कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव
सौरमंडल के केंद्र सूर्य के बाद विशाल आकार में बृहस्पति का स्थान आता है। यह सूर्य को छोड़कर शेष सभी ग्रहों से विशालकाय तथा भारी ग्रह है। पृथ्वी की अपेक्षा यह 318 गुना बड़ा है। विशाल आकार के कारण यह ग्रह भी तेज नहीं चल पाता और केवल 8 मील प्रति सैकंड की गति से अपनी अंतरिक्ष कक्षा में संचरण करते हुए यह सूर्य की एक बार की परिक्रमा में 11.86 वर्ष का समय लगाता है। सूर्य से इसकी दूरी लगभग 48,32,00,000 मील तथा पृथ्वी से लगभग 36,70,00,000 मील मानी जाती है। यह पृथ्वी से इसकी कक्षा की निकटतम दूरी मानी गई है। बृहस्पति का व्यास 9,86720 मील बताया जाता है लेकिन इस पर अभी तक ज्योतिर्विदों और खगोल शास्त्रियों में मतैक्य नहीं बन पाया है। वस्तुतः देवताओं के गुरु कहलाने वाले बृहस्पति ग्रह से बढ़कर कोई भी ग्रह संत स्वभाव वाला नहीं माना गया है। ज्योतिर्विदों ने इसी ग्रह को ‘जीव’ अर्थात् प्राण की संज्ञा दी है जबकि सूर्य को देह का कारक और चंद्र को ‘मन’ का कारक माना है ।
ऋषि-महात्माओं ने बृहस्पति की कल्पना एक ऐसे पुरुष के रुप में की है जो वृहद्काय, विद्वान, सात्विक, मिष्ठान्नप्रिय है। बिना बृहस्पति की कृपादृष्टि के किसी भी मानव जातक का जीवन सुखी और संतुष्ट होना असंभव है। बृहस्पति की आंखें चमकदार व बाल सुनहरे माने गए हैं।
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार बृहस्पति महर्षि कर्दम की तीसरी पुत्री श्रद्धा और ऋषि आंगिरस की संतान है। भगवान विष्णु ने इन्हें लोक कल्याण के जो कार्य सौंपे हैं उनके अनुसार यह ग्रह लोक को एक दार्शनिक आध्यात्मिक मार्ग निर्देशन देता है और लोगों में धर्म, मर्यादा, सामाजिकता, पितृ भक्ति, गुरु भक्ति और देव भक्ति की आध्यात्मिक भावनाएं जगाता है।
ब्रह्मांडीय कुंडली में बृहस्पति को दो राशियों धनु और मीन का स्वामित्व सौंपा गया है। इनमें धनु राशि एक सशस्त्र धर्मयोद्धा पुरुष का और मीन राशि निर्मल स्वभावी, शांत स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। धनु को अग्नि तत्त्व का प्रतिनिधि और मीन को जल तत्त्व का प्रतिनिधि माना गया है। बृहस्पति की उच्च की राशि कर्क (जिसका स्वामी चंद्र) और नीच की राशि मकर (जिसका स्वामी शनि) होता है। धनु उसकी मूल त्रिकोण राशि भी मानी गई है। इनमें कर्क जलीय राशि और मकर भूगुण रखने वाली राशि है।
बृहस्पति किसी जातक के जीवन में निम्न अंगों, शारीरिक अवयवों, कार्यों धातुओं, स्थानों और रोगों का प्रतिनिधि, कारक और संचालक ग्रह माना गया है।
1. स्थान —— कोषागार बैंकिंग संस्थान व बीमा कम्पनियां, विद्यालय, विद्वानों का निवास, यज्ञशालाएं
2. धातु — चांदी
3. रत्न- पीला पुखराज
4. शारीरिक अंग व अवयव — वसा, पेट, आंतें
5. वस्तुएं —पांडुलिपियां, बेंजोइन, टिन, इलायची
6. रोग — जिगर की खराबी, ड्राप्सी, ज्ञान शून्यता, वसा की परतों का विखंडन, अपच, श्वेत प्रदर और मानसिक रोग
7. रिश्ते-नाते – पुत्र, पौत्र, बच्चे, विद्वान व्यक्ति, दादा, शिक्षक आदि इसके अलावा बृहस्पति मंत्रीपद, सलाहकार पद, शिक्षा, बुद्धि, संपदा, प्रसिद्धि और यश आदि भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करता है ।
बृहस्पति शुभ और बली हो तो
किसी जातक की कुंडली में शुभ, बली और दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा बृहस्पति, उसके लिए वरदान की तरह होता है। इस रूप में बृहस्पति बुद्धि, सामान्य समृद्धि, सद्व्यवहार, सम्मान, ईश्वर-भक्ति, शास्त्रों का अध्ययन, बुजुर्गों के प्रति आदर भावना, गुरुभक्ति, तीर्थाटन, ज्योतिष ज्ञान, अभिनंदन, न्याय, कानून, नैतिकता, दार्शनिकता, धर्मार्थ भावना, मिलनसारी, आशावादिता, सज्जन व्यक्तियों से संपर्क, उच्च तार्किक क्षमता, धार्मिक समारोहों का आयोजन, विवाह समारोहों का आयोजन, धन-संपत्ति, पुत्र प्राप्ति, लेखन प्रतिभा, धैर्य, जितेन्द्रियता आदि का दाता, कारक व संचालक होता है।
इसके अतिरिक्त शुभ व दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा बृहस्पति जिगर, धमनियां, रक्त प्रवाह, वसा, मज्जा आदि को दुरुस्त रखकर जातक को स्वस्थ जीवन बिताने में भी सहायक होता है। वह पति और पिता दोनों का ही प्रतिनिधित्व करता है । ‘फल दीपिका’ में मंत्रेश्वर ने कहा है कि बृहस्पति लग्न-चंद्र से दूसरे, पांचवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें भावों का कारक भी होता है ।
बृहस्पति मूलतः सात्विक ग्रह होने के कारण जातक को कुमार्ग से और कुमार्गी इच्छाओं से भी बचाता है। लेकिन यह ग्रह भौतिक सुख-समृद्धि का विरोधी नहीं होता अलबत्ता पूरी तरह भौतिकता में डूबे व्यक्ति को धर्म और मर्यादाओं का अहसास जरूर करा देता है।
शुभ, बली और दुष्प्रभाव मुक्त होकर कुंडली में बैठा बृहस्पति जातक में धार्मिक आस्थाएं जगाता है लेकिन साथ ही वह जातक को अव्यवहारिक जीवन की ओर भी नहीं ले जाता । वह लोक कल्याणकारी ग्रह है और सच्चे अर्थों में लोगों को सामाजिक और दुनियादार बनाता है। मैं विनम्रता के साथ अपने वरिष्ठ ज्योतिष शास्त्रियों की इस दलील से असहमति व्यक्त करना चाहूंगा कि बृहस्पति लोगों को सांसारिकता छोड़कर वैराग्य की ओर ले जाता है। कम-से-कम मैंने तो अभी तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखा जिसे कि शुभ बृहस्पति ने (और यहां तक कि बलहीन और दुष्प्रभावित होकर कुंडली में बैठे बृहस्पति ने भी) किसी को सांसारिकता से पलायन करने वाला और जोगिया बाना धारकर जंगलों में भटकने वाला बनाया हो।
बृहस्पति संसार त्यागने की नहीं वरन् जीवन के अश्लील, अभद्र पहलुओं से मुक्त होने की प्रेरणा जगाता है। वह मानव को वह सब बातें त्यागने के लिए प्रेरित करता है जो मानवीय गरिमा के विरुद्ध जाती हों। वह जातक में जीवन के प्रति अरुचि तो निश्चित रुप से ही नहीं जगाता । बृहस्पति चाहता है कि लोग अपने सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करते हुए मातृ ऋण, पितृ ऋण और गुरु ऋण उतारें।
बृहस्पति का कुंडली पर शुभ प्रभाव कभी-कभी चमत्कारिक रूप से जातक की उस समय मदद करता है जब इस दिशा में सारे मानवीय प्रयास असफल हो चुके हों। यदि बृहस्पति कुंडली में दसवें भाव में अपनी राशि या अपनी उच्च की राशि में बैठा हो, या इस भाव में उसकी राशि स्थित हो और वह इस भाव पर दृष्टि रखता हो तो यह चमत्कार उस जातक को घोर निराशा के क्षणों में निकालकर फिर से आशावादी बनाने के लिए कर दिखाता है।
बृहस्पति बलहीन और दुष्प्रभावित हो तो
उपरोक्त स्थिति के विपरीत यदि बृहस्पति कुंडली में बलहीन और दुष्प्रभावित होकर बैठा हो तो संबंधित जातक के लिए अभिशाप होता है। ऐसी स्थिति में जातक मानवीय और धार्मिक भावनाओं से वंचित हो जाता है और उसकी अंतरात्मा गूंगी हो जाती है। उसके विचार कुमार्गी हो जाते हैं और वह ‘काम निकलना चाहिए, चाहे जिस तरीके से भी निकले’ की उक्ति का कायल, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और धन-लोलुप बन जाता है। ऐसा व्यक्ति आत्म-नियंत्रण खो बैठता है। वह निर्दयता, दिखावे, खर्चीलेपन की प्रवृत्ति रखता है।
वह झूठी आशाओं में जीता है और सस्ती लोकप्रियता पाने का इच्छुक होता है। वह संकीर्ण मानसिकता का और अत्यधिक आशावादिता का भी शिकार होता है। वह ढोंगी होता है और धर्म का दिखावा करता है। ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर पाप करने का शौकीन होता है। वह अपनी वासना का गुलाम भी होता है। उसे कभी भी अपनी करतूतों पर पछतावा नहीं होता । ऐसे व्यक्ति को बच्चे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते। सामाजिक रूप से वह गैर जिम्मेदार और पहले सिरे का बेशर्म होता है। उसे समाज पर बोझ समझा जा सकता है।
यदि बृहस्पति कमजोर और दुष्प्रभावित होने के साथ-साथ छठवें भाव, उसके स्वामी ग्रह, उसके कारक ग्रह शनि या मंगल, राहु अथवा केतु से उसका संबंध हो तो जातक को शारीरिक कष्टों की प्रबल संभावना होती है और यदि बृहस्पति का उक्त स्थिति में होने के साथ-साथ लग्न से भी संबंध हो तो निश्चित ही समझना चाहिए कि ऐसा बृहस्पति अपनी दशा-अंतर के दौरान जातक को शारीरिक कष्ट देगा। यदि लग्नेश या लग्न भाव के कारक सूर्य या चंद्र से भी लग्न के साथ-साथ ऐसे बृहस्पति का संबंध जुड़ता हो तो पक्का है कि जातक रोगी होगा। ऐसे जातक में जहर फैल जाने, मधुमेह, एक्जिमा, त्वचा रोग, ड्राप्सी, ट्यूमर, दिमागी तनाव, नाक में रोग के अलावा जिगर की खराबी, प्ल्यूरिसी (फेफडों में पानी भर जाना), फ्लेट्यूलेंस, संवेदना शून्यता आदि के भीषण रोग भी हो सकते हैं।
विभिन्न राशियों में बृहस्पति की स्थिति के फल
बृहस्पति की दोनों राशियां धनु और मीन परस्पर भिन्न प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। धनु राशि अग्नि तत्त्व प्रधान और उद्यमशील पुरुष होती है। यह राशि तंत्र, मंत्र, रहस्य विद्याओं, दर्शन, मोहक व्यक्तित्व, कफ, पारम्परिक सोच, सहानुभूति, ईमानदारी, दिखावे से विरक्ति, बनावट से विरक्ति और अनुशासित जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। यह सामाजिक कर्तव्यों के निर्वाह की भी राशि होती है । दूसरी ओर मीन राशि जल तत्त्व प्रधान होती है और इसमें आत्मविश्वास और पहल करने का अभाव होता है। यह राशि अनुदार विचारों, परंपराओं और रीति-रिवाजों का कड़ाई के साथ पालन, बेचैनी, निर्भरता, निष्पक्षता, औचित्य और शारीरिक दुर्बलता का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्री होती है। बृहस्पति इन दोनों में से किसी भी राशि में बैठा हो तो आराम और सुविधा महसूस करता है ।
बृहस्पति धनु राशि में बैठा हो तो उसका बल अधिक होता है। यह उसकी मूल त्रिकोण राशि होने के कारण वह संबंधित जातक को सांसारिक मामलों में अच्छी उपलब्धियां प्राप्त करने और सामाजिक दायित्वों का भली-भांति निर्वाह करने के लिए पर्याप्त मजबूती और शक्ति देता है। यदि वह मीन राशि में हो तो जातक को ईश्वर भक्ति में लगा देता है और जातक ईश्वर के प्रति समर्पित भावना से ही प्रेरित होकर वह समाज के प्रति और घर-परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का पालन करता है। वह सांसारिक कार्यों से भी अधिक आध्यात्मिक क्षेत्र में तरक्की करता है।
यदि बृहस्पति की राशि (धनु या मीन) में लग्नेश, चंद्र और बुध जैसे शुभ ग्रह स्थित हों तो उनकी मौलिक प्रवृत्तियों में और भी अधिक निखार आ जाता है। जातक के व्यक्तित्व में भी इन ग्रहों के गुणधर्म झलकते हैं लेकिन ऐसी स्थिति में उन ग्रहों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं होना चाहिए अन्यथा उनके गुणधर्म काफी हद तक कम भी हो जाते हैं ।
बृहस्पति कर्क राशि के 5 वें अंश में उच्चत्व प्राप्त करता है। यह राशि चंद्र की होती है। बृहस्पति की मूल प्रवृत्ति ब्रह्मांडीय कुंडली के इस चौथे भाव के साथ समरस हो जाती है। जातक अपनी माता से गहरा लगाव रखता है। उसका घरेलू वातावरण पूर्ण शांत रहता है। उस जातक को माता से अच्छे संस्कार तो मिलते ही हैं, ऐशोआराम के विभिन्न साधनों (वाहनों, इमारतों और अन्य उपभोक्ता सामान) की भी उसके पास कोई कमी नहीं रहती । माता से प्राथमिकता शिक्षा व संस्कार मिलने के कारण ऐसा जातक आत्मोत्सर्ग, दयालुता और सहिष्णुता की भावनाओं से ओत-प्रोत रहता है ।
धनु लग्न की कुंडली में यदि बृहस्पति लग्नेश होकर कर्क राशि (अपनी उच्च की राशि) में भी बैठा हो तो भी अपने उच्चत्व का कोई प्रभाव नहीं दिखा पाता क्योंकि इस लग्न में वह लग्नेश होकर आठवें भाव में बैठा होता है। लग्न मीन हो और लग्नेश बृहस्पति अपनी उच्च की राशि कर्क में बैठा हो तो पांचवें भाव में बैठा होने के कारण जातक को पर्याप्त भाग्यशाली बना सकता है।
बृहस्पति मकर राशि के 5 अंशों में नीचावस्था में अर्थात् अत्यंत क्षीण बल लेकर बैठा होता है। मकर भू-राशि है और शनि उसका स्वामी ग्रह होता है । मकर राशि प्राकृतिक कुंडली में 10वें भाव में स्थित होने के कारण यह राशि उद्यम, व्यवसाय, पेशा, पद और सम्मान की कारक होती है। बृहस्पति के स्वभाव का मकर राशि के स्वभाव से कोई मेल नहीं होता अतः इसमें बैठा बृहस्पति अधिक अनुकूल तो नहीं माना जाता लेकिन जातक की सोच से सांसारिक जरूर बना देता है । ऐसे योग वाला जातक धन कमाने के लिए कठिन परिश्रम करता है।
बृहस्पति धनु के शून्य से 10° तक मूल त्रिकोण में होता है। मूल त्रिकोण को यद्यपि ज्योतिर्विद ग्रह को अधिक बल देने वाली और शुभ स्थिति मानते रहे • हैं लेकिन यहां भी मैं अपना मत देना चाहूंगा कि मूल त्रिकोण में किसी ग्रह की स्थिति का उसके बल पर कोई प्रभाव पड़ता हो, ऐसा मैंने कभी महसूस नहीं किया । इस स्थिति में भी ग्रह अपनी ही राशि में स्थित होने का फल ही देता है, इससे अधिक कुछ नहीं ।
आग्नेय राशि मेष का स्वामी मंगल बृहस्पति का परम मित्र माना जाता है। बृहस्पति की संगति और प्रभाव में मंगल की तनी हुई भृकुटि काफी हद तक सीधी हो जाती है। मंगल उसकी सुनता और मानता है। यदि बृहस्पति मेष में बैठा हो तो मित्र के घर में उसका अतिशय सत्कार उसे नए उत्साह से भर देता है। अन्य राशियों में भी बृहस्पति अपनी उपदेशक भूमिका से परे नहीं हटता और उन राशियों की प्रकृति और स्वभाव को अपनी प्रकृति और स्वभाव के पूर्ण अनुकूल बनाने का ही प्रयास करता है।
कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव
दग्ध और वक्री बृहस्पति : सूर्य प्रचंड ताप से तपता हुआ ग्रह है और जो भी अन्य ग्रह उसके नजदीक जाता है वह भी सूर्य से निस्सरित होते इस भीषण ताप की चपेट में आ जाता है। इस नियम में कोई अपवाद नहीं है । बृहस्पति भी जब सूर्य से 12° से कम की दूरी पर कक्षीय परिक्रमा करता है तो वह भी इस ताप की चपेट में आकर दग्ध हो जाता है। ज्योतिर्विदों ने इस स्थिति वाले बृहस्पति को निष्प्रभावी अथवा मामूली प्रभाव वाला (सूर्य से अंशों में दूरी के अनुपात में) समझा है। यहां भी मैं विद्वान ज्योतिर्विदों से असहमत हूं और मानता हूं कि दग्धता की स्थिति में भी ताकतवर ग्रह अपनी प्रवृत्ति बिल्कुल छोड़ तो नहीं देते। यदि ऐसा होता तो बुध और शुक्र जो कि सूर्य के आसपास ही रहते हैं, लगभग आधी कुंडलियों के प्रति एकदम नाकारा साबित हो सकते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है। ज्योतिषर्विद भी मानने लगे हैं कि दग्धता के कारण ग्रह की शक्ति भले ही कम हो जाए लेकिन अपनी मूल प्रकृति तो वह इस अवस्था में भी नहीं बदलता ।
बृहस्पति लगभग एक वर्ष में एक राशि अर्थात् 30° का सफर करता है। अपनी राशि परिक्रमा के दौरान वह वर्ष में लगभग 120 दिन अर्थात् लगभग एक तिहाई वर्ष वक्री रहता है। ज्योतिष के मानक ग्रंथों में वक्री ग्रहों की भूमिका को नकारात्मक बताया जाता है लेकिन इस मामले में उन्होंने बृहस्पति को अपवाद ना है । ‘सर्वार्थ चिंतामणि’ का मत है कि बृहस्पति वक्री भौतिक दृष्टि से अधिक अच्छे फल देने में समर्थ हो जाता है। वक्री बृहस्पति को संपदा, पुत्र, जीवनसाथी व अन्य लाभ देने वाला ग्रह इस ग्रंथ ने माना है लेकिन अनुभव की कसौटी पर यह व्यवस्था खरी नहीं उतरती । यदि बृहस्पति की दशा या अंतरदशा चल रही हो तो वह अपने वक्री होने के समय में जातक के जीवन में अनिश्चितता भरा माहौल लाता है और उसे भविष्य के प्रति चिंतित कर देता है। ऐसे समय में यदि वह अच्छी भाव स्थिति में और मजबूत होकर बैठा हो तो भी वांछित परिणाम नहीं दे पाता। वक्री होकर उसकी गति मंद पड़ जाती है और वह फल देने में भी विलंब करने लगता है।
विभिन्न भावों में बृहस्पति
ज्योतिष शास्त्रियों ने कुंडली में बृहस्पति की स्थिति प्रत्येक लग्न के लिए शुभ-अशुभ प्रभावकारक और अनुकूल दोनों ही प्रकार से तय की है। आप बृहस्पति की स्थिति अपनी कुंडली के किस भाव में चाहेंगे ?
केंद्र भावों 1, 4, 7, 10 और त्रिकोण भावों 5, 9 में बृहस्पति की स्थिति को मजबूत माना जाता है। लग्न अर्थात् पहले भाव में बृहस्पति की स्थिति को ‘दिग्बल’ प्राप्त माना जाता है। यदि इस भाव में बृहस्पति अपनी राशि (धनु, मीन) अथवा अपनी उच्च की राशि कर्क में बैठा हो और साथ ही सूर्य के अति समीप (± 12°) होने से दग्ध न हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है। वैसे बृहस्पति पर दग्धता का अधिक प्रभाव, ‘आठवें भाव’ को छोड़कर नहीं होता। यदि शुभ ग्रह बृहस्पति के साथ उपरोक्त भावों में से किसी में बैठे हों अथवा उस पर दृष्टि रखते हो तो ऐसे बृहस्पति को उत्तम फलकारक माना जाता है ।
दुःस्थान कहलाने वाले 6, 8, 12वें भावों में बृहस्पति की स्थिति शुभ नहीं मानी जाती। यदि बृहस्पति इन भावों में से किसी का स्वामी होकर शुभ स्थिति में दुष्प्रभावों से मुक्त होकर बैठा हो तो वह अपनी दशा-अंतरदशा में भी अधिक प्रतिकूल प्रभाव नहीं दिखाता और स्वभावगत उदारता और नरमी से काम लेता है। इसके विपरीत यदि 6, 8, 12 भावों में से किसी का स्वामी होकर बृहस्पति से दुष्प्रभावित भी हो तो वह अशुभ फल अपनी दशा-अंतरदशा के दौरान देता है, लेकिन दंड देने में भी वह अपना संत स्वभाव नहीं छोड़ता । बृहस्पति अशुभ प्रभाव भी बहुत ही नरम होकर दिखाता है।
बृहस्पति की नवम भाव में स्थिति उसकी अपनी राशि (धनु या मीन) में हो तो अत्यंत शुभ और योगकारक मानी जाती है। यदि वह इस भाव में धनु राशि में बैठा हो और उस पर किसी अशुभ ग्रह का दुष्प्रभाव न हो तो बहुत ही अच्छे फल देता है। इस भाव में बैठा बृहस्पति लग्न, तीसरे भाव और पांचवें भाव को देखता है और इन भावों के मामलों में अत्यंत शुभ प्रभाव दिखाता है। ऐसी स्थिति में बैठा बृहस्पति जातक के लिए अच्छे स्वास्थ्य, अच्छी संतान और अच्छे भाग्य का संकेतक बन जाता है। विभिन्न भावों में बृहस्पति की स्थिति के प्रभाव निम्न प्रकार हैं
1. पहला भाव : यदि कुंडली के पहले भाव में बृहस्पति बैठा हो तो जातक कर्मठ, तेजस्वी, स्वस्थ और दीर्घायु होता है। जातक शास्त्र-पारंगत और विद्वान होता है और ज्योतिष, अंतरिक्ष विज्ञान, शिक्षण आदि के व्यवसायों में रुचि रखता है। इस भाव में ‘दिग्बली’ होकर बैठा बृहस्पति जातक को अच्छा स्वास्थ्य, लाभ संतान का जन्म, प्रसिद्धि और संपन्नता देता है। इस बारे में विशेष प्रभाव वह अपनी दशा-अंतरदशा की अवधि में दिखाता है।
2. दूसरा भाव : इस भाव में बैठा बृहस्पति जातक को अदभुत तर्क शक्ति देता है। जातक सुंदर, मृदुभाषी, भाग्यवान और दान पुण्य करने वाला होता है। वह अच्छी धन-संपत्ति जोड़ लेता है। अच्छा भोजन और सत्पुरुषों की संगति का शौकीन होता है। वह अपने जीवनकाल में बृहस्पति की दशा-अंतरदशाओं के आने पर विशेष सम्मान और प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है।
3. तीसरा भाव : बृहस्पति तीसरे भाव में बैठा हो तो जातक को विद्वान, शास्त्रों का ज्ञाता, लेखक, योग साधक और ईश्वर में आस्था रखने वाला बनाता है। वह विपरीत लिंगियों में अधिक लोकप्रियता प्राप्त करता है। ऐसा बृहस्पति रखने वाला जातक परिवार में इकलौती संतान नहीं होता। उसके भाई-बहन होते हैं लेकिन तीसरे भाव में बैठा बृहस्पति जातक में शारीरिक सुखों के प्रति ललक भी पैदा करता है। वह सुखी और प्रसिद्ध होता है।
4. चौथा भाव : यदि जातक की जन्मकुंडली के चौथे भाव में बृहस्पति बैठा हो तो वह उसे सम्पत्तिशाली, समृद्ध, उद्योगपति, शासन द्वारा मान्य, प्रतिष्ठित व जनप्रिय बना देता है लेकिन साथ ही वह उसे भोग-लिप्सा भी देता है। जातक शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियां प्राप्त करता है। उसे मित्रों के रूप में भरोसेमंद सत्पुरुषों का साथ मिलता है। भू-संपदा से उसे अत्यधिक लाभ मिल सकता है।
5. पांचवा भाव : इस भाव का बृहस्पति जातक को आस्तिक, ज्योतिषी और कुलश्रेष्ठ बनाता है लेकिन साथ ही वह जातक सट्टे का कुव्यसनी भी होता है। उसे सीमित संख्या में ही संतान मिलती है और अंशतः वह शुक्राणु विहीन होता है। उसके बच्चों का स्वास्थ्य भी खराब रहता है। जातक सत्कार्य करने वाला धर्मपरायण व्यक्ति होता है।
6. छठवां भाव : इस भाव में बैठा बृहस्पति जातक को मधुरभाषी, शास्त्र-पारंगत विद्वान तो बनाता है लेकिन स्वास्थ्य में गड़बड़ी भी लाता है। जातक सम्मानित और यशस्वी तो होता है लेकिन कभी-कभी उसे अपमान के कडुवे घूंट भी पीने पड़ सकते हैं। वह युक्तियों से काम लेकर अपने शत्रुओं को पराजित करता है लेकिन स्वास्थ्य के मामले में वह संवेदनशील ही रहता है।
7. सातवां भाव : कुंडली के सातवें भाव में बृहस्पति की स्थिति जातक को भाग्यवान, विद्वान, विनम्र और धैर्यशाली बनाती है। जातक का विवाह गुणवान और विद्वान महिला/पुरुष जातक से हो सकता है। उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। सामान्यतः वह सुखी और संपन्न होता है और दान-पुण्य करता रहता है।
8. आठवां भाव : इस भाव में बैठा बृहस्पति जातक को यद्यपि दीर्घायु बनाता है तथापि उसकी धन-संपत्ति का नाश करके जातक को गरीबी के जीवन में भी धकेल सकता है। जातक धूर्ततापूर्ण कार्य करता है और असफल प्रयासों से दुखी रहता है।
9. नौवां भाव : यदि कुंडली के नौवें भाव में बृहस्पति बैठा हो तो जातक को सात्विक और आध्यात्मिक रुझान देता है। जातक अपने पिता का यश और भाग्य बढ़ाने वाला होता है। उसे कामों में सफलता मिलती है। विद्वानों और प्रभावशाली लोगों में ही वह मेल-जोल रखता है। उसे अच्छी व गुणी संतान मिलती है और वह अपने जीवनकाल में सलाहकार या मंत्री पद पा सकता है। उसका जीवन सुखी-संपन्न होता है ।
10. दसवां भाव : इस भाव में बृहस्पति रखने वाला जातक विलासी, संपन्न, लोभी व न्यायप्रिय होता है। उसे अपने व्यवसाय अथवा व्यापार में सफलता मिलती है वह अच्छे काम करता है। उसे जीवन में पदोन्नतियां, आयवृद्धि, यश व सुख पर्याप्त मिलता है।
11. ग्यारहवां भाव : कुंडली के 11वें भाव में बैठा बृहस्पति जातक को ईमानदार, दीर्घायु, सदाचारी, विद्वान और यशस्वी बनाता है। वह सुंदर, निरोगी, संपन्न और संतोषी भी होता है। जातक को अच्छी व गुणी संतान मिलती है। वह अच्छा मकान, वाहन तथा ऐशोआराम के साधन जुटाने में सफल रहता है। वह उच्च पद और यश भी प्राप्त करता है।
12. बारहवां भाव : बृहस्पति इस भाव में हो तो जातक आलसी, कम बोलने वाला और बुरी प्रवृत्तियों वाला होता है। लोग उसकी बुराइयों के कारण उससे बचना चाहते हैं । उसकी संपत्ति का विनाश होता है और घोटालों में फंसकर वह भारी नुकसान उठा सकता है। उसकी संतानों में से कोई मर भी सकता है। वह निरुद्देश्य इधर-उधर भटकना अधिक पसंद करता है।
बृहस्पति का गोचर
बृहस्पति प्रत्येक 12 वर्ष में अपनी एक परिक्रमा पूरा करता है। प्रत्येक परिक्रमा में वह अलग-अलग भावों में अपने गोचर के दौरान शुभ-अशुभ परिणाम दर्शाता है। किसी कुंडली में बृहस्पति चार प्रकार से प्रभाव दर्शाता है—-
1. विभिन्न भावों-राशियों में अपनी स्थिति के अनुसार दिखाए जाने वाले सामान्य प्रभाव
2. अलग-अलग पर्ययों में अलग-अलग भावों व राशियों में बृहस्पति की स्थिति के अनुसार प्रभाव
3. मूर्ति निर्णय के अनुसार प्रभाव
4. किसी जन्म नक्षत्र में स्थिति के अनुसार बृहस्पति के प्रभाव शामिल होते हैं ।
1. पहला चक्र : पहले गोचर चक्र में बृहस्पति जब अष्टम भाव में आता है तो जातक के जीवन के लिए खतरा पैदा करता है जबकि उसके पिता की इस अवधि में न केवल स्वास्थ्य वृद्धि होती है, उसे पद वृद्धि और ऐशोआराम के साधन भी उपलब्ध होते हैं। जातक स्वयं इस अवधि में कष्ट उठाता है ।
2. दूसरा चक्र (पर्यय) : जन्म राशि में अपनी कोई भी स्थिति रखते हुए दूसरे चक्र में जब मेष या वृष राशि में आता है तो कोई भी अशुभ प्रभाव जातक पर नहीं पड़ने देता। यदि मेष या वृष राशि चंद्र से 1, 3, 6, 8, 10 या 12वीं पड़ती हो तो जातक को बहुत शुभ-अशुभ परिणाम गोचर के दौरान नहीं देता। यह चक्र जातकों के जीवन में 12 से 24 वर्ष की आयु अवधि में काम करता है।
3. तीसरा चक्र : इस चक्र में बृहस्पति, चंद्र लग्न से 1, 4, 5, 7, 9, 11 व 12वें भाव में भ्रमण करते समय अच्छे फल देता है।
4. चौथा चक्र: इस चक्र के दौरान चंद्र से दूसरे भाव में आने पर बृहस्पति सरकार से भय देता है, चौथे भाव में आने पर ऐशोआराम के साधन और 9वें भाव में आने पर संपत्ति लाभ देता है। ग्यारहवें और बारहवें भाव में आने पर वह जातक को धन का लाभ कराता है ।
5. पांचवां चक्र : इस पर्यय में बृहस्पति चंद्र से पहले भाव में होने पर मानसिक परेशानी दूसरे भाव में धन लाभ और चौथे भाव में सुख-सुविधाएं प्रदान करता है ।
6. छठवां चक्र : अपने गोचर का छठवां चक्र चलते समय बृहस्पति चंद्र लग्न से 2, 5, 7, 9, और 11वें भावों में भ्रमण करते समय शुभ फल देता है जबकि 8वें भाव में वह जीवन के लिए खतरा देता है। यदि शनि की साढ़े साती का तीसरा चक्र भी उस समय चल रहा हो तो यह जातक के जीवन का अंतिम वर्ष होता है। अधिकांश जातकों के जीवन में बृहस्पति का सातवां पर्यय अर्थात् गोचर चक्र नहीं आता। बृहस्पति चंद्र लग्न से 2, 5, 7, 9, और 11वें भावों में गोचर के दौरान अच्छे फल प्रदान करता है।
दूसरे भाव में वह संपत्ति में वृद्धि, पांचवे भाव में संतान जन्म, सातवें भाव में विवाह अथवा अच्छा दाम्पत्य जीवन, नौवें भाव में पिता से दुलार और मदद के साथ-साथ तीर्थाटन व अन्य यात्राएं तथा 11वें भाव में आय वृद्धि का कारक बनता है। चंद्र लग्न से 1, 3, 4, 6, 8, 10 व 12वें भाव में अपने गोचर के समय बृहस्पति या तो अशुभ फल देता है या निष्क्रिय रहता है। चंद्र से तीसरे भाव में वह अत्यंत अशुभ फलकारक होता है और जातक को कई बीमारियां, जान का खतरा, सम्मान गवां देना, अपमान और कारावास का भय आदि देता है।
जन्मकुंडली में बृहस्पति की शुभ राशि स्थिति
बृहस्पति को कर्क, धनु, मीन राशियों तथा केंद्र (1, 4, 9, 10) या त्रिकोण (5, 9) भावों में स्थित होने पर शुभ फल देने वाला और योगकारक कहा गया है। यदि उक्त स्थितियों में वह चंद्र या शुक्र या दोनों के साथ हो अथवा उनकी शुभ दृष्टि में हो तो अत्यंत प्रभावशाली योग देता है लेकिन उक्त स्थितियों में वह राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो योग निरस्त हो जाता है। लग्न से यदि यह 6, 8, 12वें भाव को छोड़कर कहीं भी हो तो ठीक रहता है । लग्न से अन्य सभी भावों 1, 2, 3, 4, 5, 7, 9, 10, 11 में बृहस्पति ठीक-ठाक ही फल देता है और संपत्ति और सफलता देने वाला माना जाता है ।
कुछ ज्योतिषर्विदों ने केंद्र भावों का स्वामी होने पर बृहस्पति को अशुभ माना है और यदि वह स्वराशि में केंद्र में स्थित हो तो मारक माना है। उन विद्वानों का मत है कि बृहस्पति की यह मारक स्थिति अपनी राशि में लग्न से 10वें भाव में स्थित होने पर सर्वाधिक घातक होती है। अन्य केंद्रीय भावों में वह 7, 4, 1 के क्रम में कम होती चली जाती है।
मैं इस मत से सहमत नहीं हूं और उल्टे मानता हूं कि केंद्र में बृहस्पति स्वराशि में स्थित हो तो ‘हंस योग’ बनाता है जो कि जातक को दीर्घ स्वस्थ, सुखी, प्रतिष्ठित और संपन्न व्यक्ति बनाता है, फिर भले ही वह दसवें भाव में यह योग बनाए अथवा अन्य केंद्रीय भावों में ।
आमतौर पर बृहस्पति उस भाव के मामलों को प्रोत्साहन देता है लेकिन इसके लिए उस भाव के स्वामी ग्रह, कारक ग्रह का कुंडली में मजबूत होकर बैठा होना तथा भाव का दुष्प्रभावों से मुक्त होना भी जरूरी होता है। इसके लिए लग्न भाव में बैठा बृहस्पति जातक को आशावादी, आकर्षक और प्रतिष्ठित बनाता है। सौभाग्य उस जातक के जीवन में कई बार चमत्कार दिखा सकता है लेकिन लग्नेश या प्रथम भाव का कारक सूर्य कमजोर या दुष्प्रभावित हों तो जातक को ऐसे सौभाग्यशाली अवसरों का लाभ उठाने से ही वंचित कर सकते हैं।
अन्य ग्रहों से संबंध : सत्याचार्य के अनुसार सूर्य, मंगल व चंद्र के तीनों ग्रह बृहस्पति के मित्र होते हैं। शनि न मित्र होता है न शत्रु, लेकिन बुध और शुक्र उसके शत्रु होते हैं। राहु और केतु के साथ बृहस्पति के संबंधों पर प्राचीन ज्योतिष शास्त्रियों ने विचार ही नहीं किया। बुध जो कि व्यापार कौशल और शैक्षणिक उपलब्धियों का संचालक व प्रतिनिधि ग्रह है और शुक्र जो कि प्रेम, विवाह और घरेलू सुखों का प्रतिनिधि व संचालक है, बृहस्पति के शत्रु क्यों होते हैं ? इसका उत्तर जानना इतना आसान नहीं है। अक्सर यह देखा जाता है कि जिस कुंडली में बुध, बृहस्पति व शुक्र को भौतिकतावादी ग्रह मानते हुए ही प्राचीन ज्योतिर्विदों ने जिनमें अधिकांश सांसारिक सुखों से विरत संयासी थे, बृहस्पति के आध्यात्मिक असर को कम करके उसे सांसारिक रुझान देने वाली इस स्थिति को प्रतिकूल माना होगा।
यदि बृहस्पति के साथ संगति या दृष्टि का संबंध रखने वाले ग्रहों का दुःस्थानों (6, 8, 12वां) से किसी प्रकार का संबंध हो तो वे ग्रह चाहे मित्र हों या शत्रु, बृहस्पति के प्रभाव को क्षीण करते हैं। इस स्थिति के विवेचन के लिए ग्रहों के बीच की अस्थायी मित्रता व शत्रुता का भी विश्लेषण किया जाना जरूरी होता है।
बृहस्पति के सूर्य चंद्र व मंगल से संबंधों की जरूरी जानकारी इसी अध्याय में पहले दी जा चुकी है अतः यहां मैं एक अन्य महत्त्वपूर्ण संबंध बृहस्पति शनि संबंध की समीक्षा करूंगा। मैंने अपने अनुभवों में पाया है कि :
1. बृहस्पति व शनि एक साथ बैठे हों तो परस्पर अपनी प्रवृत्तियां बदल लेते हैं। अर्थात् उस कुंडली के लिए शनि शुभ फलदायक और बृहस्पति अशुफ फलदायक बन जाता है।
2. यदि पांचवें भाव में ये दोनों साथ-साथ बैठे हों तो जातक को या तो पुत्र प्राप्ति होती नहीं है या फिर उसका पुत्र अल्पजीवन होता है।
3. यह संबंध जातक को अधिक पढ़ने-लिखने नहीं देता लेकिन कुंडली में अन्य ग्रह और भाव उच्च शिक्षा का संकेत देते हों तो जातक कठिनाइयों के बावजूद अच्छा पढ़-लिख लेता है।
4. बृहस्पति-शनि एक साथ हों तो जातक को वांछित संतान सुख नहीं मिल पाता। उसकी संतानों में से एक परिवार की प्रतिष्ठा को गिराने वाला निकलता है। ऐसा जातक जीवन में अधिक संपन्न व समृद्ध भी नहीं बन पाता। वह बस किसी प्रकार अपना व परिवार का गुजारा ही चला पाता है। लेकिन इस स्थिति में किसी निश्चित परिणाम पर पहुंचने के लिए धन व संपदा के भावों, उनके स्वामियों और कारक ग्रहों की स्थिति पर भी नजर डालनी चाहिए।
5. दसवें भाव में बृहस्पति व शनि एक साथ हों तो जातक न्यायपालिका अथवा विधायिका से जुड़ा व्यवसाय अपनाता है। वह वकील, अधिवक्ता, मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश बन सकता है। वह कानून बनाने वाली संस्थाओं यथा विधानसभा, परिषद अथवा संसद से भी जुड़ सकता है। यदि इनमें से, किसी ग्रह का छठवें भाव से संबंध हों तो, ऐसा होने की संभावना और भी प्रबल हो जाती है ।
6. बृहस्पति और शनि दोनों ही वक्री या इनमें से एक वक्री और एक मार्गी होकर साथ बैठे हों तो बृहस्पति अधिक प्रभावशाली होगा और इस स्थिति में दोनों ही वक्री ग्रहों वाले प्रतिकूल परिणाम नहीं दर्शाएंगे।
7. यदि यह योग शनि की राशि या उसकी उच्च की राशि में हो तो शनि अपनी बुरी प्रवृत्ति त्यागकर शुभ ग्रह की भांति शुभ फल देगा ।
8. यदि ये दोनों ग्रह चौथे भाव में एक साथ हों तो बहुत ही शुभ परिणाम देंगे। लग्न में हो तो मिश्रित परिणाम देंगे। 3, 6, 10 व 11वें भावों में यह योग शुभ परिणाम देता है।
9.यदि बृहस्पति और शनि एक-दूसरे से सातवें स्थान पर हों तो अलग-अलग स्थितियों में मिश्रित परिणाम दर्शाते हैं। ऐसे जातक अपने जीवन में अधिक सफल नहीं होते। वे अपने जीवन में भी बार-बार व्यवसाय, घर, शहर बदलने वाले हो सकते हैं और अधिक संपन्न भी नहीं हो पाते, बशर्ते कि उन्हें धनी, सफल और स्थायित्व पसंद बनाने वाली अन्य स्थितियों का भी कुंडली में अभाव हो ।
10. यदि बृहस्पति शनि लग्न व सातवें भाव में हों तो जीवन में स्थिरता व सुखों के लिए अशुभ परिणाम होंगे। यदि दूसरे और आठवें भाव में यह दृष्टि योग हो तो परिणाम शुभ देगा। यदि तीसरे नौवें में हो तो जातक का बचपन मुश्किलों में बीतेगा। यदि कर्क लग्न की कुंडली में बृहस्पति शनि तीसरे नौवें अथवा नौवे-तीसरे भाव में हों तो बच्चों और भाइयों के मामले में शुभ परिणाम देगा। चौथे दसवें भाव में यह योग अत्यंत शुभ फलदायक होगा। यदि इन भावों में यह योग मेष, सिंह, कन्या, धनु व मकर राशियों में पड़े तो उत्साहवर्द्धक परिणाम दर्शाता है। ऐसी स्थिति में जातक की संतान संपन्न होगी और उसे प्रत्येक प्रकार के सुख व साधन सुलभ होंगे।
बृहस्पति-शनि दृष्टि योग से पांचवां ग्यारहवां भाव जुड़ा हो तो जातक की शिक्षा प्राप्ति की राह में बाधाएं आएंगी। वह कानूनी शिक्षा की ओर झुकाव रखेगा। उसका जिगर खराब होगा और पेट के रोग भी उसे सताएंगे। छठवां और बारहवां भाव इस योग से जुड़ें हो तो जातक को पुराने और घातक रोग लगा देते हैं। जातक नौकरीपेशा रहते हुए बस गुजारा चलाने लायक ही बना रहता है।
सातवें भाव में बृहस्पति-शनि संगति या दृष्टि केवल मेष व कर्क लग्न वालों के लिए ही लाभदायक रहती है। जातक के माता-पिता के लिए यह भारी पड़ती है। दसवें भाव में यह योग हो तो जातक कानूनीपेशा अपनाता है या नौकरी करता है। सामान्यतः व्यापार में वह सफल नहीं होता।
ग्यारहवें भाव में यह योग व्यापार के लिए अशुभ रहता है। ऐसे जातक को अपना गुजारा चलाना भी मुश्किल पड़ सकता है। उसे कई मानसिक आघात भी सहन करने पड़ते हैं।
बारहवें भाव में बृहस्पति-शनि साथ-साथ हों तो बहुत-से जातकों के लिए आश्चर्यचकित कर देने वाले ढंग से शुभ परिणाम दर्शाते हैं। जातक को उच्चाधिकारी और प्रसिद्धि मिलती है। उसका पद बढ़ता है। ऐसे जातक का केवल एक ही जीवनसाथी होता है जो उस पर हुक्म चलाता है। ऐसे मामले में जातक का जीवन साथी बेवफा और धोखेबाज भी हो सकता है।
बृहस्पति की दशा – अंतरदशा
बृहस्पति को विंशोत्तरी दशा पद्धति में विशिष्ट स्थान देते हुए उसकी महादशा 16 वर्ष की तय की गई थी। बृहस्पति अपनी दशा के दौरान आने वाली विभिन्न ग्रहों की अंतरदशाओं के दौरान, अन्य ग्रहों की भांति आतिथ्य सत्कारी ग्रह की भांति ही आचरण करता है और उन ग्रहों के शुभ प्रभावों को बढ़ाने और अशुभ प्रभावों को कम करने का प्रयास करता है ।
यदि बृहस्पति शुभ, बली और दुष्प्रभावों से मुक्त होकर कुंडली में बैठा हो तो अपनी दशा या अंतरदशा के दौरान संबद्ध जातक को संतान सुख, संपत्ति, सम्मान सामान्य संतुष्टि और आध्यात्मिक विकास देता है। उस जातक का स्वास्थ्य अच्छा रहता है और कम-से-कम अपनी स्थिति वाले भाव द्वारा संचालित मामलों में तो वह जातक को किसी प्रकार का कोई तनाव भी नहीं देता। जातक इस अवधि में तीर्थाटन करता है और उसके घर पर शुभ समारोहों का आयोजन भी होता है ।
इसके विपरीत यदि बृहस्पति दुष्प्रभावित और क्षीण बल होकर कुंडली में बैठा हो तो अपनी दशा-अंतरदशा की अवधि में जातक को कई आघात लगाकर यह सोचने पर विवश कर देता है कि इस संसार में आकर भौतिकवादी जीवन जीते हुए आखिर उसने क्या कुछ हासिल किया। वह सांसारिकता से विमुख होकर वैराग्य के विषय में सोचने लगता है। वह अपनी संतान, संपत्ति और सम्मान को लेकर सदैव चिंतित बना रहता है। उसे पदोन्नतियां नहीं मिलती और तीर्थस्थलों की यात्रा पर जाने के पहले से बने कार्यक्रम भी परिस्थितिवश उसे रद्द करने पड़ते हैं । उसे मधुमेह, फेफडों में पानी भर जाने, सनकीपन आदि रोग हो सकते हैं।
बृहस्पति को दो चर्चित व चमत्कारी ‘गज केसरी’ व हंस योग के साथ-साथ कई राजयोगों, आध्यात्मिक योगों और तंत्र योगों को देने वाला ग्रह भी माना जाता है। यहां हम गज केसरी और हंस योग का ही वर्णन कर रहे हैं।
1. गज केसरी : यदि कुंडली में बृहस्पति चंद्र लग्न से केंद्र (1, 4, 7, 10वें भाव) में स्थित हो तो यह सुख-समृद्धि, संतान, मान-प्रतिष्ठा और उच्च पद देने वाला राजयोग कारक माना जाता है।
2. हंस योग : यह योग पंच महापुरुष योगों में से एक है। यदि बृहस्पति स्वराशि (धनु या मीन) अथवा अपनी उच्च की राशि में कुंडली के किसी केंद्र भाव (1, 4, 7, 10) में बैठा हो तो दीर्घायु, सम्मान-प्रतिष्ठा, स्वास्थ्य और धन-समृद्धि देने वाला राजयोग कारक माना जाता है। इसके अलावा, बृहस्पति-मंगल योग, बृहस्पति-केतु योग, बुध-बृहस्पति-शुक्र योग आदि जातक को पर्याप्त धन, समृद्धि, अधिकार और प्रतिष्ठा देने वाले समझे जाते हैं । उपरोक्त योगों का सर्वाधिक प्रभाव जातक पर उसकी बृहस्पति या चंद्र की दशाओं-अंतरदशाओं के दौरान परिलक्षित होता है।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मानव जीवन में सुखद घटनाओं के लिए बृहस्पति का गोचर काल सर्वाधिक प्रभाव डालता है लेकिन वह तब तक कोई कारगर असर नहीं दिखा पाता जब तक कि गोचर के बृहस्पति का सामंजस्य बृहस्पति की दशा-अंतरदशा के साथ सामंजस्य बैठाकर न चल रहा हो ।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बृहस्पति की दशा-अंतरदशा की अवधि में शनि, राहु व केतु जैसे ग्रहों के गोचर का बृहस्पति की कुंडली में भाव-राशि की स्थिति के संदर्भ में देख लिया जाना ठीक रहता है। यदि ये ग्रह जातक की कुंडली में जन्म से बैठे बृहस्पति को दुष्प्रभावित कर रहे हों तो वह वांछित परिणाम जातक को नहीं दे पाता। बृहस्पति को बल प्रदान करने और दुष्प्रभाव मुक्त करने के लिए प्राचीन काल से ही ज्योतिर्विदों ने अनगिनत उपाय सुझाए हैं। इन्हें मैं नीचे दे रहा हूं।
सोने या चांदी की अंगूठी में जड़वाकर शुभ मुहुर्त में विधिपूर्वक पूजा अनुष्ठान व मंत्रजाप के पश्चात धारण करें। जातक ब्राह्मण समुदाय का हो तो उसे सोने की अंगूठी में पीला पुखराज धारण करना चाहिए। अंगूठी में सोने का वजन कम-से-कम सात रत्ती और पुखराज का वजन कम-से-कम 4 रत्ती का होना श्रेयस्कर रहता है। पुखराज के स्थान पर उसके उपरत्न-सुनैला, कहरुवा, सोनामक्खी, संगघिया कपूर अथवा पीला अकीक प्रयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त मोती अथवा ‘भारंगी की जड़ भी धारण की जा सकती है। पीले रंग के वस्त्र (सूती) धारण करना भी शुभ रहता हैं ।
तंत्रोक्त मंत्र : ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स गुरुवे नमः (जप संख्या 19,000)
लघु मंत्र: ॐ गुँ गुरुवे नमः (जप संख्या 19000)
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