धन प्राप्ति में लग्न का महत्त्व
धन प्राप्ति के सन्दर्भ में ‘लग्न’ का कितना महत्त्व है । इस तथ्य का अनुमान हमको ‘सारावली’ – कार के निम्नलिखत श्लोक द्वारा हो सकता है
:-
“लग्ने तयो विगत शोक विवद्धितानां, कुर्वन्ति जन्म शुभदाः पृथिवीपतीनाम् । पापास्तु रोग भय शोक परिप्लुतानाम् बह्व्याशिनां सकल लोक तिरस्कृतानाम् ॥”
अर्थ-लग्न पर यदि तीन शुभ ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो तो मनुष्य शोकरहित, समृद्धिशाली, राज्य सम्पन्न होता है, इसके विरुद्ध यदि लग्न पर तीन पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य रोग, भय और शोक में डूबा हुआ दूसरों से माँग कर खाने वाला एवं अपमानित जीवन व्यतीत करने वाला होता है ।
1. भाव यह है कि धनी होने के लिए लग्न बलवान् होना चाहिए । लग्न को बल चाहे शुभ दृष्टि द्वारा मिल रहा हो चाहे लग्नेश की प्रबलता के कारण मिल रहा हो या लग्न में ‘शुभ वर्गों’ की उपस्थिति द्वारा मिल रहा हो। अन्त में उपरिलिखित बल के सम्वन्ध में ‘सारावली’ में आया है कि :-
” गणोत्तमे लग्न नवांश कोग्मे निशाकरश्चापि गणोत्तमेऽथवा । चतुग्र है: चन्द्र विर्वाजतैस्तदा निरीक्षितः स्यादधमोद्भवो नृपः ॥ (सारावली ३५-३६)
अर्थ :- – लग्न का नवाँशपति शुभ उत्तम वर्गों में स्थित हो अथवा चन्द्र भी उत्तम वर्गों में (होरा, द्रेष्काण, नदांश, सप्तांश, द्वादशाँश आदि) । स्थित हो; अथवा लग्न को चन्द्र के अतिरिक्त चार ग्रह देखते हों तो अधम कुल में उत्पन्न हुआ भी राज्य को प्राप्त करता है ।
2. उपरोक्त श्लोक में लग्न के साथ-साथ चन्द्र का भी उल्लेख है । यह उपयुक्त ही है । क्योंकि चन्द्र भी लग्न ही समझा जाता है । इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए उत्तरीय भारत में लग्न से ग्रहों की स्थिति देने के साथ-साथ एक ‘चन्द्र कुण्डला’ का निर्माण भी किया जाता है जिसमें चन्द्र को लग्न मान कर ग्रहों की स्थिति को प्रदर्शित किया जाता है ।
अतः यदि कुण्डली में चन्द्र निर्बल होकर पड़ा हो तो समझना चाहिए कि यह भी एक दरिद्रता अथवा अभाव का योग है । यदि मनुष्य राजा भी हो, यदि उसकी कुण्डली में चन्द्र पक्ष बल में क्षीण होकर अर्थात् सूर्य के समीप होकर चार राशि में स्थित होकर षष्ठेश, द्वादशेश, अष्टमेश के नवांश में पड़ा हो और किसी भी शुभ अथवा अशुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट न हो तो चन्द्र की इस दुर्बलता के कारण वह राजा भी दरिद्री हो जायेगा ।
3. कुछ व्यक्तियों का विचार है कि कुंभ लग्न अच्छा नहीं
होता । हम इस विचार से सहमत नहीं हैं। लग्नों का अच्छा-बुरा होना ग्रहों की स्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करता है अतः यह कहना कि कुम्भ लग्न शुभ नहीं एक अतिशयोक्ति है बल्कि भ्रान्ति है ।
जो गुण कुम्भ लग्न वालों के गुरु ग्रह में है वह अन्य किसी लग्न वालों के पास नहीं, क्यों कि कुम्भ लग्न में गुरु धनकारक धनाधिपति तथा लाभाधिपति दो धनदायक भावों का स्वामी हो जाता है, जो अन्यत्र नहीं बनता ।
4. ‘जातकालंकार’ के रचियता का कहना है कि जब मंगल षष्ठ स्थान में स्थित होता है तो ‘विलीयते वित्तम्’ अर्थात् धन का नाश हो जाता है । ग्रंथकार ने सम्भवतया ऐसा मंगल की लग्न पर दृष्टि को सम्मुख रखते हुए कहा है, क्योंकि लग्न से धन का विचार किया जाता है ।
5. ‘जातकालंकार’ के रचयिता के मत में बुध जब लग्न में स्थित होता है तो मनुष्य ‘वैखरी वृत्ति भाजः’ अर्थात् लिख-पढ़कर जीवन निर्वाह करता है । यह मत युक्तियुक्त ही है, क्योंकि लग्न द्वारा मनुष्य का कामधन्धे का बुध से संबन्धित ‘लिखने-पढ़ने’ के रूप में जीवन में आना हेतुयुक्त है ।
6. लग्न तथा चन्द्र लग्नेश का धन से घनिष्ठ सम्बन्ध है इस बात की पुष्टि ‘पुष्कल’ योग से भी होती है। पुष्कल योग एक धन और यश देने वाला योग माना गया है जिस में चन्द्राधिष्ठित राशि के स्वामी का लग्नेश के साथ होकर केन्द्र में बलवान होना अपेक्षित होता है।
7. इसी प्रकार ‘गज केसरी’ योग की शुभता भी इसीलिए है कि गुरु और चन्द्र के योग द्वारा चन्द्र को एक लग्न के रूप में बल मिलता है ।
8. ‘ शकट’ योग में जब कि चन्द्र गुरु से अष्टम होता है, गुरु का प्रभाव चन्द्र पर नहीं पड़ता । यह शकट योग हानिप्रद माना गया है । हानि में जहां गुरु चन्द्र का षडष्टक कारण है वहाँ चन्द्र का एक लग्न के रूप में शुभ दृष्टि-विहीन होना भी कोई कम कारण नहीं ।
9. लग्नेश षष्ठेश-द्वादशेश-अष्टमेश के नवाँश में पड़ा हो और उसको कोई भी शुभ अथवा अशुभ ग्रह न देख रहा हो तो राजकुल में उत्पन्न राजा के ऐश्वर्य को भी नाश करने वाला होता है ‘सारावली’ कार का कहना है जिससे धन के सम्बन्ध में लग्न की महत्ता स्पष्ट होती है ।
10. सुनफा, अनफा, दुरुधरा, लग्नाधियोग, चन्द्राधियोग, आदि-आदि महान् धनदायक योगों की सिद्धि किसी-न-किसी लग्न- प्राबल्य से होती है । अतः धन प्राप्ति में ‘लग्नादि’ का बलवान होना अत्यन्त अपेक्षित है ।
11. उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लग्न का पाप प्रभाव में होना धन के अभाव तथा नाश का सूचक है । अतः यदि विंशोत्तरी दशा में पाराशरीय नियमों के अनुसार किसी पापी ग्रह की दशा अन्तर्दशा हो और उस पापी ग्रह अथवा ग्रहों की लग्न पर दृष्टि अथवा युति हो तो ऐसी दशा की अन्तरदशा में मनुष्य के धन का नाश होता है ।
12. लग्न के स्वामी का लग्न में ही बलवान होकर बैठना चूँकि लग्न को बली बनाता है । अतः यह योग उत्तम योगों में से माना गया है । स्वक्षेत्री लग्नेश जितना-जितना बली होता चला जायेगा उतना उतना मनुष्य का आर्थिक स्तर उठता चला जावेगा ।
‘उत्तर कालामृत’-कार इस सम्बन्ध में कहता है
“लग्नस्यादिम मध्यमन्तिमयुतो लग्नाधिनाथो क्रमात् कुर्यात दण्डपतिं य मण्डलपति ग्राम्याधिपं तच्छिवम् । शुक्रार्येन्दुज वीक्षितश्च सहितश्चेत्सौम्य वर्गे स्थितः स्वोच्चे वाखिल भूमिपालनममु ं भूपाल वन्द्यम् वरम् ॥”
लग्न का स्वामी यदि लग्न में ही प्रथम, मध्यम तथा अन्तिम भाग में स्थित हो तो क्रमशः मनुष्य को ‘दण्डपति’, ‘मण्डलपति’ तथा ‘ग्रामपति’ बना देता है । और यदि वही स्वक्षेत्री लग्नेश शुक्र, गुरु अथवा बुध से युक्त अथवा दृष्ट हो अथवा सौम्य वर्ग में स्थित हो अथवा उच्च वर्ग में स्थित हो तो वह राजाओं का भी राजा होता हैं। इससे भी धन के सन्दर्भ में लग्न की महिमा सिद्ध होती है।
13. चन्द्र चूँकि लग्न की भाँति ही फल देता है अतः जैसा ऊपर कहा है इसकी निर्बलता दरिद्रतासूचक है ‘केमद्रुम ‘ योग इस का उदाहरण है ।
“जब चन्द्र सुनफा अनफा दुरुधरा- अधि आदि योगों से खाली होता है, केन्द्र भाव ग्रहों से वर्जित अर्थात् खाली होते हैं और न ही कोई ग्रह चन्द्र से केन्द्र में होता है और किसी ग्रह की चन्द्र पर दृष्टि नहीं होती तो ‘केमद्रुम’ नाम का दरिद्रतादायक योग बनता है।
इस योग का अनिष्ट फल ‘सारावली’-कार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- “कान्तान्नपान ग्रह वस्त्र सुहृद्विहीनो दारिद्रन्य् दुःखं गद दैन्य मलैरुपेतः ।
द्रष्यः खलः सकल लोक विरुद्धवृत्तिः केमद्रुमे भवति पाथिर्व वंशजोऽपि ॥”
राजकुल में उत्पन्न मनुष्य ही क्यों न हो यदि उसकी कुण्डली में ‘केमद्रुम’ योग है तो उसको स्त्री, अन्न, खान-पान, घर, वस्त्र, बन्धु की प्राप्ति न होगी और वह व्यक्ति नौकर, दुष्ट लोगों के विरुद्ध आचरण वाला होगा ।
14. चन्द्र यदि शुभ ग्रह के साथ हो तो शुभ फल देता है। क्योंकि जैसा कि ऊपर लिखा गया है ‘चन्द्र’ को लग्न माना जाता है। यदि चन्द्र से संयुक्त वह शुभ ग्रह उसी वार का स्वामी हो जिसमें जन्म हुआ है तो चन्द्र और अधिक शुभ फल के देने वाला हो जाता है । ऐसा ‘देवकेरल’-कार का कथन है । निष्कर्ष यह है कि धन की प्राप्ति तथा लग्नों की प्रबलता का घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
लग्नादि का मूल्य बढ़ाने वाले कारक
धन के जतलाने वाले निम्नलिखित ग्रहादि हैं-
(i) लग्न, लग्नेश (ii) सूर्य लग्न, सूर्य लग्नेश (iii) चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नेश (iv) द्वितीयेश (v) एकादशेश (vi) गुरु आदि।
जहां उपरोक्त लग्न आदि भाव तथा ग्रह अपने बलवान् होने की सूरत में धन की प्रचुरता अथवा बाहुल्य को दर्शाते हैं, वहाँ उनकी शुभ दृष्टि भी धन के सन्दर्भ में अपना विशेष महत्त्व रखती है।
गुरु की दृष्टि सदा सर्वदा उस भाव को ‘मूल्यवान’ ‘धनी’ समृद्धिशाली, ‘ऊँची पदवी युक्त’ बनाती है जिस पर कि गुरु की दृष्टि रहती है यह बात तो सबको विदित ही है, परन्तु इस बात का ज्ञान बहुत कम लोगों को है कि द्वितीयेश की शुभ युति अथवा दृष्टि भी ‘मूल्य’ प्रदान करती है। इसी प्रकार यह तथ्य भी कम लोग जानते हैं कि लग्नों के स्वामी भी ‘मूल्य’ के प्रतिनिधि हैं । जहाँ वह स्वयं मूल्यवान् तथ्य है वहाँ वह उन वस्तुओं, व्यक्तियों, गुणों को भी मूल्य प्रदान करते हैं जिनके साथ कि उनका युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध होता है।
15. उदाहरणार्थ कुम्भ लग्न वालों के सप्तम स्थान में सिंह राशि पड़ती है जिसका स्वामी ग्रहों का सरताज राज्यकारक सूर्य स्वयं है । अतः बहुधाकर ऐसे पुरुषों की स्त्री ऊँचे घराने से होती है । यदि कुम्भ लग्न की कुण्डली में सूर्य पर गुरु की दृष्टि हो तो गुरु ‘मूल्य’ का कारक तथा दो धनदायक स्थानों का स्वामी होने के कारण सूर्य को और भी अधिक ‘मूल्य’ प्रदान कर उसे और भी अधिक मूल्यवान अर्थात् और भी अधिक ऊंचे घराने जैसे राजा नवाब, बड़ा जमींदार आदि से सम्बन्धित कर देगी ।
धन-आधिक्य : सादृश्य सिद्धान्त (Principle of Similarity)
दो धनदायक ग्रह परस्पर ‘सम्बन्ध’ द्वारा धन की सृष्टि करते हैं । इस धन की पृष्ठभूमि में ‘सादृश्य’ का सिद्धान्त काम कर रहा है । इसको अंग्रेजी में Principle of Similarity कहते हैं ।
16. जब अष्टमाधिपति लग्न में हो और दोनों पर शुभ दृष्टि हो तो आयु की वृद्धि होती है। कारण कि अष्टमेश तथा लग्न एक ही तथ्य ‘आयु’ के द्योतक हैं ।
जब द्वितीयाधिपति पंचम भाव में बलवान होता है तो मनुष्य में वाणि-शक्ति-उपदेश देने की शक्ति (Oratory) का प्रादुर्भाव होता है, क्योंकि द्वितीय तथा पंचम दोनों भाव वाणी के द्योतक हैं ।
17. इसी प्रकार जब षष्ठाधिपति का तथा लग्नाधिपति का व्यत्यय (Exchange) आदि संबन्ध हो तो ऋण (Debts) की सृष्टि होती है, क्योंकि षष्ठ स्थान ऋण स्थान है और ‘भावात् भावम्’ के सिद्धान्तानुसार छठे से छठा होने के कारण एकादश भाव भी ऋण का द्योतक है। दोनों में संबन्ध सादृश्य के सिद्धान्त को चरितार्थ करता है ।
18. सूर्य भी एक लग्न है अर्थात् किसी भी कुण्डली का फल सूर्य जिस राशि में स्थित हो उसको लग्न मानकर कहा जा सकता है । इसी प्रकार चन्द्र भी एक लग्न है यह सर्वविदित ही है । और लग्न तो लग्न है ही । चूँकि लग्न अन्य पदार्थों के अतिरिक्त ‘धन’ के देने वाला भी है अतः उपरोक्त सिद्धान्तानुसार ‘लग्न’ ‘सूर्य लग्न’ तथा ‘चन्द्र लग्न’ के स्वामी जब एक-दूसरे के साथ दृष्टि आदि द्वारा सम्बन्ध स्थापित करेंगे तो स्पष्ट है कि उसको अधिक धन की प्राप्ति होगी ।
19. इसी ‘सादृश्य’ (similarity) के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए हम देख सकते हैं कि जब लग्नेश, द्वितीयेश, नवमेश तथा एकादशेश में परस्पर सम्बन्ध हो तो अधिक धन की उत्पत्ति अवश्यम्भावी है। इसी संबन्ध को ‘महाधनयोग’ के नाम से ज्योतिष- शास्त्रों में कहा है ।
20. शुक्र एक ‘भोगप्रिय’ ग्रह है । भोग बिना धन के होते नहीं । अतः यदि शुक्र कोई अच्छा ‘भोग’ का योग बनावे तो समझना चाहिए कि धन की प्राप्ति का ही योग है।
उदाहरणार्थ शुक्र यदि वृषभ राशि का सप्तम स्थान में स्थित हो अथवा तुला राशि का द्वादश स्थान में स्थित हो तो यह एक ‘भोग’ योग की सृष्टि करता है । कारण कि शुक्र भोग का ग्रह है । भोग भाव (सप्तम) का स्वामी होकर एक दूसरे भोग भाव (द्वादश) में इसका पड़ जाना भोग ‘सादृश्य’ द्वारा भोग तथा धन की सृष्टि करता है ।
21.यही कारण है कि ज्योतिष आचार्यों ने शुक्र की द्वादश स्थान में स्थिति धन के लिए शुभ मानी है यद्यपि यह पक्का, साधारण (General) नियम है कि ग्रहों की द्वादश भाव में स्थिति उनके लिए हानिकर होती है, स्पष्टतया शुक्र इस नियम का अपवाद है । बल्कि शुक्र यदि द्वादश भाव में द्वादशेश को लेकर बैठ जावे तो और अधिक भोगों और धन की सृष्टि करेगा ।
22. शुक्र को द्वादश भाव से कुछ ऐसा लगाव है कि शुक्र यदि छठे स्थान में भी हो तो भी भोग तथा धन देता है। इसके मूल में कारण शुक्र की द्वादश भाव पर दृष्टि है, जिस दृष्टि द्वारा भोगात्मक ग्रह शुक्र का भोगात्मक द्वादश भाव में दृष्टि सम्बन्ध उत्पन्न होकर सादृश्य के सिद्धान्तानुसार भोग तथा धन की प्राप्ति होती है।
23. जहाँ लग्नाधिपति, धनाधिपति, नवमाधिपति तथा एकादशाधिपति का परस्पर सम्बन्ध ‘महाधन’ योग को उत्पन्न करता है वहाँ धनादि स्थानों के स्वामियों का कुण्डली के ‘योगकारक ग्रह (केन्द्र तथा त्रिकोण के स्वामी ग्रह) से ‘युति’ आदि सम्बन्ध भी प्रचुर धन प्राप्ति का योग बनाता है । क्योंकि धनाधिपति तथा योगकारक में ‘धन दातृत्व’ शक्ति का सादृश्य है ।
24. योगकारक ग्रह सदा सर्वदा धनदायक ग्रह होता है। यह ग्रह यदि धनाधिपति का शत्रु भी हो तो भी जब धनाधिपति से सम्बन्ध स्थापित करता है तो ‘सादृश्य’ (Similarity) के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए धन को बढ़ाने का कार्य करता है।
जैसा कि कुम्भ लग्न के लिये ‘देवकेरल’-कार का कहना है कि यदि लाभ भाव में शुक्र (धनु राशि में) हो और धन भाव में (मीन राशि में) गुरु हो, तो सैकड़ों बुरे योगों के होते हुए भी मनुष्य इस शुभ योग के बल से धनाढ्य, यशस्वी तथा राज्य-पूज्य होता है ।
यहाँ स्वक्षेत्री धनाधिपति स्वयं धनकारक गुरु बनता है जो लाभाधिपति भी है, उस पर ‘योग कारक’ शुक्र का केन्द्रीय प्रभाव धन को और भी अधिक बढ़ाने वाला हो जाता है। क्योंकि गुरु और शुक्र दोनों धन प्रदान करने वाले ग्रह बनते हैं यद्यपि परस्पर शत्रु हैं । इस प्रकार सादृश्य के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए धन आदि सब विषयों में निर्णय करना चाहिए।
0 Comments