अधियोग से धनप्रप्ति

अधियोग चन्द्रादि लग्नों से षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम स्थानों में शुभ ग्रहों की स्थिति से उत्पन्न होते हैं। अधियोग क्यों शुभ फल देते हैं ? इसका कारण है कि शुभ ग्रहों की उक्त षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम स्थिति से तीनों शुभ ग्रहों का प्रभाव लग्नों को मिलता है। और इसके फलस्वरूप लग्नादि का ज्योतिष निर्दिष्ट धन मान-आयु-राज्य आदि की प्राप्ति होती है ।

सारावली’ नाम के ज्योतिषः ग्रन्थ में ‘चन्द्राधियोग का स्वरुप इस प्रकार कहा गया है-

षष्ठं धनमथाष्टमं शिशिरगोः प्राप्ताः समस्ताः शुभा. क्रूराणाँ यदि गोचरे न पतिता भान्वलयाद्दूरत भपालः प्रभवेत्स यस्य जलधेर्वेलावनान्तोद्भवैः सेनामत्त करीन्द्रदानसलिलं भृङ्ग मुंहः पीयते ॥

अर्थ – यदि चन्द्रमा से छठे, सातवें तथा आठवें स्थान में समस्त शुभ ग्रह विद्यमान हों और वे शुभ ग्रह क्रूर राशि आदि में न हों और न ही सूर्य के समीप हों तो ऐसे “चन्द्राधियोग” में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति महान् शक्तिशाली राजा होता है । अर्थात् उसके पास बहुत धन, ऐश्वर्य होता है ।

यह तो स्पष्ट ही है कि, जितने अधिक शुभ अथवा बलवान् ग्रह चन्द्र पर प्रभाव डाल रहे होंगे उतना ही बली चन्द्र होता चला जावेगा । इसी लिए श्लोक में कहा गया कि देखने वाले अथवा प्रभाव डालने वाले वे शुभ ग्रह शत्रुराशि आदि में स्थित न हों, पाप ग्रहोंसे दूर हों उनके साथ न हो।

इसके अतिरिक्त यह भी कहा कि सूर्य के समीप होने से ग्रह में दो निर्बलताएं आ जाती हैं। एक तो यह कि ग्रह अस्त होकर अपने तेज और इसी लिये शुभ प्रभाव को खो बैठता है ।

दूसरे सूर्य के समीप ग्रह जब होता है तो सूर्य महान भौतिक पिण्ड होने के कारण ग्रह को अपनी ओर अधिक खींचता है, परिणाम यह निकलता है, कि उस ग्रह की गति बहुत अधिक हो जाती है। सूर्य के समीप अतीव तीव्र गतिवाले ग्रहों को ‘अतिचारी’ ग्रह कहते हैं । ग्रह जब गति में ‘अति’ करता है तो अपनी शुभता की क्षमता को बहुत कम कर देता है।

इसके विपरीत ग्रह जब सूर्य स दूर होता है तो बहुत धीमी गति द्वारा अपनी स्वस्थता की सूचना देता है । सूर्य से दूर ‘वक्री’ ग्रह होता है । और वक्री ग्रहों के बल की और यदि वे शुभ हुए तो उनकी शुभता की शास्त्र बहुत श्लाघा करता है ।

निष्कर्ष यह कि चन्द्र से षष्ठ सप्तम तथा अष्टम में स्थित शुभ ग्रह जब बलवान होंगे तो उनकी शुभता का लाभ चन्द्र को पहुँचेगा जिस के फलस्वरुपअधियोगभी अधिक धनदायक, अधिक यश दायक आदि होगा

जो बातें हम ने ऊपर चन्द्राधियोग में लिखी है वे सब ‘लग्नाधियोग’ में भी घटती हैं। अर्थात् जब लग्न से षष्ठ, सप्तम, अष्टम, भावों में शुभ ग्रह बलवान् हो कर स्थित हो तो लग्न पर उन शुभ ग्रहों की ‘सीधी’ तथा पार्श्व दृष्टि के कारण लग्न को बल तथा शुभता प्राप्त होती है। और लग्न केन्द्र तथा त्रिकोण युगपद होने से ‘योग कारक’ तो सर्वदा होता ही है । जब ऐसे ‘योगकारक’ को बल और शुभता प्राप्त होगी तो स्वाभाविक है कि लग्न के धनदायक, यशदायक स्वास्स्थ्दायक आदि गुणों में असाधारण वृद्धि हो ।

‘सारावली’ कार ने जहां ‘चन्द्राधियोग’ का उल्लेख किया । वहाँ ‘लग्नाधियोग’ का भी पृथक वर्णन किया । उनका कहना है कि-

लग्नात्वष्ठमदाष्टमे यदि शुभाः पापैर्न युक्तेक्षिताः, मन्त्री दण्डपतिः क्षितेरेधिपतिः स्त्रीणां बहूनां पति । दीर्घायुगंदर्वाजतो गतभयो लग्नाधियोगे भवेत्, सच्छीलो यवनाधिराजकथितो जातः पुमान् सौख्यभाक् ॥

अर्थ – लग्न से छठे, सातवें तथा आठवें स्थानों में शुभ ग्रह विद्यमान हों और वे ग्रह पापी ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट न हों तो ऐसे योग में उत्पन्न हुआ मनुष्य लम्बी आयु भागने वाला, रोगों से रहित निर्भय सुशील, सुखी, मन्त्री, न्यायाधीश अथवा राजा होता है और बहुत स्त्रियों का पति होता है।

देव केरलकार भी ‘अधियोग’ के संबन्ध में लगभग वही शुभ बातें लिखता है जिनका उल्लेख इस योग के सम्बन्ध में हम ‘सारावली’ के आधार पर ऊपर लिख आये हैं। वह कहता है-

‘ख्यातः स्यातदधियोगजातमनुजः श्रीमान् प्रसिद्धो महानश्व दोल कवाहनादिविभवे नित्यं श्रियो मन्दिरे । सत्पुर्वादिककलत्रपुत्र भाग्यसहित चन्द्र शतुल्यो महा कीर्तिप्रभावशौयं साहसयुतो देशान्तरे कीर्तिमान’

अर्थ – चन्द्राधियोग में उत्पन्न हुआ मनुष्य ख्यातिवान्, धनवान्, महान्, नित्य अच्छे २ वाहनों वाला, सुशील पुत्र से युक्त सुशीला स्त्री वाला, भाग्यशाली चन्द्र के समान प्रिय सौम्य शरीर वाला, यशस्वी, ऐश्वर्यशाली, शूरवीर, साहसी तथा देश-देशान्तर में कीर्ति प्राप्त करने वाला होता है। निष्कर्ष यह कि इन योगों में लग्नें बलवान् हो जाती हैं जिससे धन मिलता है ।

अधियोग से धनप्रप्ति
कुण्डली सं० 1

कुण्डली सं० 1 को देखिये । यहाँ एक पर्याप्त शुभ चन्द्राधियोग बन रहा है । चन्द्र एक तो केन्द्र में है, दूसरे उच्च है तीसरे सूर्य से दूर है ऐसे वक्री चन्द्र से पुनः शुक्र छठे, गुरु सातवें तथा बुध आठवें पड़ा है। यह तीन शुभ ग्रह अपने शुभ प्रभाव द्वारा “चन्द्राधियोग” की सृष्टि कर रहे हैं। गुरु तो सीधी सप्तम दृष्टि से चन्द्रको लाभान्वित कर रहा है और शुक्र तथा बुध अपना शुभ प्रभाव चन्द्र के दोनों ओर डाल रहे हैं। जिस के फलस्वरूप चन्द्र शुभता के “मध्य” में आ गया है । इस व्यक्ति को कई सहस्र रुपये मासिक की आय है ।

कुण्डली सं० 2

कु० ० सं० 2 को देखिये इस कुण्डली में “लग्नाधियोग” तथा “चन्द्राधियोग” दोनों उपस्थित हैं क्योंकि शुभ ग्रह शुक्र, बुध तथा गुरु न केवल लग्न से बल्कि चन्द्र से भी छठे, सातवें आठवें हैं । अतः चन्द्र तथा लग्न दोनों को शुभता प्रदान कर रहे हैं । चन्द्र स्वयं भी केन्द्र में स्वक्षेत्री होने कारण तथा सूर्य से के दूर शुक्ल पक्ष का होने के कारण बलवान है ।

अतः यह एक उत्तम चन्द्राधि योग तथा लग्नाधियोग है । यह मनुष्य आयु भर एश्वर्य में खेलता रहा ऐसा इस अधियोग का प्रभाव है ।

उपरोक्त विवरण द्वारा हमने यह सिद्धान्त निश्चित किया किसी भी योग का नाम हो वह शुभता धनधान्य, यश, पदवी, आदि सभी देगा यदि उसके द्वारा कुछ

लग्न को अथवा सूर्य तथा चन्द्रमा को जो लग्नवत ही माने गये हैं, बल मिलता हो । अतः हम कह सकते हैं कि जब दो अथवा तीन शुभ ग्रह चन्द्र अथवा लग्न को देखें तो भी ‘अधियोग’ का फल होना चाहिये ।

साथ वाली कु० स० 3 में चन्द्र की स्थिति पर विचार कीजिये । यह कुण्डली वायु सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ग्रुप केप्टन की है।

कुण्डली सं० 3

चन्द्र एक तो सुख स्थान का स्वामी है। सुख स्थान शुभ स्थानों में से एक है। दूसरे मित्र राशि में पड़ा है। तीसरे सूर्य से दूर होने के कारण “पक्षबल” में भी पर्याप्त बलवान् है । ऐसे बली चन्द्र पर किसी पाप ग्रह की दृष्टि नहीं बल्कि दो शुभ ग्रहों, शुक्र तथा बुध, की पूर्ण दृष्टि है । यह दृष्टि बहुत हद तक अधियोग का काम कर रही है ।

अतः यहां चन्द्र से षष्ठ तथा अष्टम भाव में शुभ ग्रहों की अनुपस्थिति से यद्यपि पूर्ण अधियोग नहीं बना तो भी चन्द्र के निज बल के कारण चन्द्र पर “दो” शुभ ग्रहों की दृष्टि के कारण लगभग अधियोग की शुभता का बल मिल रहा है। इस प्रकार चन्द्र आदि से शुभ ग्रहों की स्थिति द्वारा “अधियोग” का फल देखना चाहिये।

तथ्य तो यह है कि “सूर्य” “चन्द्र” तथा “लग्न” तीनों ही लग्न का काम देते हैं और तीनों में से जितने ग्रह अधिक से अधिक शुभ एवं बलवान हों मनुष्य उतना ही धनी, महान, सत्तारूढ़, यशस्वी, नीरोग होता है । श्री के द्योतक “श्री कण्ठ” योग का उल्लेख करते हुए “फलदीपिका” कार ने भी कहा है।

“लग्नाधीश्वरभास्करामृतकरा केन्द्रत्रिकोणाश्रिताः स्वोच्च स्वऋक्षः, सुहृद्गृहानुपगता श्री कण्ठयोगो भवेत्”

अर्थात लग्न का स्वामी, सूर्य तथा चन्द्र यदि केन्द्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो ( तात्पर्य यह कि बलवान् हो ) तथा अपनी उच्च राशि निज राशि मित्र राशि, में स्थित हो तो “श्री कण्ठ” नाम का महान धनदायक योग बनता है ।


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