व्यव्साय चुनने की पध्दति

पहली बात यह देखिए कि कुण्डली में धनयोग है या नहीं ? यदि है तो उत्तम है, मध्यम है या निकृष्ट ? इस सम्बन्ध में निम्नलिखित कुछ नियम ध्यान में रखने योग्य हैं।

  • भावों से विचार करते हुए ध्यान रहे कि कुण्डली में द्वितीय स्थान धनभाव है; परन्तु इससे धन की राशि की सूचना मिलती है।
  • धन-लाभ की विधि क्या होगी ? इसका विचार एकादश स्थान से करना चाहिए ।

द्वितीय स्थान और लाभविधि स्थान में से यदि धन स्थान अर्थात् द्वितीय स्थान अच्छा है और एकादश दुर्बल है तो धन प्राप्त करने में अनेक कष्ट होंगे परन्तु धन संचय होगा सही । यदि एकादश स्थान उत्तम हो और द्वितीय स्थान निर्बल हो तो धनोपार्जन सुगमता से होगा लेकिन धन संचय का सौभाग्य नहीं मिल सकेगा। दोनों स्थान उत्तम हो तो लाभ भी सुगमता से होगा और संग्रह भी होगा

लाभ की मात्रा क्या होगी ?

इसका अनुमान ग्रहों के उच्च, स्वगृही, मूल त्रिकोण आदि के अनुसार किया जायेगा। एक ही योग में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की आयों में अन्तर ग्रहों की सबलता निर्बलता पर निर्भर करता है ।

* जिस भाव का विचार करना हो उस भाव के स्वामी के शुभाशुभ फल की सफलता पहले प्रभावशाली होती है। उसके पश्चात् भाव में स्थित ग्रह का फल और सबसे कम प्रभावी भावदर्शी ग्रह का फल होता है ।

* यदि धन देने वाले मंगल, बुध और शनि क्रमशः द्वितीय, चतुर्थ और सप्तम स्थान में हों तो प्रायः निष्फल हो जाते हैं ।

* यदि द्वितीयेश एकादशस्थ हो और एकादशेश द्वितीयस्थ हो अथवा एकादशेश एकादशस्थ हो, अथवा द्वितीयेश और एकादशेश लग्न से केन्द्रवर्ती हों तो जातक धनवान् और संसार में विख्यात होता है ।

* कुण्डली में चार ग्रह स्वगृह में अवस्थित हों तो कुण्डलीवाले को समृद्ध बना देते हैं ।

* बृहस्पति का द्वितीय भाव से सम्बन्ध हो तो धन का आगमन अवश्य होता है – कितना धन होगा ? इसका अनुमान बृहस्पति के शुभाशुभ, दुर्बलता और सबलता आदि पर निर्भर रहेगा ।

इसके पश्चात् यह देखना होगा कि स्वभुजाजित धन का योग है या नहीं ?

* लग्न और लग्नेश जातक के अपने शरीर के बोधक हैं; एकादश स्थान धनोपार्जन की विधि का तथा द्वितीय स्थान जातक की समृद्धि का द्योतक है। इसलिए यदि लग्न और एकादश स्थान में कोई शुभ संबन्ध हो तो ऐसा जातक अपनी भुजा से धन अर्जित करता है ?

* यदि लग्नेश का नवाशपति द्वितीयेश से युक्त होकर केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो तो जातक को भुजार्जित धन विशेष होता है.

* यदि लग्नेश, द्वितीयेश और एकादशेश एक साथ होकर केन्द्र अथवा त्रिकोणवर्ती हों और उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि भी हो तो जातक अपनी भुजा से बहुत धन एकत्रित करता है ।

* यदि लग्नेश द्वितीयेश को देखता हो और केन्द्रवर्ती हो तो जातक अपने परिश्रम से धन का उपार्जन करता है ।

* यदि बली लग्नेश और चतुर्थेश का अन्योन्य सम्बन्ध हो, लग्नेश चतुर्थस्थ और चतुर्थेश लग्नस्थ हो तो ऐसे योग के प्रभाव से जातक अपनी भुजा से जमींदारी इत्यादि प्राप्त करता है ।

* लग्नेश और द्वितीयेश के योग से अथवा उन दोनों में संबन्ध रहने से भुजार्जित धन होता है।

इसी प्रसंग में यह भी देखना चाहिए कि वाणिज्य से धन सूचित होता है या नहीं ?

* बुध वाणिज्य कारक ग्रह है तथा सप्तम भाव से भी वाणिज्य का विचार किया जाता हैं। अतः सप्तमभाव और का बल विचार कर और द्वितीयेश का शुभत्व आदि देखकर वाणिज्य बुध दोनों कुशलता आदि फल कहना चाहिए। धन भाव से विक्रय वाणिज्य का और सप्तमभाव से क्रय वाणिज्य का विचार होता है।

* यहाँ सप्तम भाव में स्थित विभिन्न ग्रहों के प्रभाव भी द्रष्टव्य हैं । सप्तम भाव में

  • सूर्य हो तो वाणिज्य प्रायः स्थिर रहता है
  • चन्द्र हो तो वाणिज्य का स्वरूप बदलता रहेगा । आय सर्वथा अस्थिर रहेगी । वाणिज्य का स्थान तक भी बदलता रहेगा।
  • मंगल हो तो व्यापारी आवेशशील रहेगा, नीलाम में बोली खूब चढ़ाकर बोलेगा और अन्तमें घाटा उठायेगा, ऐसा व्यापारी विवेक से नहीं चलता और अन्त में व्यापार ठप्प हो जाता है।
  • बुध हो तो शीघ्र क्रय-विक्रय, लाभ अधिक होता है।
  • बृहस्पति हो तो वाणिज्य ईमानदारी का तथा उन्नतिशील रहता है;
  • शुक्र हो तो सौभाग्य तथा लोकप्रियता प्रदान करता है।
  • शनि का होना वाणिज्य के लिए अमंगल सूचक रहता है।
  • राहु, केतु भी प्रतिकूल पड़ते हैं ।

किस व्यवसाय में सफलता मिलेगी ?

उपर्युक्त तीन बातों का विचार करने के पश्चात् अब यह अनुमान लगाया जाता है कि जातक को किस व्यवसाय में सफलता मिलने की आशा है । राशि के आधार पर अनुमान दो प्रकार से लगाया जाता है। राशि के स्वभाव के आधार पर और दूसरे राशि के तत्व के आधार, पर ।

राशि-स्वभाव के अनुसार व्यवसाय विचार

* राशियाँ चर या स्थिर तथा द्विस्वभाव होती हैं। मेष, कर्क, तुला और मकर चर राशि हैं; बृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ स्थिर राशि तथा मिथुन, कन्या, धन और मीन द्विस्वभाव राशियाँ हैं ।

* यदि चर राशिगत ग्रहों की संख्या विशेष हो तो, जातक किसी भी स्वतन्त्र व्यवसाय को करने वाला होता है। ऐसा व्यवसाय कि जिसमें चतुराई, युक्ति, निपुणता, मेलजोल करने का ढंग, व्यवहार कुशलता का प्रयोग किया जाय। ऐसा जातक जिस किसी भी व्यवसाय में होगा उसको शिखर तक पहुंचाने का यत्न करेगा। ऐसा जातक नेता, अन्वेषक और अग्रणी बनता है ।

* यदि जातक की स्थिर राशिगत ग्रहों की संख्या विशेष हो तो जातक की उन्नति ऐसे व्यवासाय में होगी जिसमें धैर्य, शांति, सहनशीलता तथा दृढ़ता की आवश्यकता होती है। ऐसा जातक सरकारी नौकरी में भी सफल रहता है; डाक्टरी आदि द्वारा भी धन उपार्जन करता है; पुराने देर से चले आ रहे सुव्यवस्थित व्यवसायों में सफल रहता है ।

* यदि द्विस्वभावराशियों में स्थित ग्रहों की संख्या विशेष हो तो ऐसे जातक को अध्यापकी, प्रोफेसरी, आढ़त, गुमाश्तागिरी, कमिशन पर एजेन्सी का काम आदि कार्यों में सफलता मिलती है ऐसे व्यक्ति को वाणिज्य की अपेक्षा नौकरी अधिक फल देती है ।

* यदि चर, स्थिर और द्विस्वभाव राशियों में से दो प्रकार की राशियों में बराबर-बराबर ग्रह हों और तीसरी प्रकार की राशियों में कम हों तो उन दोनों के बलावल को देखना होगा । ऐसे जातक को दो तरह के व्यवसायों में सफलता भी संभव है । ( ध्यान रहे कि राहु-केतु की गणना इस गणना में सम्मिलित नहीं की जाती )

राशि तत्व की दृष्टि से व्यवसाय का विचार

राशियां चार तत्व की कल्पना की गई हैं—अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल । मेष, सिंह और धनु अग्नि तत्त्व हैं; वृष, कन्या और मकर पृथ्वी तत्त्व हैं; मिथुन, तुला, एवं कुम्भ वायु तत्त्व तथा कर्क, वृश्चिक और मीन, जल तत्त्व हैं। ग्रहों में से, सूर्य और मंगल, अग्नि तत्व; चन्द्र और शुक्र जल तत्व; बुध, पृथ्वी तत्व; बृहस्पति, आकाश तत्व और, शनि, वायु तत्व है ।

इसके अनुसार पहले यह देखना होगा कि कुण्डली में का प्रबलतम ग्रह किस तत्व का है; और वह किस तत्त्व की राशि में बैठा है । लग्न का तथा लग्न से दशम राशि का क्या तत्त्व है । अर्थात् बली ग्रह बली ग्रह की राशि, लग्न और दशम राशि इन चारों की स्थिति के के अनुसार कौन सा तत्त्व विशेष है ।

  • यदि अग्नि तत्त्व की विशेषता है तो जातक की विशेष उन्नति उस व्ययसाय में होगी जिसमें बुद्धि और मानसिक क्रियाओं का चमत्कार दिखलाना अभीष्ट हो ।
  • यदि पृथ्वी तत्त्व की विशेषता होगी तो शारीरिक श्रम से साध्य व्यवसाय से धन प्राप्ति होगी । पृथ्वी तत्त्व प्रधान व्यक्ति, भूमि, कृषि, भवननिर्माण, राजनीति आदि में सफल रहता है।
  • अग्नितत्त्वप्रधान व्यक्ति प्रतिभाशाली, कर्मठ, यांत्रिक और साहसिक होता है। वायु तत्त्व प्रधान व्यक्ति, साहित्यिक, एजेन्ट, परामर्शदाता, कलाविद्, संवाददाता और प्रकाशक होता है।
  • जलतत्व प्रधान व्यक्ति द्रव, स्पिरिट, तेल, जहाजरानी और विदेश यात्राओं में सफल होता है । यदि जल तत्त्व प्रधान होगा तो जातक जमकर कार्य नहीं करता, वह अपना व्यवसाय बदलता रहता है ।

दशम (कर्म) भाव से व्यवसाय का अनुमान

यद्यपि दशम स्थानं कर्म स्थान है तथापि यह रुपया कमाने के कर्मों का द्योतक नहीं है । अच्छे-बुरे, यज्ञीय-अयज्ञीय कर्मों का द्योतक है।

परन्तु देखना यह है कि जो विद्वान् दशम स्थान (कर्म स्थान ) को इन अर्थों में लेते हैं कि कर्म शब्द अन्य क्रियाओं के अतिरिक्त ‘व्यापार’ ‘व्यवसाय’ को भी अन्तर्गत करता है वे दशम स्थान से व्यवसाय का निश्चय करने की किस विधि को अपनाते हैं। ऐसे विद्वानों के अनुसार प्रथम विचारणीय प्रश्न यह रहता है कि किस स्थान से दशमस्थान लिया जाय और फिर वहाँ पर स्थित ग्रह का बलाबल देखा जाय ?

“जातक शिरोमणि” में लिखा है :- “विलग्नं शरीरं मनःशीत- रश्मिविवस्वानथात्मा त्रयाणामथँक्ये’ अर्थात् लग्न से जातक का शरीर, चन्द्रमा से मन और सूर्य से आत्मा का प्रतिपादन होता है। लग्न स्थान को मूर्ति स्थान भी कहा अर्थात् लग्न स्थान से दशम स्थान मनुष्य के शारीरिक परिश्रम द्वारा सम्पन्न कार्य का बोध कराता है ।

चन्द्रमा से दशम स्थान मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार सम्पन्न कार्य का बोध कराता है और सूर्य से दशम स्थान आत्मा की प्रबलता द्वारा कार्योत्पत्ति का बोधक होता है ।

इन्हीं सब कारणों से महर्षि गर्ग, वराहमिहिरादि आचार्यों का मत है कि लग्न और चन्द्र में जो बली हो उससे दशम भाव द्वारा मनुष्य के कर्म और उसकी मनोवृत्ति का विचार किया जाता है। गर्गाचार्य तो केवल कर्मस्थानस्थ ग्रह को ही सफलता का बोधक मानते हैं । उनके कथनानुसार तो यदि दशम स्थान में कोई ग्रह न रहे अथवा उस पर किसी ग्रह की दृष्टि भी न रहे तो जातक अभागा होता है

ज्योतिष शास्त्र अनुसार यदि लग्न स्थान से दशम स्थान में कोई ग्रह होतो जातक अपने कुल में अवश्य ही उन्नतिशील होता है । परन्तु उन्नति की मात्रा ग्रह की अवस्था पर निर्भर करती है।

यदि दशमस्थ ग्रह उच्च हो तो जातक अप्रत्याशित उन्नति करता है । यदि दशमस्थ ग्रह नीच हो तो भी जातक अपने कुल की अवस्था से कुछ विशेष उन्नति अवश्य करता है । हाँ, यह उन्नति डांवाडोल रहती है । यदि दशमस्थानस्थित ग्रहों में से कोई उच्च और कोई नीच हो तो उन्नति तो अवश्य होती है परन्तु कभी-कभी मानहानि, द्रव्य हानि भी अवश्य हो जाती है।

यदि चन्द्रमा और लग्न इन दोनों में से किसी से भी दशम स्थान में कोई ग्रह न हो तो फिर सूर्य से दशम स्थान स्थित ग्रह के द्वारा रोजगार का विचार करना होगा और यदि सूर्य से दशम स्थान में भी कोई ग्रह न हो तो फिर दशम स्थान के स्वामी के नवांशपति से व्यवसाय का विचार होता है । अभिप्राय यह है कि

  • पहले यह देखिये कि लग्न और चन्द्रमा में से कौन बली है – जो बली हो उससे दशम स्थानस्थित ग्रह को देखिये
  • यदि इन दोनों से दशम स्थान में कोई ग्रह न हो तो सूर्य से दशम स्थान के ग्रह को देखिये
  • यदि सूर्य से भी दशम स्थान में कोई ग्रह हो तो, यह देखना होगा कि लग्न, चन्द्र लग्न और सूर्य लग्न इन तीनों में से कौन बली है जो बली हो उस बलवान् भाव से दशम स्थान का स्वामी कौन है तथा वह दशमेश किस नवमांश में है और नवमांश का स्वामी कौन है । उसी स्वामी ग्रह के अनुसार जातक का व्यवसाय होगा ।

अनेक ऋषियों का यह मत है कि उपर्युक्त तीनों स्थानों से ही विचार करना उपयुक्त होगा। मुख्य जीविका तीनों स्थानों में से अधिक बली भाव से दशम स्थान स्थित ग्रह द्वारा अथवा उसके दशमेश के नवमांशपति के अनुसार होगी ; अन्य ग्रहों द्वारा सहायक जीविका का अनुमान करना उचित होगा ।

दशमस्थ ग्रहों के अनुसार व्यवसाय

लग्न, चन्द्रलग्न और सूर्य लग्न इनमें से सबसे अधिक बली से दशमस्थान स्थित ग्रहों के फल इस प्रकार होंगे-

  • सूर्य यदि दशमस्थ हो तो जातक को पैतृक सम्पत्ति अथवा पितृकूल से सम्पत्ति सुगमता से मिल जाती है तथा वह अपने पराक्रम से धन अर्जित करता है । सूर्य दशमस्थ प्रायः उसी का होता है कि जिसका जन्म दोपहर के समय होता है, इसीलिये कहा है कि यदि दिवार्ध (या निशार्ध) के समय ढाई दंड के बीच बालक का जन्म हो तो. वह प्रायः राजा अथवा धनी होता है।
  • चन्द्रमा दशमस्थ हो तो माता द्वारा धन प्राप्त होता है ।
  • मंगल दशमस्थ हो तो शत्रु द्वारा अर्थात् शत्रु पर विजय प्राप्त करके धन मिलता है ।
  • बुध यदि दशमस्थ हो तो मित्र द्वारा धन मिलता है।
  • बृहस्पति यदि दशमस्थ हो तो भाई द्वारा धन लाभ होता है।
  • शुक्र यदि दशमस्थ हो तो किसी स्त्री द्वारा अर्थात् किसी धनाढ्य स्त्री के अनुग्रह से धन मिलता है ।
  • शनि यदि दशमस्थ हो तो सेवक आदि द्वारा धन प्राप्त होता है ।

यदि दशम स्थान में कोई ग्रह न हो तो दशमेश के नवाँशेश से विचार होता है । इस अवस्था में निम्न प्रकार व्यवसाय का अनुमान होगा ।

यदि दशमेश का नवांशेश अथवा दशमस्थ सूर्य हो तो जातक निम्नलिखित व्यवसायों से धन अर्जित करता है—सुगन्धादि द्रव्यों का क्रय-विक्रय; स्वर्णवाणिज्य अथवा स्वर्ण की खान में काम करना, ऊनी वस्त्रों का क्रय-विक्रय करना, औषधि सम्बन्धी व्यवसाय–जैसे डाक्टरी, हकीमी, वैद्यक, कम्पाउन्ड्री, औषधि विक्रेता आदि; जहाज में काम करना, राजा का मंत्री होना, युद्ध विभाग का मुख्य अधिकारी होना, ठेकेदारी, आदि । ऐसा जातक या तो स्वतंत्र व्यवसाय करता है अथवा उसको सरकारी नौकरी मिलती है ।

यदि चन्द्र हो तो जातक खेती से, जलज पदार्थों, मोती मूँगा आदि के क्रय-विक्रय से, वस्त्र आदि की दुकानदारी से धन अर्जित करता है ।

यदि मंगल हो तो, धातुओं का क्रय-विक्रय, अस्त्र-शस्त्र, कल पुर्ज आदि बनाना, ऐसा व्यवसाय जिसमें अग्नि क्रिया की आवश्यकता हो (जैसे आतिशबाजी), इन्जीनियर, ओवरसियर आदि होना, युद्ध विभाग में पुलिस विभाग में काम करना, ऐसा व्यवसाय जिसमें साहस की आवश्यकता हो (जैसे सरकस आदि का तमाशा) फौजदारो अदालत की वकालत, पराये धन को सहसा लूटना आदि ।

यदि बुध हो तो जातक लेखक, कवि, गणितज्ञ, ज्योतिषी, वेद शास्त्रानुसार पुरोहित का व्यवसाय, धर्म सम्बन्धी व्याख्यान देना चित्रकारी, शिल्पकारी का व्यवसाय करता है ।

यदि बृहस्पति हो तो, जातक के व्यवसाय निम्न प्रकार होंगे- इतिहास पुराणादि का पठन-पाठन, धर्मोपदेश, धार्मिक संस्था का निरीक्षण हाईकोर्ट अथवा जज का काम, मुन्सिफ आदि का काम करना, इत्यादि ।

यदि शुक्र हो तो, निम्नलिखित व्यवसाय देखिये – जोहरी का काम, गो.महिषादि का रोजगार, दूध-मक्खन आदि का क्रय-विक्रय हाथी घोड़ा वाहनादि का क्रय-विक्रय, होटल इत्यादि भोजन संस्थाओं का प्रबन्धक. फल पुष्प का क्रय-विक्रय अथवा किसी धनी स्त्री से सम्पर्क |

यदि शनि हो तो जातक को निम्न प्रकार के रोजगारों से लाभ होता है – काष्ठादिका क्रय-विक्रय, मजदूरी अथवा मजदूरों की सरदारी, अथवा शारीरिक परिश्रम से सम्बद्ध कोई काम, फौजदारी अदालत की डिप्टीगिरी, वकालत, मुख्तारी, मनुष्यों को आपस में लड़ाकर अथवा लड़ाई द्वारा स्वार्थ सिद्ध करना ।

यहाँ विचारणीय यह रहता है कि एक ही ग्रह के साथ जो भिन्न भिन्न प्रकार के रोजगार दिये गये हैं उनमें से चुनाव कैसे हो ?

इसका उत्तर यह है कि पहले कुण्डली का ‘स्तर” देखना होगा – जैसा कुण्डली का ‘स्तर” होगा वैसा ही व्यवसाय होगा। जैसे यदि कुण्डली में दरिद्रयोग है, निम्न  “स्तर” की है, और उसमें दशमस्थ अथवा नवांशपति रोजगार कारक ग्रह शनि है तो जातक शनि के अनुसार मजदूरी आदि नीच कक्षा की वृत्ति करेगा । परन्तु यदि कुण्डली में स्तर उत्तम है और रोजगार कारक ग्रह शनि ही है तो वह डिप्टी कलक्टर बैरिस्टर, वकील आदि होगा ।

उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो गया होगा कि किसी भी कुण्डली में दशा, अन्तर्दशा का फल रुपयों की सूरत में कहने से पहले हमें यह देख लेना होगा कि कुण्डली, जिसका परीक्षण किया जा रहा है साधारण “स्तर” की है या किसी “ऊचे” स्तर की.

किसी भी कुण्डली का ‘स्तर” देखने की यह विधि होगी कि हम देखे कि निम्नलिखित शुभ धन दायक योगों में से कितने योग उसे कुण्डली में उपलब्ध होते हैं उक्त योगों की संख्या जितनी जितनी अधिक निकलेगी उतनी-उतनी ही कुण्डली ऊँचे स्तर की होती चली जावेगी । शुभ  धनदायक योग इस प्रकार है ।

* शुक्र का एक अथवा दो लग्नों से द्वादश बैठना ।

* लग्न, दूसरे भाव, नवम भाव तथा एकादश भाव के बलवान् स्वामियों का परस्पर युति अथवा दृष्टि द्वारा संबन्ध होना ।

* पाराशरीय योगों के बाहुल्य का होना – जैसे नवम, दशम के स्वामियों का संबन्ध, चतुर्थ पंचम भाव के स्वामियों का संबन्ध, शुभ सप्तमेश तथा नवमेश का संबन्ध, शुभ सप्तमेश तथा शुभ पंचमेश का संबन्ध आदि ।

* बुरे भावों (तृतीय, षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश) के स्वामियों का अपनी राशियों से बुरे भावों अथवा दूसरे बुरे भावों में बैठना और केवल मात्र बुरे ही ग्रहों द्वारा युक्त अथवा दृष्ट होना।

* उदाहरणार्थ मेष लग्न हो और बुध वृश्चिक राशि का अष्टम स्थान में पड़ा हो और केवल शनि के पाप प्रभाव में हो तो बुध बहुत निर्बल हो जावेगा क्योंकि :-

  • यह अनिष्टदायक अष्टम भाव में है ।
  • यह शत्रु राशि में स्थित है ।
  • यह शनि द्वारा दृष्ट है ।
  • यह तृतीय स्थान से छठे होकर तृतीय स्थान के लिये बुरा है ।
  • यह षष्ठ स्थान से तृतीय होकर षष्ठ के लिए बुरा है । अतः ऐसी स्थिति में बुध की यह निर्बल स्थिति तृतीय तथा षष्ठ प्रदिष्ट भावों की अशुभता को नाश करने के कारण “विपरीत राजयोग” द्वारा उल्टा धनदायक सिद्ध होगी ।

* लग्न के स्वामी, चन्द्र लग्न के स्वामी तथा सूर्य लग्न के स्वामियों का परस्पर युति अथवा दृष्टि द्वारा संबन्धित होना ।

* शुक्र का गुरु से द्वादश बैठ जाना

* चार अथवा चार से अधिक भावों का अपने स्वामियों द्वारा दृष्ट होना ।

* आधियोगों की उपस्थिति अर्थात् लग्न से, सूर्य से अथवा चन्द्र से छठे, सातवें तथा आठवें नैसर्गिक शुभ ग्रहों की स्थिति का होना ।

* कारकाख्ययोग का होना अर्थात् दो अथवा तीन उच्च अथवा स्वक्षेत्री ग्रहों का लग्न आदि से केन्द्र में तथा आपस में केन्द्र में बैठना ।

* सुदर्शन पद्धति में किसी ग्रह का तीनों ही लग्नों से शुभ बन जाना ।

* किसी शुभ ग्रह द्वारा “मूल्य” का पा जाना अर्थात् द्वितीय तथा एकदश स्थान के अधिपति गुरु द्वारा युक्त अथवा दृष्ट होना या द्वितीय तथा एकादश स्थान के स्वामी बुध द्वारा अथवा दोनों द्वारा युक्त अथवा दृष्ट होना । अथवा किसी शुभ ग्रह का सूर्य तथा चन्द्रअधिठिष्त राशि के स्वामी गुरु द्वारा युक्त अथवा दृष्ट होना ।

* सूर्य अथवा चन्द्र का नीच भंग होना ।

* किसी उच्च ग्रह का शुभ स्थान में पड़ना तथा उस स्थान के स्वामी का पुनः उच्च हो जाना । जैसे उच्च का शुक्र सप्तम स्थान में हो और गुरु एकादश में उच्च हो तो ऐसी दशा में शुक्र अधिक धन देता है । तथा भाग्य और धन, जिनका कि शुक्र प्रतिनिधि है, का अधिक फलदायक हो जाना ।

* किसी शुभ भाव में किसी नैसर्गिक शुभ ग्रह का केतु सहित बैठना, उस भाव को चार चान्द लगाता है ।

* शुभ भाव के स्वामी का वक्री होना ।

* यदि उपयुक्त योगों के कारण शुभता कुण्डली में लग्न से भी सूर्य लग्न से भी चन्द्र लग्न से भी आवे तो उसका मूल्य कई गुना हो जाता है.


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