पाराशरीय धनदायक योग

महर्षि पाराशर का आदेश है कि जैसे भगवान् विष्णु के अवतरण- समय पर उनकी शक्ति-लक्ष्मी उनसे मिलती है तो संसार में उपकार की सृष्टि होती है ।

इसी प्रकार जब केन्द्र-घरों के स्वामियों का योग त्रिकोण घरों के स्वामियों से होता है अथवा जब एक ही ग्रह केन्द्र तथा त्रिकोण दोनों का स्वामी हो जाता है तो इस योग अथवा संबंध के फलस्वरूप उच्च पदवी, मान, यश तथा विशेष धन की प्राप्ति होती है।

यदि यह त्रिकोण और केन्द्र का स्वामी जिसको ज्योतिष की परिभाषा में राजयोगकारक ग्रह कहते हैं तनिक भी बलवान हो तो अपनी दशा औरं विशेषतया अपनी अन्तर्दशा में निश्चित रूप से धन, पदवी तथा मान में वृद्धि करने वाला होता है । यह बात अनुभूत है और पत्थर पर लकीर है

इस राजयोग की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि में कुछ नियम हैं जिनका समझना न केवल ‘राजयोग’ के समझने में सहायक है, बल्कि ‘विपरीत राजयोग’, ‘अखण्ड साम्राज्य योग’ आदि योगों के समझने मैं भी लाभकारी है । वह नियम इस प्रकार है :-

1. प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम स्थान केन्द्र है । प्रथम पञ्चम तथा नवम स्थान ‘त्रिकोण’ है । इससे स्पष्ट है कि लग्न स्थान ‘चिकोण’ भी है और ‘केन्द्र’ भी। यही कारण है कि लग्न का स्वामी अपनी दशा अन्तर्दशा में सर्वदा धन के सम्बन्ध में शुभ फल देता है चाहे वह् स्वामी नैसर्गिक पापी ग्रह मंगल या शनि ही क्यों न हों।

2. दूसरा नियम यह है कि केन्द्र घरों के स्वामी अपनी नैसर्गिक शुभता अथवा अशुभता को खो देते हैं । उदाहरणार्थ मिथुन लग्न वाले व्यक्तियों की कुण्डली में गुरु सप्तम तथा दशम दो केन्द्र स्थानों का स्वामी होता है अतः अपनी नैसर्गिक शुभता को खो बैठता है । यह दशा मीन लग्न वालों के बुध की भी होगी जो कि चतुर्थ तथा सप्तम दो केन्द्र-स्थानों का स्वामी होगा। कर्क लग्न में मंगल अशुभ नहीं रहता, क्योंकि इस लग्न वालों के लिए वह केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी है ।

3. तीसरा नियम यह है कि त्रिकोणाधिपांत सर्वदा धन के सबध में शुभ फल करता है चाहे वह नैसर्गिक पापी ग्रह शनि या मंगल ही क्यों न हो । जैसा कि वृषभ लग्न का शनि और सिंह लग्न का मंगल ।

4.चतुर्थ नियम यह है कि द्वितीय तथा द्वादश भावों के स्वामी तटस्थ होते हैं । ये ग्रह यदि एक राशि के स्वामी सूर्य अथवा चन्द्र हों तो जहां ये ग्रह बैठें उस स्थान सम्बन्धी शुभ अथवा अशुभ फल धन के विषय में करते हैं। जब कोई दो राशियों वाला ग्रह (जैसे मंगल) इन घरों का स्वामी होता है तो वह उस घर की वस्तुओं के सम्बन्ध से फल देता है जिस घर में कि उसकी अन्य राशि स्थित हो जैसे मेष लग्न में शुक्र सप्तमाधिपति होने का फल देगा और गुरु द्वादशाधिपति नवम भाव का फल करेगा ।

5. पाँचवां नियम यह है कि तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भावो के स्वामी, चाहे वे नैसर्गिक शुभग्रहों अथवा नैसर्गिक पापग्रह; पाप- फल ही करते हैं ।

6. कोई भी स्थान जिस स्थान से बारहवें पड़ता है वह उसका ‘नाश’ स्थान है । जैसे लग्न शरीर है तो लग्न से बारहवाँ स्थान शरीर के नाश का स्थान (मोक्ष-स्थान है) । लग्न से धन भी देखा जाता है इसीलिये द्वादश भाव धन के नाश तथा व्यय का स्थान है । नवम स्थान ‘भाग्य’ है, अष्टम उससे द्वादश है अतः अष्टम दरिद्रता- गरीबी का स्थान है । इसीलिये अष्टमेश धन के लिये बुरा है ।

7. मेष लग्न वालों के लिए

  • सूर्य शुभ, धनदायक ग्रह है, क्योंकि त्रिकोण का स्वामी है ।
  • चन्द्र यद्यपि चतुर्थेश होने के कारण- अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठता है अतः पापी समझा जायेगा । अतः इसका षष्ठ भाव अथवा द्वादश अनिष्ट भाव में क्षीण होकर स्थित होना धन तथा सुख के लिए अशुभ हो जायेगा।
  • मंगल लग्नेश अष्टमेश है । शुभ फल देता है।
  • बुध तृतीयेश षष्ठेश है। दोनों पापी स्थान हैं । अतः बुध बहुत पापी है । यदि केन्द्र आदि में बलवान होगा तो धन के सम्बन्ध में अशुभ फल देगा।
  • गुरु नवम तथा द्वादश भाव का स्वामी है। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं गुरु ‘स्थानान्तर’ अर्थात् नवम का अतीव शुभ फल करेगा । केन्द्रादि में गुरु की स्थिति धन, भाग्य राज्य-कृपा आदि देती है।
  • शुक्र द्वितीय तथा सप्तम स्थान का स्वामी हैं, शुभ नहीं। यदि बलवान हो तथा शुभ त्रिकोणाधिपति से सम्बन्ध रखें तो शुभ फल करता है ।
  • शनि दशम तथा एकादश भाव का स्वामी है । यह अशुभ गिना जाता है, परन्तु यदि शुक्र आदि शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो धनदायक होता है ।

8. वृषभ लग्न :-

  • सूर्य चतुर्थेश है अतः अपनी नैसर्गिक अशुभता को खोकर शुभ हो जाता है, यदि केन्द्रादि शुभ भावों में बुध आदि के साथ स्थित हो ।
  • चन्द्र तृतीयेश अशुभ है । इसका अशुभ युक्त तथा अशुभ दृष्ट होना ही अच्छा है ।
  • मंगल द्वादशाधिपति तथा सप्तमाधिपति हैं । द्वादशाधिपति होने से सम (Neutral) सप्तमाधिपति होने से पापी नहीं । अतः कुछ शुभ गिना जायेगा ।
  • बुध द्वितीयाधिपति तथा पंचमाधिपति है । द्वितीयाधिपति होने से पंचम भाव का फल करेगा अर्थात् अतीव शुभ गिना जायेगा । बुध थोड़ा भी बली शुभ फल देगा |
  • गुरु अष्टम तथा एकादश भावों का स्वामी है। दोनों भाव अच्छे नहीं । अतः बृहस्पति अशुभ गिना है, परन्तु इसकी दृष्टि शुभ करेगी ।
  • शुक्र लग्न तथा षष्ठ स्थान का स्वामी है । लग्न का स्वामी होने से शुभ है, परन्तु षष्ठ स्थान का स्वामी होने से पापी । अतः फल तो शुभ ही करेगा, क्योंकि लग्न षष्ठ से बली है परन्तु अधिक शुभ नहीं माना जायेगा । कुछ लोग इसे अशुभ समझते हैं ।
  • शनि नवम त्रिकोण तथा दशम केन्द्र का एक साथ स्वामी होने के कारण अतीव शुभ तथा ‘योगकारक’ धनदायक माना गया है।

9. मिथुन लग्न में

  • सूर्य तृतीयेश है अतः अशुभ है ।
  • चन्द्र द्वितीयेश है। इसका फल इसके बल पर तथा स्थिति पर है । यदि बली है तथा शुभ स्थान में है तो धन देगा।
  • मंगल षष्ठाधिपति तथा एकादशाधिपति है। दोनों अनिष्ट स्थान हैं । अतः मंगल बहुत अनर्थ- कारी है । इसका निर्बल होना ही अच्छा है अन्यथा ऋण आदि देता है।
  • बुध केन्द्राधिपति होने से शुभ नहीं रहता, परन्तु लग्नाधिपति होने से शुभ हो ही जाता है। थोड़ा भी बली बुध अच्छा धन देता है ।
  • गुरु सप्तम तथा दशम भावों का स्वामी है । इसको केन्द्राधिपत्य दोष प्राप्त होता है । गुरु शुभता खो बैठता है परन्तु यह दोष स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है। धन के लिये इतना नहीं ।
  • शुक्र द्वादशाधिपति होने से पंचम भाव जिसमें शुक्र की दूसरी राशि तुला बैठती है, का फल करेगा, अर्थात् अतीव शुभ धनदायक सिद्ध होगा। जितना बली होंगा उतना अधिक धन देगा।
  • शनि अष्टम तथा नवम का स्वामी है। यह अच्छा-बुरा दोनों फल करेगा, परन्तु शुभता अधिक रहेगी, क्योंकि इसकी मूलत्रिकोण राशि कुंभ नवम भाव में पड़ती है।

10. कर्क लग्न – में

  • ‘सूर्य’ द्वितीयाधिपति यदि शुभ स्थान में बलवान हो तो खूब धन देगा ।
  • चन्द्र लग्नेश राजयोग करता है, बहुत शुभ फल करता है ।
  • मंगल पंचम तथा दशम स्थानों का स्वामी होने से केन्द्रत्रिकोण का स्वामी हुआ । केन्द्राधिपत्य से अशुभता खो बैठा और त्रिकोणाधिपत्य से अतीव शुभ हो जायेगा । योगकारक होकर अतीव शुभ फल करेगा ।
  • बुध द्वादशाधिपति होने से अपनी तीसरे भाव में स्थित कन्या राशि का फल करेगा अर्थात् अशुभ फल देगा ।
  • गुरु षष्ठाधिपति (अशुभ) भी है और नवमाधिपति भी है । चूंकि नवम भाव षष्ठ से अत्यधिक शुभ है अतः गुरु कुछ शुभ ही माना जायेगा ।
  • शुक्र चतुर्थेश होने से शुभता खो बैठता है । एकादशेश होने से अशुभ है अतः शुक्र कर्क लग्न वालों के लिये अशुभ है विशेषतया अशुभ ग्रह की दशा में ।
  • शनि सप्तमाधिपति होने से अशुभता खो बैठा, परन्तु अष्टमेश होने से पापत्व का रंग पुनः चढ़ा बैठा। अतः शनि बहुत पापी है ।

11. सिंह लग्न में

  • सूर्य स्वयम् लग्नेश है अतः जब बलवान हो अथवा लग्न को देखे तो शुभ होने से बहुत राज्य आदि का सुख देता है ।
  • चन्द्र द्वादशेश है । अपने बल तथा स्थिति अनुसार अच्छा-बुरा फल करेगा।
  • मंगल चतुर्थाधिपति होने से अशुभ न रहा, नवमाधिपति होने से अतीव शुभकारी राजयोगदायक हो गया ।
  • बुध द्वितीय तथा एकादश भाव का स्वामी होने से यद्यपि पापी कहा जायेगा, दो परन्तु धनदायक घरों का स्वामी होने के नाते अच्छा फल करेगा यदि निर्बल न हो तो ।
  • गुरु पंचम (शुभ) तथा अष्टम (अशुभ) स्थान का स्वामी है। पंचम से अष्टम अधिक बली है । अतः गुरु थोड़ा अशुभ ही माना गया है ।
  • शुक्र तृतीयाधिपति तथा दशमाधिपति है । दशमाधिपति होने के नाते अपनी नैसर्गिक शुभता को खो बैठता है पुनः तृतीयाधिपति होता हुआ अशुभ फल करता है ।
  • शनि सप्तम तथा षष्ठ स्थानों का स्वामी है। सप्तमेश होने के कारण शनि अपनी नैसर्गिक अशुभता को खो देता है, परन्तु षष्ठेश होने से पुनः पापी का पापी ही रह जाता है ।

12. कन्या लग्न में –

  • सूर्य द्वादशेश होने से अपनी स्थिति तथा बल के अनुकूल अच्छा या बुरा फल करेगा ।
  • चन्द्र लग्नाधिपति होने से पापी माना जायेगा । परन्तु बली होने की दशा में तथा शुक्र आदि धन- द्योतक ग्रहों के संपर्क में शुभ फल देगा।
  • मंगल तृतीय तथा अष्टम दो पापी स्थानों का स्वामी होने से अतीव पापी और अशुभ है । मिथुन राशि का दशम भाव में स्थित मंगल अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभ फल करता है, कारण कि वह अपनी एक राशि मेष से तृतीय तथा दूसरी वृश्चिक से अष्टम होकर बुरे भावों की बुराई को दूर कर देता है ।
  • बुध दशमेश होने से अपनी नैसर्गिक शुभता खोता है परन्तु लग्नेश (केन्द्र तथा त्रिकोण दोनों का स्वामी) होने से राजयोग कारक एवं अतीव शुभ गिना जायेगा।
  • गुरु को केन्द्राधिपत्य दोष होने से यह ग्रह अपनी नैसर्गिक शुभता सर्वथा खो बैठेगा । अतः अशुभ गिना जावेगा ।
  • शुक्र द्वितीयाधिपति होने से अपनी अन्य राशि का फल देगा । वह अन्य राशि नवम में पड़ती है अतः शुक्र अतीव शुभ है ।
  • शनि पंचम तथा षष्ठ का स्वामी है। पंचम शुभता में लगभग उतना ही अग्रसर है जितना षष्ठ भाव अशुभता में । परन्तु शनि की मूल त्रिकोण राशि षष्ठ में पड़ने के कारण शनि कुछ अशुभ ही गिना जायेगा ।

13. तुला लग्न में

  • सूर्य लाभाधिपति होने से पापी है, परन्तु मंगलादि धनदायक ग्रहों के संपर्क में धन के सम्बन्ध में शुभ फल देता है ।
  • चन्द्र दशम केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक शुभता खो देता है और पापी अर्थात् अशुभ फल देता है ।
  • मंगल द्वितीयाधिपति होने के कारण स्थानान्तर अर्थात् सप्तम का फल करेगा । मंगल को एक नैसर्गिक पापी ग्रह के लिए सप्तम केन्द्र का स्वामी होना अपना नैसर्गिक पापत्व खोना है, अतः मंगल को शुभत्व प्राप्त है ऐसा समझना चाहिए।
  • बुध द्वादशाधिपति होने से स्थानान्तर अर्थात् नवम भाव का फल करेगा अर्थात् अतीव शुभ माना जायेगा ।
  • शनि अकेला ही इस लग्न के लिये राजयोग कारक अतीव शुभ है, क्योंकि केन्द्र (चतुर्थ) का स्वामी होने से यह ग्रह अपनी नैसर्गिक अशुभता खो देता है और पंचमेश होने से उस पर शुभता का रंग खूब चढ़ता है । जिस मनुष्य को दुष्ट लोग भी लाभ देना चाहें उसके धनी होने में क्या संदेह हो सकता है । अतः तुला लग्न बहुत अच्छा लग्न है ।

14. वृश्चिक लग्न में

  • सूर्य दशमाधिपति होने से अशुभ नहीं रहा अतः शुभ ही समझा जायेगा ।
  • चन्द्र अतीव शुभ भाव का स्वामी होने से अतीव शुभ होगा, यदि थोड़ा भी बली हुआ – मंगल यद्यपि षष्ठाधिपति है तथापि लग्नाधिपति होने से थोड़ा शुभ ही मानना चाहिए।
  • बुध दो अशुभ स्थानों-अष्टम तथा एकादशे का स्वामी होने से अतीव अशुभ है ।
  • गुरु द्वितीयाधिपति होने के कारण स्थानान्तर का अर्थात् पंचम भाव का फल करेगा अर्थात् अतीव शुभ माना जावेगा ।
  • शुक्र द्वादशाधिपति होने से स्थानान्तर अर्थात् सप्तम का फल करेगा । शुक्र का केन्द्र का स्वामी होना शुभता को खोता है अतः शुक्र अशुभ माना है ।
  • शनि चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक अशुभता को खो देता है, परन्तु पुनः तृतीयाधिपति होने से अशुभ हो जाता है ।

15. धनु लग्न में,

  • सूर्य नवमाधिपति होगा । अतीव शुभ फलदाता है ।
  • चन्द्र अष्टमाधिपति है परन्तु चन्द्र को अष्टमाधिपत्य का दोष नहीं लगता ऐसा नियम है; अतः चन्द्र यदि बली हो तो शुभ ही माना जायेगा ।
  • मंगल द्वादशाधिपति होने से स्थानान्तर का फल करेगा अर्थात् पंचम भाव का । अतः मंगल शुभ ग्रह है ।
  • बुध को दो केन्द्रों (सप्तम तथा दशम) का आधिपत्य होने से यह अशुभ माना जायेगा ।
  • गुरु चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक शुभता को खो बैठता है परन्तु पुनः लग्नाधिपति (योगकारक) होने से अतीव शुभ माना जायेगा ।
  • शुक्र दो अशुभ स्थानों-षष्ठ तथा एकादश का स्वामी है । अतः अशुभ फल देता है । यदि बहुत निर्बल हो तो अच्छा फल करता है ।
  • शनि द्वितीयाधिपति होने से अपने स्थानान्तर तृतीय का फल करेगा । “एक करेला दूसरा नीम चढ़ा” के अनुसार पापी होकर तृतीयाधिपति होगा । अतः बहुत बुरा फल देगा ।

16. मकर लग्न में

  • सूर्य अष्टमाधिपति है । अष्टमाधिपति होने का दोष सूर्य को नहीं लगता ऐसा नियम है । अतः सूर्य यदि बलवान है तो शुभ फल ही करेगा ।
  • चन्द्र सप्तम केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठता है अतः अशुभ माना जाता है ।
  • मंगल चतुर्थाधिपति होने से अपना पापत्व खो देता है पुनः लाभाधिपति होने से पापी ही होता है । अतः अशुभ है।
  • बुध षष्ठाधिपति तथा नवमाधिपति है । नवम षष्ठ से अत्यधिक बली है । अतः बुध शुभ फलदायक होता है ।
  • गुरु द्वादशाधिपति होने से स्थानान्तर अर्थात् तृतीय भाव का फल करता है । अर्थात् अशुभ फल करता है ।
  • शुक्र दशम केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठता है । पुनः पंचम त्रिकोण का स्वामी होने से अतीव शुभ हो जाता है।
  • शनि द्वितीय भाव का स्वामी होने से स्थानान्तर अर्थात् लग्न का फल करता है। लग्न तो योगकारक होता ही है । अतः शनि अतीव शुभ फल करता है ।

17. कुम्भ लग्न में

  • सूर्य सप्तम केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक अशुभता को खो देता है अतः कुछ अच्छा ही फल देता है ।
  • चन्द्र षष्ठाधिपति होने से अशुभ है।
  • मंगल दशम केन्द्र का स्वामी होने से नैसर्गिक पाप छोड़ता हुआ पुनः तृतीयेश होने से पापी का पापी ही रह जाता है ।
  • बुध पंचमेश तथा अष्टमेश होता है । अतः कुछ अशुभ फल करता है।
  • गुरु द्वितीयाधिपति होने से स्थानान्तर अर्थात् एकादश भाव का अनिष्ट फल ही करेगा ।
  • शुक्र चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने के कारण अपने नैसर्गिक शुभत्व को खो बैठता है । परन्तु नवमाधिपति होने से पुनः अतीव शुभ फलदाता होकर अच्छा धन देता है ।
  • शनिं द्वादशाधिपति होने से स्थानान्तर का फल करेगा अर्थात् लग्न का, अतः शनि अतीव शुभ माना जावेगा ।

18. मीन लग्न में

  • सूर्य षष्ठाधिपति होता है । अतः कुछ अशुभ फल के करने वाला होगा ।
  • चन्द्र पञ्चम त्रिकोण का स्वामी होने के कारण शुभ फल करेगा, विशेषतया जब कि यह सूर्य से दूर होता हुआ पक्ष बल में बली हो ।
  • मंगल द्वितीय तथा नवम भावों का स्वामी बनता है । द्वितीयाधिपति होने के कारण मंगल स्थानान्तर अर्थात् नवम त्रिकोण का ही अतीव शुभ फल करेगा ।
  • बुध एक नैसर्गिक शुभ ग्रह दो केन्द्रों अर्थात् चतुर्थ तथा सप्तम भाव का स्वामी का स्वामी होकर केन्द्राधिपत्य दोष के करने वाला अशुभ ग्रह माना जायेगा, विशेषतया स्वास्थ्य के संबन्ध में ।
  • गुरु, यद्यपि दशम केन्द्र का स्वामी होने के कारण अपने नैसर्गिक शुभत्व को खोता है, परन्तु साथ ही लग्नाधिपति होने के कारण पुनः अतीव शुभ ‘राजयोग’ कारक ग्रह बन जाता है।
  • शुक्र दो ‘अशुभ घरों’ तृतीय तथा अष्टम का स्वामी होने से अशुभ ग्रह माना गया है।
  • शनि द्वादशाधिपति होने के कारण स्थानान्तर अर्थात् एकादशेश होने का अशुभ फल करता है ।

लग्नों के उपरोक्त विवरण में जहाँ जहाँ ‘अतीव शुभ’ फल का वर्णन किया है वह प्रायः ‘योगकारक ग्रहोंही का परिणाम है । जब एक कुण्डली में एक से अधिक ‘राजयोग’ बनते हों तो स्पष्ट है कि उस व्यक्ति का आर्थिक स्तर अपेक्षाकृत बहुत ऊँचा उठ जायेगा ।


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