कारकाख्ययोग से धनप्रप्ति
जब कोई ‘स्वक्षेत्री ‘ अथवा ‘उच्च’ ग्रह परस्पर केन्द्र में स्थित होते हैं तो ‘कारकाख्य’ योग को बनाते हैं । और यह ‘कारकाख्य’ और भी बलवान होता है जब कि उक्त ‘उच्च’ आदि ग्रहों की स्थिति लग्न से भी केन्द्र में हो ।
इस ‘कारकाख्य, योग की परिभाषा ‘सारावली’ कार ने इस प्रकार की है.
‘स्वक्षेत्रिकोण तु गस्था यदि केंद्रेषु संस्थिता
अन्योन्दकारकास्ते स्युः केन्द्र ष्वेव हरेर्मतम्
जब ग्रह अपनी राशि, मूलत्रिकोण राशि अथवा उच्च राशि में हो कर दूसरे ग्रह अथवा ग्रहों से केंद्र में होते हैं तो ‘कारक’ कहलाते हैं । परन्तु ‘हरि’ का मत है कि यह कारकयोग तभी बनता है जब ग्रह परस्पर भी केन्द्र में हों तथा लग्न से भी केन्द्र में ।
वाहन (Conveyance) प्राप्ति के योग का उल्लेख करते हुए ‘सर्वार्थ चिन्तामणि’ कार लिखते हैं:-
“लग्नवाहनभाग्येशस्तु अन्योन्य केन्द्रमाश्रितः लग्ननाथेबलाढये वा वाहनाधिपति भवेत्”
अर्थ – यदि किसी कुण्डली में लग्न का स्वामी, भाग्य स्थान का स्वामी, तथा चतुर्थस्थान का स्वामी एक दूसरे से केन्द्र स्थान में स्थित हों तो वाहन की प्राप्ति होती है आदि…
‘यह नोट करने योग्य बात है कि परस्पर केन्द्रों में ग्रहों की स्थिति उनका आपसी मेल अथवा संबन्ध उत्पन्न करती है। दूसरे शब्दों में जब एक ग्रह दूसरे ग्रह से केन्द्र में स्थित होता है तो वे एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं । ऐसा लगता है कि केन्द्र स्थिति द्वारा उत्पन्न इस प्रभाव ही के कारण ‘कारकाख्य’ योग की महत्ता है । क्योंकि जब एक स्वक्षेत्री अथवा उच्च ग्रह पर पुनः उच्चतादि का प्रभाव पड़ेगा तो प्रकट है कि उच्चता में और अधिक उच्चता की वृद्धि होगी ।
आचार्यों का कहना है कि “चन्द्रमाद्दशमे र्भानु र्मातु मरणां करोति पापयुतः”
अर्थ – चन्द्र से यदि सूर्य दशम हो और पाप युक्त हो तो माता का शीघ्र मरण हो जाता है। स्पष्ट है कि चन्द्र पर पाप प्रभाव ही के कारण माता की मृत्यु कही है और यह पाप प्रभाव “केन्द्र” स्थिति द्वारा उत्पन्न हुआ है । अतः ‘कारकाख्य’ योग में उत्कृष्टता का कारण उच्चत्व की केन्द्र स्थिति ही है । इसी उच्चता के लिये ‘कारक योग’ की पाराशर में बहुत प्रशंसा है ।
कहा है ‘शुभं वर्गोत्तमे जन्म, वेशिस्थाने च सद्ग्रहे, अंशून्येषु च केन्द्रषु कारकाव्य ग्रहेषु वर्गात्तम लग्न में जन्म वेशिस्थान (सूर्य से दूसरे स्थान वर्गों में शुभ ग्रहों की स्थिति, केन्द्र स्थानों का ग्रहशून्य न होना और कुण्डली में कारकारख्य योग का होना यह सब शुभ योग हैं ।
रूस के भूतपूर्व प्रधान मन्त्री की कु० सं० 1 में ‘कारक’ योग पूर्ण रूप से विद्यमान है। तीन उच्च ग्रह शनि, मङ्गल तथा सूर्य न केवल एक दूसरे से केन्द्र ( १, ४, ७, १० स्थानों) में पड़ गये हैं बल्कि यह ग्रह लग्न से भी केन्द्र स्थानों में हैं । इसी कारकाख्य योग के प्रभाव से उनमें पदवी की उच्चता पाई गई।
बी. के. कृष्णामेनन भूतपूर्व रक्षा मन्त्री की कुण्डली सं० 2 में भी यह ‘कारकाख्य’ योग विद्यमान है यद्यपि इस योग में ग्रह लग्न से केन्द्र में नहीं अपितु सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न से केन्द्र में है । ग्रहों की उच्चता तथा पारस्परिक केन्द्र स्थिति के फलस्वरूप कुण्डली में उच्चता आई जिस कारण मेनन साहिब केबिनेट के सदस्य बन सके ।
युनिवर्सिटियों के मुख्य एवं वरिष्ठ अधिकारी एवं भूतपूर्व रिजर्व बैंक गवर्नर देशमुख साहब की कुण्डली में भी ‘कारकाख्य’ योग विद्यमान है । उनकी इस कु० सं० 3 में उच्च गुरु तथा उच्च शनि द्वारा ‘कारकाख्य योग बना है ।
यद्यपि इन दो उच्च ग्रहों की स्थिति परस्पर केंद्र में है परन्तु लग्न से केन्द्र में नहीं तो भी इस उच्चता ने देशमुख साहब को ऊंचा उठाने में कुछ कसर नहीं रखी क्योंकि सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न दोनों से ही इन उच्च ग्रहों की स्थिति केन्द्र में है ।
श्री के० के० शाह की निम्न लिखित कु० सं० 4 में भी दो उच्च ग्रह मङ्गल तथा गुरु एक दूसरे से केन्द्र में होकर बैठे हैं उनकी यह स्थिति सूर्य लग्न से केन्द्र में है । अतः महानता का योग बन रहा है ।
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