शनि की साढ़े साती और ढय्या

शनि एक मंद गति से चलने वाला ग्रह है। जब यह अशुभ ग्रह की तरह कार्य करता है तो संबद्ध जातक के जीवन पर इसका बहुत धीरे-धीरे लेकिन स्थिर प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव इतना अधिक पीड़ादायक होता है कि इसके कारण लोग शनि से बहुत ही घबराते हैं और इसे अत्यंत क्रूर ग्रह समझते हैं।

शनि भले ही लोगों को अग्नि-परीक्षा से गुजारता हो लेकिन वस्तुतः यह शुद्धिकरण करने वाला ग्रह होता है। जैसे सोना आग में तपकर कुंदन बन जाता है उसी प्रकार शनि लोगों को तपाकर उन्हें कुंदन समान खरा बना देता है।

ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि वह एक दार्शनिक ग्रह है। राशियों में धनु से लेकर मीन तक की चार राशियां दार्शनिक राशियां समझी जाती हैं। इनमें से दो, धनु और मीन का स्वामी बृहस्पति और दो मकर व कुंभ का स्वामी शनि होता है। बृहस्पति भी दार्शनिक ग्रह है और लोगों को सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। शनि भी दार्शनिक ग्रह है लेकिन उसकी कार्यशैली बृहस्पति से अलग रहती है । शनि दो प्रकार से दो कालावधियों में लोगों को सुधारने का काम करता है ।

1. अपनी साढ़े साती और ढय्याओं (ढाई-ढाई वर्ष की) की अवधि में

2. अपनी विंशोत्तरी महादशा अथवा अंतरदशाओं व प्रत्यंतर दशाओं की अवधि में ।

शनि की साढ़े साती और ढय्या

साढ़े साती : शनि लगभग ढाई वर्ष में एक राशि का संचरण पूरा करता है। जब गोचर भ्रमण के दौरान शनि किसी जातक की जन्मकुंडली में चंद्र की स्थित वाली राशि अर्थात् चंद्र लग्न से बारहवीं राशि में आता है तो साढ़े साती की शुरुआत मानी जाती है। जब वह चंद्र लग्न राशि में संचरण करता है तो साढ़े साती का मध्य कहा जाता है और जब वह चंद्र लग्न से दूसरे भाव में होता है तो शनि की साढ़े साती का अंतिम चरण होता है।

इस प्रकार शनि चंद्र से बारहवीं, पहली और दूसरी राशि में जब ढाई-ढाई वर्ष का संचरण करते हुए गुजरता है तो उस कुल साढ़े सात वर्ष की अवधि को शनि की साढ़े साती कहा जाता है।

ढय्या : इसी प्रकार जब शनि चंद्र से चौथे या आठवें होता है तो जातकों पर यह ढाई वर्ष भारी होते हैं। यही अवधि शनि की ढय्या कहलाती है।

गोचर भ्रमण के दौरान जातक जिस काल में शनि की साढ़े साती से गुजरता है, वह काल दरअसल उस जातक को उसके तब तक के जीवन से, व्यवसाय से, निवास आदि सभी कुछ से काटकर रख देता है।

यह परिवर्तन का संक्रमण काल होता है। इस अवधि में जातक का ध्यान सांसारिकता से बिल्कुल हट जाता है और उसमें अध्यात्म के प्रति रुझान उत्पन्न हो जाता है। शनि उसे कष्ट देता है और वह खुशियों और शान-शौकत की सांसारिक प्रवृत्ति से विमुख होकर वैराग्य की ओर चल पड़ता है। लेकिन क्या वास्तव में ही साढ़े-साती इतनी बुरी होती है कि उससे भय खाया जाए ?

प्रत्येक तीस वर्ष में साढ़े सात वर्ष का यह कठिन समय प्रत्येक जातक के जीवन में आता है। इस अवधि में जातक के जीवन में उथल-पुथल मचाने वाली घटनाओं की भरमार हो जाती है। दरअसल यह शनि का इशारा होता है कि अब तक जो कुछ तुम करते रहे हो उसमें बदलाव लाकर नई गतिविधियों, नए संबंधों और नए परिवेश में जाने का समय आ गया है।

अब तक आलसी रहे हो तो अब आलस्य छोड़कर कर्म में जुट जाओ और अब तक कोल्हू का बैल बने रहे हो तो अब थोड़ा आराम भी कर लो। शनि की साढ़े साती एक ‘स्पीड ब्रेकर’ के रूप में काम करती है ।

इस अवधि में निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं घटती हैं जो संबद्ध जातक में आमूल परिवर्तन लाने वाली और दूरगामी परिणामों वाली होती है। इस दौरान जो घटनाएं जातकों के जीवन में घटती हैं वे निम्न प्रकार हो सकती हैं:-

1. प्रेम अथवा पारम्परिक विवाह काफी अड़ंगेबाजियों और विघ्नबाधाओं के बाद संपन्न हों और वैवाहिक संबंधों की शुरुआत में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की बाधाएं आएं।

2. रोजगार मिले या छुटे या तबादला हो या उन्नति/अवनति मिले।

3. अचानक पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़े।

4. दीर्घकाल से चली आ रही दोस्ती या नाते-रिश्ते टूट जाएं और नई दोस्ती नाते-रिश्ते जुड़ें।

5. निवास स्थान बदले या देश छोड़कर परदेस जाना पड़े ।

6. सेवा निवृत्ति हो जाए और उसके बाद जीवनशैली बदलकर नई अपनानी पड़े ।

7. परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए और क्षतिपूर्ति के लिए किसी संतान का जन्म भी हो ।

इस प्रकार देखें तो साढ़ेसाती के दौरान घटने वाली सभी घटनाएं बुरी नहीं होती। शनि यदि कष्ट देता है तो सहलाता भी है और हानि करता है तो उसकी पूर्ति की राह भी खोल देता है। साथ ही साथ साढ़े साती का प्रभाव जातकों पर उनकी जन्मकुंडलियों की मजबूती व कमजोरी आदि के अनुसार ही होता है। इसमें निम्न बातों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

1. जन्मकुंडली में जिन-जिन संभावनाओं और क्षमताओं का संकेत मिलता हो, उससे अलग साढ़े साती का शनि भी कुछ नहीं कर सकता। मान लीजिए आपकी कुंडली में किसी दुर्घटना के उस काल में होने की संभावना नहीं दिखती तो भले ही साढ़े साती दुर्घटना का संकेत दे, वह आपके साथ नहीं घटेगी। अतः किसी कुंडली का अच्छी तरह अध्ययन करके ही इस विषय में राय बनानी चाहिए।

2. विंशोत्तरी महादशा व्यवस्था द्वारा जो संकेत जातक को मिलते हो शनि की साढ़े साती भी उनके विरुद्ध नहीं जा सकती ।

विभिन्न चंद्र राशियों के लिए शनि की साढ़े साती के दौरान केवल निम्नलिखित काल ही भारी पड़ता है और शेष समय शनि उन जातकों को कोई कष्ट नहीं देता ।

  1. मेष – बीच के ढाई साल
  2. वृष – पहले ढाई साल
  3. मिथुन – अंतिम ढाई साल
  4. कर्क – बीच के ढाई साल
  5. सिंह – पहले ढाई साल
  6. कन्या – पहले ढाई साल
  7. तुला – अंतिम ढाई साल
  8. वृश्चिक – बाद के पांच साल
  9. धनु – पहले पांच साल
  10. मकर – पहले ढाई साल
  11. कुंभ – अंतिम ढाई साल
  12. मीन – बाद के पांच साल

निश्चित तौर पर शनि पूरी साढ़े साती के दौरान किसी भी चंद्र राशि के जातक पर भारी नहीं होता। वह वृश्चिक, धनु और मीन राशि के जातकों को अपनी साढ़े-साती के दौरान पांच वर्ष तक ही तंग करता है। शेष पहले या अंतिम ढाई साल की अवधि में वह न अच्छा प्रभाव देता है और न ही बुरा । शेष सभी राशियों में शनि साढ़े-सात में से केवल ढाई वर्ष तक ही अशुभ प्रभावकारक रहता है।

उत्तर भारत के ज्योतिर्विदों का यह मत भी है कि यदि जन्म के समय शनि कुंडली में चंद्र की स्थिति से सातवें भाव में बैठा हो तो वह अपनी साढ़े साती के दौरान भी नर्म व्यवहार उस राशि के जातकों से करता है और उन्हें अधिक कष्ट नहीं पहुंचाता।

ज्योतिष के कुछ ग्रंथों में शनि की साढ़े साती को ‘वृहद कल्याणी’ भी कहा गया है। इनके अनुसार शनि अपनी साढ़े साती के दौरान जातक को अपने तब तक के जीवन पर विचार करने, अपने गुणावगुणों को जानने और विश्लेषित करने का भी अवसर देता है।

वह जातक को उसके अपने-पराये की अच्छी तरह पहचान करा देता है। मतलबपरस्त दोस्तों से उसका पीछा छुड़ा देता है और साथ ही जातक के भीतर छिपकर फैल रहे रोगों को भी उखाड़कर उसे अपने स्वास्थ्य के प्रति भविष्य में अधिक सजग रहने की चेतावनी भी दे देता है ।

शनि खतरों और जोखिमों से बचने वाले जातकों को खतरों और जोखिमों का सामना करना भी सिखाता है और वे जीवन में आगे आने वाली किसी भी कठिनाई का सामना करने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

उत्तरी ज्योतिर्विदों के अनुसार शनि केवल जातकों को उनके पहले किए गए दुष्कर्मों का दंड ही साढ़े साती के दौरान देता है। जब साढ़े साती उतरती है तो शनि बड़ी तेजी से जातक को वह सब कुछ लौटाकर जाने का प्रयास करता है जो कुछ शनि ने साढ़े साती के दौरान उनसे लिया होता है।

यहां तक भी देखा गया है कि यदि साढ़ेसाती की अवधि में जातक ने कोई संतान खो दी हो अथवा परिवार में किसी बुजुर्ग का साया जातक पर से उठ गया हो तो साढ़े साती समाप्त होते-होते ही क्षतिपूर्ति के तौर पर उस जातक के परिवार में नई संतान जन्म ले लेती है।

शनि अपनी साढ़े साती के प्रारंभ में जातक के सिर भाग से चढ़ता है और मध्य भाग में धड़ में रहते हुए अंतिम भाग समाप्त होते-होते पैरों की ओर से उतरकर चला जाता है।

1. जब शनि चंद्र से 12वीं राशि में होता है तो संबद्ध जातक को नेत्रों और सिर के कष्ट व रोगों के कारण परेशानी व दुख उठाने होते हैं।

2. चंद्र राशि में शनि का गोचर (साढ़े साती का मध्य भाग) काल सम्बद्ध जातक के हृदय पर भारी रहता है। इस दौरान जातक मृत्यु के भय तथा अन्य विभिन्न प्रकार की परेशानियों से त्रस्त रहता है ।

3. चंद्र राशि से दूसरे भाव में शनि का संचरणकाल (साढ़ेसाती का अंतिम भाग) संबद्ध जातक के पैरों पर भारी रहता है। इस काल में जातक के पैर एक जगह नहीं टिकते, वह इधर से उधर भागता रहता है। यह समय जातक के लिए अपने उखड़ गए जीवन को फिर से जमाने का होता है अतः जातक एक जगह टिककर नहीं बैठ पाता।

उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में एक पुरानी कहावत इस दशा के लिए प्रचलित है— जो व्यक्ति बेचैन रहकर इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है और उस समय तक उसके पास कोई काम नहीं होता तो कहा जाता है कि इसके पैरों में शनि का चक्कर चल रहा है।

उदरस्थ साढ़े साती

यदि शनि जन्मकुंडली में चंद्र की स्थिति से बारहवें, पहले अथवा दूसरे भाव में ही स्थित हो तो ऐसी कुंडली वाले जातक पर जन्म से ही साढ़े साती का कुप्रभाव होता है। इस प्रकार की साढ़ेसाती को उदरस्थ साढ़े साती कहा जाता है। जिन कुंडलियों में चंद्र और शनि किसी भाव राशि में इकट्ठे होकर बैठे हों तो उस पर शनि का अशुभ प्रभाव स्थायी रूप से जीवन भर माना जाता है।

प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में इसे पूर्वजन्म की किसी ‘करतूत’ का फल बताया गया है। नाड़ी ग्रंथों के अनुसार चंद्र व शनि के किसी जातक की कुंडली में साथ-साथ स्थित होने की कथा इस प्रकार कही गई है।

जिस जातक की कुंडली में यह दुर्योग हो उसने अपने पूर्वजन्म में किसी महिला को बहुत सताया अथवा उत्पीड़ित किया था। यह पीड़ा उस महिला के लिए इतनी असहनीय थी कि बदला लेने के विचार से उस महिला ने वर्तमान जन्म में उसी जातक को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया ।

यह कथा इस प्रकार भी हो सकती है कि किसी महिला ने पूर्वजन्म में किसी पुरुष को सताया और वह बदला लेने की गर्ज से उस महिला का बेटा बनकर इस जन्म में धरती पर आया। इस माता-पुत्र कथा में चंद्र को माता और शनि को पुत्र माना गया है ।

चंद्र-शनि योग जिस किसी जातक की कुंडली में हो उसकी माता से उस जातक का संबंध ठीक नहीं रहता। वह निर्धन होता है और कष्टकारक जीवन बिताता है। यदि कुंडली में शनि, चंद्र से मजबूत हो तो पुत्र का शत्रुभाव माता के प्रति अधिक होता है। ऐसे जातक की माता या तो उसे जन्म देते ही मर जाती है अथवा संतान के हाथों कष्ट भोगने के लिए लंबे समय तक जीवित रहती है।

इसके विपरीत यदि चंद्र मजबूत हो तो माता उस जातक पर भारी पड़ती है और वह जातक या तो जन्म लेने के कुछ दिन बाद ही मर जाता है अथवा कष्ट भोगकर और पाप व अपराधों से भरा जीवन बिताकर बाद में वैरागी होकर भटकता है।

उदरस्थ साढ़े साती जातक पर अत्यंत अशुभ प्रभाव डालती है। वह जीवन-भर परेशान हाल रहता है। कम-से-कम वास्तविक खुशी तो उसे कभी भी मिल ही नहीं पाती। वह कष्टों से भरा जीवन बिताता है।

सूर्य-चंद्र योग के साथ शनि का गोचर संबंध

यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य व चंद्र एक साथ बैठे हों तो शनि गोचर समय जब उस राशि से बारहवीं राशि में आता है तब साढ़े साती शुरु होती है जो शनि के इस योग वाले भाव से दूसरे भाव का गोचर पूरा कर लेने के बाद ही समाप्त होती है। इस अवधि में यह जातक अपने स्वास्थ्य और अपने निकट नाते-रिश्तेदारों के स्वास्थ्य एवं जीवन पर गंभीर संकट के बादल मंडराते देख सकता है। उस व्यक्ति के माता-पिता, बच्चे, पत्नी या पति आदि और वह स्वंय भी गंभीर व पुरानी बीमारी के उभार का शिकार बन सकते हैं। वह जातक अपने जीवन में गंभीर हताशा का भी अनुभव कर सकता है।

ऐसे कुयोग वाले जातक को इस अवधि के दौरान अपने व्यवसाय अथवा नौकरी में अपमान, हानि और पदावनति का सामना करना पड़ सकता है। वह विलम्बित या बर्खास्त हो सकता है। उस पर आरोप भी लग सकते हैं। उसे रोजगार भी छोड़ना पड़ सकता है और इसी अवधि मे उसे अपना रहने का ठिकाना भी बदलना पड़ सकता है। वह आवाराओं की तरह इधर-उधर निरुद्देश्य भटकता भी रह सकता है।

इस कठिन काल में ऐसे जातक के गुणों और योग्यता को लोग अनदेखा कर देते हैं और उसका अपमान करते हैं। उसकी महत्त्वाकांक्षाएं धूल में मिल जाती है। पत्नी-पति व संतान द्वारा भी उसे प्रताड़ित या अपमानित किया जाता है या उनकी ओर से उसे निराश हो जाना पड़ता है। उसे इस अवधि में झूठे आरोपों में कोर्ट-कचहरी के चक्कर या सजा का सामना भी करना पड़ सकता है।

इस दुर्योग (सूर्य-चंद्र साथ-साथ) वाले जातकों पर शनि के गोचर का दुष्प्रभाव बहुत गहरा और स्थायी पड़ सकता है, क्योंकि शनि सूर्य का प्रबलतम शत्रु और चंद्र के प्रति भी शत्रुता भाव रखने वाला ग्रह होता है। दक्षिण भारत के नाड़ी ग्रंथों में कहा गया है कि ऐसे जातक को यह सारे भारी-भरकम कष्ट अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण उठाने पड़ते हैं। यह पाप उसने पूर्व जन्म में अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार के रूप में किए होते है। यदि शनि की साढे साती ऐसे जातक के जीवन में 30 से 60 वर्ष की उम्र के बीच आए तो सर्वाधिक नुकसान देह हो सकती है।

तीस से पहले और साठ वर्ष के बाद की आयु वाले ऐसे जातक के लिए इस प्रकार की साढ़े साती कोई बड़ा दुष्प्रभाव नहीं छोड़ती। (यहां यह उल्लेखनीय है कि कोई भी ऐसे योग वाला जातक तीस से साठ वर्ष की उम्र के बीच इस प्रकार की साढ़े साती से बच नहीं सकता हैं।

चंद्र का यदि सूर्य के साथ-साथ साधु प्रकृति के ग्रह बृहस्पति से भी शुभ संगति संबंध हो तो समझा जाता है कि शनि की साढ़े साती घातक परिणाम नहीं देगी, लेकिन ऐसी भी स्थितियां देखी गई हैं जबकि इस स्थिति में शनि ने भयंकरतम विनाशक परिणाम अपनी साढ़े साती के दौरान दर्शाएं हों अतः समझदार ज्योतिषी और पाठक को चाहिए कि ज्योतिषी स्थितियों पर गहन विचार के बाद ही इस संबंध में किसी प्रकार की निश्चित धारणा बनाए ।

ग्रहों के प्रभाव

  1. कुंडली में सूर्य का प्रभाव
  2. कुंडली में चंद्र का प्रभाव
  3. कुंडली में मंगल का प्रभाव
  4. कुंडली में बुध का प्रभाव
  5. कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव
  6. कुंडली में शुक्र का प्रभाव
  7. कुंडली में शनि का प्रभाव
  8. शनि की साढ़े साती और ढय्या
  9. कुंडली में राहु और केतु का प्रभाव

0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *