स्वामिदृष्ट भाव से धनप्रप्ति

आचार्य वराहमिहिर के सुपुत्र पृथुयशस् का कहना है कि :-

“यो यो भावः स्वामियुक्तो दृष्टों वा तस्य तस्यास्ति वृद्धिः”

अर्थ – जो जो भाव अपने स्वामी द्वारा युक्त तथा दृष्ट होता है। उस उस भाव की वृद्धि समझनी चाहिये।” यह एक मौलिक तथा बहुत मूल्यवान सिद्धान्त है। चूंकि भाव आदि के बल द्वारा ही उसकी शुभता की अधिक अभिव्यक्ति होती है । अतः बल के इस नाप दण्ड रूपी सिद्धान्त का बड़ा महत्व है ।

उपरोक्त सिद्धान्त से यह सहज ही में समझा जा सकता है कि जितने अधिक ग्रह अपनी राशि में स्थित अथवा अपनी राशि को देख रहे होंगे उतनी ही अधिक शक्ति उन स्वक्षेत्री आदि भावों में आती जावेगी ।

“मालव्य” आदि योगों की शुभता में भी “स्वक्षेत्र,” में ग्रह के स्थित होने का महत्व कुछ कम नहीं। जहाँ तक उपर्युक्त श्लोक में “स्वक्षेत्री” होने का प्रश्न है हम इसका विवेचन अन्यत्र करेंगे। प्रस्तुत प्रकरण में तो ग्रहों की निज राशि पर दृष्टि का ही विवेचन होगा । पृथुयशस् के उपरोक्त सुन्दर सिद्धान्त का अनुमोदन “फलदीपिका कार’ निम्नलिखित शब्दों में करते हैं।

यस्मिन् राशौ वर्तते खेचरस्तद्राशीशेन प्रेक्षितश्चेत् सः खेटः क्षोणिपालं

कीर्तिमन्तं विदध्यात् सुस्थानश्चेत् किं पुनः पार्थिवेन्द्रः

ग्रह जिस राशि में स्थित हो यदि उसी राशि के स्वामी से दृष्ट हो तो मनुष्य को यशस्वी राजा बनाता है और यदि उस राशि का स्थान जिसमें कि ग्रह स्थित है यदि सुन्दर हो अर्थात् केन्द्र त्रिकोण हो तो फिर क्या कहना अवश्य महान् राजा बनता है। निष्कर्ष यह कि स्वामि दृष्ट भाव की सर्वदा वृद्धि होती है।

स्वामिदृष्ट भाव से धनप्रप्ति
कु० सं० 1

हमारे राष्ट्र की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी की कु० सं० 1 इस विषय का एक उत्तम उदाहरण उपस्थित दी जा रही है। इस कुण्डली में कर्क लग्न का भाव में स्थित होकर लग्नस्थ निज राशि को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है । और स्वयं भी गुरु की नवम दृष्टि द्वारा पूर्णतया दृष्ट है ।

अतः यहाँ लग्न बहुत बल मिल रहा है। बली लग्न तो सब शुभताओं की खान होता है अतः लग्न पर ऐसी दृष्टि से इन्दिरा जी को धन, यश, पदवी दिलाती है।

यद्यपि चन्द्र का लग्नस्थ निज राशि को देखना इन्दिरा जी के जीवन- स्तर को उठाता है परन्तु इतना नहीं कि उनको एक महान राष्ट्र का सर्वोच्च अधिकार दिला देता। इसके अतिरिक्त लग्नों में और अधिक बल होना चाहिये तब इस उच्च पद की प्राप्ति को ज्योतिषसम्मत कहा जा सकता है।

लग्नों में और अधिक बल भी विद्यमान है। देखिये चन्द्र लग्न की ओर चन्द्र लग्न का स्वामी शनि है जोकि अपनी राशि मकर को पूर्ण सप्तम दृष्टि से देख रहा है और पुनः वह चन्द्र लग्न गुरु द्वारा पूर्ण नवम दृष्टिपात से दृष्ट है अतः यह योग चन्द्र लग्न को अतीव बली करने वाला है जिसके फलस्वरूप बुद्धि, धन एश्वर्य, मान, पदवी, आदि की प्राप्ति पुनः सिद्ध होती है।

अब “सूर्य लग्न” की ओर दृष्टिपात कीजिये । “सूर्य लग्न” वृश्चिक है और उस का स्वामी मंगल भी सिंह राशि में बैठ कर सूर्य लग्न को तथा निज राशि को पूर्ण चतुर्थ दृष्टि से देख रहा है। उस “सूर्य लग्न” पर गुरु की भी पूर्ण शुभ सप्तम दृष्टि है । अतः स्पष्ट है कि सूर्य लग्न भी अतीव बलवान् है ।

इस प्रकार हमने देखा कि इन्दिरा जी की कुण्डली में तीनों लग्न अर्थात् लग्न, चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न अपने अपने स्वामियों द्वारा तथा शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट होकर अतीव बलवान् हैं । इस प्रकार एक नहीं, दो नहीं, तीन लग्नों का निज स्वामी द्वारा दृष्ट होना कोई साधारण बात नहीं है ।

यह एक असाधारण, अनुपम अलभ्य ( Rare) योग है जो हम को देखने में बहुत ही कम मिला है । एक स्त्री का इतने ऊंचे पद पर आरूढ़ होकर बड़े बड़े राजाओं पर शासन करना उपरोक्त योग ही की देन है । प्रधानमन्त्री का वेतन भी पर्याप्त होता है। अतः उपर्युक्त योग यश के अतिरिक्त धन भी प्रचुर मात्रा में देते हैं । जो सुविधाएं एक प्रधान मन्त्री को मिलती हैं उनका मूल्य भी धन ही समझना चाहिये ।

एक भूतपूर्व मन्त्री की कु० सं० 2 मे भी जो नीचे दी जा रही है। इस कु० में भी चन्द्र की स्थिति सूर्य से दूर है, अतः चन्द्र को “पक्षबल” प्राप्त है । अब यह बली चन्द्र कन्या राशि में स्थित है जिसका स्वामी बुध अपनी पूर्ण सप्तम दृष्टि द्वारा इसको देख रहा है अर्थात् चन्द्र लग्न अपने स्वामी बुध द्वारा दृष्ट है और चन्द्र पर गुरु की पूर्ण पञ्चम दृष्टि पड़ रही है ।

कु० सं० 2

अतः इन्दिराजी की तरह इनका चन्द्र लग्न भी पदवी तथा धन देने वाला है । यही अवस्था सूर्य लग्न की है। सूर्य लग्न मेष है और उसका स्वामी मंगल उस मेष राशि को अर्थात् सूर्य लग्न को पूर्ण चतुर्थ दृष्टि से देख रहा है और वह पुनः गुरु की पूर्ण नवम दृष्टि द्वारा शुभता प्राप्त कर रहा है । इस प्रकार सूर्य लग्न तथा इसका स्वामी भी बलवान् होकर धन पदवी आदि के देने वाले सिद्ध हो रहे हैं । इस कुण्डली में लग्न पर लग्नेश की दृष्टि नहीं इस लिये योग इन्दिरा जी की मुकाबले में 2/3 रहा ।

एक गृह मन्त्री की कुण्डली में भी जो सं० 3 के रूप में नीचे दी गई है उल्लिखित योग पर्याप्त मात्रा में हैं। सूर्य लग्न तथा लग्न दोनों का स्वामी शनि अपनी लग्नस्थ राशि कुम्भ को दशम पूर्ण दृष्टि से देख रहा है और स्वयं गुरु द्वारा दृष्ट है सूर्य तथा लग्न भी शुभ मध्यत्व में ( शुक्र तथा गुरु द्वारा उत्पादित) विद्यमान हैं । अतः दो लग्नों को खूब बल मिल रहा है ।

कु० सं० 3

चन्द्र लग्न यद्यपि शुभ ग्रह शुक्र द्वारा दृप्ट है कि फिर भी इसका स्वामी बुध चन्द्र लग्न को नहीं देख रहा अतः योग उत्तम होता हुआ भी इतना व्यापक नहीं जितना कि इन्दिरा जी का है ।

अब हम इस सन्दर्भ में निज अनुभव की एक बात का उल्लेख करते हैं। अनुभव से देखने में आया है कि यदि लग्नेश लग्न को न भी देखता हो परन्तु अपनी लग्न से इतर राशि को पूर्ण दृष्टि से देखता हो और ‘लग्न’ अथवा “लग्नेश की लग्न से इतर राशि शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो इस योग का वही शुभ फल निकलता है जोकि लग्नेश के लग्न को देखने की सूरत में निकलता।

इस सिद्धान्त को प्रेसिडेन्ट नासिर की कु. सं. 4 द्वारा जो नीचे दी जा रही है स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे.

इस कुण्डली में लग्नाधिपति मंगल एकादश स्थान में कन्या राशि का होकर बैठा है वह लग्न को नहीं देख रहा परन्तु वहां से वह अपनी पूर्ण अष्टम दृष्टि द्वारा लग्नेतर मेष राशि को देख रहा है और स्वयं मंगल पर गुरु की पूर्ण पञ्चम दृष्टि है । अतः मेष पर उसके स्वामी मंगल की दृष्टि का फल लग्न को भी उतना ही मिलेगा जितना कि षष्ठ स्थान को । फलस्वरूप लग्न अतीव बलवान् समझी जावेगी, उतनी ही जितनी कि मंगल द्वारा दृष्ट होने पर होती ।

कु० सं० 4

इसी कुण्डली में सूर्य लग्न का स्वामी शनि, सूर्यलग्नस्थ मकरराशि को देख रहा है और वह सूर्य लग्न पुनः गुरु की नवम दृष्टि द्वारा पूर्ण दृष्ट है अतः सूर्य लग्न भी पूर्ण शुभ फल धन, पदवी, आयु आदि के रूप में देने को उद्यत है । चन्द्र लग्न की बात लग्न की भाँति है ।

चन्द्र लग्न का स्वामी शनि चन्द्र लग्न को तो नहीं देखता परन्तु अपनी दूसरी राशि मकर को देखता है अतः पूर्वोक्त सिद्धान्तानुसार इस दृष्टि का फल कुम्भ राशि को भी मिल रहा है जहाँ कि चन्द्र लग्न है ।

अतः चन्द्र लग्न भी लाभान्वित हो रही समझी जानी चाहिये । इस प्रकार देखने पर प्रेसिडेन्ट नासिर की कुण्डली में तीनों ही लग्नें अपने स्वामियों द्वारा एक प्रकार से दृष्ट पाई गईं। फल यह है कि एक महान राज्य पर जिसके नीचे और भी कई राज्य हैं अधिकार तथा धन की प्राप्ति हुई, ऐसी प्राप्ति जो बड़े बड़े आक्रमणात्मक विघ्नों के होते हुई भी स्थिर रूप से बनी हुई है ।

एक करोड़पति की कुण्डली कु० सं० 5 नीचे उधृत की जाती है । यहाँ लग्नाधिपति चन्द्र का लग्न को पूर्ण दृष्टि से देखना तथा लग्न का गुरु द्वारा दृष्ट होना नियम की शर्तें जहां तक लग्न का सम्बन्ध है, पूरी कर रहा है। लेकिन सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न की बात दूसरी है।

कु० सं० 5

सूर्य लग्न का स्वामी मंगल सूर्यलग्न को तो नहीं देख रहा परन्तु अपनी अन्य राशि मेष को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है और सूर्य लग्न में गुरु विराजमान है। अतः सूर्य लग्न पर इसके स्वामी की दृष्टि के तुल्य ही कुण्डली के स्वामी को फल मिल रहा है।

उधर चंद्र लग्न का स्वामी शनि भी चंद्र लग्न को नहीं देखता परन्तु अपनी इतर राशि कुम्भ को देखता है और स्वयं गुरु की दृष्टि में है । अतः यहाँ भी चन्द्रलग्न इतनी ही बलवान् समझी जानी चाहिये जितनी कि तब जबकि यह अपने स्वामी द्वारा दृष्ट होती । फल करोड़पति होना है।

पण्डित जवाहरलाल जी की कु० सं० 6 में भी सूर्य लग्न को लग्नेतर राशि द्वारा बल मिल रहा है।

कु० सं० 6

सूर्य लग्न का स्वामी मंगल यद्यपि सूर्य लग्न को नहीं देखता परन्तु सूर्य लग्नेतर मेष को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है और मेष पर तीन शुभ प्रभाव बुध, शुक्र तथा बृहस्पति की दृष्टि द्वारा पड़ रहे हैं। अतः सूर्य लग्न बली समझनी चाहिये ।

चन्द्र तो केन्द्र में स्वक्षेत्री होकर तथा पक्ष बल में बली होकर लग्न को बल दे ही रहा है अतः तीनों लग्नों के बली होने से पण्डित जी को अद्वितीय “राज्य” ख्याति पदवी तथा धन उन्नीस साल तक मिलता रहा।


0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *