मेष लग्न की कुंड्ली का फल

मेष लग्न एक अत्यन्तर दृढ़ लग्न है। काल पुरुष के शरीर में इसका स्थान सिर है । इसका स्वरूप भेड़ा के सदृश है, जो कि बलशाली तथा प्रत्येक से लड़ने-भिड़ने को तत्पर रहता है। इसका स्थान धातुकर और रत्न भूमि है ।

यह पुरुष राशि ह्रस्व संज्ञक एवं पूर्व दशा की स्वामिनी है। यह क्रूर स्वभाव तथा चर संज्ञक है। रात्रि के समय यह राशि विशेष बली होती है। मेष दशम भाव में बली, क्षत्रिय वर्ण, लाल रंग तथा मंगल ग्रह के आधिपत्य में रहने वाली राशि है । मेष में भावाधिपति निम्नरूपेण होंगे ।

मेष लग्न की कुंड्ली के फलित बिन्दु

सूर्य – पंचमेष, पुत्रभाव का अधिपति, त्रिकोणेश ।

चंद्र – चतुर्थेश, सुखेश, केन्द्रश ।

मंगल – लग्नेश, अष्टमेश |

बुध – पराक्रमेश, शत्रु स्थान का अधिपति ।

गुरु- भाग्येश, व्ययेश, त्रिकोणेश ।

शुक्र – द्वितीयेश, सप्तमेश, प्रबल मारकेश, केंद्रेश ।

शनि – राज्येश, आयेश, केंद्रेश ।

सूर्य – मेष लग्न में सूर्य त्रिकोणेश है, फल स्वरूप वह अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभफल ही प्रदान करेगा, विशेषतः वह अपनी दशा में राज्यवृद्धि, प्रोमोशन, पुत्रजन्म सन्तानोन्नति, आय-वृद्धि आदि में शुभ फलदाता रहेगा ।

चन्द्र – चतुर्थेश होने के साथ-साथ माता का नैसर्गिक कारक ग्रह है, अतः इसकी दशा अन्तर्दशा में मातृसुख वाहन प्राप्ति आदि कार्य होंगे।

मंगल – मेष लग्न की कुण्डली में मंगल लग्नेश होने के साथ साथ अष्टमेश भी है, पर लग्नेश होने के कारण इसे अष्टमत्व दोष नहीं लगता । इसकी दशा-अन्तर्दशा में स्वास्थ्योन्नति, भूमि लाभ, कृषि, भूगर्भ विश्लेषण, पुलिस व मिलिटरी की नौकरी में होने पर प्रोमोशन डाक्टरी कार्य में सफलता या विशेष ख्याति आदि में सहायक रहेगी ।

बुध – दो भावों का अधिपति है – तृतीय भाव का एवं छठे भाव का । तृतीयेश – षष्ठेश होने से यह दूषित है तथा शत्रु उत्पन्न करने में समर्थ एवं परेशानियों में डालने वाला है, व्यापारिक कार्यों में निरन्तर उतार-चढ़ाव बनाये रखेगा । बुध की दशा-अन्तर्दशा कष्ट, मानसिक परेशानी, व्यापार हानि, शत्रु वृद्धि आदि में सहायक होती है ।

गुरु – गुरु एक ओर भाग्येश है तो दूसरी ओर व्ययेश भी है । भाग्येश होने से यह कारक ग्रह अवश्य है, परन्तु साथ ही परेशानी देने वाला भी है। त्रिकोण का स्वामी होने से इसकी दशा-अन्तर्दशा का पूर्वार्द्ध शुभ फलदायक एवं उत्तरार्द्ध व्ययशील रहेगा ।

शुक्र – द्वितीयेश-सप्तमेश होने से यह मारकेश तो बना ही है, साथ ही प्रबल हानिप्रद भी है। शुक्र महादशा में शुक्र अन्तर में यह मारक नहीं बनेगा, पर यह जिस ग्रह के साथ होगा या जिस ग्रह से इसका दृष्टि सम्बन्ध होगा, अपनी महादशा में उस ग्रह की अन्तर्दशा में मारक बन जायेगा। 

शनि – शनि राज्येश लाभेश है पर यह उपचय स्वामी है अतः अकारक ग्रह ही माना जायेगा। राज्य में उन्नति धीरे-धीरे होगी तथा व्यय बड़ा-चढ़ा रहेगा । भाग्योन्नति में विलम्ब का कारण भी यह शनि ही होगा ।

राहु-केतु – जिस स्थान पर या जिस ग्रह के साथ बैठेंगे, वैसे ही फल देंगे ।

(1) मंगल-सूर्य या सूर्य-चन्द्र इन दोनों का सम्बन्ध प्रबल राज्य योग प्रदायक रहेगा, क्योंकि सूर्य-चन्द्र का सम्बन्ध त्रिकोण-केन्द्र का सम्बन्ध होगा, ठीक यही स्थिति सूर्य-मंगल सम्बन्ध से भी होगी ।

(2) बृहस्पति-शनि का सम्बन्ध सामान्य राजयोग बनाएगा । यद्यपि यह भी त्रिकोण-केन्द्र का सम्बन्ध होगा, पर गुरु व्ययेश तथा शनि एकादशेश होने से यह राजयोग कमजोर ही होगा ।

(3) सप्तम भाव में शुक्र चाहे अकेला हो या किसी ग्रह के साथ, अकारक ही रहेगा और गृहस्थ जीवन का विनाश करने वाला होगा । यदि शुक्र अकेला होगा तो पत्नी के अतिरिक्त भी उसके सम्बन्ध होंगे, यही बात स्त्री की कुण्डली में भी लागू की जा सकती है ।

(4) कुण्डली में मंगल यदि एकादशभाव में, दशम भाव में या दूसरे भाव में हो तथा उसका सूर्य से सम्बन्ध हो तो डॉक्टरी शिक्षा में विशेष निपुणता प्राप्त करे या और सफल डॉक्टर हो ।

(5) दशम भाव में अकेला गुरु हो तो वह अपनी दशा अन्तर्दशा में सामान्य मारकेश भी बनेगा, साथ ही रक्त से सम्बन्धित प्रबल बीमारी भी देगा। हार्ट अटैक की स्थिति निश्चित समझनी चाहिए।

(6) गुरु-शनि की युति व्यक्ति को सामान्य स्तर पर ला देती है।

(7) गुरु महादशा; शुक्र अन्तर में, गुरु महादशा; शनि अन्तर में, शुक्र महादशा; गुरु अन्तर में तथा शुक्र महादशा में शुक्र से सम्बन्धित ग्रह की अन्तर्दशा में मृत्यु समझनी चाहिए।

(8) शुक्र-गुरु का सम्बन्ध नवम भाव में हो तो व्यक्ति कलाकार होगा व उच्चस्तरीय ख्याति प्राप्त करेगा, क्योंकि शुक्र दूसरे ग्रह का अधिपति है तथा भाग्येश से भाग्य स्थान में सम्बन्ध करेगा ।

(9) शुक्र छठे में हो या बुध सातवें भाव में, दोनों ही स्थितियों में पत्नी सदा के लिए रुग्ण बनी रहेगी ।

(10) बुध-मंगल का सम्बन्ध कहीं भी हो, ऐसा व्यक्ति सिर से परेशान रहेगा तथा सिर दर्द, दिमाग की नस फट जाने या पागलपन से उसकी मृत्यु होगी ।

(11) द्वादश भाव में शुक्र हो तो ऐसा शुक्र विशेष धनदायक होगा। दूसरे भाव में भी शुक्र की उपस्थिति ‘धनदायक रहेगी’ पर यह दूसरा योग पहले योग की अपेक्षा क्षीण ही होगा ।

(12) दूसरे भाव में मंगल-शुक्र-गुरु का सम्बन्ध हो तो व्यक्ति श्रेष्ठ व्यापारी हो तथा अतुल धन का स्वामी हो। यह योग भाग्येश-धनेश-लग्नेश की वजह से सम्पन्न रहा । व्यक्ति अतुल धन का स्वामी तो होगा पर काफी संघर्ष और उतार-चढाव के बाद ।

(13) एकादश भाव में मंगल-गुरु का सम्बन्ध सन्तान हानि ही कराता है, यदि शनि भी साथ में हो तो एक से अधिक बार गर्भपात होता है ।

(14) चतुर्थ भाव में मंगल-गुरु का सम्बन्ध योगकारक होगा; क्योंकि लग्नेश-भाग्येश का सम्बन्ध होगा पर यह योग सामान्य ही रहेगा ।

(15) पंचम भाव में मंगल हो तो व्यक्ति मेडिकल एजेंट, चिकित्सक, डॉक्टर या चिकित्सा क्षेत्र में निपुण व्यक्ति होगा, पर मंगल अपनी दशा में ही उन्नति देने में समर्थ होगा ।

(16) अष्टम भाव में मंगल-शुक्र-सूर्य हो तो व्यक्ति विदेश यात्रा करता है, क्योंकि दो कारक ग्रहों व मंगल का सम्बन्ध धनेश से होता है ।

(17) शुक्र कहीं पर भी बैठा हो पर वह यदि गुरु से दृष्ट होगा तो शुक्र का कारकत्व पूर्णतः समाप्त समझना चाहिए तथा शुक्र शिथिल रहेगा पर यदि सूर्य पर गुरु की दृष्टि होगी तो प्रबल कारक बनेगा ।

(18) सूर्य लग्न में हो, चन्द्र चौथे तथा मंगल दशम भाव में हो तो व्यक्ति श्रेष्ठतम उन्नति करता है तथा आई० ए० एस० अथवा उच्च प्रशासकीय अधिकारी होता है ।

(19) दूसरे भाव में शुक्र का सूर्य से सम्बन्ध हो तथा उस पर गुरु की दृष्टि हो तो व्यक्ति उच्च पदासीन व्यक्ति होता है। ध्यान रहे अकेले शुक्र पर गुरु की दृष्टि हानिकारक होगी, पर सूर्य का साथ होने से शुक्र प्रबल बना, अतः शुक्र-सूर्य के संयोग पर गुरु की दृष्टि लाभदायक ही रहेगी।

(20) यदि स्त्री की कुण्डली हो तथा प्रसवकाल निकट हो तो मंगल की प्रत्यन्तर अथवा सूक्ष्य दशा में ही बालक का जन्म समझना चाहिए ।

(21) मंगल चौथे भाव में हो तथा उस पर किसी भी ग्रह की दृष्टि न हो तो उसे चेचक होती है, घाव के निशान सिर या चेहरे पर होते हैं तथा उसकी मृत्यु शस्त्राघात से सम्भव हो सकती है ।

(22) मंगल चौथे भाव में गुरु के साथ हो तो मंगल का नीचत्व दोष समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह उच्चस्थ गुरु के साथ होता है।

(23) मंगल पाँचवें हो तो मंगल की दशा में विशेष उन्नति होगी, पर गुरु ग्यारहवें हो तो गुरु की दशा में विशेष अवनति होगी ।

(24) मंगल सप्तम भाव में हो या शुक्र अष्टम भाव में हो तो वीर्यविकार, नपुंसकता तथा गृहस्थ जीवन में न्यूनता रहती है ।

मेष लग्न कुंड्ली का दशाफल

सूर्यमहादशा

सूर्य अन्तर – सामान्य ।

चन्द्र – व्ययशील पर उन्नतिदायक !

मंगल – पूर्वार्द्ध हानिकारक, रोगप्रद पर उत्तरार्द्ध शुभ ।

बुध – कष्टकारक ।

गुरु – सामान्य शुभ फलदायक, क्योंकि त्रिकोणेश की महादशा में त्रिकोणेश की अन्तर्दशा सामान्य ही पाई गई है।

शुक्र – धनप्रद ।

शनि – पूर्वार्द्ध श्रेष्ठ पर उत्तरार्द्ध कमजोर, आकस्मिक व्यय-कारक ।

राहु – सामान्य ।

केतु – अनुकूल ।

चन्द्र महादशा

सूर्य – धनदायक, प्रोमोशन, श्रेष्ठतम ।

चन्द्र – व्ययशील ।

मंगल – सामान्य, उन्नतिदायक नहीं ।

बुध – स्वास्थ्य क्षीणता ।

गुरु – पूर्वार्द्ध असफलतापूर्ण, पर उत्तरार्द्ध सर्वथा अनुकूल ।

शुक्र – पूर्वार्द्ध सामान्य शुभ, उत्तरार्द्ध अवनतिपूर्णं ।

शनि – हानिकारक ।

मंगल महादशा

सूर्य – श्रेष्ठतम, लाभदायक ।

चन्द्र – परेशानीपूर्ण, बाघक ।

मंगल – सामान्य, रोगप्रद ।

बुध – पीड़ाकारक, हानिप्रद, अवनतिपूर्णं ।

गुरु – अनुकूल, शुभफलदायक, धनदायक ।

शुक्र – धनदायक ।

शनि – सामान्य उन्नतिप्रद ।

बुध महादशा

सूर्य – व्ययशील, भ्रातृ उन्नति ।

चन्द्र – धनदायक, व्यापारवृद्धि ।

मंगल – पूर्वार्द्ध रोगदायक, उत्तरार्द्ध अनुकूल ।

बुध – सामान्य |

गुरु – शुभफलदायक |

शुक्र – व्ययशील, मुकदमे में प्रस्त।

शनि – मृत्युतुल्य पीड़ादायक ।

गुरु महादशा

सूर्य – सामान्य ।

चन्द्र – श्रेष्ठ, उन्नतिदायक, धनलाभ |

मंगल – सन्तानोन्नति, व्ययशील ।

बुध – श्रेष्ठ ।

गुरु – व्ययशील ।

शुक्र -हानिप्रद ।

शनि – लाभदायक, प्रोमोशन |

शुरू महादशा

सूर्य – श्रेष्ठ, अनुकूल ।

चन्द्र – हानिकारक. मनस्तापवृद्धि ।

मंगल – मृत्युदायक

बुध – रोगदायक, पीड़ादायक ।

गुरु – मृत्युदायक ।

शुक्र – सामान्य ।

शनि – भोगवृद्धि, अपव्यय ।

शनि महादशा

सूर्य – श्रेष्ठ, धनलाभ, राज्यवृद्धि ।

चन्द्र – सामान्य, पीड़ाकारक ।

मंगल – सामान्य धनक्षय ।

बुब – मृत्युदायक, रोगवृद्धि ।

गुरु – व्ययशील, व्यापार में उन्नति ।

शुक्र – श्रेष्ठतम ।

शनि – धनलाभ, पीड़ादायक ।

राहु, केतु मेष लग्न की कुण्डली में जिस भाव में भी स्थित होंगे उस भावाधिपति के अनुसार ही उनका दशाफल समझना चाहिये ।

इसके साथ ही ग्रह संयोगों को भी ध्यान में रख कर भावफल एवं दशाफल कहना अधिक समीचीन रहेगा ।


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