शुक्र और धन
शुक्र ग्रह की द्वादश स्थिति भी धन दिलाने में कुछ कम महत्व नहीं रखती । इस महत्व को दृष्टि में रखते हुए इस भोगात्मक (Pleasure Loving) ग्रह के लिये एक स्वतंत्र अध्याय की व्यवस्था की गई है ।
शुक्र यदि द्वादश स्थान में स्थित हो तो यह योग अपने में ही काफी शुभत्व रखता है अर्थात् ‘धन दायक’ योग बनाता है यहां सादृश्य का सिद्धान्त (The principle of similarity) काम करता है । जिसके अनुसार एक भोगात्मक ग्रह (शुक्र) का भोग स्थान (द्वादश) में होना भोग की सृष्टि करता है और भोग बिना प्रचुरपदार्थों के होता नहीं; अतः यह भोगयोग ही धनयोग बन जाता है ।
अतः जिन कुण्डलियों में शुक्र, लग्न से द्वादश स्थान में पड़ा हो, उनके स्वामी बहुधा भोगसामग्री द्वारा जीवन सुविधा से चला लेते हैं अर्थात् यदि अधिक धनी न भी हों तो दरिद्री नहीं होते ।
परन्तु जब यह शुभ ग्रह न केवल लग्न से ही द्वादश हों वल्कि सूर्य से भी द्वादश हों अर्थात जब किसी भी लग्न में सूर्य पड़ा हो और शुक्र कुण्डली के द्वादश स्थान में स्थित हो तो दो लग्नों से द्वादश स्थान में होने के कारण शुक्र दुगना भोगप्रद हो जाता है और यदि लग्न में सूर्य और चन्द्र दोनों पड़ जावें तब तो सोने पर सुहागा है। ऐसी स्थिति में शुक्र अतीव शुभ भोग तथा धन दायक बन जाता है।
सादृश्य के सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट है कि शुक्र की द्वादश स्थान में स्थिति और भी अधिक उपयोगी तथा धन प्रद होगी जब शुक्र का योग न केवल द्वादश स्थान से बल्कि उस भाव के स्वामी से भी हो । अत: जब शुक्र – किसी स्वक्षेत्री ग्रह के साथ होकर द्वादश स्थान में स्थित हो तो बहुत भोगों के देने वाला होगा और मनुष्य को खूब धनी बना देगा ।
शुक्र जब षष्ठ स्थान में होता है तो भी उसकी दृष्टि द्वादश स्थान पर पड़ती है अतः द्वादश भाव तथा शुक्र में संबन्ध स्थापित हो जाता है। ऐसी स्थिति में भी हम ‘सादृश्य’ के सिद्धान्तानुसार कह सकते हैं कि जिस मनुष्य की कुण्डली में शुक्र छठे घर में पड़ा हो उसको काफी भोगों की प्राप्ति होती है । यही कारण है कि ‘भावार्थ रत्नाकर’ के रचयिता के मन में शुक्र की छठे स्थान में स्थिति योग- कारक है अर्थात् शुभफलदायक लाभप्रद है ।
शुक्र की लाभप्रद द्वादश स्थिति का एक और रूप भी है वह यह कि यदि एक ऐसे ग्रह की विशोत्तरी में महादशा चल रही हों जिसके द्वादश स्थान में शुक्र स्थित हो और शुक्र की अर्न्तदशा (भुक्ति हो तो शुक्र अपनी भुक्ति में उस महादशा वाले ग्रह का विशेष फल देगा । जैसे लग्न में सूर्य पड़ा हो और शुक्र द्वादश स्थान में हो, सूर्य की महादशा हो और शुक्र की अन्तर, तो शुक्र अपनी भूक्ति में सूर्य का शुभ फल देगा ।
उपरोक्त नियम का एक अत्युत्तम प्रयोग अथवा उदाहरण वह होगा जब किसी कुण्डली में गुरु से शुक्र, द्वादश स्थान में स्थित हो । स्पष्ट है कि उपरोक्त सिद्धान्तानुसार गुरु की महादशा में शुक्र भक्ति गुरु का शुभ फल करेगी, यद्यपि गुरु और शुक्र परस्पर शत्रु हैं और उनका शुभ फल देना इस साधारण नियम के विरुद्ध है कि भुक्तिनाथ, दशानाथ का शत्रु होकर शुभ फल नहीं देता सच तो यह है कि गुरु से शुक्र के द्वादश होने का शुभ योग प्रायः लखपतियों की कुण्डलियों में देखने को मिलता है। और यदि गुरु लग्नों का स्वामी भी होजावे फिर तो मनुष्य के लखपती होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता।
जैसे मान लीजिये कि सूर्य धनु राशि में है और चन्द्र मीन में, गुरु कही भी है उस गुरु से शुक्र द्वादश में है । ऐसी स्थिति में गुरु साधारण धनदायक नहीं बल्कि सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न दोनों का स्वामी है। ऐसे शुभ गुरु से शुक्र जब द्वादश होगा तो धन को बहुत अधिक मात्रा में विशेष रूप से बढ़ावेगा। गुरु की दशा और शुक्र की युक्ति ऐसी स्थिति में सर्वोत्तम लाखों करोड़ों रुपयों के लाभ को देने वाली होगी।
अतः गुरु से शुक्र द्वादश स्मरण रखने की वस्तु है ।
केतु युक्त शुभ ग्रह का योग
यदि कोई स्वक्षेत्री नैसर्गिक शुभ ग्रह ( शुक्र, गुरु, वुध ) अपनी ही राशि में स्थित हो और केतु भी उस के साथ स्थित हो तो जिस भाव में इन ग्रहों की स्थिति होगी उस भाव सम्बन्धी बातें बहुत ऊँचे, शानदार ढंग से तथा प्रचुर मात्रा में जीवन में देखने को तथा अनुभव करने को मिलती हैं ।
उदाहरण के लिये आप देखिये कुण्डली सं 1 जो कि हिटलर की है। इस कुण्डली में गुरु तृतीय भाव में अपनी ही राशि धनु का होकर बैठा है और केतु भी उसी स्वक्षेत्री गुरु के साथ होकर पड़ा है ।
स्वक्षेत्री शुभ ग्रह गुरु के केतु के साथ होने का फल यह हुआ कि हिटलर को तृतीय स्थान सम्बन्धी (जहाँ कि स्वक्षेत्री शुभ ग्रह केतु सहित स्थित है) गुण असाधारण मात्रा में प्राप्त हुए ।
तृतीय स्थान बाहू का – सशस्त्र सेनाओं का तथा उग्र कार्यों का है । उस की सशस्त्र सेनाओं ने एक बार तो संसार भर को हिलाकर चकित कर दिया था। और उस ने समस्त संसार को लगभग जीत लिया था ।
इसी प्रकार पंडित जवाहरलाल जी की कुण्डली सं. 2 में भी नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु केतु को लेकर छठे स्थान में अपनी राशि धनु में पड़ा है । छठा स्थान शत्रु का होता है । शुभ स्वक्षेत्री गुरु छठे स्थान में बतला रहा है कि इस व्यक्ति को किसी असाधारण शत्रु से पाला पड़े।
ब्रिटिश गवर्नमेन्ट कोई साधारण गवर्नमेन्ट न थी । यह वह सत्ता थी जिस का सार्वभौम राज्य था और जिसके साम्राज्य के किसी न किसी भाग पर सूर्यदेव सदा चमकते रहते थे। जिस ग्रह का इस शत्रुस्थानस्थ स्वक्षेत्री एवं केतुयुक्त ग्रह पर प्रभाव होगा वही प्रबल शत्रु पंडित जी से टक्कर लेगा । यहाँ मंगल की गुरु पर पूर्ण दृष्टि है । अतः मंगल प्रसिद्ध देश अर्थात् इंगलैंड जिस का प्रतिनिधित्व करने वाली मेष राशि है और जिस का कि स्वामी मंगल है पंण्डित जी का शत्रु रहा । परन्तु यह वात नोट करने योग्य है कि इस कुण्डली में मंगल योगकारक भी है अतः उसी मंगल ने उनको राज्य धन भूमि आदि भी सौंपी।
उपर्युक्त सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि जब उदाहरण के लिये शुक्र अपनी तुला राशि में द्वितीय स्थान में केतु सहित स्थित हो तो वह व्यक्ति बहुत धन का स्वामी लाखोंपति (Multimillionaire) होगा क्योंकि नैसर्गिक शुभ ग्रह की स्वक्षेत्री स्थिति केतु का वृद्धि कारक संयोग उस के द्वितीय भाव अर्थात् धन को प्रफुल्लित तथा संबंधित करेगा ।
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