो जातक को संतान रूप में सुंदर कन्याएं प्राप्त होती हैं। वह सहिष्णु और हंसमुख प्रवृत्ति का होता है और अच्छा कार्य करता है। ऐसा चंद्र जातक का सुख वैभव बढ़ाने वाला होता है। वह जातक बुद्धिमतापूर्ण निर्णय लेता है और किसी ‘राजपुरुष’ के सलाहकार या मंत्री तक के पद पर पहुंच सकता है
यदि चंद्र अशुभ, बलहीन और दुष्प्रभावित होकर इस भाव में बैठा हो तो वह जातक को चंचलवृत्ति और चंचल भाग्य वाला बनाता है। ऐसा जातक सट्टेबाजी की प्रवृत्ति रखता है। उसकी संतानें विकारग्रस्त हो सकती है अथवा संतानोत्पत्ति में विभिन्न प्रकार की समस्याएं आ सकती हैं।
छठवां भाव : यदि जातक के छठवें भाव में चंद्र बैठा हो तो वह उसे अल्पायु,
कफ रोगी, नेत्र रोगी और खर्चीला बनाता है। इस भाव में चंद्रमा जातक को पेचिश, डिस्पेप्सिया आदि भी दे सकता है। जातक का स्वयं का और उसकी माता का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। उस पर कर्ज देने वाले महाजनों और शत्रुओं का भारी दबाव बना रहता है। वह अनाप-शनाप तरीके से धन प्राप्त करता ही रहता है ।
यदि चंद्र शुभ, बली और दुष्प्रभाव मुक्त होकर इस भाव में बैठा हो तो दुःस्थान पर स्थिति से पड़ने वाले अशुभ प्रभावों का असर कम रहता है लेकिन अशुभ, बलहीन या क्षीण और दुष्प्रभावित चंद्र अशुभ प्रभावों को बहुत अधिक बढ़ा भी सकता है।
सातवां भाव : दाम्पत्य और साझेदारी के इस भाव में स्थित चंद्र जातक को कीर्तिवान, सौम्य धैर्यशाली, विचारक लेकिन अभिमानी बनाता है। जातक सुखपूर्वक विवाह करता है और उसके घर में शुभ समारोहों का आयोजन होता है। जातक सामान्यतः वैभवशाली होता है। ऐसा चंद्र जातक को सैर-सपाटों और छोटी-मोटी यात्राओं के भी कई अवसर प्रदान करता है। लेकिन सातवें घर में बैठा चंद्र जातक को घर-गृहस्थी के भारी-भरकम उत्तरदायित्वों में बुरी तरह जकड़ भी सकता है। सातवें भाव में शुभ (शुक्ल पक्षीय), बली और दुष्प्रभाव मुक्त चंद्र बैठा हो तो वह शुभ फल ही अधिक प्रदान करता है। ऐसे चंद्र वाले जातक को जीवन साथी अति सुंदर, चपल लेकिन चंचल वृत्ति का मिलता है। ऐसे जीवनसाथी में एकनिष्ठता की भावना कम ही होती है।
इसके विपरीत यदि सातवें भाव में बैठा चंद्र कृष्ण पक्षीय हो और क्षीण बली या दुष्प्रभावित हो तो जातक को घर-गृहस्थी की चिंताओं में बुरी तरह फंसा देता है। साथ ही ऐसा चंद्र जीवनसाथी की वफादारी को संदिग्ध भी बना देता है। ऐसे जातक को अपने जीवनसाथी के व्यवहार को लेकर सदैव चिंता बनी रहती है । जीवन साथी अस्वस्थ और रोगी भी हो सकता है।
आठवां भाव : इस भाव में चंद्र की स्थिति को ज्योतिर्विज्ञान में अशुभ फल कारक बताया गया है। आठवें भाव में स्थित चंद्र जातक को अस्वस्थ, सुख-सुविधाओं से वंचित, मानसिक रूप से त्रस्त, हताश, शोक और विषाद से भरपूर बनाता है। ऐसा जातक विपरीत लिंगियों के फुसलावे में आसानी से आ जाता है। वह उन पर खूब धन लुटाता है। वह ईर्ष्यालू और बेहद कामी होता है।
ऐसा जातक सामान्यतः किसी-न-किसी यौन व रतिज रोग से ग्रस्त होता है। इस भाव में स्थित चंद्र चाहे शुभ हो अथवा अशुभ, बली हो या बलहीन, दुष्प्रभावित जरूर ही होता है। इस भाव में चंद्र रखने वाले जातक की माता का स्वास्थ्य भी खराब रहता है। अलबत्ता धन, संपदा की दृष्टि से चंद्र की यह स्थिति कुछ अनुकूल भी मानी जाती है ।
नौवां भाव : धर्म, भाग्य और पिता का प्रतिनिधित्व करने वाले इस भाव में चंद्र यदि शुक्ल पक्षीय, बली और दुष्प्रभाव मुक्त हो तो जातक धर्मपरायण, माता-पिता, गुरु व अतिथियों का सम्मान करने वाला, न्यायप्रिय और उद्यमशील होता है। वह जातक सत्कर्म करता है। उसे उद्यम में सफलता और लाभ मिलता है। उसकी लोकप्रियता और सम्मान में बढ़ोत्तरी होती है। उस जातक को अच्छी व गुणवान संतान मिलती है। इसके विपरीत यदि चंद्र अशुभ, क्षीण बल और दुष्प्रभावित हो तो इस भाव के मामले में उसका आचरण दुष्प्रभावित करने वाले ग्रहों के अनुसार ही होता है ।
दसवां भाव : इस भाव में स्थित चंद्रमा जातक को कार्यकुशल, दयालु, निर्बल और बुद्धिजीवी बनाता है। वह अच्छे भोजन और आभूषणों के प्रति जातक में रुचि पैदा करता है और उन्हें जुटाने के अवसर देता है। जातक नौकरीपेशा हो तो पदोन्नति के अवसर और यदि व्यापार अथवा उद्योग में लगा हो तो उसमें लाभ और बढ़ोत्तरी के अवसर ऐसा चंद्र प्रदान करता है।
ऐसा जातक पर्याप्त सम्पत्ति जुटा सकता है। उसकी लोकप्रियता ख्याति और सम्मान बढ़ता है। यदि इस भाव में चंद्र शुभ, बली और दुष्प्रभाव मुक्त हो तो इस भाव के फलों को बढ़ा देता है लेकिन इससे विपरीत स्थिति में जातक को मिलने वाले लाभ गौण हो सकते हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि लग्न भाव, पांचवां भाव, नौवां भाव और दसवां भाव में स्थित चंद्रमा जातक के लिए विशेष रूप से भाग्यवर्द्धक सिद्ध होता है लेकिन इस प्रकार का चंद्र अपनी कुंडली में रखने वाले जातक विदेशी संस्कृति की ओर अधिक झुकाव रखते हैं और अपनी पारिवारिक परम्पराओं को अनदेखा कर देते हैं। ऐसे जातक की सबसे बड़ी कमी यह होती है कि वह दोहरी बातें करता है। दोहरे मापदंड अपनाता है। वह अपने हितों की रक्षा के लिए सदैव चौकन्ना रहता है लेकिन अक्सर गलत पक्ष ही लेता है।
यदि चंद्र दुष्प्रभावों से मुक्त होकर लग्न, दूसरे, पांचवें या नौवें भाव में बैठा हो तो वह संबद्ध जातक को पर्याप्त समृद्ध बना देता है। चंद्र यदि दुःस्थानों (6, 8, 12) भावों में हो तो वह जातक को रोगी बनाता है लेकिन दूसरी ओर तीसरे, छठे, आठवें और बारहवें भावों में स्थित चंद्र जातक को धन-संपदा तो देता है लेकिन साथ ही जातक की सोच को संकीर्ण और प्रवृत्ति को आपराधिक बना देता है।
ग्यारहवां भाव : इस भाव में स्थित चंद्र जातक को चंचल वृत्ति का, दीर्घायु, यशस्वी और लोकप्रिय बना देता है। ऐसा चंद्र संबंधित जातक की धन-समृद्धि को . बढ़ाने वाला, अच्छी और गुणवान संतान देने वाला, सामान्य संपन्नता और सुख देने वाला, व्यापार में लाभ कराने वाला और लोकप्रियता बढ़ाने वाला होता है।
चंद्र इस भाव में यदि शुभ, बली व दुष्प्रभावमुक्त हो तो उक्त फलों को दो गुना कर देता है, जबकि अशुभ, बलहीन और दुष्प्रभावित चंद्र जातक में भौतिक सुखों के प्रति लालसा जगाकर उसकी सोच को असामाजिक रुझान दे देता है ।
बारहवां भाव : यदि किसी जातक की कुंडली में चंद्र बारहवें भाव में बैठा हो तो वह नेत्र रोगी, कफ रोगी तथा एकांतप्रिय होता है। बारहवां भाव जातक के शयन सुखों का प्रतिनिधित्व करता है और इस भाव में चंद्र की उपस्थिति जातक को अस्थिर बुद्धि का बना देती है। वह दूर-दूर स्थानों पर भटकता है। सुस्त होता है। वह बदनाम और हताश होता है। उसकी संपदा समृद्धि खो जाती है। ऐसे चंद्र वाले जातक की माता और पत्नी का स्वास्थ्य भी खराब रहता है।
विभिन्न ग्रहों के साथ चंद्र का संबंध
चंद्र बहुत ही संवेदनशील ग्रह होता है। किसी भी अन्य ग्रह की संगत या दृष्टि का इस पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अन्य ग्रहों की संगत में चंद्र अपनी स्वयं की प्रकृति और वृत्ति को भी काफी हद तक बदल लेता है। सूर्य और चंद्र के बीच यदि अनुकूल दृष्टि संबंध हों तो वह जातक को भरपूर शक्ति, स्फूर्ति प्रदान करता है और ऐसा जातक जीवन में सुगमता से सफलता प्राप्त कर लेता है। दूसरी ओर यदि सूर्य और चंद्र साथ-साथ हों तो विभिन्न राशियों और विभिन्न भावों में अलग-अलग फल देते हैं। इन दोनों का साथ उन्हीं मामलों पर इनका ध्यान आकर्षित रखता है जिनका प्रतिनिधित्व इनकी साझा स्थिति वाला भाव करता है।
उदाहरणार्थ पहले भाव में सूर्य चंद्र साथ-साथ हो तो जातक दीन-दुनिया को परे रखते हुए बस अपने स्वयं के बारे में ही सोचता है और अपनी ही परवाह करता है। दूसरे भाव में यह योग हो तो जातक परिवार के बारे में और धन कमाने के बारे में ही सोचता है। पांचवे भाव में यह योग हो तो जातक को अपने बच्चों से बहुत लगाव होता है। दसवें भाव में यह योग जातक को अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी बना देता है जबकि 12वें भाव में यह योग होने पर जातक दर्शन और तंत्र-मंत्र विद्याओं में रुचि लेने लगता है। सूर्य व चंद्र के बीच प्रतिकूल दृष्टि संबंध हो तो जातक के जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार की बाधाएं आती हैं। वह आत्मकेंद्रित हो जाता है और अपने व्यक्तित्व को गैरजिम्मेदार और लापरवाह बना डालता है।
चंद्र व मंगल : चंद्र और मंगल साथ-साथ हों तो जातक में अधीरता और चिपकूपन भर देते हैं लेकिन धन और समृद्धि के लिहाज से यह एक अच्छा योग माना जाता है। चंद्र व मंगल के बीच अनुकूल दृष्टि संबंध हो तो जातक साहसी और उत्साही विचारों और मनोवृत्ति वाला बन जाता है। वह जीवन की विसंगतियों से साहस के साथ जूझता है और उसका मस्तिष्क अत्यंत चतुरतापूर्ण विचारों से भरपूर रहता है।
इसके विपरीत यदि इन दोनों के बीच प्रतिकूल दृष्टि संबंध हो तो जातक अविवेकपूर्ण और उतावला हो उठता है और उसका चरित्र अक्सर अनैतिक रुझान वाला और व्यवहार उद्दंडतापूर्ण होता है ।
चंद्र व बुध: चंद्र को यदि बुध की संगति मिल जाए (बुध वक्री न हो) तो जातक को मानसिक रूप से अत्यंत दृढ़ और परिपक्व व्यक्तित्व का बना देते हैं। चंद्र मन का और बुध बुद्धि का शासक ग्रह माना जाता है । यदि ये दोनों कुंडली में एक साथ बैठे हों और साथ ही बली भी हों तो जातक को मानसिक रूप से मजबूत और शक्तिशाली बना देते हैं ।
चंद्र व बुध के बीच अनुकूल व शुभ दृष्टि संबंध हो तो जातक तीव्र बुद्धि का स्वामी बन जाता है। उसका रुझान साहित्य, कला, ज्योतिष, व्यापार और कूटनीति के क्षेत्रों की ओर रहता है। ऐसा जातक विषय वस्तु को बहुत जल्दी ग्रहण करता है और त्वरित बुद्धि से अपनी नई जानकारी को लोगों के समक्ष इस ढंग से रख सकता है कि वे उसे अच्छी तरह समझ सकें और उस व्यक्ति की बुद्धि का लोहा मान सकें। इसके विपरीत यदि दोनों के बीच प्रतिकूल संबंध हो तो जातक अस्थिर बुद्धि, मतिभ्रम का शिकार हो सकता है। ऐसा जातक किसी भी मामले में दो-टूक निर्णय नहीं ले पाता ।
चंद्र व बृहस्पति के बीच संगतकारी संबंध व्यक्ति को साहसी, दृढनिश्चयी और समृद्ध बना देता है। ऐसा व्यक्ति एक विशिष्ट मानसिकता से ओत-प्रोत होता है और जीवन में सफलता प्राप्त करता है। चंद्र व बृहस्पति के बीच अनुकूल दृष्टि संबंध मस्तिष्क विकास और वैचारिक उदारता के साथ-साथ गंभीरता, दृढसंकल्प, नेतृत्व संबंधी गुण देते हैं और जातक की रुचि दर्शन, अध्यात्म और तंत्र आदि विषयों में उसकी रुचि जगाते हैं। यदि दोनों के बीच दृष्टि संबंध प्रतिकूल हों तो जातक को जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह संवेदनशीलता खो देता है और गरीबी में अपना जीवन-यापन करता है ।
चंद्र व शुक्र के बीच संगति हो अथवा अनुकूल दृष्टि संबंध हों तो व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी और राजसी तबीयत का बन जाता है। कलाकारों, लेखकों और सिने अभिनेताओं की कुंडलियों में अक्सर यह योग पाया जाता है। यह योग जातक को समृद्धि प्रदान करता है लेकिन यदि चंद्र व शुक्र के बीच प्रतिकूल गुमराह हो जाता है। वैवाहिक संबंधों में वह पटरी दृष्टि संबंध हों तो जातक नहीं बैठा पाता और उसे दिन में सपने देखने की आदत हो जाती है।
चंद्र और शनि के बीच यदि संगतकारी संबंध हों तो जातक सांसारिक सुखों से विरत होकर वास्तविक रूप में संन्यासी जैसा जीवन बिता सकता है । वह अजीब-से नशे में खोया रहता है। यदि इन दोनों के बीच अनुकूल दृष्टि संबंध हों तो जातक अत्यधिक सहिष्णु हो जाता है। वह अतीव बुद्धिमान और खुले विचारों वाला होता है। वह दर्शन, अध्यात्म, तंत्र-मंत्र आदि विषयों के अध्ययन में भी खासी रुचि रखता है। यदि इन दोनों के बीच प्रतिकूल दृष्टि संबंध हों तो जातक अधीरता, आलस्य, मानसिक विकार आदि का शिकार और स्वार्थी होता है।
चंद्र – राहु-केतु: अपने ही छाया ग्रहों से बहुत अधिक डरता है। राहु-केतु उसी की धुरी छायाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। चंद्र और राहु यदि कुंडली के एक ही भाव में बैठे हों तो जातक को अत्यधिक उद्दंड प्रकृति का बना देते हैं। ऐसा व्यक्ति मानसिक द्वंद का शिकार रहता है लेकिन यह योग विदेश यात्राओं/विदेश प्रवास तथा धन-समृद्धि के लिए बहुत अच्छा माना जाता है। राहु विजातीय तत्त्व का और चंद्र यात्राओं का प्रतिनिधि होता है। यदि नौवें या 12वें भाव में यह योग बैठे तो बहुत प्रभावशाली हो जाता है।
यदि चंद्र और राहु दोनों ही कुंडली में बली हों तो जातक को कूटनीतिक बुद्धि का स्वामी बना देते हैं वह दूसरों की कमजोरियां झट से भांप जाता है। लेकिन यदि चंद्र इस योग में कमजोर हो तो जातक मंदबुद्धि, अतिअम्लीयता का शिकार, धूर्त अथवा मानसिक रोगी हो सकता है।
यदि चंद्र व केतु एक-दूसरे के साथ कुंडली में बैठे हों तो जातक में दूसरों के मन की बात जान लेने की दुर्लभ शक्ति आ जाती है। वह जातक ज्ञान और अध्यात्म में गहरी रुचि लेता है। वह दार्शनिकों जैसी बातें करता है।
यदि चंद्र व यूरेनस के बीच संगतकारी या अनुकूल संबंध हो तो जातक खोजी दिमाग वाला, सुधारवादी, मौलिक और खुले विचारों वाला होता है। वह आविष्कारों में अथवा ज्योतिष व तंत्र विज्ञान आदि में भी रुचि लेता है लेकिन यदि चंद्र व यूरेनस के बीच प्रतिकूल संबंध हों तो जातक अपराधवृत्ति का जघन्य कार्य करने वाला और दुश्चरित्र व्यक्ति बन सकता है। ऐसा व्यक्ति दुर्व्यवहारी और उन्मादी भी हो सकता है।
चंद्र और नेपच्यून के बीच अनुकूल दृष्टि का या संगतिकारक संबंध हो तो जातक विनोदी प्रकृति का, कवि, कल्पनाशील और प्रेरक व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है लेकिन यही संबंध यदि प्रतिकूल दृष्टिकारक हो तो जातक नशा सेवन का आदी और नशीले द्रव्यों का व्यापारी भी बन सकता है। ऐसा व्यक्ति आत्मघाती प्रवृत्ति का होता है और हमेशा सपनों की दुनिया में रहना ही पसंद करता है।
ज्योर्तिविज्ञान की प्राचीन पुस्तकों में चंद्र की महत्ता पर सैंकड़ों पृष्ठ भरे गए हैं। मुहूर्त ज्योतिष का तो यह एक प्रकार से ‘प्राणतत्त्व’ ही माना जाता है। प्रख्यात प्राचीन ज्योतिष-विज्ञानी ‘मंत्रेश्वर’ ने चंद्र को सभी ग्रहों और उपग्रहों में सर्वोपरि स्थान प्रदान किया है। यह चंद्र की अन्य ग्रहों के लिए विनम्र सहायक और पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाने के कारण ही है कि उसे ज्योतिष में इतना महत्त्व दिया गया है। चंद्र अन्य ग्रहों को बल प्रदान करता है लेकिन साथ ही उनके अमर्यादित कार्यकलापों को यथासंभव मर्यादित बनाने का प्रयास भी करता है इसलिए कहा गया है— “चांद्रम वीर्य, वीर्य बीजम् ग्रहाणाम् ।।’
मंत्रेश्वर के अनुसार—यदि चंद्र कुंडली में उपयुक्त और शुभ स्थान पर स्थित हो तो वह जातक को शासक या उसके समतुल्य बना सकता है। यदि पूर्ण चंद्र पर किसी ऐसे ग्रह की दृष्टि हो जो अपनी राशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में बैठा हो तो ऐसे ग्रह योग वाला जातक निर्धन परिवार तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेकर भी शासक या उसके समतुल्य हैसियत को प्राप्त कर लेता है
गुणोत्तमें लग्न नवांशका उद्गमे
निशाकरश्चापि गणोत्तमेऽपिवा ।
चतुर्गहैश्चंद्रविवर्नि तैस्तदा निरीक्षित :
स्याद् धर्मोदभवो नृप ।।
यही लेखक आगे कहता है-यदि पूर्ण चंद्र सूर्य के नवांश में स्थित हो और संबद्ध कुंडली में शुभ कारक ग्रह ( दग्धता से मुक्त और मार्गी बुध, बृहस्पति व शुक्र) दुष्प्रभावों से मुक्त होकर केंद्र स्थानों (1, 4, 7, 10) में बैठे हों तो ऐसा योग रखने वाला जातक राजा बन जाता है। वह कई हाथियों का पालक, अति संपन्न प्रसिद्ध व धनी होता है।
सुधा मृणालोपम बिम्ब शोभितः
शशि नवांशे नलिनीपियस्य ।
यदि क्षितिशो बहुहस्तिपूर्णः
शुभाश्च केंद्रेषु न पापयुक्ताः ।।
एक अन्य श्लोक में लेखक कहता है— यदि चंद्र किसी जलीय राशि और जलीय नवांश राशि का होकर लग्न में, स्ववर्ग में या किसी शुभ वर्ग में बैठा हो और कोई भी अशुभ ग्रह कुंडली के केंद्र स्थानों में न बैठा हो तो जातक कई हाथियों का स्वामी और पालक राजा बन जाता है ।
जलचर राशि नवांशक इंदुस्तनु भवने शुभदस्वक वर्गे ।
अशुभकरः खलु कंटकहीनो भवति नृपो बहुवारण नाथः ।।
मंत्रेश्वर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘फलदीपिका’ में चंद्र की विशिष्टताओं का वर्णन करते हुए यहां तक कह दिया है कि किसी कुंडली की शक्ति का मूल आधार चंद्र का बल ही होता है। चंद्र बली होकर स्थित हो तो उस कुंडली से संबद्ध जातक भी मानसिक रूप से बली व शक्तिशाली होता है।
चंद्र, ब्रह्मांड कुंडली की चौथी राशि कर्क का स्वामी व शासक होता है । वह अपने शत्रु ग्रह शुक्र की राशि वृषभ में उच्चत्व (दीप्तावस्था) प्राप्त करता है और अपने मित्र ग्रह मंगल की राशि वृश्चिक में वह नीच की स्थिति (अस्तावस्था) में होता है।
मान लीजिए कि चंद्र अपनी उच्च की राशि वृष में होकर सातवें भाव में बैठा है (वृश्चिक लग्न वालों के लिए)। ऐसी स्थिति में सातवें भाव के मामलों में चंद्र के शुभ फलदायक होने की बात बेहिचक कही जा सकती है लेकिन यदि वह अपनी नीच की राशि वृश्चिक में होकर सातवें भाव (वृष लग्न वालों के लिए) में बैठा हो तो निश्चित रूप से सातवें भाव के मामलों में अशुभ फल ही प्रदान करेगा ।
चंद्र का बल
किसी कुंडली में चंद्र बली है अथवा निर्बल इसका निर्धारण निम्न बिंदुओं से किया जा सकता है :
1. कुंडली में चंद्र की स्थिति और उसके स्वामित्व वाली राशि की भाव स्थितिः चंद्र अपनी राशि कर्क अथवा अपनी उच्च की राशि वृष में बली माना जाता है। इसके अलावा धनु और मीन राशियों (दोनों बृहस्पति की राशियां) में भी चंद्र की स्थिति को अच्छा बताया गया है। दूसरी ओर अपनी नीच की राशि वृश्चिक में और शनि की राशियों मकर व कुंभ में चंद्र क्षीण बल होकर अपनी मूल प्रवृत्तियां और क्षमताएं खो बैठता है। महर्षि पराशर के अनुसार मिथुन, कन्या और धनु लग्न वाले जातकों में चंद्र यदि लग्न में ही बैठा हो तो बली माना जाता है।
यदि चंद्र सातवें भाव में मीन राशि में या धनु राशि के 15° से 30° में हो तो भी बली अथवा मजबूत होता है। यदि वृष राशि (उच्च की राशि) का होकर दसवें भाव में बैठा हो या धनु राशि के 15° से 30° में इस भाव में बैठा हो तो मजबूत होता है।
इसी प्रकार मिथुन या कर्क राशि का होकर चंद्र चौथे भाव में बैठा हो तो मजबूत माना जाता है। चंद्र की स्थिति रोहिणी, पुनर्वसु, स्वाति और रेवती नक्षत्रों में भी मजबूत मानी गई है।
भावानुसार चंद्र त्रिकोण भावों (5, 9) तथा 2, 11 में हो तो अच्छे व शुभ फल देने वाला माना जाता है। यदि चंद्र चौथे भाव में शुक्र की राशि (वृष या तुला) में बैठा हो तो बहुत ही शुभ व उत्तम फल देने वाला होता है। ऐसा चंद्र संबद्ध जातक को जीवन की विसंगतियों से जूझने की शक्ति देता है और निराशा व हताशा के क्षणों में उस जातक को उसी प्रकार सांत्वना, प्रेरणा और सहायता देता है जैसे कोई मां अपने बच्चे को दुलारती व पुचकारती है।
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2. दिग्बल : चंद्र कुंडली के चौथे भाव में स्थित होने पर दिशा बली माना जाता है जबकि दसवें भाव में वह अपना दिशाबल खो देता है।
3. सूर्य से दूरी : यदि चंद्र और सूर्य एक साथ स्थित हों तो चंद्र दग्ध होकर बलहीन हो जाता है। सूर्य से वह जितना दूर होता जाता है, उसका बल भी उसी प्रकार बढ़ता चला जाता है। सूर्य से 180° की दूरी पर चंद्र अपना अधिकतम बल प्राप्त कर लेता है। सूर्य से उसकी अधिकतम दूरी भी यही होती है ।
लग्न और चंद्र
भिन्न-भिन्न लग्न वाली कुंडलियों में चंद्र का प्रभाव भी भिन्न-भिन्न होता है । कुछ लग्नों में इसका स्थान बल और अन्य ग्रहों के साथ इसके संबंध जातक का व्यावसायिक भविष्य तय करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यदि भूमिका शुभ फलदायक हो तो जातक अपने व्यवसाय के शिखर पर पहुंच जाता है और यदि लग्न विशेष के लिए यह अशुभ फलदायक स्थिति में हो तो जातक के व्यावसायिक भविष्य को नुकसान भी पहुंचा सकता है। कभी-कभी यह भी देखा गया है कि प्रकृति से शुभ ग्रह होकर केंद्र में बैठा चंद्र अथवा लग्नेश का शत्रु होकर कुंडली में बैठा चंद्र भी विशेषकर तुला लग्न वाले जातकों के लिए अशुभकारी अथवा प्रतिकूल परिणाम दर्शाता है ।
वृष लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में यह तीसरे भाव का स्वामी और कुंभ लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में यह छठवें भाव का स्वामी होता है। यह दोनों ही चंद्र के शुभकारी फलों को घटाती है और अशुभ परिणामों को बढ़ाती है। इसके विपरीत देखें तो धनु लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में यह दुःस्थान आठवें भाव का स्वामी होने के बावजूद लग्नेश बृहस्पति का मित्र होने के नाते शुभ फल देता है। वस्तुतः इस लग्न वाले जातकों में चंद्र का मंगल, बृहस्पति या सूर्य के साथ संबंध भी अक्सर अच्छे फल देता देखा गया है।
कर्क लग्न वाले जातकों में यदि चंद्र का बृहस्पति अथवा मंगल और कभी-कभी शुक्र के साथ भी संबंध जातक के व्यावसायिक जीवन का कायाकल्प कर सकता है। मीन लग्न वाले जातकों में भी चंद्र समान स्थिति में होने पर यही परिणाम देता है। कन्या लग्न वाले जातकों की कुंडलियों में यदि चंद्र का मंगल अथवा शुक्र के साथ संगत या दृष्टि का अनुकूल संबंध हो तो वह जातक को लगातार धन प्राप्ति के साधन बनाए रखता है। तुला लग्न वाले जातकों में चंद्र यद्यपि अक्षम होता है लेकिन यदि वह मिथुन राशि में हो और बुध उसकी राशि कर्क में बैठा हो तो राजयोग कारक होता है।
वृश्चिक लग्न वाले जातकों में भी चंद्र अपनी स्थिति के अनुसार जातक के व्यवसाय और रोजगार को सुप्रभावित या दुष्प्रभावित करता है। इस लग्न वाले
जातकों में यदि चंद्र का सूर्य से अथवा शनि से किसी प्रकार का संबंध जुड़ता हो तो कहा जाता है कि जातक स्वयं अपनी मूर्खता से अपना व्यवसाय चौपट कर सकता है। शनि की चंद्रमा पर दृष्टि भी जातक के जीवन में कई प्रकार की विषमताएं खड़ी करती है और उसके पतन का कारण बन सकती है।
मेष लग्न की कुंडली में चंद्र चौथे स्थान का और सूर्य पांचवें स्थान का स्वामी होता है । यदि ये दोनों चौथे, पांचवें, नौवें, दसवें अथवा ग्यारहवें भावों में से किसी में साथ-साथ बैठे हों तो राजयोग कारक होते हैं। सिंह लग्न वाले जातकों में चंद्र बारहवें स्थान (दुःस्थान) का स्वामी होने के कारण जातक को घर से दूर विदेशों में जीवन-यापन करने की ओर उन्मुख कर सकता है। मकर लग्न जातकों में चंद्र सप्तम भाव का स्वामी होता है। यदि इस स्थिति में वह दुःस्थानों छठवें या आठवें में बैठा हो तो अत्यंत प्रतिकूल परिणाम दर्शाता है।
मिथुन लग्न की कुंडली में चंद्र दूसरे स्थान का स्वामी होकर चौथे, दसवें, ग्यारहवें भावों में से किसी में बैठा हो तो जातक के व्यवसाय और संपदा को प्रभावित कर सकता है। यदि इन भावों में से किसी में बुध (लग्नेश) उसके साथ हो तो जातक का व्यावसायिक जीवन अत्यंत शुभ हो सकता है।
केंद्रस्थ चंद्र
दसवें भाव में बैठा चंद्र यद्यपि दिग्बलविहीन होता है लेकिन कुछ परिस्थितियों में ज्योतिर्विज्ञानियों ने इसे धन-समृद्धि योग कारक और राजयोग कारक भी माना है। सर्वार्थ चिंतामणि में कहा गया है— यदि पूर्ण चंद्र केंद्र में (विशेषकर चौथे या दसवें भाव में) बृहस्पति या शुक्र जैसे शुभ ग्रहों की संगति या अनुकूल दृष्टि में बैठा हो तो समृद्धि व राजयोग देता है।
जातक पारिजात में कहा गया है— यदि पूर्ण चंद्र कर्मस्थान (दसवें भाव में शुभ ग्रह की संगति या दृष्टि में बैठा हो तो वह संबद्ध जातक को राजा बना देता है। जातक ‘पारिजात’ तो यहां तक कहता है—–यदि कुंडली में चंद्र मजबूत और पूर्ण हो तो वह अकेला ही जातक को एक विजेता शासक बनाने में पूर्ण समर्थ होता है।
प्रधान बल संयुक्तः सम्पूर्णराशलात्भ्छनः ।
एकोऽपि कुरुते जातम् नराधिपम् अरिमर्दनम् ।।
‘सारावली’ में कहा गया है कि राजकुल में जन्म लेने वाले जातकों को छोड़कर अन्य जातकों में ‘राजयोग’ की संभावना निश्चित करने के लिए चंद्र पर शुभ ग्रहों का अनुकूल संगतिकारक या दृष्टिकारक प्रभाव भी अनिवार्य है। ‘फलदीपिका’ में भी इसी मत की पुष्टि की गई है— यदि चंद्र पूर्ण हो और चौथे, सातवें या दसवें भाव में बैठा हो और उस पर स्वराशि या उच्च की राशि में बैठे किसी प्राकृतिक शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा संगति का प्रभाव हो तो निम्न कुल में जन्म लेने वाला एक व्याध (शिकार करके जीवन-यापन करने वाला) भी राजा बन सकता है।
निषादमापि पार्थिव जनयतिं दुरुच्च स्वभाव स्थित ग्रह ।
निरीक्षतो धवलकांति ज्वलोज्ज्वलः ।।
‘फलदीपिका’ में यह भी कहा गया है कि यदि चंद्र मीन में और बृहस्पति कर्क में हो अर्थात दोनों परस्पर राशि बदलकर बैठे हों और साथ ही बृहस्पति चंद्र पर दृष्टि भी डालता हो तो ऐसी स्थिति में चंद्र भले ही प्रबल अशुभ ग्रहों मंगल या शनि की संगति में फंसा हो, तो भी वह सम्बद्ध जातक को राजयोग देने में समर्थ होता है ।
शुभ-अशुभ चंद्र
प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में चंद्र की कलाओं को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। चंद्र की कुल 16 कलाएं होती हैं। जब तक रात्रि के आकाश में चंद्र अपनी 9 या 10 कलाओं के साथ चमकता हो, उसे शुभ माना जाना चाहिए। शुक्ल पक्ष में चंद्र की संचरण गति तेज होती है और वह सप्तमी तिथि तक 9-10 कलाओं तक पहुंच जाता है। कृष्ण पक्ष में उसकी चाल मंद होती है और वह सप्तमी तिथि तक घटकर 9-10 कलाओं तक ही आ पाता है। इस प्रकार शुक्ल पक्ष में पंचमी के बाद और कृष्ण पक्ष में सप्तमी तक के चंद्र को शुभ माना जाना चाहिए। यह लेखक का विचार है और अनुभव के आधार पर इसे ठोस पाया गया है। कुछ अन्य अर्वाचीन ज्योतिर्विद भी इस विचार के हैं कि पूरे कृष्ण पक्ष के चंद्र को अशुभ और पूरे शुक्ल पक्षीय चंद्र को शुभ मानकर नहीं चला जाना चाहिए। उनका मत है कि कृष्ण पक्ष में पंचमी से पहले का और शुक्ल पक्ष में पंचमी तिथि से ही चंद्र को शुभ माना जाना चाहिए।
अमावस्या को चंद्रमा सूर्य के निकटतम होने से दग्ध और बलहीन होता है। जैसे-जैसे वह सूर्य से दूर होता जाता है उसका बल भी बढ़ता जाता है। सूर्य से 60°
दूर जाने तक चंद्र का बल धीरे-धीरे बढ़ता है (कुछ विद्वान 72° की सीमा तय करते हैं)। चंद्र जब सूर्य से अधिकतम 180° की दूरी पर होता है तो पूर्णिमा होती है और चंद्र अपनी सोलह कलाओं के साथ पूर्ण शुभ व बली होकर उदय होता है। इसके बाद वह 120° का सफर सूर्य की दिशा में तय करने तक अर्थात् कृष्ण पक्ष की अष्टमी-नवमी तक शुभ व बली माना जा सकता है क्योंकि चंद्र इस पखवाड़े में क्षयमान और मंद कांति होता जाता है अतः बल शोधन में एक दिन घटाकर उसे सप्तमी तक तो शुभ व बली ग्रह माना ही जाना चाहिए, यही लेखक की सोच का आधार है ।
सूर्य-चंद्र संबंध
अनफा, सुनफा और अन्य बहुत सारे योगों में अन्य ग्रहों के साथ चंद्र की स्थिति संबंधों के फलों पर विचार किया जाता है। इन योगों में सूर्य को शामिल नहीं किया जाता। ठीक इसी प्रकार वसि, वेसि और अन्य बहुत से योगों में, अन्य ग्रहों के संदर्भ में सूर्य की स्थिति पर विचार करते समय चंद्र को छोड़ दिया जाता है।
लेकिन एक मूलभूत योग ऐसा भी है जिसमें केवल सूर्य और चंद्र की परस्पर सापेक्ष स्थितियों पर ही विचार किया जाता है और अन्य ग्रहों को इस विचार में शामिल ही नहीं किया जाता। यह महत्त्वपूर्ण योग कुंडली की मजबूती का संकेत देता है। यदि कुंडली ही मजबूत न हो तो सूर्य, चंद्र व अन्य ग्रहों से संबंधित योग भी इतने अधिक कारगर नहीं रह जाते ।
पृथ्वी के संदर्भ सापेक्ष में देखा जाए तो सूर्य और चंद्र दोनों ही शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्रों के स्वामी हैं। वे अपने आस-पास स्थित तारों और ग्रहों के जरिए भी अपनी शक्ति को पृथ्वी पर केंद्रित करते हैं। इस प्रकार ब्रह्मांडीय शक्तियों की सेना की कमान सूर्य और चंद्र नामक सेनापतियों के हाथों में रहती है। सूर्य भौतिक शरीर का और चंद्र मन का कारक होता है। कोई भी व्यक्ति तभी पूर्ण रूप से स्वस्थ कहा जा सकता है जब उसका तन और मन दोनों ही स्वस्थ हों ।
सूर्य और चंद्र की स्थितियां जन्मकुंडली में ऐसी होनी चाहिए कि न सूर्य चंद्र को दुष्प्रभावित कर सके और न ही चंद्र सूर्य को दुष्प्रभावित कर सके। सूर्य और चंद्र का सेनापतित्व क्षेत्र उनकी अपनी-अपनी स्थितियों से ± 60° की परिधि में रहती है। मुख्य रूप से ये दोनों उन ग्रहों को प्रभावित या दुष्प्रभावित करते हैं जो इनसे चौथे और सातवें भावों में रहते हैं।
यदि चंद्र का दुष्प्रभाव सूर्य पर पड़ता है तो भौतिक शरीर में रोग, विकृतियां और रचना संबंधी दोष आते हैं। इसके विपरीत यदि सूर्य का दुष्प्रभाव चंद्र पर पड़ता है तो संबंधित जातक मानसिक रोगों व व्याधियों से पीड़ित होता है। ऐसा जातक मानसिक विकृत, उन्मादी, पागल, जड़बुद्धि, मंदबुद्धि, मिरगी का रोगी आदि हो सकता है। यदि ये दोनों ही एक-दूसरे को दुष्प्रभावित करते हों तो संबंधित जातक तन और मन दोनों से ही अस्वस्थ होता है। ऐसा व्यक्ति प्रतिस्पर्द्धा से भरी दुनिया में नाकामयाब होता है ।
सूर्य और चंद्र अमावस्या के दिन एक ही राशि के समान ही अंशों पर होते हैं जबकि पूर्णमासी को वे एक-दूसरे से सातवें स्थान (ठीक 180° की दूरी) पर होते हैं। दोनों ही स्थितियों में वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं लेकिन दोनों स्थितियां अलग-अलग प्रकार और प्रकृति के फल प्रदान करती हैं।
वृहत जातक में वर्णित योग की पूर्व शर्त के अनुसार सूर्य से चंद्र या तो केंद्र में या पणफर में या अपोक्लिम भावों में होना चाहिए। सूर्य और चंद्र के बीच पारस्परिक दुष्प्रभाव की शक्ति के अनुसार ही योग में तीन अवस्थाएं अधम, सम और वरिष्ठ दी गई हैं। सूर्य व चंद्र दोनों ही जातक को नम्रता, सम्पदा, बुद्धि, चतुरता और कौशल प्रदान करते हैं।
1. अधम स्थिति : यदि कुंडली में चंद्र की स्थिति सूर्य से केंद्र भावों अर्थात् 1. 4, 7, 10 वें भावों में से किसी में हो तो उन दोनों का जातक पर सर्वाधिक दुष्प्रभाव पड़ेगा और परिणामस्वरूप जातक को सम्पत्ति और बुद्धि के मामले में कम-से-कम प्राप्ति होगी ।
2. सम स्थिति : यदि कुंडली में चंद्र की स्थिति सूर्य से पणफर भावों अर्थात् 2, 5, 8, 11 वें भाव में से किसी में हो तो संबद्ध जातक को सम्पत्ति और बुद्धि के मामले में औसत प्राप्ति होगी, अर्थात् उसे सम्पत्ति और अक्ल न तो कम मिलेगी और न ही अधिक मिलेगी।
3. वरिष्ठ स्थिति : यदि कुंडली में चंद्र की स्थिति सूर्य से अपोक्लिम भावों अर्थात् 3, 6, 9 या 12वें भाव में हो तो दुष्प्रभाव न्यूनतम और नगण्य होता है अतः संबद्ध जातक को अधिकतम सम्पत्ति, बुद्धि, संस्कार और कौशल प्राप्त होता है। ]
उपरोक्त वर्गीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी जातक की जन्म कुंडली में सूर्य और चंद्र एक-दूसरे से स्वतंत्र प्रभाव क्षेत्र बनाते हैं और स्वतंत्र आचरण करते हैं। यदि ये एक-दूसरे से दुष्प्रभावित हों तो इनके प्रभाव क्षेत्रों में परस्पर टकराव होता है और संबंधित जातक को तन और मन दोनों के ही पारस्परिक द्वंद्व का शिकार होना पड़ता है ।
वृहत जातक के चंद्र योगाध्याय संख्या 13 के श्लोक 1 में वर्णित उपरोक्त योग के कई पहलू हो सकते हैं और इनमें अन्य शुभाशुभ ग्रहों के प्रभावों के अनुसार भी प्राप्त होने वाले फलों में उतार-चढ़ाव आता है। ये पहलू निम्न प्रकार हैं :
1. यदि जातक का जन्म दिन के समय हुआ हो और उसकी कुंडली में चंद्र की स्थिति पर बृहस्पति का योगकारक और शुभ प्रभाव पड़ता हो तो संपत्ति और बुद्धि के मामले में उस जातक की प्राप्ति बढ़ जाती है। रात के समय जन्म लेने वाले जातकों में चंद्र पर शुक्र का शुभ प्रभाव भी यही परिणाम दर्शाता है।
2. यदि चंद्र नवांश कुंडली में अपने ही नवांश में अथवा मित्रग्रह के नवांश में बैठा हो तो भी संबद्ध जातक को विनम्रता, बुद्धि, कौशल और संपदा के मामले में उससे अधिक शुभ परिणाम मिल सकते हैं जितने कि उपरोक्त योग में सूर्य-चंद्र के पारस्परिक संबंधों के आधार पर दर्शाए गए हैं।
कुल मिलाकर सूर्य और चंद्र कुंडली में अपनी-अपनी स्थितियों और पारस्परिक संबंधों के आधार पर संबद्ध जातक को प्राप्त होने वाले फलों पर सीमा बांध देते हैं। सूर्य और चंद्र क्योंकि किसी भी कुंडली के लिए मूल आधारों का काम करते हैं अतः वसि, वेसि, अनफा, सुनफा और गजकेसरी पंच महापुरुष जैसे चमत्कारिक योगों की शक्ति और फल प्रदान करने की सामर्थ्य की सीमाबंदी भी सूर्य और चंद्र के पारस्परिक संबंधों के आधार पर ही तय होती है।
प्राचीन ज्योतिर्विज्ञानियों ने यद्यपि भाव, राशि, ग्रह, नक्षत्र आदि सभी का गहन विवेचन और उनके अंतर्संबंधों का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है लेकिन उनका आशय भी मात्र यही था कि हम इस विज्ञान को यहां तक लाए हैं। अब हमारी भावी पीढ़ियां, हमारे निष्कर्षों को अपने-अपने कालों में व्यवहारिक जीवन की कसौटी पर परखे और आवश्यकता हो तो संशोधित व परिवर्द्धित करे। वृहत जातक के चंद्र-सूर्य संबंधों की समीक्षा करने वाले योग में दिए गए निष्कर्षों को भी प्रत्येक कुंडली पर ज्यों-का-त्यों लागू नहीं किया जा सकता। नीचे हम इसी प्रकार की कुछ स्थितियों में होने के बावजूद अशुभ या औसत परिणाम न देकर कहीं-कहीं तो अत्यंत शुभ परिणामदायक भी होते हैं।
1. चंद्र और सूर्य अमावस्या के दिन एक ही राशि में निकटतम अंशों पर
होते हैं। इस योग को ‘कुहू’ नाम से जाना जाता है। ज्योतिष ग्रंथों में इसे दुर्योग बताया गया है। अमावस्या के दिन प्रत्येक लग्न वाले जातक में यह स्थिति दुर्योग कारक है— वृश्चिक लग्न को लें तो इसमें चंद्र नवम भाव का और सूर्य दशम भाव का स्वामी होता है । यदि ये दोनों चौथे, पांचवें, नौवें, दसवें अथवा ग्यारहवें भाव में भी एक साथ बैठकर ‘कुहू योग’ बनाते हों तो भी ये शक्तिशाली राजयोग भी जातक को देते हैं । ऐसी राजयोग कारक स्थिति में जातक को धन-समृद्धि व सम्मान का अभाव किस प्रकार होगा? तुला लग्न की कुंडली में चंद्र दसवें और सूर्य ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर 4, 5, 9, 10, 11 भाव में एक साथ बैठे हों तो ‘धन-समृद्धि’ का योग देते हैं। इनके साथ बुध भी बैठा हो तो ‘सोने पर सुहागा’ हो जाता है।
2. इसके विपरीत वृष, कन्या और मकर लग्न वाले जातकों की कुंडलियों
में सूर्य व चंद्र 3, 6 या 8 वें भाव में साथ बैठे हों (वरिष्ठ स्थिति और सम स्थिति) तो अशुभ परिणाम देते हैं। यहां तक कि कई मामलों में सात वर्ष का होते-होते बालक को अनाथ होते हुए (माता-पिता की मृत्यु होकर) भी देखा गया है। ऐसा जातक तन-मन से अस्वस्थ होकर कठिनाइयों से जीवन गुजारता है। यदि ऐसे जातक में सूर्य व चंद्र विवाह संबद्ध भावों में बैठे हों तो उसके दो विवाह हो सकते हैं। इस दुर्योग से संतान भाव जुड़े हों और कुंडली में बृहस्पति भी कमजोर व दुष्प्रभावित हो तो जातक संतानहीन रह सकता है। यह दुर्योग इन लग्न वाले जातकों में जिस भाव में भी हो उसी भाव के मामलों में ‘दारिद्रय योग’ भी देता है। साथ ही साथ जातक को वास्तविक दारिद्रय भी भोगना पड़ सकता है। अक्सर ऐसा जातक दूसरों का चाकर बनकर ही जीवन गुजारने को विवश होता है और उसका बुढ़ापा बहुत कष्ट में बीतता है।
चंद्र- शनि संबंध
यदि चंद्र और शनि एक ही भाव में इकट्ठे बैठे हों तो इसे उदरस्थ साढ़े साती का योग कहा जाता है और ऐसे जातक के जीवन की शुरुआत से ही विषम परिस्थितियों का उसे सामना करना पड़ता है। ज्योतिष के कई ग्रंथों में इसे अत्यंत अशुभ योग माना गया है। ऐसे जातक को शनि की साढ़े साती के स्थायी दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ता है।
वह सदैव चिंतित रहता है और कम-से-कम वास्तविक सुख का अनुभव तो कभी कर ही नहीं पाता। उसे कई प्रकार की समस्याओं और कष्टों को झेलना पड़ता है और अपने जीवन के अच्छे और उत्कर्ष वाले दिनों में भी वह अशांत और चिंतित बना रह सकता है।
शनि जब चंद्र लग्न से 12वें, पहले और दूसरे भावों में गोचर भ्रमण करता है तो यह समय शनि की साढ़े साती का कहलाता है। शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष रहता है और 30 वर्ष में सभी बारह राशियों का एक भ्रमण चक्र पूरा करता है। इस प्रकार प्रत्येक तीस वर्ष में प्रत्येक जातक को साढ़े सात वर्ष तक शनि की साढ़े साती से गुजरना होता है लेकिन विषमताओं से भरी यह स्थिति हमेशा ही कहर ढाने वाली सिद्ध नहीं होती और कहीं-कहीं तो यह जातक को लाभ भी पहुंचाती है। इसका विस्तृत वर्णन और शुभाशुभ फलों का खुलासा शनि वाले अध्याय में किया जा रहा है।
सूर्य-चंद्र योग के साथ शनि का गोचर संबंध
यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य व चंद्र एक साथ बैठे हों तो शनि गोचर समय जब उस राशि से बारहवीं राशि में आता है तब साढ़े साती शुरु होती है जो शनि के इस योग वाले भाव से दूसरे भाव का गोचर पूरा कर लेने के बाद ही समाप्त होती है। इस अवधि में यह जातक अपने स्वास्थ्य और अपने निकट नाते-रिश्तेदारों के स्वास्थ्य एवं जीवन पर गंभीर संकट के बादल मंडराते देख सकता है। उस व्यक्ति के माता-पिता, बच्चे, पत्नी या पति आदि और वह स्वंय भी गंभीर व पुरानी बीमारी के उभार का शिकार बन सकते हैं। वह जातक अपने जीवन में गंभीर हताशा का भी अनुभव कर सकता है।
ऐसे कुयोग वाले जातक को इस अवधि के दौरान अपने व्यवसाय अथवा नौकरी में अपमान, हानि और पदावनति का सामना करना पड़ सकता है। वह विलम्बित या बर्खास्त हो सकता है। उस पर आरोप भी लग सकते हैं। उसे रोजगार भी छोड़ना पड़ सकता है और इसी अवधि मे उसे अपना रहने का ठिकाना भी बदलना पड़ सकता है। वह आवाराओं की तरह इधर-उधर निरुद्देश्य भटकता भी रह सकता है।
इस कठिन काल में ऐसे जातक के गुणों और योग्यता को लोग अनदेखा कर देते हैं और उसका अपमान करते हैं। उसकी महत्त्वाकांक्षाएं धूल में मिल जाती है। पत्नी-पति व संतान द्वारा भी उसे प्रताड़ित या अपमानित किया जाता है या उनकी ओर से उसे निराश हो जाना पड़ता है। उसे इस अवधि में झूठे आरोपों में कोर्ट-कचहरी के चक्कर या सजा का सामना भी करना पड़ सकता है।
इस दुर्योग (सूर्य-चंद्र साथ-साथ) वाले जातकों पर शनि के गोचर का दुष्प्रभाव बहुत गहरा और स्थायी पड़ सकता है, क्योंकि शनि सूर्य का प्रबलतम शत्रु और चंद्र के प्रति भी शत्रुता भाव रखने वाला ग्रह होता है। दक्षिण भारत के नाड़ी ग्रंथों में कहा गया है कि ऐसे जातक को यह सारे भारी-भरकम कष्ट अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण उठाने पड़ते हैं। यह पाप उसने पूर्व जन्म में अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार के रूप में किए होते के जीवन में 30 से 60 वर्ष की उम्र के हो सकती है। तीस से पहले और साठ वर्ष के बाद की आयु वाले ऐसे जातक के लिए इस प्रकार की साढ़े साती कोई बड़ा दुष्प्रभाव नहीं छोड़ती। (यहां यह उल्लेखनीय है कि कोई भी ऐसे योग वाला जातक तीस से साठ वर्ष की उम्र के बीच इस प्रकार की साढ़े साती से बच नहीं सकता हैं। यदि शनि की साढ़ेसाती ऐसे जातक बीच आए तो सर्वाधिक नुकसानदेह साबित
ऐसी अवस्था में चंद्र के साथ अन्य ग्रहों का शुभ-अशुभ संबंध महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस प्रभाव के अनुसार ही शनि की साढ़े साती के परिणाम ‘कुछ नरम — कुछ गरम’ हो सकते हैं। चंद्र का यदि सूर्य के साथ-साथ साधु प्रकृति के ग्रह बृहस्पति से भी शुभ संगति संबंध हो तो समझा जाता है कि शनि की साढ़े साती घातक परिणाम नहीं देगी, लेकिन ऐसी भी स्थितियां देखी गई हैं जबकि इस स्थिति में शनि ने भयंकरतम विनाशक परिणाम अपनी साढ़े साती के दौरान दर्शाएं हों अतः समझदार ज्योतिषी और पाठक को चाहिए कि ज्योतिषी स्थितियों पर गहन विचार के बाद ही इस संबंध में किसी प्रकार की निश्चित धारणा बनाए ।
महादशाएं- दशाएं और चंद्र
चंद्र भी अन्य ग्रहों की भांति ही अपनी महादशा दशावधि में निम्नानुसार फल प्रदान करता है :
1. कुंडली के जिस भाव में चंद्र बैठा हो उस भाव की स्थिति व बल के अनुसार ।
2. अपनी राशि कर्क की भाव स्थिति के अनुसार ।
3. जिस भाव में चंद्र बैठा है उस भाव के स्वामी की प्रकृति, बल व स्वभाव के अनुसार ।
4. अपने भाव कारकत्व के अनुसार ।
5. अपने साथ संगतिकारक अथवा दृष्टिकारक संबंध रखने वाले ग्रह-ग्रहों की प्रकृति, स्वभाव और बल के अनुसार ।
पूर्वोक्त सभी प्रभाव चंद्र की महादशा के अंतर्गत विभिन्न ग्रहों की अंतरदशाओं प्रत्यंतर दशाओं की अवधि में भिन्न-भिन्न परिमाण में मिलते हैं।
उपरोक्त के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि ज्योतिष में कुंडली के दूसरे व सातवें भावों को ‘मारक स्थान’ समझा जाता है। इसके साथ ही तीसरा व छठवां भाग और लग्न भाव भी जीवनावधि के बारे में फल कथन से पूर्व विचारित किए जाते हैं। चंद्र यदि इनमें से किसी भाव का स्वामी हो तो जातक के लिए इसके ‘मारक’ सिद्ध होने की संभावना लगभग नगण्य हो जाती है। यद्यपि अपनी महादशा और अंतरदशाओं की अवधि में यह जातक को शारीरिक और मानसिक रोग दे सकता है।
चंद्र एक प्राकृतिक शुभ ग्रह है अतः यदि वह केंद्र स्थान या दूसरे भाव में बैठा हो तो वांछित मात्रा में अच्छे परिणाम नहीं देता। यह ज्योतिषीय व्यवस्था विशेष रूप से तुला और मकर लग्न वाली कुंडलियों पर और सामान्य रुप से मेष और कर्क लग्न वाली कुंडलियों पर लागू मानी जा सकती है। मेष लग्न वालों में चंद्र चौथे भाव का और कर्क लग्न वालों में लग्न भाव का ही स्वामी होता है। इस प्रकार की शुभ स्थितियों के बावजूद मेष व कर्क लग्न वाले जातकों में चंद्र मानसिक चिंताएं और शारीरिक व्याधियां अपनी महादशा के दौरान दे सकता है। विशेषकर जब चंद्र केंद्र स्थानों में से किसी में बैठा हो और बली हो तो उक्त परिणाम लगभग निश्चित ही माने जाने चाहिए ।
चंद्र के कुछ प्रमुख योग
ज्योतिष के लगभग दो दर्जन योगों में चंद्र की स्थिति, उसका अन्य ग्रहों से संबंध उनके स्वामित्व वाली राशि की भाव स्थिति और भाव कारकत्व का समावेश एक अनिवार्य तत्त्व है। इन योगों में सुनफा, अनफा, धुर्धुरा, गज केसरी, महाशक्ति योग, नीच भंग राजयोग, चंद्र-मंगल, चंद्र-केतु, चंद्र-राहु, चंद्र-शुक्र और चंद्र-शनि, कमाद्रुम आदि प्रमुख हैं।
इसके साथ ही केंद्रस्थ चंद्र को भले ही वांछित शुभ परिणाम देने वाला न माना गया हो, कुछ ज्योतिर्विदों ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगकारक माना है। केंद्रस्थ चंद्र को कुंडली के कई प्रकार के दोषों का निवारण कर देने वाला माना गया है। प्रमुख योग और उनके महत्त्वपूर्ण फल संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार हैं :
1. सुनफा : चंद्र से दूसरे भाव में कोई ग्रह (सूर्य को छोड़कर) स्थित हो तो ‘सुनफा योग’ बनता है। यह योग जातक को स्वयं अर्जित संपत्ति, अच्छी बुद्धि और सम्मानपूर्ण स्थिति प्रदान करता है। यह जातक को शासक या समतुल्य पद पर पहुंचा सकता है।
2. अनफा : यदि चंद्र से बारहवें भाव में कोई ग्रह ( सूर्य को छोड़कर) बैठा हो तो अनफा योग बनता है। यह योग सुगठित शरीर, सुंदर व राजसी व्यक्तित्व, अच्छी प्रतिष्ठा और विनम्र स्वभाव प्रदान करता है। शुरू के आधे जीवन तक ‘फैशनेबल’ रहता है लेकिन बाद में सादा जीवन अपना लेता है ।
3. धुर्धुरा : यदि कुंडली में सुनफा-अनफा दोनों ही योग हों तो वह धुर्धुरा योग बनता है। इसे चल-अचल संपदा प्रदान करने वाला योग माना जाता है।
4. गज-केसरी : यदि कुंडली में बृहस्पति चंद्र से केंद्र में बैठा हो अर्थात् 1, 4, 7, 10 भावों में बैठा हो तो यह योग बनता है। यह एक महत्त्वपूर्ण धन-समृद्धि व राजयोग माना जाता है। तथापि चंद्र की कुंडली में स्थिति व बल पर इस योग के फलों में उतार-चढ़ाव आता रहता है।
5. चंद्र-मंगल : यदि कुंडली में चंद्र व मंगल साथ-साथ बैठे हों अथवा एक-दूसरे से पांचवे, सातवें या नौवे भाव में बैठे हों तो यह प्रथम श्रेणी राजयोग बनता है। यह संबद्ध जातक को धन, समृद्धि, सम्मान और उच्च पद प्रदान करता है ।
6. चंद्र-बुध : यदि चंद्र व बुध दोनों ग्रह साथ-साथ बैठे हों तो अथवा एक-दूसरे से केंद्र में बैठे हों तो जातक को विद्वान और मेधावी बनाते हैं ।
7. चंद्र-केतु : यदि चंद्र व केतु साथ-साथ हों तो जातक ‘सिद्ध’ जैसी क्षमता प्राप्त कर लेता है। वह इच्छा मात्र से राजसी सुख-वैभव प्राप्त कर सकता है और प्रसिद्ध तांत्रिक बन जाता है।
8. चंद्र-राहु : यदि चंद्र व राहू साथ-साथ हों तो यह दुर्योग कहलाता है और जातक को अपराधी वृत्ति का बना देता है, लेकिन यदि राहु चंद्र से 3, 6, 11 भावों में बैठा हो तो यह भौतिक सुखों का प्रदाता योग बनता है।
9. अधि योग : यदि चंद्र से 6, 7, 8 भावों में प्राकृतिक शुभ ग्रह बृहस्पति, शुक्र व बुध अलग-अलग या साथ-साथ एक ही भाव में स्थित हों तो यह योग बनता है। यह दीर्घ जीवन, समृद्धि, विश्वसनीयता, प्रतिष्ठा और प्रभाव देने वाला योग होता है।
10. चंद्र-शुक्र : ये दोनों ग्रह साथ-साथ हों तो जातक को महत्त्वाकांक्षी, राजसी आदतों वाला और सुंदर व्यक्तित्व का स्वामी बना देते हैं।
11. केंद्रस्थ चंद्र : यदि चंद्र अकेला किसी केंद्रीय भाव (विशेषकर लग्न या दसवां भाव) में बैठा हो तो राजा के तुल्य हैसियत और प्रसिद्धि प्रदान करता है । 12. चंद्र-शनि : यदि ये दोनों साथ-साथ कुंडली में बैठे हों तो जातक को त्यागी और वैरागी बना देते हैं ।
13. कमाद्रुम : यदि जातक की कुंडली में चंद्र से 12वें या दूसरे भाव में (आगे-पीछे) कोई ग्रह स्थित न हो तो कमाद्रुम योग बनता है। यह निर्धनता देने वाला दुर्योग होता है।
पौराणिक कथा
चंद्र को महर्षि अत्रि और महासती अनुसूया का पुत्र माना जाता है। पुराणों में चंद्र को जन्म देने में महर्षि अत्रि का योगदान तो माना गया है लेकिन अनुसूया की कोख से उसका जन्म कहीं नहीं बताया गया है। ‘पद्म पुराण’ में वर्णित चंद्र जन्म कथा के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र महर्षि अत्रि ने एक बार घोर तप किया। ‘अनुत्तर’ नाम के इस तप का समापन होने के बाद उनकी आंखों से कुछ आंसू निकले जिन्हें ‘पवन’ ने उड़ाकर विभिन्न दिशाओं में फैला दिया।
दिशाकन्याओं ने इन अश्रु बूंदों को संतान प्राप्ति के उद्देश्य से ग्रहण कर लिया लेकिन वे इन महातेजस्वी अश्रु बूंदों को गर्भ में संभाल नहीं सकी और उनका त्याग कर दिया। ब्रह्मा ने उन परित्यक्त आसुंओं को एक अत्यंत सुंदर युवा पुरुष के रूप में परिवर्तित कर दिया और उसे ब्रह्मलोक ले गए। ब्रह्मा ने उसका नाम चंद्रमा रखा। वहां देव, गंधर्व, अप्सराओं और ऋषियों द्वारा की गई स्तुतियों से चंद्रमा का तेज बहुत बढ़ा । दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 नक्षत्र कन्याओं का विवाह इस अति सुंदर लेकिन मनचले युवक के साथ कर दिया। इन सभी कन्याओं में चंद्रमा को रोहिणी सर्वाधिक प्रिय थी । अन्य पलियों की वह उपेक्षा करता था। इससे दुःखी होकर दक्ष ने उसे नपुंसकत्व का शाप दे दिया। शिवाराधना से उसने इस श्राप के प्रभाव को क्षीण तो बना लिया लेकिन उसका प्रभाव समाप्त नहीं कर पाया। वह महीने में बस एक दिन ही पूर्ण पुरुष रूप में आ पाता है, शेष दिनों में वह पूर्ण नहीं होता ।
चंद्र के अशुभ प्रभावों का उपचार
यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में चंद्र अशुभकारक हों, अशुभकारक स्थितियों मैं बैठा हो अथवा बलहीन हो, उन्हें चंद्र पीड़ा निवारण के लिए सफेद वस्त्र अथवा पीले वस्त्र धारण करने चाहिए। उन्हें चांदी की अंगूठी में मोती या चंद्रमणि पहनना भी उपयुक्त रहता है। जातक मोती की माला भी धारण कर सकता है।
मोती या चंद्रमणि की अंगूठी 4 रत्ती या इससे अधिक मात्रा के मोती की होनी अभीष्ट है। जातक इस अंगूठी को पुण्य, रोहिणी, हस्त या श्रवण नक्षत्रों के काल में पड़ने वाले सोमवार को विधिपूर्वक पूजा या अनुष्ठान करवाकर धारण कर सकता है। अंगूठी तर्जनी अंगूली या कनिष्ठिका अंगुली में ही (बाएं हाथ की ) धारण करना चाहिए। चंद्र के लिए उत्पन्न निमरु, शंख जोड़, सफेद अकीक व गौरी नग आदि भी पहने जा सकते हैं ।
चंद्र पीड़ा निवारण के लिए आस्थावान लोग शिवाराधना और सोमवार व्रत को भी अपना सकते हैं।
मंत्रोपचार
चंद्र पीड़ा निवारण के लिए निम्न मंत्रों का विधिपूर्वक जाप भी उत्तम और प्रभावकारी माना गया है।
लघु मंत्र: ॐ सौं सोमाय नमः (जप संख्या 11000)
तंत्रोक्त मंत्र ॐ श्रीं श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः (जप संख्या 11,000)
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