वृश्चिक लग्न की कुंड्ली का फल

राशि चक्र में इस राशि का स्थान आठवाँ है। कालपुरुष शरीर में यह लिंग अथवा योनि पर अपना अधिकार रखती है। इसका आकार बिच्छू के सदृश है ।

वृश्चिक का निवास स्थान पत्थर या जहर तथा कृमियों के बिलों में है। यह दीर्घाकार, स्त्री राशि, उत्तर दिशा की स्वामिनी, सौम्य स्वभावी तथा स्थिर तत्त्व प्रधान है । यह राशि शीर्षोदयी तथा दिनबली कही जाती है ।

यह मूल राशि, ब्राह्मण वर्ण, प्रातःकाल में बधिर तथा स्वर्ण वर्ण को लिए हुए है जिसका स्वामी मंगल है तथा यह चन्द्र की नीच राशि है ।

वृश्चिक लग्न की कुंड्ली के फलित बिन्दु

सूर्य – कारक ग्रह, राज्येश ।

चन्द्र – कारक, भाग्येश ।

मंगल – लग्नेश, षष्ठेश, कारक ।

बुध – अष्टमेश, आयेश, अकारक ।

गुरु – धनेश, पंचमेश, तटस्थ, कारक प्रभाव लिए हुए ।

शुक्र- सप्तमेश, व्ययेश, प्रबल कारक ।

शनि – तृतीयेश, चतुर्थेश, अकारक ।

(1) पाराशर ने बुध-गुरु के सम्बन्ध को प्रबल धनकारक माना है उसके अनुसार वृश्चिक लग्न की कुण्डली में बुध व गुरु कहीं पर भी एक साथ बैठे हों या बुध व गुरु की पूर्ण सप्तम दृष्टि परस्पर हो तो वह जातक श्रेष्ठ धनाढ्य होता है ।

यहाँ आयेश धनेश के सम्बन्ध से ही यह योग निर्मित होता है । यद्यपि बुध अष्टमेश भी है । जहाँ तक मेरा अनुभव है, यह योग व्यक्ति को धनवान तो बनाता ही है पर मार्ग में कई प्रकार की बाधाएँ भी उपस्थित होती रहती हैं । स्वभाव का कंजूस होता है। तथा कठिनाइयों के बाद द्रव्य संग्रह होता है ।

(2) तृतीय भाव में गुरु की उपस्थिति जातक को उदार एवं सहिष्णु बना देती है । ‘भावार्थ ‘रत्नाकर’ ने भी इस मत की पुष्टि करते हुए कहा है – “तृतीर्यस्थो यदि गुरुर्रदार्य मधिकं भवेत् ।”

(3) यदि सूर्य-बुध तथा शुक्र तीनों ही ग्रह सप्तम भाव में हों तो बुध की महादशा जातक के जीवन का Cream Period होती है तथा इस दशा में उसे विशेष ख्याति, सम्मान, धन तथा यश मिलता है ।

(4) गुरु-बुध पाँचवें भाव में हों तथा चन्द्रमा ग्यारहवें भाव में हो तो मनुष्य करोड़पति होता है।

होरी शतक, जातक-बिन्दु, जातक-परिजात आदि का मत यही है ।

इसमें निम्न कारण बनते हैं-

  • धनेश-लाभेश का पूर्ण सम्बन्ध होता है ।
  • भाग्येश, भाग्यस्थान से तृतीय भाव में पड़कर पराक्रमी बन जाता है तथा भाग्योदय करने में पूर्ण सहायता प्रदान करता है ।
  • गुरु-चन्द्र योग गजकेशरी बनाता है।
  • गुरु पंचम भाव का अधिपति होकर पंचमस्थ होता है, फलस्वरूप अपनी दूसरी धनुया धन भाव की विशेष वृद्धि करता है ।
  • आयेश आयस्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इस प्रकार यह योग विशेष धनदाता बन जाए तो इसमें आश्चर्य भी क्या ?

(5) चन्द्र-गुरु-केतु नवम भाव में एक साथ बैठें तो विशेष भाग्योदय योग होता है । चन्द्र भाग्येश है, वह गुरु के साथ बैठकर गजकेशरी योग निर्मित करता है, वहाँ गुरु अपनी उच्च राशि में होता है, जो कि धनेश है। केतु भाग्येश एवं धनेश को सर्वोच्चता देने में समक्ष है ही पर मेरे अनुभव में केतु की दशा अत्यन्त साधारण होती है, जबकि गुरु दशा प्रबल भाग्योदयकारक एवं धनवर्द्धक ।

(6) बुध-गुरु की परस्पर दृष्टि हो तथा भाग्येश उच्च राशि का होकर सप्तम में हो तो व्यक्ति का ससुराल पक्ष प्रबल एवं धनाढ्य होता है।

(7) गुरु-शुक्र दोनों तीसरे भाव में हों तो व्यक्ति का उपार्जित कुल द्रव्य उसके कुपुत्र उड़ा देते हैं एवं पुत्रों का उसे किंचित् भी सुख नहीं मिलता ।

(8) अकेला गुरु यदि नवम भाव में हो तो व्यक्ति को पूर्ण सुख मिलता है, पुत्रों की कीर्ति से वह सत्कृत होता है तथा उसमें बोलने की शक्ति गजब की होती है ।

(9) तीसरे भाव में अकेला शनि हो तो जातक की कई छोटी बहन होती हैं।

(10) चौथे भाव में अकेला शनि नपुंसकता को जन्म देता है, पर मेरा विचार है कि चौथा स्वराशिस्थ शनि नपुंसक तो नहीं बना सकता पर जातक में वीर्य न्यूनता रहती है तथा उस पर पत्नी का शासन चलता है ।

(11) गुरु तथा शनि आमने-सामने बैठे हों तो मनुष्य को भूमि बहुत अधिक लाभ होता है ।

(12) छठे भाव में शनि-मंगल की युति व्यक्ति को चौर्य कला में निपुण बना देती है ।

(13) अकेला शुक्र सप्तम भाव में हो व्यक्ति लम्पट होता है बौर उसका दाम्पत्य जीवन कटु बना रहता है ।

(14) सप्तम भाव में शुक्र शनि व राहु की युति व्यक्ति को धूर्त, लम्पट व निश्चय परस्त्रीगामी या परपुरुषगामी बना देती है।

(15) पंचम भाव में अकेला बुद्ध शीघ्र ही विदेश यात्रा कराता है। बुध पर यदि पाप ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यक्ति की बाल्यावस्था में मृत्यु हो जाती है।

(16) छठे भाव में बुध की उपस्थिति रोगी एवं लखपति दोनों ही एक साथ बनाती है।

(17) सूर्य छठे भाव या दशम भाव में हो तो व्यक्ति का पिता विख्यात कीर्तिवान होता है ।

(18) बुध-मंगल का योग स्वभाव को क्रोधी बनाता है, साथ ही उससे जीवन में कई बार न्यूनाधिक चोट आदि लगती ही रहती है ।

(19) द्वादश भाव में शुक्र हो तो ऐसा व्यक्ति पत्नी से बहुत अधिक प्यार करनेवाला होता है ।

(20) छठे भाव में मंगल विशेष लाभदायक सिद्ध होता देखा गया है ।

वृश्चिक लग्न कुंड्ली दशाफल

सूर्य महादशा

सूर्य अन्तर – पदोन्नति, प्रतिष्ठा राजकीय पुरस्कार ।

चन्द्र – भाग्योदय, यात्राएं, व्ययाधिक्य ।

मंगल – सामान्यतः शुभ ।

राहु – चिन्ताजनक, परेशानियां ।

गुरु – धनलाभ, व्यापारवृद्धि ।

शनि – शुभ फलदायक ।

बुध – बीमारी, नाना कष्ट ।

केतु – शुभ, उन्नतिदायक ।

शुक्र – विवाह, मांगलिक कार्य, शुभ समाचार ।

चन्द्र महादशा

चन्द्र अन्तर – सामान्य ।

मंगल – शुभ फलदायक ।

राहु – परेशानी, हानि, व्याधि ।

गुरु – धनलाभ, व्यापारवृद्धि ।

शनि – शुभ ।

बुध – कष्टदायक ।

केतु – लाभदायक ।

शुक्र – अर्थलाभ |

सूर्य – धनलाभ, प्रोमोशन ।

मंगल महादशा

मंगल अन्तर – श्रेष्ठ, स्वास्थ्य लाभ, विजय ।

राहु – सामान्यतः शुभ ।

गुरु – धनलाभ |

शनि – वाहन सुख, मांगलिक कार्य ।

बुद्ध – पूर्वार्द्ध अशुभ, उत्तरार्द्ध शुभ ।

केतु – सामान्य ।

शुक्र – सुख सौभाग्यवर्धक ।

सूर्य – चिन्ताजनक ।

चन्द्र – मानसिक परेशानियां ।

राहु महादशा

राहु अन्तर सुखवर्धक

गुरु — शुभ ।

शनि – परेशानी, व्यय ।

बुध – शारीरिक कष्ट ।

केतु – उद्वेग, बाधाएं ।

शुक्र – शुभ फलदायक ।

सूर्य – लाभदायक ।

चन्द्र – कठिनाई, परेशानियां ।

मंगल – शुभ ।

गुरु महादशा

गुरु अन्तर – सामान्य ।

शनि – शुभ फलदायक |

बुध – बाधापूर्ण ।

केतु – शुभ |

शुक्र – मारक, एक्सीडेंट ।

सूर्य – अनुकूल !

चन्द्र – भाग्यवर्धक |

मंगल – लाभवर्धक ।

राहू – कठिनाइयां ।

शनि महादशा

शनि अन्तर – परेशानी, व्यय, हानि ।

बुध – शुभ ।

केतु – अनुकूल ।

शुक्र – लाभदायक ।

सूर्य – शुभ फलदायक ।

चन्द्र – चिन्ताजनक परेशानी ।

मंगल – पूर्ण शुभफल ।

राहु – शुभ ।

गुरु – अनुकूल, लाभदायक ।

बुध महादशा

बुध अन्तर – कष्टदायक ।

केतु – हानिदायक ।

शुक्र – सामान्यतः शुभ |

सूर्य – हानिकारक ।

चन्द्र – पतन, चिन्ता, बाधाएँ ।

मंगल – अनुकूल ।

राहु – पूर्ण लाभदायक ।

गुरु – लाभपूर्ण ।

शनि – सामान्य ।

केतु महादशा

केतु अन्तर- तबादला, शुभोन्नति ।

शुक्र – शुभ ।

सूर्य – राज्यलाभ, उन्नति, ख्याति ।

चन्द्र – शुभ फलदायक ।

मंगल – अनुकूल ।

राहु – पतन, हानि ।

गुरु – सामान्य |

शनि – लाभ, वाहनसुख ।

बुध – शुभ |

शुक्र महादशा

शुक्र अन्तर – सामान्य ।

सूर्य – उन्नति ।

चन्द्र – पूर्णोन्नति ।

मंगल – भूमिलाभ |

राहु – शुभ ।

गुरु – मारक, मृत्युतुल्य कष्ट ।

शनि – अनुकूल ।

बुध – सामान्य |

केतु – शुभ


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