धन हानि योग

धन हानि के अनेक कारण हो सकते हैं । जैसे चोरी से, सन्यास से, अपने ही द्वारा अपव्यय से, राज्यत्याग द्वारा, पुत्र द्वारा व्यय किये जाने पर इत्यादि इत्यादि ।

‘ सन्यास” के लिये, सच्चे सन्यास के लिये, जहाँ घर-गृहस्थी का सुख और भोग्य पदार्थों का त्याग करना पड़ता है वहाँ धन को भी छोड़ना पड़ता है। अतः सन्यासयोग ज्योतिष के अनुसार तब बनता है जब चतुर्थ भाव तथा उसके स्वामी ( घर, जायदाद, मकान, सवारी, सुख सामग्री) पर सूर्य, शनि, राहु, द्वादशेश आदि का त्यागात्मक एवं पृथक्ताजनक प्रभाव पड़ रहा हो।

इसी प्रकार द्वादश स्थान तथा उसके स्वामी पर भी ( जोकि भोगविलास तथा उसकी सामग्री है, वही पृथक्ता जनक (Seperative) प्रभाव होना चाहिये । साथ ही साथ द्वितीय भाव तथा इसके स्वामी (जोकि सचित धन-पदार्थ के प्रतिनिधि हैं) को भी उसी त्यागात्मक अर्थात् पृथक्ता जनक सूर्यादिकों के प्रभाव में होना चाहिए । तब संन्यास योग पूर्ण होता है।

कुछ “सन्यास” के उदाहरण दिये जाते हैं। ताकि सन्यास द्वारा धन की न्यूनता ध्यान में रह सके । उदाहरणार्थ निम्नलिखित कुण्डली सं 1 पूज्य स्वामी रामतीर्थ जी की है।

कुण्डली सं 1

यहां चतुर्थ स्थान पर मंगल की दृष्टि है और केतु की भी । केतु अपनी नवम दृष्टि से सूर्य चन्द्र तथा बुध के तीन प्रभावों को उस स्थान पर डाल रहा है। चतुर्थ पर कोई शुभ दृष्टि नहीं है । चतुर्थेश बुध सूर्य केतु तथा चन्द्र तीन पापी (चन्द्र सूर्य के समीप होने से पापी ही गिना जावेगा) ग्रहों के साथ नाश स्थान को प्राप्त हुआ है और शनि की पूर्ण एवं प्रबल दृष्टि में है।

इसी प्रकार केतु सूर्य चन्द्र बुध शनि इन पांच पापी ग्रहों का प्रभाव धन स्थान पर पड़ रहा है । धनेश जहाँ अपने में राहु-अधिष्ठित राशि का स्वामी होने के कारण राहु का प्रभाव लिये हुए है वहां वह राहु-दृष्ट भी है। इसी प्रकार केतु तथा उस द्वारा पापी ग्रहों की दृष्टि द्वादश पर पड़ रही है । द्वादशेश शनि भी चार पापी प्रभावों में है। गुरु की दृष्टि शनि पर अवश्य है । परन्तु गुरु कितनी देर संन्यास को रोक सकता था जब कि इतने ग्रह उसके विरुद्ध काम कर रहे हों ।

साथ की कुण्डली सं० 2 एक महिला की है जिस द्वारा उसके पति का छोड़ा हुआ ४० लाख रुपया नष्ट हो गया । यहाँ देखिये शनि तृतीय स्थान में होने के कारण तथा अपनी ही राशि कुंभ में होने के कारण कितना बलशाली है । स्पष्ट है कि ऐसे बलवान् शनि की दृष्टि उन सब

कुण्डली सं० 2

वस्तुओं को नष्ट करेगी जिन पर कि यह दृष्टि है । अब शनि की दृष्टि लगभग सब लग्नों पर है । शनि लग्नेश गुरु तथा सूर्य लग्नेश शुक्र दोनों को पूर्ण तृतीय दृष्टि से देख रहा है । चन्द्र इसकी दृष्टि से बच गया है परन्तु चन्द्र राहु की दृष्टि से नहीं बचा क्योंकि वह राहु से पञ्चम है। अतः राहु शनि के प्रभाव को चन्द्र पर डाल रहा है । अतः यदि शनि की महादशा हो और राहु का अंन्तर तो शनि और राहु दोनों अपना समस्त लग्नों पर दृष्टि का अनिष्ट कार्य कर सकते हैं। हुआ भी ऐसे कि शनि की महादशा में राहु के अन्तर में यह ४० लाख की हानि हुई । क्योंकि लग्नें जब पाप प्रभाव में आती हैं तो लग्न दर्शित ‘धन’ की हानि होती ही है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक नैसर्गिक शुभ ग्रह की दशा में दूसरे नैसर्गिक शुभ ग्रह की अन्तर्दशा होती है तो भी धन का नुकसान हो जाता है। ऐसी स्थिति में हमको अधिक गहराई में जाकर नुकसान के कारणों का पता लगाना पड़ता है । उदाहरणार्थ संलग्न कुं० सं० 3 लीजिये । इस व्यक्ति को गुरु की महादशा में शुक्र के अन्तर में नौकरी से हाथ धोने पड़े । इस हानि का क्या कारण था ? कारण शुक्र के आधिपत्य में निहित है ।

कुं० सं० 3

विचार करने पर पता चलेगा कि शुक्र न केवल द्वादशाधिपति ही है अपितु एक ऐसी तुला राशि का स्वामी है जहाँ पर दो पापी ग्रह अर्थात् शनि तथा केतु भी विराजमान हैं। अतः शुक्र अपनी युति द्वारा न केवल द्वादश भाव के नाशात्मक प्रभाव को प्रकट करेगा बल्कि शनि और केतु के पापी प्रभाव को भी गुरु पर डालेगा। जो कि पहले ही सूर्य तथा राहु के पाप मध्यत्व में है ।

अतः बिल्कुल स्पष्ट है कि शुक्र की अर्न्तदशा में गुरु को बहुत हानि उठानी पड़ेगी। गुरु धन कारक, धनाधिपति है ही पुनः पंचमाधिपति होते हुए धन के अतिरिक्त भाग्य (Career) का भी प्रतिनिधि है क्योंकि पंचम भाव नवम से नवम है । अतः धन नाश तथा नौकरी का चला जाना, शुक्र के प्रभाव के फल रूप युक्ति- युक्त ही है ।

रोग भी मनुष्य को जहां डाक्टरों आदि पर व्यय करने पर बाधित करता है वहाँ बहुधा शारीरिक स्वास्थ्य के अभाव में काम धन्धे से भी पृथक् करता है और आय को बहुत कम कर देता है । अतः रोग का समय भी धननाश का समय बहुत स्थितियों में माना जा सकता है ।

उदाहरणार्थ जब एक व्यक्ति की शुक्र की महादशा में शनि की भुक्ति थी तो यह व्यक्ति साढ़े सात मास तक टाइफाइड से रोगग्रस्त रहा। उस समय उसकी आय भी आधी रह गई। चूकि लग्न कर्क है बल्कि सूर्य लग्न भी कर्क है अतः शुक्र और शनि दोनों ही लग्नेश अर्थात चन्द्र के शत्रु तथा रोगदायक हैं । अतः शुक्र की महादशा तथा शनि के अन्तर में रोग तथा धन नाश हुआ ।

ड्यूक आफ विन्डसर (अष्टम एडवरड) ने जब जानबूझ कर तख्तोताज पर लात मारी तो अवश्य कुछ समय के लिए उनको आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।

संलग्न कु० सं० 4 डयूक आफ विन्डसर की दी जा रही है । यहां सिंहासन अथवा राज्यत्याग का कारण राज्यद्योतक तीनों अङ्गों (Factors) पर दशम भाव, दशम भावेश, दशम भाव कारक, शनि का पृथक्ता जनक प्रभाव पड़ रहा है । अतः ड्यूक का राज्य को छोड़ना और वह भी जान-बूझ कर, शनि के डबल लग्नेश होने के कारण छोड़ना ज्योतिष शास्त्र से खूब सिद्ध हो रहा है।

कु० सं० 4

मंगल को ज्योतिष शास्त्र ने ‘चोर’ कहा है । जब यह मंगल षष्ठाधिपति भी हो तब तो विशेष रूप से चोर बन ही जाता है । अतः मिथुन लग्न वालों को अपने मंगल से सावधान रहना चाहिए उनका मंगल यदि लाभ या धन या लग्न को देखेगा तो चोर द्वारा धन की हानि करवा देगा । इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए ही संभवतया ‘दैव करेल’ के रचयिता ने कहा है कि “स्वोच्चांशे तौलिगे भौमे चोरदेष्काणसंयुते’ लग्ने च मिथुने जातः चोरापहृत वित्तवान्”


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